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सुधार की आकांक्षा
हम भी कैसे पागल हैं, दुनिया को बदलने में लगे हैं। स्वयं के अतिरिक्त सब कुछ बदल देना चाहते हैं। संसार का प्रत्येक व्यक्ति पवित्र बन जाए। आदमी देवता बन जाए। परमात्मा बन जाए। शब्द का आलाप शाब्दिक ही रह जाता है, जीवन का रूपान्तरण नहीं होता। रूपान्तरण साधना से फलित होता है। उपदेश से नहीं । अन्धेरा बात से नहीं, प्रकाश से मिटता है। बदलाहट का सूत्र दूसरों के लिए नहीं, प्रयोग के लिए है। प्रयोग ही परिणाम लाता है। प्रयोग की प्रक्रियाओं से जीवन बदलता है किन्तु कोई जीवन बदलना नहीं चाहता, केवल बदलने की चर्चा करता है। ऊपर के मुखौटे, मुखौटे ही होते हैं, उससे वृत्तियां नहीं बदलती। वृत्तियों को बदलने के लिए स्वयं को बदलने के लिए स्वयं को बदलना होता है। स्वयं को बदलने के लिए स्वयं को जानना आवश्यक होता है। स्वयं को जानने की प्रक्रिया ही प्रेक्षा' है। प्रेक्षा का सूत्र है 'संपिक्खए अप्पगमप्पएण' स्वयं से स्वयं को देखें । अपने से अपने को देखें। आत्मा से आत्मा को देखें। बड़ा विचित्र लगता है, यह कैसे संभव है ? स्वयं से स्वयं को, अपने से अपने रूपांतरण को, आत्मा से आत्मा को देखो। स्वयं के अस्तित्व का बोध हो, तभी अगले चरण के उठने की संभावना हो सकती है। जब स्वयं के अस्वित्व या स्वयं के बोध का अनुभव न हो, तब कैसे आशा करें आत्मा से आत्मा को देखने की, स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की, अपने से अपने को जानने की ? ।
आत्मा को देखने की, स्वयं को बदलने की, अपने आप को रूपान्तरित करने की घटना के लिए सबसे पहले खोजना होगा कि हम अपने आपको कैसे विस्मृत करते हैं ? किस कारण से मूर्छित होकर विमूढ़ बनते हैं ? अपने आपकी विस्मृति को एक शब्द में अज्ञान या अविद्या कहा जा सकता है। अविद्या मूर्छा से ही फलित होती है। मूर्छा को परिपुष्ट करने वाले हैं-राग और द्वेष के विभिन्न परिणमन। राग-द्वेष का यह परिणमन चेतना में वस्तु एवं घटना के प्रति प्रिय-अप्रिय भाव से उत्पन्न होता है। वस्तु और घटना से जब चैतन्य
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