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मन के सांप जो ध्यान से भागे प्रविष्ट होते ही अपने भय के संकारों को देख वह स्तब्ध-सी रह गई। उसके होंठ बड़बड़ाने लगे। मौसी के प्रति सोई घृणा विभिन्न शब्दों में प्रगट होने लगी। ध्यान के समय प्रज्ञा को समता में रख वह अप्रमत्त हो गई। सम्पूर्ण अन्तर्-चित्त घटना के प्रति द्रष्टा बन गयी। जागरूकता से लगातार तीन दिन ध्यान के पश्चात् उसका मन सांप की भय ग्रन्थियों से मुक्त हो गया।
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