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प्रज्ञा की परिक्रमा इस प्रकार होनी चाहिए। अपने चित्त को श्वास पर केन्द्रित रखें। उससे एकलयता बढ़ती है, विचार शान्त और चित्त निर्मल बनता है। प्रेक्षा का चौथा प्रयोग है - जागरूकता
होश, अपने प्रति सचेत रहना अर्थात् वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीने से अतीत की चिन्ता, भविष्य की पीड़ा शान्त होती है। इससे कथनी और करनी में सामंजस्य स्थापित होता है। व्यक्ति अपने दायित्व के प्रति जागरूक बनता है जिससे व्यक्ति की पारिवारिक समस्याओं का समाधान होता है। पांचवा प्रयोग है - भावना ओर अनुप्रेक्षा
घनीभूत इच्छा भावना है। उससे अपने संकल्प बल को दृढ बनाकर वृत्तियों का उदात्तीकरण किया जाता है। जिन वृत्तियों से संस्कार प्रगाढ़ होते हैं उन्हें अनुप्रेक्षा, सुझावों/स्वतः सूचनाओं (Auto suggetion) द्वारा रूपान्तरित किया जाता है। भावना और अनप्रेक्षा से व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य और चारित्र की दृढता को प्राप्त कर सकता है। उससे बुरी तरह आदतों, व मानसिक उलझनों से मुक्ति पाई जा सकती है। प्रेक्षा-ध्यान के परिणाम
निवृत्ति के पुनः प्रकृति क्यों ? चैतन्य केन्द्र जागृत होते हैं। उन पर व्यक्ति का नियंत्रण होने लगता है। शक्ति का सम्यग् समायोजन होता है। ग्रन्थियों के स्राव परिवर्तन से व्यक्ति के आचार और व्यवहार में एक रूपता होने लगती है। जिससे सहज करुणा और सौभ्य भाव स्फुटित होता हैं।
प्रेक्षा-ध्यान भिन्न-भिन्न वर्ग एवं व्यवसाय वाले व्यक्तियों के लिए निर्णायक क्षमता प्रदान करता है। उससे वे अपने कार्य-कलापों को सफलता पूर्वक संचालित कर सकते हैं। युवक और युवती वर्ग अपने अध्ययन को सुचारू ढंग से रुचि सहित पूर्ण कर सकते हैं। इससे आलस्य दूर होता है, शरीर की सुघड़ता और सौंदर्य में वृद्धि होती है।
युवकों की शक्ति को समायोजित कर सम्यग् दिशा प्रदान करता है। उसका रचनात्मक उपयोग करवाता है। युवक को बुरी प्रवृत्ति में उलझने नहीं देता क्योंकि उसकी शक्ति निर्माणात्मक कार्यों में निहित होने लगती है।
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