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प्रज्ञा की परिक्रमा जाए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। स्वतंत्रता वैयक्तिक ऐश्वर्य है। हर व्यक्ति का अपना निजी पथ है। किसी भी व्यवस्था में जब तक व्यक्ति की स्वतंत्रता को हनन करने का प्रयत्न नहीं किया जाता तब तक उस व्यवस्था का सामूहिक रूप से बहिष्कार नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता की बदलती दिशा ___स्वतंत्रता वैयक्तिक होते हुए भी समाज से जुड़ी हुई है। कुछ व्यवस्थाओं में समाज को ही महत्त्व दिया गया है। व्यक्ति समाज रूपी मशीन का पूर्जा मात्र है। समाज की व्यवस्था को ठीक बनाने से व्यक्ति स्वतः ठीक हो जाता है। साम्यवादी परम्परा में शिक्षा, चिकित्सा, भोजन और वस्त्र आदि की समुचित व्यवस्था का सामान्यकरण किया गया है। हर व्यक्ति को भोजन, वस्त्र, शिक्षा
और चिकित्सा मिले, इसके लिए वह अपने प्रावधानों में इसकी समुचित व्यवस्था करता है। मनुष्य केवल यंत्र नहीं। एक स्वतंत्र चैतन्य है, जो उसके अन्तर् में प्रज्वलित हो रहा है, यद्यपि व्यक्ति की बुद्धि को समाज ने प्रशिक्षण देकर इस प्रकार निर्मित कर दिया है कि व्यक्ति का चिन्तन सामाजिक बन गया है। समाज के इस अनुचिंतन के बावजूद भी व्यक्ति आखिर व्यक्ति ही रहता है। उसने अपने निजी व्यक्तित्व को विकसित करने पर ही ध्यान दिया है। आज मनुष्य ऐसे किनारे पर खड़ा है कि जहां एक ओर निजी इच्छा है तो दूसरी ओर समाज की सामूहिक व्यवस्था । व्यवस्था आखिर व्यवस्था होती है। उसमें व्यक्ति की विवशता जड़ी होती है। आज व्यक्ति कितना ही व्यक्ति रहे उसे समाज का सहयोग लेना ही होता है। जहां दूसरे से कुछ लिया जाएगा तो उसका मूल्य चुकाना ही होगा। इसमें व्यक्ति का शोषण हुए बिना नहीं रह सकता। शोषण जहां होता है वहां प्रतिक्रिया हुए बिना नहीं रह सकती। प्रतिक्रिया में प्रतिरोध और फिर हिंसा का सिलसिला चालू हो जाता है। इसलिए नई पीढ़ी समाज का अंग बनने से इंकार कर रही है क्योंकि स्वीकृति के साथ समाज की व्यवस्थाओं को स्वीकार करना होता है, वह स्वतंत्र चिन्तन के लिए दीवाल बन खड़ी हो जाती है। नया चिन्तन और विकास संघर्ष की भूमि पर ही खड़ा होता है। व्यक्ति और स्वानुशासन
व्यक्ति समाज की व्यवस्था को मानना न चाहे तो उसे मनमाने ढंग से तो जीने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है इससे अराजकता और
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