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________________ ११६ प्रज्ञा की परिक्रमा अनुप्रेक्षा से स्वभाव परिवर्तन ___ अनुप्रेक्षा भाव परिवर्तन का सफल प्रयोग है। भाव प्रगाढ़ता भी अनुचिन्तन से ही होती है। 'अनुरागात् विरागः' अनुराग से विराग होता है। 'विषस्य विषमौषधम्' विष की औषध विष है। दवा की अनेक बोतलों पर लिखा होता है-'पॉयजन' । क्या दवा रोग को मिटाने के लिए है ? क्या विष रोग को मिटाता है ? विष का बढ़ना ही रोग है। प्राकृतिक चिकित्सक यही कह रहे हैं। विष का ठहराव ही रोग है। विष का निरसन ही रोग को दूर करता है। विष दूसरे प्रकार के विष को शमित भी कर सकता है। उसकी मात्रा को बढ़ा-घटा कर विष को शमन किया जा सकता है। अनुचिन्तन से भी भाव परिष्कृत और विकृत होते हैं। विकृति का परिष्कार हो, विष निर्विष बनें, राग वीतरागता में बदले। अनुप्रेक्षा से विकृति, विष, राग का निरसन कर भाव को रूपान्तरित किया जाता है। रूपान्तरण ही स्वभाव परिवर्तन है। परिवर्तन के लिए अनुप्रेक्षा भय की विभिन्न घटनाओं से व्यक्ति का चित्त प्रभावित होता है। प्रभाव इतना शक्तिशाली बन जाता है कि व्यक्ति अनचाहे उससे प्रभावित हो जाता है। भय के अनेक कारण हैं-जन्म, जीवन, रोग, जरा, मृत्यु | भय के कारणों की एक लम्बी सूची बन सकती है। भय उत्पन्न होने के सहस्रों कारण हो सकते हैं, उनके निरसन का एक उपाय है, अभय की अनुप्रेक्षा। अभय की अनुप्रेक्षा कायोत्सर्ग में शरीर को स्थिर, शिथिल होने का निर्देश दिया जाता है। शरीर के एक-एक अवयव को शिथिलता का सुझाव देकर शिथिलता का अनुभव किया जाता है। पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक प्रत्येक अवयव को शिथिल कर अभय की अनुप्रेक्षा का अभ्यास सरलता से किया जा सकता है। शरीर की स्थिति शिथिल हो जाती है, तब श्वास-प्रश्वास को शान्त और मन्द किया जाता है। मन्द-श्वास जब अन्दर जाता है तो उस समय यह भाव करना होता है कि हरे रंग के परमाणु श्वास के साथ फेफड़ों में फैलते जा रहे हैं। शरीर, श्वास, मन की स्थिर स्थिति में अभय की अनुप्रेक्षा की जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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