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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा को सिखाएं । महावीर उसके आग्रह और अनुरोध से पिघले । उन्होंने इस तैजस् लब्धि का प्रशिक्षण दिया। गोशालक ने उड़द का स्वरूप भोजन खुली धूप में प्राण एवं तैजस् को जागृत करने का उपक्रम प्रारम्भ किया। समय की पूर्ति से तेजोलब्धि प्रकट हुईं । गोशालक प्रफुल्लित हो उठा। एक समय आया, गोशालक भगवान् का विद्वेषी बन गया। महावीर का अपलाप करने लगा। गुस्से में आकर यत्र-तत्र महावीर के सम्बन्ध में लोगों के सम्मुख निन्दा करने लगा। उसकी इस वृत्ति को देख महावीर ने अपने शिष्य परिवार से कहाआज कोई गोशालक से चर्चा न करें, बात-चीत न करें। वह उन्मत्त और क्रोधित हो गया है। गोशालक महावीर के सामने आया और कहने लगा-महावीर तुम इन्द्रजालिक हो । पहले कैसी साधना करते थे। आज केवल सुख-सुविधावादी हो गए हो। मेरे संबंध में किसी से कुछ कहा तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा। महावीर पर तेजस्लब्धि का प्रयोग गोशालक अपने आपको तीर्थंकर कहने लगा। लेकिन उसे कमजोरियां ज्ञात थीं। महावीर के साथ पूर्व संबंधों को वह जनता तक पहुंचने देना नहीं चाहता था। इससे उसे अपने तीर्थंकरत्व की प्रतिमा धूमिल दिखाई देती थी। वह दो टूक निर्णय करना चाहता था कि कोई मुझे यह न कहे कि मैं कभी महावीर का शिष्य था। महावीर की सभा में आकर उसने स्पष्ट रूप से उद्घोषित किया-मैं भगवान् का शिष्य नहीं हूं। जो शिष्य था, वह मर चुका है। मैं सात शरीर प्रवेश कर चुका हूं| भगवान् महावीर ने कहा-गोशालक ! तू वहीं मंखलीपुत्र गोशालक है, जिसको मैंने शिक्षित और दीक्षित किया। गोशालक इस बात को सुनकर क्रोध से तमतमा उठा और कहा-आज तुम्हारा मेरे हाथों अप्रिय होने वाला है। मैं तुम्हें नष्ट और विनष्ट कर दूंगा। __ गोशालक की यह बात सुनकर पूर्वदेशीय शिष्य सर्वानुभूति उठा ओर गोशालक के पास जाकर बोला-तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए, जिससे एक भी पद सीखते है। उनके प्रति विनम्र रहना सामान्य मनुष्य का कर्तव्य है। तुम्हें इस प्रकार के अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। गोशालक उसकी बात से उत्तेजित हो उठा और तेजोलब्धि का प्रयोग कर सर्वानुभूति को भगवान् के समक्ष ही भस्म कर दिया। सर्वानुभूति को भस्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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