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प्रज्ञा की परिक्रमा प्राण का जागरण साधना के द्वारा होने लगता है, तो जीवन का रूपान्तरण हो जाता है। शरीर में लाघव आने लगता है। नाना प्रकार की व्याधियों का शमन होने लगता है। साधना का आधार है-शक्ति। शक्ति जागरण में प्राण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राण ही इस शरीर का जीवन, शक्ति संपन्नता एवं समस्त सक्रियता का मूल है। प्राण शक्ति के बिना सभी निस्तेज, रूग्ण और क्रिया शून्य हो जाते हैं। प्राण का प्रस्फोट ही ऊर्ध्वारोहण का कारण बनता है। प्राण ही पौरुष को जागृत करता है। प्राण ही वह शक्ति है जिससे अन्तरंग चैतन्य जागृत करता है। प्राण सूक्ष्म शक्ति है जिसे तेजस् कहा है और यह कुण्डलिनी, शक्ति, ऊर्जा, विद्युत-प्रवाह, नाना संकेतों से पहचानी जाती है। प्राणवान् व्यक्ति ही आत्म विश्वासी, दृढ़ निश्चयी, अच्छी आदतों वाला हंसमुख और सच्चा धार्मिक होता है। प्राणहीन व्यक्ति निराशा, अकर्मण्य, कुण्ठा, कुबुद्धि से ग्रसित प्रभावहीन होता है। नाड़ी शोधन आवश्यक
प्रदूषण के विषाक्त वातावरण से सब वस्तुएं दूषित होती जा रही हैं। वातावरण में शुद्ध वायु की मात्रा अल्प होने से श्वास-प्रश्वास की गति भी शीघ्र होने लगी है। शीघ्र श्वास से स्वभाव जन्य विकृतियां ओर नाना प्रकार की व्याधियां बढ़ती जा रही हैं। व्याधियों के शमन के लिए ऐलोपेथी औषधियों का अधिकाधिक उपयोग होने लगा हैं। ऐलोपेथी औषधियों का नाड़ी एवं शरीर पर जबरदस्त प्रभाव होता है। जो दोष बाहर निकलने के लिए किसी बीमारी के रूप में अभिव्यक्त हो रहा था। औषधि उसे पुनः भीतर धकेल देती है, उसका परिणाम होता है दूसरी बीमारी का उदय। नाड़ी-शोधन प्राणायाम से पूर्व करने की क्रिया है। नाड़ी शोधन होने से नाड़ियों का विष बाहर निकल जाता है। जब तक नाड़ियों में मल रहता है प्राण का प्रवाह सुषुम्ना में नहीं हो सकता। सुषुम्ना में प्राण के प्रवाह के बिना धारणा, ध्यान, समाधि फलित कैसे हो सकती है ? समस्त नाड़ी तंत्र का दोष परिष्कृत होने पर ही प्राणायाम की योग्यता प्राप्त होती है। प्राणायाम से नाड़ियां ही साधना में साधक को अग्रसर करती हैं।
नाड़ी शोधन की अनेक प्रक्रियाएं हैं। दीर्घ-श्वास-प्रेक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण और सरल प्रक्रिया है। दीर्घ, लम्बा, गहरा श्वास लेना, छोड़ना जिसे योग
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