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प्रेक्षा-ध्यान-मनोविज्ञान
८५ विचार प्रेक्षा क्यों ? वह एक नये विचार को जन्म देता है। जिसकी संगति का कभी विनाश नहीं होता। निर्विचार की यात्रा के लिए कोई भी विचार अथवा भाव काम नहीं आ सकता। विचार और भावों से उनका परिष्कार किया जा सकता है; लेकिन सर्वथा विलय अथवा निर्विचारता का एक ही मार्ग है प्रेक्षा का अभ्यास।
'प्रेक्षा-ध्यान दर्शन का हृदय है। उसके बिना सत्य का साक्षात् नहीं किया जा सकता, प्रेक्षा अनुभव की प्रक्रिया है। प्रेक्षा किसी को शुभ, अशुभ नहीं बनाती। शुभ, अशुभ सापेक्ष शब्द हैं सापेक्षता का निर्माण मन ही करता है। प्रियता अप्रियता, लाभ, अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा, प्रशंसा ये सब मन से
आधारित है। शान्ति का प्रश्न केवल मन से ही संचालित नहीं है। मन के पीछे काम, क्रोध, भयादि वृत्तियों की विशाल सेना शान्ति को पराजित कर अशान्ति फैलाने के लिए उत्सुक है। अशान्ति की कैसी ही चरम परिस्थिति हो जाए फिर भी शान्ति का एक बिन्दु सदैव जागृत रहता है। ऐसा न हो तो शान्ति, अशान्ति का विभेद किया ही नहीं जा सकता। शान्ति का आधार सम्यक् दर्शन __प्रेक्षा से यदि कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होती है तो वह है सम्यग्-दर्शन (यथार्थ दृष्टि) जो है उसके स्वरूप का यथार्थ अनुभव प्रेक्षा से ही किया जा सकता है। प्रेक्षा कल्पना और आरोप से वस्तु और घटना को मुक्त कर यथार्थ दृष्टि को उपलब्ध करवाता है। अयथार्थ दृष्टि विभ्रम पैदा कर क्लेश का कारण बनता है। वस्तु और घटना में कोई सुख-दुःख, प्रियता ओर अप्रियता नहीं होती। सुख व दुःख, प्रियता और अप्रियता मन के कोण से पैदा होते हैं। मन का कोण सम्यग् बन जाता है तो कोई कारण नहीं उसमें द्वन्द्व उत्पन्न
हो।
___ मन की शान्ति से पूर्व अशान्ति के कारणों पर ध्यान देते हैं तो मिथ्यादृष्टि (अविद्या) ही सर्वप्रथम दृष्टि गोचर होती है। उससे आगे चलते हैं तो दूसरा कारण है आकांक्षा । इच्छा मन को अशान्त और चंचल बनाती है। चंचलता का एक और कारण है प्रमाद । प्रमाद है यथार्थ की अस्वीकृति जिसमें जो नहीं है उसमें उसकी स्वीकृति । इन्द्रिय और पदार्थ के संयोग में सुख, स्वाद भोगने की प्रवृत्ति, कषाय ही मन के पीछे रह कर प्रियता-अप्रियता का रस घोलता है। मन की प्रवृत्ति इनके साथ जुड़कर अपने आरोप, प्रत्यारोप के
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