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________________ ५६ प्रज्ञा की परिक्रमा का अनुबन्ध व्यक्ति को भटकाता है। इसलिए मन, वाक् और काया का संयम (गुप्ति) आवश्यक है। मन, वचन, काया की गुप्ति से व्यक्ति निर्बन्ध बनता है। जब नवीन कर्म का आकर्षण नहीं होता है बन्धे हुए कर्म स्वयं फल देकर विलीन हो जाते हैं या सत् प्रवृत्ति के द्वारा कर्म संस्कारों की निर्जरा की जा सकती है। प्रज्ञा को अनावृत करने के लिए विविध प्रयोगों की अपेक्षा है। प्रज्ञा के अनावरण के लिए सबसे पहली घटना सम्यग्दर्शन है। सम्यग् - दर्शन से सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है, वह व्यक्ति की दिशा को स्पष्ट करती है। दिशा की स्पष्टता ही व्यक्ति को साधना के लिए गतिशील बनाती है प्रज्ञा और प्रेक्षा प्रज्ञा कैसे अनावृत हो | क्या है अनावरण की प्रक्रिया जिससे व्यक्ति प्रज्ञा को प्रगट कर सके। प्रज्ञा जागरण के लिए प्रेक्षा का अभ्यास आवश्यक है। प्रेक्षा की प्रविधियां प्रज्ञा को प्रगट करने की प्रक्रियाएं हैं । शरीर, श्वास, चैतन्य - केन्द्र एवं लेश्या ध्यान की सभी प्रक्रियाओं से प्रज्ञा प्रगट होती है। प्रज्ञा के अनावरण में शरीर, श्वास एवं चैतन्य- केन्द्र आदि सभी का सहयोग अत्यावश्यक है । प्रज्ञा के अवतरण के लिए शरीर के यंत्र का स्वस्थ होना अति आवश्यक है । स्वास्थ्य के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । साधना की पूर्णता प्रज्ञा से होती है। प्रज्ञा का आलोक धारणा, ध्यान और समाधि के संयम से फलित होता है। ऐसा पंतजलि विभूति पाद में सूत्र पांच में लिखते हैं । जैसे-जैसे संयम की स्थिरता विकसित होती है । प्रज्ञा की निर्मलता बढ़ती जाती है। समाधि में विषय के साथ ज्ञान का तारतम्य सन्निकर्ष होता है । उस समय वस्तु या विषय का स्पष्ट ज्ञान होता है। प्रज्ञा का ज्ञान अतीन्द्रिय चेतना से संपूर्ण होता है। ऐसा अनुभव साधना के समय अनेक बार प्रतिभासित हुआ है । इन्द्रिय चेतना बहुत स्थूल स्तर पर वस्तु सत्य का स्पर्श करती है। प्रज्ञा में अनुभूत होने वाले ज्ञान का कोई कारण स्थूल चित्त में स्पष्ट नहीं होता फिर भी जो सचाई है उससे इन्कार नहीं हुआ जा सकता । प्रज्ञा पुरुष युवाचार्य श्री की सन्निधि में उनकी अनुभूतियों एवं ज्ञान के स्पष्ट व्याख्याओं को सुनकर आश्चर्य चकित ही होना पड़ता है। प्रेक्षा साधना से गुजरने वाला व्यक्ति इस सत्य को सहजता से अनुभव कर सकता है। प्रज्ञावान् की मेघा स्मृति के आधार पर विकसित नहीं होती। उसकी अनुभूतियां For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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