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शांति की खोज किया जाता है। भावना की पुनः-पुनः अवधारणा से मन पुष्ट बनता है मन की पुष्टी से विचार की लयता बनती है। विचार की लयता से मन शक्तिशाली होता है।
भावना द्वारा मन प्रभावित होता है। उसे जिस दिशा की ओर गति देनी होती है उसी ओर उसको भावित किया जाता है। विभिन्न विषयों की आसक्ति में डूबे मन का कारण असद् भावना ही है। मन अन्तर् कषायों से भावित होता है। उसके अनुरूप अपने भाव को ढाल देता है। मन से कोई कब तक कैसे लड़े ? मन का मन से लड़ना या उसे मारने की बात कैसे हो सकती है ? वह मनोवर्गणाओं के परमाणुओं से निर्मित होता है जिससे हम मनन, चिन्तन करते हैं; परिणमन से ये स्थूल बन जाती हैं जिसे विशेष कैमरों से चित्रित एवं अंकित किया जा सकता है। ____ भावना की तरंगें मन से सूक्ष्म होती हैं। मन की तरंगें वाक् और काया को प्रभावित करती हैं। उन सब को प्रभावित करने वाली भावना ही योग है। भावना लेश्या, अध्यवसाय, कर्म परिणाम आदि विभिन्न अवस्थायें हैं । भावना लेश्या से प्रभावित होती है। लेश्या अध्यवसाय से, अध्यवसाय कर्मपरिपाक से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार यह चक्र संचालित होता है। मन को मारे नहीं उबारे अर्थात् समझें .
मन को मारने की चर्चा कुछ लोग करते हैं किन्तु मन को मारने की बात के साथ यह चिन्तन आवश्यक होगा कि मन मारा कैसे जाए? मन कोई पशु या प्राणी नहीं जिसे मार दिया जाए। मन केवल भौतिक भी नहीं जिसे जलाया जाए या नष्ट किया जाए। मन की निंदा, विभिन्न ग्रन्थों में भरपूर है। हजारों-हजारों लोगों ने मन को लंपट, चोर, शैतान कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी । क्या मन दुष्ट, शैतान ही है या अशुभ ही है? कहीं उसमें शुभ संकल्प भी उत्पन्न होते हैं ? मन में जो अशुभ संकल्प उठते हैं। क्या मन ही उसका कारण है या उसको प्रभावित, प्रेरित करने वाले दूसरे कारण भी हैं ? इसकी मीमांसा करने पर कुछ और तथ्य सम्मुख आते हैं। मन में उठने वाली तरंगें केवल अशुभ ही नहीं होती, शुभ भी होती हैं अशुभ तरंगें वाक्, शरीर को प्रभावित करती हैं। तब शुभ तरंगें क्यों नहीं प्रभावित करेंगी। __ अशुभ और शुभ मन के बनने में योग, लेश्या, अध्यवसाय एवं कर्म परिणाम से प्रेरणा मिलती है। जीवन-चक्र को संचालित करने में किसी एक की ही
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