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________________ 3४ प्रज्ञा की परिक्रमा ___'पगली ! ये सांप थोड़े हैं। उबलती हुई चाय की भाप है।' मौसी ने चाय का गिलास उसके सम्मुख रखा और चीख पड़ी। मैं यह चाय नहीं पीऊंगी मैं यह चाय नहीं पीऊंगी।' मम्मी ने बहुत समझाया, किन्तु अन्त में हार कर उसको वह चाय का गिलास नाली में डालना ही पड़ा। चाय का ही सवाल नहीं था, मौसी जब भी सब्जी अथवा परावठे बनाती, अरुणा को उन सब में विष ही मिला दिखाई देता। ज्वर के बाद उसका सारा चित्त और व्यवहार ही बदल गया। जो अरूणा स्नेह से भरी और मधुर मुस्कान से सबके साथ व्यवहार करती थी, अब वह सबको काटने आती। बच्चे उसके निकट जाते ही घबराते। उनको वह चाहे जब डांटती रहती। वह अपने डैडी के प्रति इतनी सावधान हो गई है, बार-बार उन्हें सजग करती रहती है-'मौसी आपको और मुझे कुछ करना चाहती है। मम्मी तो बड़ी होशियार है, उसकी चालबाजियों में नहीं आयेगी। मम्मी ! पिताजी को खाना मैं बना के दूंगी। देखना, मौसी के हाथ का खाना उसको मत देना। वह बड़बड़ाती रसोईघर में चली गई। उसने बर्तनों को साफ कर खाना बनाया। जब भी उसके डैडी बाहर जाते, तब वह उनकों बहुत तरह की हिदायतें देती और सावधान करती। उसके उस व्यवहार से सभी तंग आ गये, किन्तु करें तो करें भी क्या ? वह बुरी तरह चीख उठती। घर के पूरे वातावरण में एक मायूसी छाने लगी। __ मौसी को मम्मी खूब समझाती। इस पर जो पागलपन सवार हुआ है, इसको किस प्रकार से हटाया जाए। जो-जो प्रयत्न किया गया, उसका उल्टा ही परिणाम आया। प्रत्युत्त वह मौसी के प्रति और ज्यादा घृणा और रोष से भर गई अब मौसी के लिए इस घर में रहना असह्य हो गया और अन्त में उनको अपने घर जाने का निर्णय लेना पड़ा। टिकट आ गई थी ओर स्टेशन जाने के लिए सब कुछ तैयारी हो चुकी थी। ज्योंही कार रवाना होने वाली थी, अरुणा ने जिद्द प्रारम्भ की कि मैं इसे गाड़ी पर छोड़कर आऊंगी। उसके मन में रह, रहकर आ रही थी, कहीं मेरे डैडी को मौसी साथ न ले जाये और कहीं मौसी आस-पास में छिपकर न रह जाए। वह स्टेशन गई और जब तक गाड़ी रवाना न हुई, तब तक एकटक देखती रही और डैडी को अपने पास कार में बिठा लिया। गाड़ी वहां से रवाना हो गई, फिर भी उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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