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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा हैं। प्रशस्त भाव से मैत्री आदि गुणों का विकास सहज संभव हो जाता है। साधक की समस्त प्रवृत्तियां कल्याणमयी होने लगती हैं। परिवार में सौहार्द, सहनशीलता और परस्पर सापेक्षता आदि विकसित होने लगती है। जिससे सामाजिक परिवर्तन और समता का वातावरण अंकुरित होने लगता है। ऐसे वातावरण से संवेग अन्तःकरण में स्फुटित होने लगता है। व्यक्ति की अपनी आसक्ति ही उसे जगत् में परिभ्रमण करवा रही है। आसक्ति के सूक्ष्मतम धागे ही व्यक्ति को बन्धन में डाले रखते हैं। आसक्ति की तीन श्रृंखलाएं अत्यन्त दुःसाध्य हैं। इनका उच्छेद पुरुषार्थ सापेक्ष है। प्रज्ञा से ममत्व मुक्ति पहली श्रृंखला शरीर के प्रति ममता की है। ममत्व की कड़ी ही सर्वाधिक प्रगाढ़ होती है। इसके विच्छेद के साथ सारे बन्धन शिथिल होने लगते हैं। प्रेक्षा साधन ने इस तथ्य को गहराई से समझा है उसके लिए कायोत्सर्ग के प्रयोग द्वारा ममत्व के इस निबिड़ बन्धन को शिथिल करने का प्रयत्न किया जाता है। ज्यों-ज्यों बन्धन शिथिल होता है ममत्व की मुक्ति सहज होने लगती है। जब ममत्व टूटता है तब चैतन्य शक्ति अनावृत होने लगती है। अनावृत शक्ति ही साधक को साधना में आगे बढ़ाती है। साधना के विकास का पता इस तथ्य से ही लगता है कि साधक की आकांक्षाएं कितनी और कैसी हैं। आकांक्षा का समीकरण और विलय है व्रत-संयम । व्रत-संयम से प्रवृत्ति सीमित होती है। प्रवृत्ति संयम से प्रमाद का विलय होता है। प्रमाद प्रज्ञा जागरण में बाधक तत्त्व है। जागरण के प्रति मूर्छा से पुनः व्यक्ति आसक्त होकर मूढ़ता में लौट जाता है। प्रमाद के विलय के लिए सतत स्वाध्याय, सत्कर्म आवश्यक है, सत् प्रवृत्ति से व्यक्ति असत् से दूर हो जाता है। सर्व प्रथम असत् से सत् में प्रवेश करें, फिर सत् और असत् से हटकर निवृत्ति में स्थिर हो जाएं। निवृत्ति ही प्रज्ञा को शीघ्रता से अनावृत करती है। प्रवृत्ति और प्रज्ञा प्रवृत्ति को दूषित करने वाला कषाय ही है। कषाय ही चैतन्य को उतप्त बनाती है। उससे ही उसकी प्रवृत्ति असत् बन जाती है। असत् परिभ्रमण का निमित्त बनाती है। कषाय से रंगी हुई चेतना के योग शुभ नहीं रह पाते। वे अशुभ बनते हैं। अशुभ योग से अशुभ कर्म का आकर्षण होता है। कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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