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________________ ११६ स्वभाव परिवर्तन के प्रयोग प्राण ऊर्जा को जागृत करने का पहला प्रयोग है-प्राणायाम। श्वास-प्रश्वास से केवल जीवन ही नहीं चलता, प्राण का भी उत्पादन होता है। प्राणायाम से प्राण-ऊर्जा को उत्पन्न किया जा सकता है। प्राण-प्रयोग की प्रक्रिया से भी प्राण ऊर्जा को बढ़ाया जा सकता है। आतापना के द्वारा भी प्राण ऊर्जा बढ़ती है। ध्यान के द्वारा भी ऊर्जा को विकसित किया जाता है। पन्द्रह मिनट का अनुलोम-विलोम प्राणायाम ऊर्जा की आवश्यकता को पूरी कर देता है। अन्य उपायों द्वारा भी प्राण ऊर्जा को विकसित किया जा सकता है। प्राण ऊर्जा के विकसित होने से स्वयं के भाव को रूपान्तरित किया जा सकता है। किसी आदत अथवा व्यसन से मुक्त होने के लिए प्राण के प्रवाह को उनके केन्द्रों की ओर प्रवाहित कर मुक्ति प्रदान करता है। प्राण ऊर्जा से दूसरों के भावों को रूपान्तरित किया जा सकता है। हमारे शरीर में प्राण के ग्रहण और निष्कासन के केन्द्र हैं, हाथ ओर पांवों की अंगुलियों से प्राण ऊर्जा बहती है। चैतन्य केन्द्रों से भी ऊर्जा को दूसरों को प्रदान किया जा सकता है। प्राण को चक्षुओं के माध्यम से भी दूसरों तक पहुंचाया जाता है। प्राण और भाव दोनों मिलकर नवीन सृष्टि का सृजन कर सकते हैं। दूसरे व्यक्ति के स्वभाव और आदतों में परिवर्तन करने के लिए प्राणयुक्त भाव का उपयोग किया जाता है। दूसरे के स्वभाव और आदतों के परिवर्तन के लिए अपने आपको तैयार करना होता है। इसका तात्पर्य है कि जो व्यक्ति भाव परिवर्तन के लिए प्रयोग कर रहा है, उसे प्रारम्भ में तीन मिनट दीर्घ-श्वास का अभ्यास करना होता है। प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में मैत्री भाव को पुष्ट बनाते हुए प्रयुक्त के साथ मैत्रीभाव स्थापित करना होता है। वह प्रयुक्त की ओर प्राणधारा बहती हुई अनुभव करता है। प्राणधारा से प्रयुक्त प्रभावित हो रहा । प्रयुक्त को लिटाकर (कायोत्सर्ग में) हाथों की अंगुलियों को आगे से थोड़ा मोड़ कर यह भाव करें कि अंगुलियों से प्राणधाराएं बरस रही हैं। प्रयुक्त को भी निर्देश दें कि वह अनुभव करे कि प्राणधारा बरस रही है। उससे मेरे स्वभाव में परिवर्तन हो रहा है। मैं शान्त हो रहा हूं। मेरे भीतर शान्ति का सागर लहराने लगा है। इस प्रकार अन्य भावों को भी शब्दों में बांधकर प्रयोग किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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