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प्रज्ञा की परिक्रमा क्षमता नहीं होती। शुभ, अशुभ दोनों की अपेक्षा होती है। संयोग से मन भी शुभ और अशुभ बनता है। कर्म संस्कारों के साथ उसको व्यवस्था भी प्रभावित करती है। अशुभ मन को शुभ बनाने के लिए, मन को अमन बनाने के लिए पिछले कारणों की खोज आवश्यक है। मन तो उनके द्वारा भेजी गई तरंगों का वाहक मात्र है। वीतराग (अर्हत्) के मन में होता है, किन्तु वे उसका उपयोग सामान्यतः नहीं करते। वे आत्म-प्रदेशों से ही वस्तु का साक्षात् कर लेते हैं। चेतना के प्रदेश पारदर्शी बन जाते हैं। अतः यहां मन की अपेक्षा नहीं रहती। मन को मारने, दबाने की बात ही मन की है। वह भी मन का भाग है। मन की यह तरकीब है। तुम करो, विचारो, सोचो, पक्ष में, विपक्ष में अपने आपको जीवित रखने की यह अन्तिम तरकीब है। मन अमन नहीं होना चाहता। मन अन्तिम क्षण तक स्मृति, चिन्तन, कल्पना चाहे वह संसार की हो अथवा मोक्ष की, आत्मा की, परमात्मा की, दुःख की या सुख की इससे कोई अन्तर नहीं आता। मन का विलय कैसे हो ? अमन कैसे हो ?
मन का विलय, अमन, बड़ा टेढ़ा लगता है किन्तु यह इतना टेढ़ा नहीं है जितना इसको टेढ़ा जाना गया है। विकासशील प्राणी की एक उपलब्धि मन है। मन मनुष्य के बन्धन का ही कारण नहीं, अपितु वह बन्धन विमुक्ति का भी पथ प्रशस्त करता है। अशुभ मन अशुभ बन्धन में ले जाता है। दूसरी ओर शुभ मन कर्म निर्जरा के साथ शुभ कर्म का बन्धन भी करवाता है। अशुभ एवं शुभ से आगे बढ़कर जहां मन का विलय होता है; वह किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता अपितु कर्म का निरोध (संयम) हो जाता है। कर्म का निरोध ही विशुद्ध अवस्था है। जैन-पारिभाषिक शब्द संवर है। संवर के कई स्तर हैं जिसमें मन का संयम होता है। वह मनोगुप्ति या मन का संवर है। मन की तीन अवस्था-स्मृति, चिन्तन और कल्पना से आगे केवल अस्तित्व का अवबोध अमन है।
निर्विचार का एक अर्थ अमन है। निर्विचार में केवल विचार का निषेध है। जब की अमन में विचार, स्मृति और कल्पना तीनों का निषेध है। इस निषेध का तात्पर्य यह कभी भी नहीं है कि अमन का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। अमन, विचार, कल्पना और स्मृति से पार केवल ज्ञानात्मक अस्तित्व है। जिसको उपलब्ध होने का मार्ग प्रेषा है।
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