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________________ १०१ शक्ति जागरण की प्रक्रिया : श्वास-प्रेक्षा मैंने प्राण को स्वयं देखा है, प्राण समस्त इन्द्रियों का पौषक है, भिन्न-भिन्न नाड़ियों (मार्गों) द्वारा शरीर में दौड़ता है, यही विश्व में शक्ति रूप है, ऊर्जा है। ऊर्जा की मात्रा जिसमें जितनी अधिक होती है, वह अधिक शक्ति संपन्न तेजस्वी होता है। योग में प्राणायाम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिसके द्वारा न केवल शक्ति को विकसित किया जाता है बल्कि मन का संयम कर चेतना का ऊर्ध्वारोहण किया जाता है। प्राणायाम ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जिससे व्यक्ति बल, वीर्य और पराक्रम को उपलब्ध होता है। प्राणायाम जब तक प्रेक्षा के साथ नहीं जुड़ता है तब तक वह मात्र एक भौतिक शक्ति के रूप में रहता है। जिससे शरीर को बलिष्ठ, मन की एकाग्रता से प्राण के चमत्कार दिखाकर जगत् को चकित बनाया जा सकता है, लेकिन इससे आध्यात्मिक विकास कैसे संभव हो सकता है ? आध्यात्मिक विकास का एक सरल उपाय प्रेक्षा है। देखना, अनुभव करना, साक्षात् करना, राग-द्वेष रहित वर्तमान क्षण में उपस्थित रहना। आध्यात्म के विकास की जब चर्चा चलती है, लोग उत्सुक्ता से श्रवण को लालायित रहते हैं। जनता में अध्यात्म के गहन तत्त्वों को समझने की जिज्ञासा उभरी है। अध्यात्म की प्यास ज्यों-ज्यों गहन होती है, व्यक्ति उसके लिए अपने आपको समर्पित करने उत्सुक होने लगता है। यह समर्पण ही व्यक्ति को साधना की ओर प्रेरित करता है। प्राण ही जीवन है। सामान्य सा दिखाई देने वाला यह तत्त्व समस्त विश्व का आधार है। प्राण बिना कोई तत्त्व नहीं है। प्राण ही हर प्राणी को जीवित बनाता है। प्राण विहीन व्यक्ति आलसी, अकर्मण्य, निराश और शक्ति विहीन बन जाता है। प्राण ही स्फूर्ति, सक्रियता, उत्साह और शक्तिवान बनाता है। प्राणवान् ही साधना के क्षेत्र में विकास कर सकता है। प्राण को पुष्ट एवं संवर्धन करने के लिए प्राणायाम परम आवश्यक है। प्राणायाम से नवीन प्राण को शरीर एवं नाड़ियां अच्छी तरह से पचा लेती है। पचा हुआ प्राण, आंख, हाथ, पांव, मुख और मस्तक आदि विभिन्न अवयवों से बाहर विकीर्ण होता है। अधरोत्तर प्राणायाम प्राण-साधना का एक उत्कृष्ट प्रयोग है, जिसमें सम्पूर्ण शरीर के एक-एक रोम से प्राण को ग्रहण कर चैतन्य को अनावृत किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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