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अभिनव सामायिक अनुष्ठान
१२३ उतारने के लिए प्रथम सोपान सम्यग-दर्शन को बताया। सम्यग्-दर्शन से सम्यग-ज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है। सम्यग-दर्शन और ज्ञान जब आचरण में उतरता है तब सम्यग-चारित्र बन जाता है। सम्यग-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्विति से समता उपलब्ध होती है।
श्रावक सम्यग-दर्शन की भूमिका को उपलब्ध कर अणुव्रत स्वीकार करता है। अणुव्रत को पुष्ट और पूर्ण बनाने के लिए ही शिक्षा-व्रत को स्वीकार करता है। अणुव्रत हो अथवा शिक्षाव्रत, सबका उद्देश्य व्यक्ति के चित्त में समत्व का विकास करना है। इसको इस प्रकार की अभिव्यक्ति दी जा सकती है कि समत्व के विकास से अणुव्रत, शिक्षाव्रत स्वयं प्रगट होने लगते हैं। सामायिक का संकल्प सूत्र
भगवान् महावीर आदर्शवादी थे तो व्यवहारवादी भी। वे आदर्श और व्यवहार का समन्वय करके चलते थे। उन्होंने साधक को जहां आदर्शोभिमुख बनाया वहां साधना की व्यावहारिक व्यवस्था भी प्रदान की। साधु और श्रावक की चर्चा साधना की व्यवहारिक भूमिका है। श्रावकाचार में सामायिक का अनुष्ठान एक अध्यात्मिका अनुष्ठान है। भगवान् महावीर के समय सामायिक का अनुष्ठान कैसे किया जाता था, उसकी प्रविधि शास्त्रों में उपलब्ध है। सामायिक का संकल्प सूत्र कहता है-"करेमि भन्ते ! सामाइयं" हे भगवान् ! मैं सामायिक करता हूं। उसमें सावज्जं जोगं पच्चक्खामि-सावद्य पापकारी प्रवृत्ति का प्रत्याख्यान करता हूं। साधुचर्या में यह संकल्प जीवन पर्यन्त होता है। वहां श्रावक सावधि अन्तरमुहूर्त के लिए प्रत्याख्यान करता है। सामायिक का अनुपालन दो करण और तीन योग से होता है अर्थात् किसी दुष्प्रवृत्ति को मन, वचन और काया द्वारा करना नहीं, करवाना नहीं, उसकी अनुशंसा करनी नहीं। पहले की हुई दुष्प्रवृत्ति से निवृत्त होने के लिए गुरु साक्षी से आलोचना करता है।
सामायिक का यह क्रम जैन समाज में प्रचलित है। सामायिक के इस प्रत्याख्यान में कितनी सजगता रही है। यह विमर्शनीय प्रश्न है ? सामायिक का संकल्प करते समय घड़ी का अवलोकन करते हैं। घड़ी की सूई घूमकर पचास मिनट पर आ जाती है और सामायिक सम्पन्न हो जाती है।
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