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________________ प्रज्ञा की परिक्रमा वर्तमान में राग-द्वेष का अनुबन्ध किया जा सकता है, किन्तु उस घटना में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, तब कल्पना के आकाश में उड़ने वाले व्यक्ति को उस शून्य से क्या उपलब्ध होगा ? उससे यह स्पष्ट होता है अतीत की स्मृति और भविष्य की मात्र कल्पना है इसमें जिया नहीं जा सकता है, उसमें जीने की जो कोशिश है वह वर्तमान क्षण को भी विनष्ट करती है अर्थात् वर्तमान की उपलब्धि अतीत और भविष्य में विलीन हो जाती है । ८० प्रेक्षा- केवल- ज्ञान प्रेक्षा साधना कोई स्मृति विचार और कल्पनात्मक स्थिति नहीं, अपितु सजगतापूर्ण चैतन्य का केवल उपयोग (ज्ञान) है। केवल ज्ञानात्मक उपयोग जब राग-द्वेष से प्रभावित नहीं होता है तब उससे कर्म आकर्षित नहीं हो सकते। जब कर्मों का आकर्षण नहीं अर्थात् आश्रव नहीं तब उस शुद्ध उपयोगात्मक स्थिति में केवल संवर की स्थिति रहती है जिससे चेतना अबन्ध, परम - विशुद्ध बनती है । संवर के पश्चात् जो कर्म स्थिति उदय वाली है वह शरीर मन और चित्त पर प्रकंपन छोड़कर जर्जरित हो जाती है और इस प्रकार उदय व्यय के प्रति प्रेक्षा में साक्षी रहकर चैतन्य, विशुद्ध, विशुद्धतम बन जाता है। यही साधना का आधार और अन्तिम परिणमन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ०००० www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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