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शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा में पूरक ओर रेचक कहा जाता है। फेफड़ों की श्वास ग्रहण करने की क्षमता लगभग ६ लीटर है। सामान्य श्वास-प्रश्वास में मुश्किल से आधा या एक लीटर श्वास ग्रहण करते हैं और छोड़ते हैं। दीर्घ-श्वास को सम्यक् प्रकार करने के लिए श्वास-प्रश्वास के नाड़ी तंत्र को जानना आवश्यक है।
श्वास का यात्रा पथ श्वसन तंत्र है। श्वसन क्रिया के लिए प्रमुख सात अवयव हैं-(१) नाक के नथुने (२) कंठ (३) स्वर-यंत्र (४) टेंटुआ (५) वायु नलिकाएं (६) फेफड़े (७) महा प्राचीरा पेसी (डायाफ्राम)।
नाक के नथुनों में छोटे-छोटे बाल होते हैं जिन्हें सिलीया कहते हैं। जिससे धूल के कणों को वे अन्दर जाने से रोकते हैं। नाक का यह मार्ग अति घुमावदार है और स्नेहिल है। घुमावदार होने से ठण्डी और गर्म वायु को सम बना देता है। आर्द्रता होने से रूक्ष वायु स्निग्ध बन जाती है, जिससे फेफड़ों में रूक्षता नहीं बढ़ पाती। दूषित कण अथवा किटाणु नाशिका पथ में ही रुक जाते हैं। इसके पास टेंटुआ हवा नली शुरु होती है। गोल नली अन्दर की ओर होती है। इसमें श्लेष्म झिली होती है। जो सूक्ष्म कणों को फेफड़ों में जाने से रोकती है। फेफड़ों में हवा जाने की दो नलिकाएं हैं। एक दाएं फेफड़े में और दूसरी बाएं फेफड़े में आ जाती है। फेफड़ों में अनैच्छिक पेशियों से बने स्पंज के सदृश कोष्ठक होते हैं। जैसे स्पंज लचीला छिद्रमय होता है। गले से नीचे की ओर दो नालिका गुजरती है। एक भोजन की नली ओर दूसरी श्वास की नली। उन दोनों पर ढक्कन रहता है। श्वास अन्दर जाता है तब भोजन की नली बंद हो जाती है। भोजन अन्दर जाता है तब श्वास की नली बन्द हो जाती है। बन्द होने वाला ढक्कन कभी शीघ्रता में पूरा बन्द नहीं होता है तब भोजन अथवा पानी का अंश श्वास की नली में चला जाता है, तत्काल उसे वह छींक, डकार द्वारा बाहर फैंक देता है। श्वास नालिका के ऊपर सन्दुकनुमा स्वर-यंत्र है, जिसके माध्यम से भाषा का उपयोग होता है। स्वर-यंत्र के दोनों ओर नाड़ी तंत्र होता है। जब स्वर-यंत्र द्वारा वायु खींचते हैं इस क्रिया से सहज-श्वास, दीर्घ-श्वास में परिणत होने लगता है। इस स्थान पर चित्त को केन्द्रित करने से श्वास-प्रश्वास बिना किसी कठिनाई के सुगमता से दीर्घ होकर आने जाने लगता है। आते-जाते हुए श्वास पर सजगता से प्रेक्षा करने से फेफड़ों की क्षमता बढ़ने लगती है।
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