SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेक्षा- ध्यान - मनोविज्ञान ७६ जुड़ी हुई है अतः मन चेतन है। चेतन मन के अनेक स्तर हैं । मनोविज्ञान में उन्हें (कान्सेंस, सब- कान्सेंस - अनकोन्सेंस) चेतन, अर्धचेतन और अवचेतन कहा जाता है । अवचेतन में संस्कारों का प्रगाढ़ खजाना होता है जिससे ही अर्धचेतन में संस्कार उभरते हैं । अर्धचेतन से चेतन जगत् पर संस्कार आते I हैं इस प्रकार यह वृत्त बन जाता है। चेतन मन किसी एक मस्तिष्क में ही सीमित नहीं रहता है। मस्तिष्क का ढांचा मन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है जबकि चेतन मन संपूर्ण शरीर में परिव्याप्त है । प्रत्येक कोशिका चैतन्य से पूर्ण है। वह स्वतंत्र एवं संयुक्त रूप से कार्य करती है । चेतना की प्रवृत्ति से वस्तु और घटना के साथ सम्बन्ध होता है । यह सम्बन्ध राग-द्वेषात्मक परिणाम से चेतना पर आवरण लाता है। इस आवरण से चैतन्य आवृत होता है। यह आवरण ही चेतना, शक्ति, आनन्द में बाधक बनता है। इन आवरणों को अनावृत्त करना ही प्रेक्षा ध्यान का उद्देश्य है । प्रेक्षा- चैतन्य का विशुद्ध क्षण प्रेक्षा- ध्यान चैतन्य का विशुद्ध क्षण है। चेतना का यह उपयोग मन, शरीर पर उतर रही स्थितियों के प्रति राग-द्वेष से मुक्त रहता है। उससे प्राचीन कर्मों की निर्जरा होती है। नवीन कर्म का अनुबन्ध नहीं होता । प्रेक्षा- ध्यान चैतन्य जागरण की प्रक्रिया है । श्वास- प्रेक्षा से इसका प्रारंभ होता है। श्वास की जब सजगता से प्रेक्षा (निरीक्षण) करते हैं तब मन भी सहज रूप से शान्त होने लगता है। मन और श्वास एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जब श्वास- प्रेक्षा का अभ्यास करते हैं तब विचार और कल्पना शान्त होने लगती है । प्रेक्षा से मन का परिष्कार मानसिक विचार को परिपुष्ट बनाने के लिए प्रेक्षा के प्रयोग अति आवश्यक है । प्रेक्षा से स्मृति चिन्तन और कल्पनाओं में परिष्कार होने लगता है । स्मृतिकोष में संचित घटनाएं अथवा विचार जब वर्तमान क्षण में उतरते हैं तब प्रेक्षा का अभ्यासी उनके प्रति यथार्थ दृष्टि का उपयोग करता है । घटना घट चुकी है, अतीत हो गई है उसमें कोई परिवर्तन नहीं आ सकता । प्रेक्षा का साधक यह अच्छी तरह से जानता है कि घटना को स्मरण में लाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy