Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपिरमा परमात्मा बनने की कला (पंचसूत्र पर आधारित) साध्वीप्रियरंजनाश्री For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रभावी दादागुरु देव दादा श्री जिनदत्तसूरिजी दादा श्री जिनकुशलसूरिजी www.jainelibrary or Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला ( पंचसूत्र पर आधारित) भाग-1 न प्रत्यक्ष कृपा प. पू. आचार्य भगवंत श्री कैलाशसागरसुरीजी म.सा. प. पू. उपाध्याय प्रवर श्री मणिप्रभसागरजी म.सा. प्रेरिका पार्श्वमणि तीर्थ प्रेरिका प.पू. द्वय गुरुवर्या श्री सुलोचनाश्रीजी म.सा. तपोरत्ना प.पू.श्रीसुलक्षणाश्रीजीम.सा. न लेखिका साध्वी प्रियरंजना श्री प्रकाशक पार्श्वमणि तीर्थ पेद्दतुम्बलम्, आदोनी (आंध्र प्रदेश) For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पुस्तक : परमात्मा बनने की कला प्रेरिका पार्श्वमणि तीर्थ प्रेरिका प.पू. द्वयगुरूवर्या .. श्रीसुलोचनाश्रीजीम.सा. तपोरत्ना प.पू.श्रीसुलक्षणाश्रीजीम.सा. लेखिका : साध्वी प्रियरंजना श्री सम्पादन . : डॉ. प्रियदिव्यांजना श्री डॉ. बंशीधर तातेड़ . प्रकाशन सहयोग : गुरूभक्त . मूल्य : सदुपयोग आवृत्ति : २००० प्रकाशन वर्ष : जनवरी- 2014 पुस्तक प्राप्ति स्थान : श्री जिनकान्तिसागर सूरि आराधना भवन, हमीरपुरा, बाड़मेर (राज.) पार्श्वमणि तीर्थ पेद्दतुम्बलम्, आदोनी (आंध्रप्रदेश) डिजाईनिंग-सेटिंग : चेलसिंह भाटी (किंग ऑफ कंप्यूटर) मुद्रक : आकृति आफसेट, उज्जैन For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान चतुर्थ दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब शत्-शत् नमन... अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान चतुर्थ दादा गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के चतुर्थ स्वर्गारोहण शताब्दी वर्ष (1620-2070) के पावन प्रसंग पर प्रकाशित यह ग्रंथ हमारे लिए परम पुण्योदय का प्रतीक है। सबके आस्था केन्द्र गुरुदेव के चरणों में मेरी वंदनाऐं, सादर समर्पित । For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री स्थंभन पार्श्वनाथाय नमः। · ॥श्री दादा गुरूदेवाय नमः। रखरतरगच्छ नभोमणि कवि सम्राट स्व. प.पू. आचार्य श्री जिन कवीन्द्रसागर सूरीवश्वर जी म.सा. के शिष्टा रच्न गच्छाधिपति आचार्य श्री जिनकैलाशसागर सूरि - श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ मु.पो. मेवानगर, बालोतरा - 344025, जिला-बाड़मेर (राज.) । आशीर्वचन साध्वी प्रियरंजना श्री जी सादर सुखशाता आपके द्वारा प्रेषित पत्र दिनांक 16.12.2013 को प्राप्त हुआ। यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई कि 'पंच-सूत्र' पर आधारित साधना परक पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है। इस प्रकाशन से जैन समाज लाभान्वित होगा। इस प्रकाशन पर मेरी शुभकामना प्रेषित करता हूं। गच्छहितेच्छु मच्या पिल्ला गच्छाचार्य श्री जिन कैलाशसागर सूरि . 04 For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन साध्वी प्रियरंजना श्री जी सादर सुखशाता भोर का पहला क्षण बडा ही अद्भुत होता है। उस क्षण का उपदेश अनूठा होता है। उस क्षण का विमर्श समझ में आ जाये तो जीवन में रोशनी हुए बिना नहीं रहती। वह क्षण एक ही बात कहता है- अपने जीवन का उद्देश्य समझो! उसे पहिचानो! और उसके लिये पुरूषार्थ करो! यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस प्रश्न की गहराई में ही समाधान का अमृत छिपा है। यह प्रश्न भोर में ही अपने आप से किया जा सकता है। नीरव और एकान्त वातावरण में जब कोई मेरे पास नहीं होता, तब मैं अपने पास होता हूँ। और तभी मैं अपने आप से बेरोकटोक बात कर सकता हूँ। जब मैं यह प्रश्न अपने आप से करता हूँ तो समाधान मिलता है-जीवन का उद्देश्य शान्ति पाना है। फिर प्रश्न की हारमाला प्रारंभ हो जाती है, जिसका निष्कर्ष प्रकट होता है- मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। जन्म-मरण का भटकाव ही अशान्ति का कारण है। इस भटकाव का कारण कर्म है तो सिद्ध हुआ कि कर्म क्षय करना ही मेरा उद्देश्य है। कर्म के दो भेद आसानी से समझ में आ सकते हैं - एक पुण्य कर्म, दूसरा पाप कर्म! . - अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये सबसे पहले हमें पाप कर्म का क्षय करना होगा। इस पाप कर्म का क्षय कैसे करें, यही इस पुस्तक का कथ्य है। साध्वी प्रियरंजनाश्रीजी ने आचार्य हरिभदसूरि रंचित पंचसूत्र ग्रन्थ के प्रथम पाप प्रतिघात गुण बीजाधान सूत्र पर सुन्दर विवेचन किया है। धर्म का प्रारंभ पाप क्षय से है। पाप क्षय होगा, तभी सम्यक्त्व रूप गुणों का बीजारोपण होगा। फिर कमशः परमात्म तत्व की ओर कदम बढते जायेंगे। - इस पुस्तक में साध्वी प्रियरंजनाश्रीजी ने बहुत ही सरलता के साथ इस तथ्य को प्रस्तुत किया है। मेरी कामना है कि वे इसी प्रकार क्रमशः पांचों सूत्रों का विवेचन पूर्ण कर साहित्य-सर्जन का पुरूषार्थ करते रहें। उनकी अध्यात्म-प्रगति के लिये मेरी शुभकामनाएं हैं। -उपाध्याय मणिप्रभसागर 05 For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना संदेश साध्वी प्रियरंजना श्री जी सादर सुखशाता . 'पंचसूत्र' पाँच सूत्रों का ग्रंथ है। प्रत्येक सूत्र 40 श्लोक का है। इसमें मानव जीवन से मोक्ष तक की विकास यात्रा के क्रम को बताया गया है। मानवीय देह पुण्य की उपलब्धि है। लेकिन मानव जीवन का उपयोग यदि आध्यात्मिक क्षेत्र में करना हो तो पंचसूत्रकार भगवान चिरंतनाचार्य दो बात बताते हैं-'पाप प्रतिघात', मन की चंचलता के सामने आक्रमक बनो। पापों को खत्म करना असंभवित है। क्योंकि संसार पाप की जहरीली वायु से ही चलने वाला है। अशुद्ध पानी की मछली को आप शुद्ध पानी में डाल दें तो मर जायेगी। संसार पाप मुक्त हो जाये तो संसार ही मिट जाये। , . पाप मुक्त संसार या संसारी जीवन नहीं मिल सकता है तो भगवान चिरंतनाचार्य फरमाते हैं कि आप अपनी ही चंचलता के साथ लड़ो। लड़ना यानी तीव्र पश्चाताप है। चंचलता सफल पापों की जनेता है। चंचलता मिटा नहीं सकते हो तो पश्चाताप ला दो और तमाम गुणों का बीज भी तो पश्चाताप है। जिनशासन के प्राचीन साहित्य में पंचसूत्र मूर्धन्य कक्षा का ग्रंथ है। . साध्वीवर्या श्री प्रियरंजना श्री जी ने अपनी व्युत्पन्न मतियुक्त कलम इस ग्रंथ की विवेचना में लगाई है। साध्वी जी भगवन्त की व्युत्पन्नता से मैं परिचित था, लेकिन उनकी आत्मीयता का भी अभी-अभी परिचय हुआ है। मैं अपनी दीदी समझकर बात मान लेता हूँ। आशीर्वचन तो मैं कैसे भेज सकता हूँ, लेकिन शुभेच्छा अवश्य भेज रहा हूँ। इस ग्रंथ की विवेचना से मेरी दीदी की कलम अविरत रहे, यही कामना है। Master plan of human life... -पन्यास चन्द्रजीतविजय 06 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन सुहिणोभवंतुजीवा! अनन्तोपकारी देवाधिदेव चरमतीर्थाधिपति श्रमण भगवान महावीर देव ने सकल जीवराशि के हितार्थ अद्भुत वचनयोग के माध्यम से करूणा बरसाई। प्रभु की करूणा धारा का सक्रिय अनुभव करने वाले शास्त्रकार परम महर्षियों ने अनुपम शास्त्र सर्जन किया। जिनागम, जिनवचन पर आधारित असंख्य प्रकरण ग्रंथ जैन संघ के सद्भाग्य से वर्तमान से मौजूद हैं। 'पंचसूत्र' एक ऐसा ही अद्वितीय ग्रंथरत्न है, जो कलिकाल में कल्पवृक्ष समान है। इस सूत्र का परिशीलन अपूर्व कर्म निर्जरा का साधन है, (अणुप्पेह माणस्स, सिढिली भवंति, परिहायंति, खिज्जंति, असुह-कम्माणु-बंधा)। (सूत्र-१) अशुभकर्म के अनुबंध भी समाप्त हो जाते हैं, ऐसा है इस ग्रंथरत्न का अद्भुत प्रभावा याकिनी महत्तरासूनू सूरिपुरंदर श्रीमद् हरिभदाचार्य ने इस सूत्र पर टीका बनाई, जिसके आधारित अनेक विवेचन वर्तमान में उपलब्ध हैं। . सौम्य स्वाभावी, स्वाध्याय, प्रेमी, विदुषी साध्वीवर्या प्रियरंजना श्री जी म.सा. ने इस 'पंचसूत्र' पर गहरी अनुप्रेक्षा करके जो चिंतन, मनन, परिशीलन किया, वह आज भव्य जीवों के कर-कमलों में उपहार स्वरूप प्रस्तुत हो रहा है, यह आनंद की बात है। इस विवेचना के माध्यम से सभी भव्य जीवों का संसार सीमित हो जाए और शीघ्र मोक्ष प्राप्ति हो, यही शुभाभिलाषा....। मिगसर सुदी १५, सैटेलाईट, अहमदाबाद युवा हृदय सम्राट् पू.आ.वि. हेमरत्नसूरि म.सा. के शिष्य -पं. विरागरत्न विजय गणी 07 For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन जिनागम व आगमेतर साहित्य हमारे जीवन का शाश्वत् सत्य है। जिसमें विमल विचारों की धड़कन, आचार का स्पन्दन, अनेकान्त का अनुबंधन और उच्च संस्कारों का अङ्कन है। ___पंचसूत्र' जीवन चेतना की निर्मल तरंग है, जिसमें अन्तर्जगत की दिव्य वभव्य अनुभूतियाँ रूपायित होकर लहराती हैं। इसके प्रत्येक चरण में, प्रत्येक ध्वनि में और प्रत्येक शब्द में पवित्र प्रेरणा अठखेलियां करती है; जिसमें विचारों का वेग होता है, अनुभूति का आलोक होता है और संवेदना की स्निग्धता होती है। इसी कारण इतिहास के पृष्ठों पर और जन-जिह्वा पर स्वर्णाक्षरों की भांति चिरस्थायी है। ___ 'पंचसूत्र' की महक चंदन की तरह है, जो जितनी घिसी जाए उतनी ही अधिक फैलती है। इसमें दर्शन सम्बन्धी गंभीर चर्चा के साथ धर्म का मर्म भी प्रस्तुत है। यह अपनी मधुर महक से आप्यायित करती रहती है। प्रस्तुत संदर्भ में परम पूज्या साध्वी श्री प्रियरंजना श्री जी म.सा. के कृतित्व का एक स्पष्ट व सुदृढ़ आधार है और वह है विचारों में अनुभव की प्रेरकता और शब्दों की सजीवता। इसकी व्यंजना उनकी अपनी रसपूर्ण लेखनी से हुई है, इसलिए प्रस्तुत पुस्तक में सर्वत्र ताजगी, आचार-विचार और भक्ति से ओतप्रोत चिन्तन की महक मिलती है। तदर्थ मुझे हार्दिक खुशी है। - मुनि ऋषभ विजय 08 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर आशी अमृतम, मानव जीवन में प्रसन्ता, सहजता और मृत्यु में समाधि पाने का एकमात्र साधन है स्वाध्याय। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का चिंतन करना, स्वयं का निरीक्षण और अध्ययन करना। स्वाध्याय स्वयं द्वारा स्वयं की शोध है। स्वयं के गुणों एवं दोषों की तुलनात्मक समीक्षा ही सच्चा स्वाध्याय है। स्वाध्याय अर्थात मात्र पढ़ना ही नहीं अपितु विधि, विवेक एवं एकाग्रता के साथ सम्यक् चिंतन करना है। . जिस अध्ययन में अशांति, कषाय, कामनाएं, तनाव, राग-द्वेष आदि बढ़े, जिससे आत्मा का अहित हो, वह स्वाध्याय नहीं है। आगम सूत्रों का, वीतराग परमात्मा की वाणी का अध्ययन ही सच्चा स्वाध्याय है। आगमिक स्वाध्याय से जीवन में सम्यक् बोध होता है। आत्मा पर आच्छादित अज्ञान, मोह का आवरण दूर होता है। स्वाध्याय से नकारात्मक सोच सकारात्मक बनती है। जीवन में धैर्य, सहनशीलता, विकसित होने लगती है। स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता है। भविष्य में ज्ञानेन्द्रियां सशक्त बनती है। स्वाध्याय समुद्र में गति करने वाले जलयान के लिए प्रकाश स्तम्भ के समान, सड़क पर चलने वाले वाहनों का नियंत्रण करने हेतु स्पीडब्रेकर जैसा, गलत गाड़ी में यात्रा करने वालों के लिए टिकिट निरीक्षण के समान है। .. . वीतराग सर्वज्ञ कथित आगम, पूर्वधरों द्वारा विरचित सूत्रों का अध्ययन कर्म क्षय की अमोघ साधना है। पंचसूत्र भी महाशास्त्र है। किसी प्राचीन आचार्य भगवंत से विरचित होने के कारण इसे चिरन्तनाचार्य रचित कहा जाता है। आचार्य हरिभदसूरिजी ने इस महाग्रंथ पर संक्षिप्त विवेचन लिखा है। इससे ऐसा प्रमाणित होता है कि यह शास्त्र किसी . 09 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वधर द्वारा ही रचित है। प्रथम सूत्र में बताया है कि अनादिकाल से जीवात्मा संसार में राग-द्वेष व कर्मों के संयोग से परिभ्रमण कर रही है। संसार भ्रमण से विरमित होने के लिए प्राथमिक क्या-क्या उपाय है?यह इससे प्रतिपादित है। प्रथम सूत्र का नाम पाप प्रतिघात गुण बीजाधान है। चतुःशरण गमन, दुष्कृत गर्हा, सुकृत अनुमोदन का वर्णन है। संसार दुःखरूप है, दुःख का फल देने वाला और दुःख का अनुबंध बढ़ाने वाला है। साध्वी प्रियरंजना श्री म.सा. ने प्रथम सूत्र की सविस्तार विवेचना की है। हालांकि अन्य विवेचन भी उपलब्ध है फिर भी यह सुबोध, सरल कृति जन साधारण के लिए अनमोल उपहार है। साध्वीवर्या का श्रम अनुमोदनीय है। अन्तर के कण-कण से श्रम साफल्य हेतु शुभकामनाएं सहवात्सल्य पूर्ण आशीर्वाद। सुधि पाठकवर्ग इसका स्वाध्याय चिंतन, मनन करके जीवन में परिवर्तन लायेंगे, इसी आशा के साथ - - साध्वी सलोचना श्री For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना संदेश साध्वी श्री प्रियरजनाश्री जी ने अपने प्रबल पुरूषार्थ से "पंचसूत्र के आधार पर परमात्मा बनने की कला" नामक पुस्तक को तैयार किया है। पंचसूत्र नामक यह ग्रन्थ अति प्राचीन है और साधक जीवन का प्रेरक रहा है, उसी के सूत्रों के आधार पर रचित प्रस्तुत पुस्तक में सामान्यजन के जीवन उपयोगी सूत्रों और अनुभवों का विस्तार से विवेचन किया गया है। तथ्यों का प्रस्तुतीकरण युक्तिपूर्वक एवं सामान्यजन को सहज रूप से समझ में आ जाए इस प्रकार से हुआ है । हमें जो मानव जीवन मिला है, उस मानव जीवन का सार इसी में हैं कि मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास हो । प्रस्तुत पुस्तिका मानव जीवन में मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना में सहयोगी बनेगी - ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है । साध्वी श्री प्रियरंजनाश्री जी प्रारम्भ से ही एक विद्या प्रेमी एवं ज्ञान गुण सम्पन्ना साध्वी रही है। उनके द्वारा किया गया यह प्रयत्न जनसाधारण को प्रेरणा दे और उस प्रेरणा के फलस्वरूप समाज में मानवीय मूल्यों का विकास हो, यही शुभेच्छा है । मैं साध्वीजी के मगंलमय जीवन की अनुमोदना करते हुए यही अपेक्षा रखता हूँ कि वे श्रुतदेवी सरस्वती की उपासना में सदैव संलग्न रहे और स्वस्थ रहकर नये नये ग्रन्थों का सजून करती रहे। इसी शुभकामनाओं के साथ.......। भवदीय (ই (डॉ. सागरमल जैन) प्राच्य विद्यापीठ, दुपाड़ा रोड़, शाजापुर (म. प्र. ) 465001 11 For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना संदेश 'पंच-सूत्र' स्वाध्याय का प्रशस्त विषय है। इसकी व्याख्या वही पुण्यात्मा कर सकती है, जिसमें स्व-पर को जानने की रूचि हो; जिन्होंने जीवन के यथार्थ को जाना, माना और जीवन में उद्घाटित किया हो। .. इस लघु ग्रंथ में बताए गये हैं शुद्ध-धर्म प्राप्ति के वे सशक्त कारण और कार्य, जिनके माध्यम से जीव 'दुःखरूवे, दुःखफले, दुःखानुबंधे' संसार से छुटकारा पा सकता है। पंचसूत्र में सटीक वर्णन है अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण का, जो शाश्वत् सुख का कारण है। सभी जीवों के प्रति मैत्री, करूणा, माध्यस्थ्य का भाव और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की कामना का, दुष्कृत गर्दा और सुकृत की अनुमोदना का मार्मिक वर्णन पूज्य साध्वी जी ने अपनी सारस्वत-लेखनी से बहुत प्रभावी ढंग से किया है। पूज्यनीय साध्वी श्री प्रियरंजना श्री जी हार्दिक साधुवाद की पात्र हैं, जिन्होंने 'पंचसूत्र' के प्रथम अध्याय पर अपनी व्याख्या लिखी है। उनकी कलम से सतत् सरस्वती की धारा बहती रहे, और अमृत बनकर पाठकों को मृत्युंजय बनाती रहे, यही हार्दिक शुभकामना। डॉ. ज्ञान जैन B.Tech.,M.A.,Ph.D For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान चतुर्थ दादा गुरूदेव श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब के चतुर्थ स्वर्गारोहण शताब्दी वर्ष (1620-2070) के पावन प्रसंग पर प्रकाशित यह ग्रंथ हमारे लिए परम पुण्योदय का प्रतीक है। सबके आस्था केन्द्र गुरूदेव के चरणों में मेरी अनन्त वंदना, उन्हीं के चरणों में यह ग्रंथ सादर सादर समर्पित। इस ग्रंथ के लेखन प्रकाशन में जिनकी पुनित प्रेरणा रही है, वे है मम जीवन उपकारी, मेरी हृदय की आस्था की केन्द्र गुरूवर्या द्वय प.पू. श्री सुलोचनाश्रीजी म.सा. एवं प.पू. सुलक्षणाश्रीजी म.सा.। आपके पावन चरण-कमलों में मेरी विन्रम वन्दना अर्ज करती हूँ।आपश्री के अन्नत उपकारों की ऋणी हूँ मैं। ___ बात उस समय कि है जब मैने प्रथम बार 'पंचसूत्र' का अध्ययन किया था। मन में उसी दिन एक बात जागृत हुई कि इस सूत्र का विस्तृत विवेचन करना है। विस्तृत विवेचन हेतु खोज करने पर मुझे सर्वप्रथम "पंचसूत्रनु परिशीलन' नामक पुस्तक प्राप्त हुई। मन प्रसन्न हुआ पर उतना नहीं, जितना होना था। क्योंकि पुस्तक गुजराती में थी। पुस्तक का अध्ययन करने पर मन कहने लगा कि काश! यह पुस्तक हिन्दी भाषा में होती, तो आसानी से सभी हिन्दी पाठकवृंद इस ग्रंथ के अध्ययन का लाभ ले सकते थे। वैसे भी अनेक जैन ग्रंथ हिन्दी में अनुपलब्ध है। अतः मन में विचार आया कि क्यों न इस ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद किया जाए। फिर ई.सन् 2012 वड़ोदरा चातुर्मास में इसका लेखन कार्य पू. गुरूवर्याश्री की प्रेरणा से प्रारम्भ कर दिया गया और इस बीच दूसरी पुस्तक "उच्च प्रकाश ना पंथे" प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें मेरे ग्रंथ लेखन में अति सहयोगी बनी। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य पुस्तकों का सहारा लेकर ग्रंथ को सहज, सरल एवं परिपूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है, जिससे सुधि पाठकगण सरलता से इसका ज्ञान प्राप्त कर जीवन में परिर्वतन ला सके। - वडोदरा चातुर्मास के पश्चात् हमारा अहमदाबाद की ओर विहार हुआ। वहाँ बाड़मेर चातुर्मास की विनती चल रही थी। लेखन कार्य थोड़ा मंद सा हो गया। परन्तु जब बाड़मेर पहुँचाना हुआ तो वहाँ शिक्षाविद् डॉ. बंशीधर तातेड़ से मिलना हुआ। उनकी सानिध्यता पाकर इस कार्य को प्रगति दी गई। ई. सन् 2013 बाड़मेर चातुर्मास में इस कार्य को सम्पन्न करने का दृढ़ संकल्प किया गया। प्रथम तीर्थकर आदेश्वर दादा की छत्र छाया में व देव-गुरू की असीम कृपा से यह कार्य सम्पन्न हुआ। इस लेखन कार्य में श्रीमान् तातेड़ सा. का सम्यक, निर्देशन नहीं मिलता तो शायद ही यह कार्य इस वर्ष 13 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पन्न हो पाता। स्वास्थ्य अस्वस्थ होने पर भी जब कार्य होता बुलाने पर समय देते थे। यह उनका बहुत बड़ा विनय एवं गुरूजनों के प्रति समर्पण है। ज्ञान-दान के लिए वे पैसा या समय को कभी नहीं देखते। उनके सामने मैं एक छोटी सी साध्वी थी फिर भी आदर-व्यवहार में कहीं कमी नहीं होती थी। ग्रंथ सम्पन्नता का श्रेय आपको ही जाता है। इसके लिए उन्हें साधुवाद अन्तर हृदय से आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। लेखन क्षेत्र में हमारे मनोबल को बढ़ाने एवं इस ग्रंथ की उपादेयता की अभिवृद्धि हेतु हमें जो आशीर्वचन एवं शुभकामनाएं प्राप्त हुई है, निःसंदेह वे हमारे में नूतन ऊर्जा एवं सकारात्मक सोच के लिए प्रेरणादायी बनेगी। मैं उन सभी के प्रति वित्रम कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ और भविष्य में ऐसे ही मार्गदर्शन, आशीर्वाद एवं सहयोग की अपेक्षा करती हूँ। ____ भगिनी साध्वी डॉ. प्रियदिव्यांजनाश्रीजी का प्रस्तुत कार्य में महत्वपूर्ण अवदान रहा है। उनके पुरूषार्थ के बिना इस कार्य पर पूर्णता का कलश कैसे चढ़ता। उन्होंने अपनी उर्वर प्रज्ञा और तीक्ष्ण मेधा से इसे देखा, परखा, जांचा, और आवश्यक संशोधन किये। उनका आत्मीयभाव अभिव्यक्ति का नहीं अपितु स्वानुभूति का विषय है। इस कार्य को सम्पादित करने में साध्वी श्री प्रियशुभांजनाश्रीजी का भी अमूल्य योगदान रहा। बाड़मेर श्री संघ के आराधक भाई-बहिन, आराधना भवन का शांत एवं सुन्दर वातावरण एवं समस्त प्रत्यक्ष परोक्ष रूप के सहयोगी भी धन्यवाद के पात्र हैं। गुरू भक्त परिवार के प्रति भी मैं शुभकामनाएं रखती हुई धन्यवाद देती हूँ। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इस लेखन कार्य में जो भी सहयोगी बने है, उन सबके प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ। पाठकगण "परमात्मा बनने की कला'' नामक इस पुस्तक से प्रेरणा लेकर निर्मल एवं समुज्ज्वल जीवन बनाकर दोषों को नष्ट करें एवं सद्गुणों को लाकर कर्मक्षय करें यही अन्तर मन के उद्गार हैं। यदि प्रमादवश जिनवाणी विरूद्ध कुछ भी लिखा प्रतीत हो तो क्षमा करते हुए कृपया उसे सुधार कर पढ़े, ऐसी विनम अपेक्षा है। आशा है यह ग्रंथ उपयोगी एवं संग्रहणीय बनेगा। आराधना भवन, बाड़मेर (राज.) सुलोचना चराणाश्रिता साध्वी प्रियरंजनाश्री 14 For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला प्रस्तावना अनन्तोपकारी-अनन्तज्ञानी-परमतारक परमात्मा ने 'जगत् के सभी जीव दुःखों से मुक्त हो जाएँ एवं शाश्वत् सुख को प्राप्त करें', ऐसी मनोभावना से धर्मतीर्थ की स्थापना की। जिनशासन सम्पूर्ण विश्व में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि इसमें जो वैश्विक सिद्धांत दर्शाये गये हैं, वे दूसरी जगह कहीं भी देखने को नहीं मिलते है। जैसे- आत्मा अनादि है, कर्म-पुद्गल अनादि हैं और दोनों का संयोग भी अनादिकाल से है। इस संयोग के प्रभाव से सभी आत्माएं एक समान होने पर भी जीव अलग-अलग प्रकार से कर्म सहित उत्पन्न होते हैं। इस कर्म संयोग की विचित्रता के कारण जीव को विभिन्न प्रकार से सुख-दुःख आते रहते हैं। अपनी आत्मा इस विचित्र दशा से कैसे मुक्त बने और सच्चा सुख कैसे प्राप्त करें, इसी के लिए वास्तविक तत्त्व का स्वरूप प्रभु ने बताया है। अनादिकाल से इस संसार में रहते हुए भी आत्मा इस संसार से मुक्त नहीं हुई, कारण है-अज्ञानता। अज्ञानता के कारण ही आत्मा जिस स्थान में रहती है, वह स्थान वास्तव में कैसा है, कैसे-कैसे दुःखों से घिरा हुआ है, यह भी सोच-समझ नहीं पाती है। दुःख मुख्यतः सात हैं- 'जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग'। इन सात दुःखों से संसार ठसाठस भरा हुआ है। वास्तव में यही संसार का वास्तविक स्वरूप है। - संसार शब्द ही यह सूचित करता है- सम्+सार अर्थात् जिसमें सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, और सम्यक्चारित्र ही सारभूत है, शेष सब कुछ असार एवं अशरण है। 'धर्मरत्न प्रकरण ग्रंथ' में श्रावकाचार की बात करते हुए श्री शांतिसूरीश्वर जी महाराज ने संसार कैसा है? इसका वर्णन करते हुए कहा है दुहरूवं दुक्खफलं, दुहाणुबंधिं विडंबणारूवं। . संसारमसारं, जाणिउण न रइं तहिं कुणई॥ अर्थात्- संसार दुःख-रूप है, दुःख-फलक है, दुःखानुबंधी है एवं आत्मा की विडम्बना स्वरूप है। ऐसे असार संसार को जानने वाला श्रावक कहीं भी आनन्द नहीं मानता। संसार दुःखमय है। संसार के प्रति वैराग्य भाव जगाने के लिए संसार की दुःखमयता का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। संसार किस प्रकार दुःखमय है, इसका अत्यन्त सूक्ष्मता से वर्णन ज्ञानी भगवंतों ने किया है। ... पंचसूत्र में चिरन्ताचार्य जी ने संसार की असारता का वर्णन करते हुए लिखा है 15 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुःखरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे। संसार दुःख-रूप है, दुःख-फलक है और दुःखानुबंधी है। संसार सच में दुःख रूप है, क्योंकि वह आत्मा की विभाग दशा है। आत्मा का स्वभाव सुखरूप है, तो आत्मा का विभाव दुःख रूप ही होगा। आत्मा का स्वभाव मोक्ष है, मोक्ष में सम्पूर्ण सुख है- अक्षय, अनन्त, अनुपम सुख है, जबकि संसार आत्मा का विभाव है, पुद्गल के आधार पर कायम है। आत्मा के विभाव में दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता, ये बात हमें हमारे दिमाग में दृढ़ कर लेनी चाहिए। ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि जैसे समुद्र में जलचर जीवों का कोई पार नहीं होता, उसी प्रकार संसार में दुःखों का भी कोई पार नहीं होता। संसार का यही एक स्वरूप है। संसार की यही एक नितान्त वास्तविकता है। हमारी आत्मा मोह मूढ़ बन गई है। अत: उसे संसार में दुःख दिखाई नहीं देता, यह तो उसकी विकृति ही है। मोतियाबिन्द के मरीज को अखबार के अक्षर दिखाई नहीं देते, वह तो उसकी आंख की विकृति के कारण है, अक्षर हैं नहीं, ऐसा तो नहीं है न। उसी प्रकार मोहाधीन आत्माओं को संसार में दुःख की प्रतीति न हो - ऐसा हो सकता है, पर उससे संसार का स्वरूप नहीं बदल जाता। संसार में तो दुःख है ही। संसार स्वयं दुःखरूप ही है। ऐसे संसार में अज्ञानी जीव जो कुछ प्रवृत्ति करते हैं, वह पाप ही होता है और . पाप का फल भी दुःख ही होता है। अतः संसार को दुःख-फलक कहा गया है। ऐसे पापमय संसार की छोटी-बड़ी प्रत्येक प्रवृत्ति का फल तो दुःख ही होता है। इसीलिए पूज्य उमास्वाति जी म. 'श्री प्रशमरति प्रकरण' में लिखते है दुःखद्विट् सुखलिप्सुः मोहान्थत्वाददृष्ट गुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते।। दुःख का द्वेषी व सुखों का लालची जीव, मोह के भयानक अंधत्व के कारण किसी भी प्रवृति में गुण एवं दोष को यथार्थ रूप में नहीं देख सकता, जान भी नहीं सकता, इसी कारण जीव जो भी प्रवृत्ति करता है, उसके फलस्वरूप वह दुःख ही पाता है। यह सच है कि जगत् का प्रत्येक जीव दुःख से घबराता है। जीव मात्र जो कुछ भी करता है, दुःख से बचने के लिए ही करता है, परन्तु विडम्बना यही है कि उन प्रवृत्तियों के 16 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला कारण जीव दुःख ही पाता है। हमें अपने हृदय में यह बात स्थिर कर लेनी चाहिए कि संसार की हर एक प्रवृत्ति पाप ही है, और पाप का फल दुःख है। वस्तुतः संसार दुःख - फलक ही है। 'संसार की कोई भी प्रवृत्ति करके मैं उनके दुःखों को ही आमंत्रण दे रहा हूँ।' यह विचार हमारे मन-मस्तिष्क में दृढ़ कर लेना चाहिए। जीव ऐसी प्रवृत्ति राग-द्वेष, मोह एवं अज्ञानता आदि दोषों की वजह से ही करता है, ऐसे दोषों से युक्त जीव ही पाप प्रवृत्ति में जुड़ता है। राग-द्वेषादि दोषों की रुक्षता के कारण संसार की कोई भी पाप प्रवृत्ति सिर्फ एक बार ही दुःख नहीं देती है बल्कि वह तो दुःखों की एक परम्परा खड़ी कर देती है । इस प्रकार विचार करने पर हमें यह अनुभव होना चाहिए कि संसार स्वरूप से दुःखरूप है, पापों के कारण दुःखफलक है और रागद्वेषादि दोषों के कारण दुःखानुबंधी है। इस प्रकार संसार की दुःखमय स्थिति का विचार किया जाये, तो वैराग्य भाव पैदा होते देर नहीं लगेगी | ऐसा ज्ञानी फरमाते हैं। पंचसूत्र सम्बन्धी वक्तव्य द्रव्यानुयोग चरणकरणानुयोग इत्यादि अनुयोग पर समर्थ आचार्य प्रवरों ने अनुपम शास्त्र सृजन किया है, उनमें 'तत्त्वार्थाधिगम' महाशास्त्र अतिगंभीर रूप से प्रख्यात है, इसी प्रकार यह 'पंचसूत्र' भी इनकी तुलना में अद्वितीय ग्रंथरत्न है, जो कलिकाल में चिन्तामणि रत्न के समान है। वस्तु समर्थ याकिनी महत्तरा सूनु सूरिपुरंदर श्रीमद् हरिभद्राचार्यजी की वृत्ति कहती है 'प्रवचनसार एष सज्ज्ञान क्रिया योगात्', अर्थात् समग्र आर्हत शास्त्रों का सार यह पंचसूत्र है, क्योंकि इसमें सम्यक् ज्ञान क्रिया आदि का खजाना भरा हुआ है। श्री वीतराग सर्वज्ञ, जिनेश्वर प्रभु के शासन में प्रवेश करने के लिए इस 'पंचसूत्र' का प्रकाश मुमुक्षु के लिए अति आवश्यक है। जो सच्चा सुख मोक्ष में है, उसी सुख की नींव से शिखर तक की मार्ग-साधना ही पंचसूत्र का परमार्थ है । जिस मोह को क्षय करके ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, उस मोह को ही क्षय करने का सहज / सरल मार्ग अति निपुण भाव से, भरपूर विशदता से इस ग्रंथ में वर्णित किया गया है। जीवों की तथाभव्यता भिन्न-भिन्न होती है । इसलिए तुच्छ बुद्धिवाले जीवों को सुख की इच्छा से अर्थ और काम पुरूषार्थ में तीव्र रुझान होता है । परमात्मा ने कहा है कि संसार के दुख किंपाक फल जैसे दुःखमयी, पराधीन, निराधार होने पर भी जीवों को इष्ट होते हैं, किन्तु उत्तम मुमुक्षु आत्माओं को सच्चा और शाश्वत् सुख अधिक प्रिय होने से वे धर्म और मोक्ष 17 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला पुरूषार्थ में लीन होते हैं। चारों पुरूषार्थ में प्रधान धर्म पुरूषार्थ को कहा है, क्योंकि यही सब कुछ सिद्ध करने वाला है। जब अर्थ, काम और मोक्ष, तीनों धर्म पुरूषार्थ से ही प्राप्त हुए और आगे भी होंगे, तो फिर सभी जीवों को धर्म पुरूषार्थ की साधना ही जीवन में हितकारी है। शुद्ध धर्म के लिए श्री सर्वज्ञ कथित शास्त्रों में विदित धर्म का पूर्णरूपेण परिपालन अति आवश्यक है। सर्वज्ञ वचनानुसारी यह 'पंचसूत्र महाशास्त्र' मंद शक्ति वाले दुषमकाल के जीवों को संक्षिप्त में सर्वज्ञ कथित धर्म का सार जानने के लिए एक रत्न खान के समान है। इसकी अति निपुण सूत्र रचना तो भूखे के लिए घेवर जैसी स्वादिष्ट है। प्रमाणिक शास्त्रों में यह ‘पंचसूत्र' मानव भव में मोक्ष प्राप्त करा देने वाली साधना का बोलता शास्त्र है। ____ अनादि भवसागर में हमने अज्ञान दशा वश दुःखों के ही उपाय ढूंढ़े। दुःखमय दशा भोगी। दुःख की ही परम्परा चली। अव्यवहार-निगोद में ऐसा अनन्तानंतकाल नारकी से अनन्त गुणा दुःखमय जन्ममरणादि का अनुभव होने के पश्चात् वहाँ से छूट कर व्यवहार-निगोद आदि में एक ही महामोह के उदय को लेकर अनन्त पुद्गलपरावर्त बिताये। जिसमें कृष्णपक्षीय अमावस्या जैसे मनुष्य भव भी प्राप्त किये और हार गये। परन्तु अब आज जो सर्वज्ञ शासन की प्राप्ति हुई है तो उससे आसन्न भवी बनकर 'दो कदम भोर की ओर' (पंचसूत्र) के महाप्रकाश से पशु जीवन को पार कर इस उत्तम जीवन को उज्ज्वल बनाना है। परमेश्वर का शासन स्वीकार कर 'प्रथम सूत्र' 'पाप प्रतिघात गुणबीजाधान' में बताये गये मार्ग की आराधना करेंगे तो ही पाप का क्षय करके सहजानन्दी गुणों के बीजों का वपन कर पायेंगे। वहाँ सम्यग्दर्शन के शुक्लपक्षीय ज्योत्सना जैसे प्रकाश में पुण्यानुबन्धी पुण्योदय बढ़ेगा और मोह का क्षय होने से अन्त में मोक्ष का पूर्णिमा चन्द्र प्रकाशित होगा। यही सामर्थ्य इस पंचसूत्र में है। प्रथम सूत्र - पाप प्रतिघात-गुणबीजाधान प्रस्तुत 'पंचसूत्र ग्रंथ' में कुल पाँच सूत्र संकलन किये गये हैं, किन्तु हम यहाँ 'दो कदम भोर की ओर' (प्रथम भाग) में पहले सूत्र का ही विवचेन कर रहे हैं। इस सूत्र के विवेचन हेतु हमने इसे पाँच खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम खण्ड में मंगलार्थ अरिहन्त परमात्मा की नमस्कार पूर्वक स्तुति की गई है। फिर अरिहन्त भगवान के चार विशेषणों का विस्तार से वर्णन प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अरिहन्त प्रभु के चार अतिशयों को भी दर्शाया गया है। 'वीतराग' विशेषण के प्रसंग में राग का बल द्वेष दोष से भी ज्यादा है। उसके अनेक हेतु व इनसे भी ज्यादा मोह खतरनाक है। उनके कारण दर्शाये गये हैं। प्रशस्त - अप्रशस्त राग द्वेष के स्वरूप का वर्णन किया गया है। देवेन्द्र पूजा का रहस्य, सर्वज्ञ 18 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला कौन? अरिहन्त प्रभु ने क्या-क्या यथार्थ प्रकाशित किया, इत्यादि मानव भव का मूल्याकंन इस खण्ड में किया गया है। दूसरे खण्ड में विषय को प्रारम्भ करते हुए कहा गया है कि जीव, संसार, कर्म संयोग सभी अनादि हैं। दुःखरूप, दुःखफलक, दुःखानुबन्धी संसार का उच्छेद शुद्ध धर्म से ही हो सकता है। अतः संसार का भंयकर स्वरूप दर्शाया गया है। फिर अनादिकाल की संसार यात्रा, समवाय की समझ, उत्कृष्ट भाव जगाएँ, पुरूषार्थ ही कर्त्तव्य है। इनका उल्लेख किया गया है। साथ ही शुद्ध धर्म के तीन लक्षण व शुद्ध धर्म साधने की विधि प्रस्तुत की गई है। तथाभव्यत्व का स्वरूप व उनके परिपाक के तीन उपाय दर्शाए गये हैं। तत्पश्चात् प्रणिधान के तीन लक्षण प्रस्तुत कर प्रणिधान के पांच चरणों का वर्णन किया गया है। तीसरे खण्ड में चतुःशरण स्वीकार कैसे करें? शरण स्वीकार के बाद सुलसा महाश्राविका व अम्बड परिव्राजक की कथा विस्तार से प्रस्तुत की गई। शरण हमें तारने वाले हैं। नवकार मंत्र की शरण से अमरकुमार का अग्निकुण्ड भी स्वर्ण-सिंहासन बन गया, तत्पश्चात् अरिहन्त परमात्मा की शरण स्वीकार करने हेतु विशिष्ट विशेषणों का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इन्हें परम त्रिलोकनाथ, अनुपम पुण्य समूह आदि विविध विशेषणों से दर्शाया गया है। दूसरी शरण सिद्ध भगवंतों की है। इसमें जन्म-जरा-मरण मुक्त आदि विशेषणों के साथ अईमुत्ता मुनि का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है। तीसरी शरण साधु भगवंतों की है। प्रशांत-गंभीर आशय वाले, परोपकार गठन, पद्म उपमा वाले विशेषणों से सुशोभित करते हुए साधु भगवन्त की महिमा पर प्रदेशी राजा का दृष्टान्त उल्लेखनीय है। प्रार्थना सूत्र का भी वर्णन किया गया। अन्त में केवली प्ररूपित धर्म की शरण का त्रिलोकपूजित, मोहांधकार नाशक, रागद्वेष विष मंत्र आदि विशेषणों को दर्शा कर कुमारपाल राजा, खंधक मुनि के उदाहरण वर्णित किये गये हैं। 'चतुर्थ खण्ड में दुष्कृत की गर्दा, उसके कारण प्रस्तुत कर, प्रभु से कैसे प्रार्थना करें, इसे समझाया गया है। दुष्कृत गर्दा से समकित की प्राप्ति और कब होगा कर्मों का अन्त, अन्य की साक्षी से आत्मनिन्दा इत्यादि का विवेचन किया गया है। शल्योद्धार से हो आत्मोद्धार, छोटा सा शल्य महाकष्टदायक (अश्व दृष्टान्त), गोशाला व रूक्मिणी साध्वी के चारित्र से भी रूबरू कराया गया है। शुद्ध-श्रद्धा-भक्ति ही मुक्ति का कारण है, अतः श्रद्धा भक्ति को और मजबूत बनाने का वर्णन किया गया है। छोटी-सी भूल की बड़ी सजा, प्रायश्चित् से आत्मशुद्धि, अर्थ-काम में डूबा जीव जीवन में अनके बार गलती कर बैठता 19 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला है, इनको विवेचित करने का प्रयास किया गया है। जिनशासन की प्राप्ति करने के पश्चात् उसकी सेवा करनी चाहिए, श्री संघ पर वात्सल्य पैदा करना चाहिए इसी में आत्म- कमाई है, इनका विवेचन भी ग्रंथ में दर्शाया गया है । अन्त में दुष्कृत की गर्हा कैसे करें, समाधि क्यों दुर्लभ है, इत्यादि दर्शाकर मृत्यु के दो रूप व प्रकारों का उल्लेख कर उनका विवेचन किया गया है। पंचम यानि अंतिम खण्ड में पाप - प्रतिघात - गुणबीजाधान का तीसरा उपाय सुकृत अनुमोदन का उल्लेख किया गया है। प्रारम्भ में अरिहन्त व सिद्ध भगवंतों की, फिर पंचममहाव्रतधारी आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवंतों की सुकृत अनुमोदना का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् श्रावक-श्राविकाओं के द्वारा किये गये सुकृत दान, व्रत, नियम, तप, साधना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अनुमोदना प्रस्तुत की गई है। अनुमोदना के दो कारणों को दर्शाकर धर्म के चार प्रकार दान, शील, तप, भाव पर यथोचित दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए भाव धर्म की अनुमोदना को दर्शाया गया है । प्रणिधान शुद्धि, उन्नत्तिकारण साधना के अंग, उन्नति के विशिष्ट साधन और उनके कारणों को प्रस्तुत किया गया है। अंत में प्रार्थना करते हुए सूत्र की महिमा का वर्णन कर सूत्र- स्वाध्याय का परिणाम प्रस्तुत करके अंतिम मंगल कर ग्रंथ का समापन किया गया है। पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हमने प्रत्येक खण्ड के प्रारम्भ में मूल सूत्र को भी प्रस्तुत किया है; क्योंकि मूल सूत्र के साथ-साथ उसके विवेचन का आनन्द कई गुणा वृद्धिकर होता है। 20 For Personal & Private Use Only सुलोचन चरण रज - प्रियरंजना श्री Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला ग्रन्थ परिचय अनन्त उपकारी चरम तीर्थपति परमात्मा महावीर स्वामी का शासन आज भी महान् पुरुषों, महान् ग्रन्थों एवं महान् तीर्थों से गौरवान्वित है। इन त्रिस्तम्भों से ही रत्नत्रय साधना की सही पूंजी मिलती है। इस साधना के लिए पंचसूत्र ग्रन्थ का विस्तृत अध्ययन करना आवश्यक है। श्री पंचसूत्र एक भव्य एवं आत्म-कल्याणार्थी शास्त्र है। इस शास्त्र के रचियता का नाम एवं इतिहास कहीं नहीं मिलता है, परन्तु शास्त्र की भाषा आदि भाववाही रचनाशीलता को देखकर लगता है कि तत्त्वार्थसत्र से भी पहले इसकी रचना की गयी होगी, ऐसी कल्पना है। अज्ञात रचियता होने से इस सूत्र को चिरन्तनाचार्य द्वारा रचित कहा जाता है। . इस सूत्र पर टीका रचने वाले याकिनी महत्तरा सुनु को कौन नहीं पहचानता? चित्तौड़ राजा के समर्थ विद्वान पुरोहित-ब्राह्मण से जैन साधु-दीक्षा प्राप्त कर जैन शासन के महाप्रभावक जैन आचार्य पद तक पहुँचने वाले, 1444 शास्त्रों के प्रणेता, भगवन्त श्री हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज ने इस पंचसूत्र पर विवेचन लिखा है। यही इस ग्रन्थ की महान् उपयोगिता और गंभीरता को सूचित करता है। टीकाकार के अनुसार इस ग्रन्थ का नाम 'पंचसूत्रक' एवं उपाध्याय यशोविजय जी महाराज की 'धर्मपरीक्षा' में 'पंचसूत्री' नाम मिलता है। वर्तमान में इस ग्रन्थ का पंचसूत्र' नाम ही प्रचलित है। · पंचसूत्र ग्रन्थ में शास्त्रकार ने नवनिधान आदि आध्यात्मिक तत्त्व रत्नों को भर दिया है। हमें पंचसूत्र के गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन द्वारा तत्त्वनिधान को प्राप्त करना है। पंचसूत्र का विस्तार से विवेचन करने से पूर्व यह आवश्यक है कि हम पंचसूत्र का संक्षिप्त परिचय जान लें। पंचसूत्र का संक्षिप्त विवेचन पंचसूत्र के पाँच प्रकरणों में ये 5 मुख्य विषय हैं1. पापप्रतिघात और गुणबीजाधान 2. साधुधर्म-परिभावना, 3. प्रव्रज्या ग्रहणविधि 4. प्रव्रज्या पालन और 5. प्रव्रज्याफल-मोक्ष, 21 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला मुख्य पाँच अधिकारों को लेकर पाँच सूत्रों का समूह होने से इसे 'पंचसूत्र' कहा गया है। इन पाँच अधिकारों का विवेचन इस प्रकार है1. पापप्रतिघात और गुणवीजाधान ___ पाँचवें सूत्र में प्रव्रज्या फल यानि दीक्षा का फल, मोक्ष का वर्णन किया गया है। उसी मोक्ष दशा को प्रकट करने के लिए सर्वप्रथम कारण स्वरूप पहले सूत्र में पापप्रतिघात और गुणबीजाधान करने की प्रक्रिया जरूरी है। पापप्रतिघात में 'पाप' अर्थात् अशुभ अनुबन्ध का आगमन 'प्रतिघात' यानि विच्छेद करना है। जब अनुबन्ध नष्ट हो जायेगा तो आत्मा से पाप का अधिकार ही उठ जाएगा तथा आत्मा पर गुणों का अधिकार स्थापित हो जाएगा। गुणबीज यानि गुणों का बीज, गुण - जैसे हिंसात्याग आदि गुण जो हैं, उनके बीज, 'आधान' : स्थापन करना, रोपण करना; जिससे राग, द्वेष आदि संक्लेश रुक जाएं और गुण की परम्परा चले। इसका नाम है गुण-बीजाधान। इनके श्रेष्ठ आधार भूत चतुःशरण स्वीकार आदि उपाय प्रथम सूत्र में बताये गये हैं। ये उपाय इतने सटीक हैं कि इनसे पाप प्रतिघात और गुणबीजस्थापन होने से आगे के सूत्रों का पदार्थ आत्मा में सरलता से स्थापित होता है। 2. साधुधर्म की परिभावना साधु धर्म अर्थात् पंच-महाव्रत और कषायोपशम रूप क्षमादि १० प्रकार के चारित्र धर्म, उनकी परिभावना अर्थात् पूर्वभूमिका तैयार करने के लिए तीव्र उत्कण्ठा से युक्त अणुव्रतों का अभ्यास। हृदय से चिंतन, उत्कण्ठा अर्थात् आत्मा के चरित्र के वीर्योल्लास को जागृत करना है। इसलिए दूसरे सूत्र में श्रावक के पाँच अणुव्रतों के अतिरिक्त दूसरी अन्य बहुत सी अद्भुत और अतिआवश्यक साधनाएँ बताई गई हैं। 3. प्रव्रज्या ग्रहण विधि मुमुक्षु यानि दीक्षार्थी को संसार त्याग किस प्रकार करना, उसके अनेक विधानों का वर्णन इस तीसरे सूत्र में गम्भीर व सुन्दर रीति से किया गया है। 4. प्रव्रज्या परिपालन इसमें साधु धर्म के चारित्रगुण द्वारा आत्मा ज्यादा से ज्यादा भावित बने; जैसे, चन्दन में सुगन्ध की तरह आत्मा में एक गुण एक रस कैसे बने, उसके लिए अनेक उपायों का वर्णन किया गया है। उन उपायों के साथ चारित्र धर्म की चर्या का पालन कैसे करना है, इसका वर्णन किया गया है। 22 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला 5.प्रव्रज्या फल. चारित्र की पराकाष्ठा पर पहुँच कर, सर्वकर्मों को क्षय कर, प्रव्रज्याफल स्वरूप मोक्ष फल अवश्य ग्राह्य है। इस सूत्र में मोक्ष विषय (स्वरूप) का अद्भुत प्रतिपादन किया गया है। पंचसूत्र का प्रयोजनयुक्त क्रम पंचसूत्र के प्रकरणों का संक्षिप्त विवेचन करने के बाद यह प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है कि पंचसूत्र का प्रयोजन युक्त क्रम क्या होना चाहिए? इसी प्रश्न का उत्तर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे सुधी पाठक इसके व्यवहारिक क्रम से रूबरू हो सकें नूतन जिनालय का निर्माण करना हो तो सर्वप्रथम भूमि की शुद्धि करनी पड़ती है। भूमि शुद्धि के लिए जमीन की खुदाई कर भीतर रहे अस्थि-पंजर, अशुद्ध पदार्थ आदि निकाल कर सफाई करनी पड़ती है। जैसे किसान भी खेत जोतने से पहले पुराने व खराब बीजों को निकाल कर फिर नये बीजों का वपन करता है, वैसे ही अपने भीतर रहे पाप बीजों को निकालकर पहले सफाई करनी होगी। बीज यानि संस्कार। हिंसा आदि पाप करने से कर्म बन्धन होते हैं, साथ ही कुसंस्कार खड़े हो जाते हैं, क्योंकि बहुत से खराब संस्कार हमारी आत्मा के भीतर भरे पड़े हैं। उनको निकाल कर शुद्ध करना है। प्रश्न उठता है कि इन पांच सूत्रों का क्रम ऐसा क्यों रखा गया? समाधान हैपाँच सूत्रों का यह क्रम युक्ति युक्त है, क्योंकि जैसे पाप का प्रतिघात किए बिना गुण बीजाधान नहीं होता और गुण बीजाधान हुए बिना धर्म गुण आधार श्रद्धा-परिणाम का अंकुर नहीं फूटता; और जब श्रद्धा नहीं होगी तो साधु धर्म की परिभावना होना और भी कठिन है, क्योंकि तब साधु धर्म की परिभावना नहीं किए हुए को दीक्षा लेने की विधि स्वीकारने का अधिकार नहीं होता। दीक्षा नहीं ली तो उसके पालन करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? दीक्षा का पालन नहीं करेगा तो दीक्षा का फल मोक्ष कहाँ से मिलेगा? यानि मिलेगा ही नहीं। यदि कोई दूसरे क्रम से इस विधि का पालन करेगा तो वास्तविक गुण, आत्मा की उत्क्रान्ति ही नहीं होगी। उससे मोक्ष सिद्ध नहीं होगा। इसलिए पंचसूत्र के इस क्रम से ही वस्तु की प्राप्ति होगी। - पंचसूत्र का जो क्रम बताया गया है, वह सहेतुक है। अतः जीवों को सर्वप्रथम पापों का प्रतिघात करने के पश्चात् ही धर्म गुण के बीज का वपन करना चाहिए। यहाँ धर्म गुण यानि प्राणातिपात विरमण आदि है। जीव हिंसा, असत्य भाषण इत्यादि दुष्कृत्यों पर 23 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सहज भाव से अरूचि, अपक्षपात, द्वेष आदि होने के पश्चात् इनका प्रतिज्ञाबद्ध त्याग करना ही 'गुण' है। इनमें भी स्वर्गीय सुख की प्राप्ति इत्यादि आकांक्षा से हिंसा का त्याग किया जाए तो उनका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि ये कोई गुण रूप नहीं कहलाएंगे। इनमें भौतिक सुख-सिद्धियों की अंध-तृष्णा ही मुख्य रूप से रहती है। इनके सुखों के स्थान पर 'ये हिंसादि दुष्कृत्य भव को बढ़ाने वाले हैं, मोक्ष को रोकने वाले हैं, आत्मा की एक अधम निन्दनीय दशा है', ऐसा समझकर इनका त्याग किया जाए, गुण ग्रहण की शुद्ध इच्छा प्रकट हो, अहिंसादि गुणों का आदर हो, तब ही धर्म गुण प्रकट हुआ कहलाएगा। हिंसादि त्याग गुणों को स्वीकार करने की बात तो दूसरे सूत्र में बताये जाएँगे, किन्तु इनके बीजों को वपन करने के उपाय (आधान) तो इस प्रथम सूत्र में ही बताए गये हैं। . बीजाधानयानि क्या? ___कोई भी धर्म अथवा गुण इनके बीजों के वपन करने के पश्चात् ही क्रमशः उन बीजों के अंकुर, नाल, पत्र, फूल इत्यादि उत्पन्न होते हैं। उसके फलस्वरूप उसी रूप में फल व गुण प्राप्त होते हैं। श्री ललित विस्त्ररा शास्त्र में इन गुण रूपी बीजों का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'बीज सत्प्रशंसादि'। धर्मगुण की प्रशंसा करना ही इनके बीज कहलाते हैं; अर्थात् धर्मगुण किसी भी प्राणी में देखकर अथवा उपदेश द्वारा श्रवण कर मन में उनके प्रति आकर्षण भाव पैदा होते हैं और भीतर से उद्गार निकल जाते हैं कि, 'अहो! कितना सुन्दर यह धर्म-गुण! कितना सुन्दर हिंसा का त्याग व असत्य का त्याग कहा है ... इत्यादि।' ये ही धर्म गुण की प्रशंसा कहलाती है। धर्म-गुण रूपी फल प्राप्त करने में यह प्रशंसा 'बीज' रूप है। फिर धर्म-गुण प्राप्त करने की अभिलाषा, उत्कण्ठा जगती है कि मुझे धर्म-गुण कब प्राप्त होगा? यदि धर्म-गुण शीघ्र प्राप्त हो जाए तो कितना सुन्दर होगा? ऐसे धर्म-गुण को प्राप्त करने की हार्दिक अभिलाषा 'अंकुर' के समान है। धर्म-गुण कैसे प्राप्त होगा, उसे प्राप्त करने के लिए शास्त्र श्रवण करना, उपाय ढूढ़ना इत्यादि प्रयास करने से जीवन में धर्म-गुण का स्वीकार हो जाना, धर्म-गुण प्राप्त हो जाना ही 'बीज का फल' प्राप्त होना कहलाता है। ये गुण बीज वास्तव में पापप्रतिघात करने के पश्चात् ही प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार पापप्रतिघात में अशुभ अनुबन्ध के आश्रव रोक दिये जाते हैं, उसी प्रकार शुभ अनुबन्ध के कर्म प्रकट हो जाते हैं। वैसे तो प्रति समय कर्मों का बन्ध होना तो चलता ही रहता है, परन्तु तीव्र मिथ्यात्व कषाय आवेश इत्यादि शान्त हो जाने से उन्हीं के स्थान पर चित्त में शुभ भाव प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार शुभ अनुबन्ध अर्थात् शुभ कर्मों की परम्परा 24 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आरंभ हो जाती है। इन्हें हम पुण्यानुबन्धी कर्म कह सकते हैं। इनके बिना विपाक (फल) के समय आत्मा में तीव्र मिथ्यात्व, कषायावेश का अभाव होने से धर्म - गुण की रूचि भीतर में प्रकट होती है। सारांश पाप प्रतिघात के पश्चात् गुण बीजाधान करने की इच्छा हो तो सर्वप्रथम प्राणातिपात-विरमण आदि गुणों का आकर्षण प्रकट करना होगा। जीवन में धर्म- गुण ही ग्रहण करने योग्य (उपादेय) हैं । यही कर्त्तव्य हैं, हितकारी हैं, प्राप्त करने योग्य हैं। हिंसा, असत्य आदि करने योग्य नहीं हैं। ऐसा भीतर में भाव पैदा होगा। इससे धर्म-गुण के प्रति श्रद्धा प्रकट होती है। इस धर्म - गुण की प्राप्ति से ही जीवन धन्य लगता है। यही धर्म - गुण जीवन में सारभूत होता है, यही श्रद्धारूप बीज सम्यक्त्व कहलाता है। इस श्रद्धा में मोक्ष के प्रति रूचि है, तत्त्व का आग्रह है । परिणति ज्ञान है। ये सभी भाव कब आते हैं ? जब पाप का प्रतिघात होता है, जब भवरूचि का पाप मिट जाता है, तब ही मोक्ष की रूचि प्रकट होती है। अतत्त्व, मिथ्यात्व की रूचि का पाप चला जाता है, तब ही तत्त्व रूचि जगती है और संसार-रसिकता का पाप चला जाता है; अर्थात् विषयों को सुख रूप और इन्द्रियों को सुख का साधन रूप में देखना, जब यह प्रतिभास ज्ञान चला जाता है, तब तत्त्व परिणति का गुण आता है। परिणति अर्थात् विषयों का सच्चा स्वरूप समझ में आना| विषय - हलाहल विष के समान है, भवों की वृद्धि करने वाला है, ऐसा हृदय में अंकित हो जाना ही परिणति कहलाती है। इसी प्रकार हिंसा, असत्य इत्यादि पापों के प्रति भी लगे । ऐसे भाव चित्त में उत्पन्न होने के पश्चात् मिथ्यात्व पाप का प्रतिघात होकर सम्यग्दर्शन रूपी गुण बीज की प्राप्ति होती है। इस पंचसूत्र के पदार्थ को बाह्य रूप में समझना सरल है किन्तु भीतर में उतारना गहरा व गंभीर है। हृदय में इस सूत्र का स्पर्श हो जाए, इसके लिए अति गंभीर विचारों की जरूरत है। जब पाप प्रतिघात से अशुभानुबन्ध के आश्रव रूक जाते हैं, तथा गुणबीजाधान द्वारा शुभानुबन्ध के आश्रव प्रकट हो जाते हैं, तब हृदय में हिंसादि दृष्कृत्यों के भाव जगाने के पाप साधन के स्थान पर गुणों के भाव उत्पन्न करने के साधन प्रकट होते हैं। इस प्रकार शुभ प्रवृति के अनुकूल बाह्य और आभ्यन्तर साधन प्राप्त होते हैं। बाह्य से मानव देह, आर्यक्षेत्र, पाँच इन्द्रियों की पटुता, स्वस्थ मन, आरोग्य, अरिहन्त देवाधिदेव, निर्ग्रथ गुरू, सर्वज्ञ वचन इत्यादि प्राप्त होते हैं। आभ्यन्तर से शुभभाव, सम्यग्वीर्योल्लास इत्यादि प्रकट 25 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला होते हैं। अन्त में, मोक्ष न मिले, वहाँ तक पुण्य से ऐसे साधन प्राप्त होते रहेंगे। अशुभ अनुबन्ध के प्रतिघात और शुभानुबन्ध के बीज वपन से ही ऐसी स्थिति प्रकट होती है। यही पुण्यानुबन्धी पुण्य का प्रभाव है। इसमें मुख्य रूप से विशुद्ध अध्यवसाय यानि हृदय का शुभ भाव धर्म गुण की तीव्र इच्छा, मोक्ष आदि ये ही 'गुणबीज' हैं। गुणबीजाधान से हिंसा-विरमण आदि गुणों के प्रति रूचि व आकर्षण प्रकट होना इन गुणों को स्थूल रूप से स्वीकार करने के लिए प्रयत्न आरंभ होना है। 'स्थूल' से तात्पर्य गृहस्थ घर निवास में रहते हुए इनका पालन कर सके, वैसे बड़े-बड़े रूप में हिंसा विरमण, असत्य विरमण आदि। यथा 1. मैं निरपराधी चलने-फिरने वाले जीवों को जान कर मारूंगा नहीं। 2. मैं कन्या, गाय, भूमि आदि विषय सम्बन्धी झूठ बोलूंगा नहीं। 3. परिग्रह रखे प्रमाण से ज्यादा रखूगा नहीं इत्यादि। इन्हें अणुव्रत कहते हैं। संसार के त्यागी साधु भगवंतों को महाव्रत लेने होते हैं; जिसमें पृथ्वीकाय, अप्काय आदि सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा का निषेध होता है। थोड़ा सा असत्य भाषण भी वर्जित होता है। एक पैसे का भी परिग्रह नहीं होता, इत्यादि। ऐसी स्थिति को हृदय में प्रकटाने के लिए यहाँ अणुव्रत स्वीकार करना और इनके पोषण करने वाले विषयों का आदर व बाधक विषयों का त्याग करना है। इन सभी का अभ्यास गृहस्थ को करना चाहिए। क्षमादि का यही अभ्यास इस प्रकार के साधु धर्म में पहुँचने के लिए है। जिससे इन्हें साधु धर्म की भावना वाला अभ्यास यानि परिभावना कहते हैं। । सुलोचना चरण रज - डॉ. प्रियदिव्यांजनाश्री 26 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल पंचसूत्र आद्य मंगल खण्ड - प्रथम णमो वीयरागाणं, सव्व-नृणं, देविंद-पूई-याणं, जह-ट्ठिअ-वत्थु-वाइणं, तेलुक्क-गुरूणं, अरुहंताणं, भगवंताणं। 27 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल प्रथम सूत्र पापप्रतिघात-गुणबीजाधान हे वीतराग परमात्मा! हे सर्वज्ञप्रभु! देवेन्द्र द्वारा पूजित प्रभु! यथार्थ को कहने वाले नाथ! हे तीन भुवन के जगद्गुरू! ऐसे उत्तम विशेषणों को धारण करने वाले हे अरिहन्त भगवन्त! आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम हो। पंचसूत्र की शुरूआत 'नमो' शब्द से होती है। पहला शब्द 'नमो वीयरागाणं', ग्रन्थ के मंगलाचरण के लिए है। शुभ कार्य की शुरूआत के लिए मंगल तो विशेष रूप से करना चाहिए, जिससे विघ्न दूर होता है और कार्य निराबाध रूप से सम्पन्न होता है। कहते हैं कि शुभ कार्य में विघ्न तो आते ही हैं, इसलिए यहाँ मंगल जरूरी है। अशुभ कार्य में विघ्न उत्पन्न हो तो अच्छा मानना चाहिए, जिससे अशुभ कार्य रूक जाएं। मंगल इष्ट देवता के स्मरण से या नमस्कार से होता है। जगत् में देवाधिदेव अरिहन्त वीतराग परमात्मा ही सर्वश्रेष्ठ इष्ट देव हैं। इन्हें किया गया नमस्कार सर्व विघ्नों का नाश करने वाला है। इसलिए अरिहंत परमात्मा को किया गया नमस्कार सबसे श्रेष्ठ (उत्तम) मंगल कहा जाता है। नमस्कार तीन प्रकार के होते हैं - इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ्य योग। यहाँ इनको संक्षिप्त में बताया जा रहा है1. 'इच्छा योग' में अरिहन्त परमात्मा को नमन करने की केवल इच्छा होती है। विधि या अविधि के ध्यान बिना मात्र नमस्कार किया जाता है। 2. 'शास्त्रयोग' में अरिहन्त परमात्मा को शास्त्र अनुसार सम्पूर्ण विधिपूर्वक नमस्कार किया जाता है। 3. 'सामर्थ्य योग' में अरिहन्त परमात्मा को उनकी सम्पूर्ण आज्ञा का पालन करते हुए नमस्कार किया जाता है। यह सामर्थ्य योग केवल ज्ञान के एकदम निकट है; अर्थात् केवलज्ञान आकर ही रहता है। विशेषण युक्त नमस्कार एवं विशेषण रहित नमस्कार में केवल भावों में अंतर होता है। भावों की महत्ता के लिए यहाँ विशेषण का प्रयोग किया गया है। सूत्र में अरूहंताण भगवंताणं यह विशेष्य है। अरिहंत को अरूहन् और अर्हन् भी कहा जाता है, उनके अर्थ यहाँ बताये गये हैं। 1. अरिहंत - अरि+हंत; जिन्होंने राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को नष्ट कर दिये हैं। 2. अरूहन् - रूह धातु का अर्थ उत्पन्न होना। अर्थात् जिनके कर्म फिर से उत्पन्न नहीं होंगे। 28 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल 3. अर्हन् - जो सम्पूर्ण विश्व के जीवों के लिए पूजनीय है। अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करके शास्त्रकार मंगल करते हैं। अरिहंत भगवान् के चार विशेषण - 1. वीतराग, 2. सर्वज्ञ 3. देवेन्द्रपूजित और 4. यथास्थित वस्तु को कहने वाले, ऐसे तीन भुवन के सद्गुरु। ये चार विशेषण जगद्गुरु परमात्मा के चार महान् अतिशय को बताते हैं। पहले चार विशेषण को समझ लें। वीतरागआदिचार विशेषणों की सार्थकता 1. वीतराग- 'वीतः अपेतो रागः' जिनके राग-द्वेष चले गये। 'राग' अर्थात् आत्मा में आसक्ति के परिणाम जगाने वाला मोहनीय कर्म, आत्मा में अप्रीति कराने वाला कर्म-'द्वेष'। मिथ्या ज्ञान के परिणाम जगाने वाला कर्म-मोह। रागादि यानि राग-द्वेष और मोह जिनके समाप्त हो गये, वे वीतराग कहलाते हैं। जो मोह को आत्मा में दबाकर कर्मोदय को रोक कर रखते हैं, वे उपशान्त-मोह-वीतराग होते हैं। परन्तु यहाँ पर सर्वथा क्षीणमोही और छमस्थ (अज्ञान) भाव से रहित ऐसे वीतराग विशेषण को लेना है। इसलिए वीतराग के साथ सर्वज्ञ का विशेषण लिखा गया है। 2. सर्वज्ञ- भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के सभी द्रव्यों और सभी पर्यायों को जो जानते और देखते हैं, उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं। जो तीन लोक और तीन काल की किसी भी वस्तु, पदार्थ से अपरिचित नहीं हैं। वे सब कुछ जानते हैं। उन्हें देखते हैं, हर जीव के अनन्त भव चलचित्र की तरह दिखाई देते हैं। निमित्त शास्त्रादि के आधार पर त्रिकालवेत्ता भी व्यवहार में सर्वज्ञ कहे जाते हैं, परन्तु वे सरागी होते हैं। इसलिए सर्वज्ञ के साथ वीतराग विशेषण रखा गया है। सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए उत्तम से उत्तम साधना करनी पड़ती है। प्रमाद का त्यागकर स्वाध्याय, ध्यान में निरत रहना पड़ता है। तब केवल ज्ञानी सर्वज्ञ कहलाते हैं। जहाँ प्रमाद है, वहाँ केवल ज्ञान नहीं होता। . 3. देवेन्द्रों से पूजित- वीतराग एवं सर्वज्ञ तो सामान्य केवलज्ञानी भी होते हैं। सर्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं- तीर्थंकर सर्वज्ञ, सामान्य केवलज्ञानी सर्वज्ञ। तीर्थंकर देव विशिष्ट पुण्य वाले होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा को केवलज्ञान प्रकट होते ही देवता समवसरण की रचना करते हैं, जो अष्ट प्रातिहार्य से सुशोभित होता है। परमात्मा के बैठने का सिंहासन रत्नजड़ित स्वर्ण से युक्त होता है। मस्तक के पीछे आभामण्डल होता है। परमात्मा की देह से बारह गुणा ऊँचा अशोकवृक्ष उनके पीछे होता है। मस्तक के ऊपर तीन छत्र होते हैं। देवदुन्दुभी, दिव्यध्वनि, पुष्प वृष्टि आदि की रचना कर देवों के देव 29 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल अर्थात् देवेन्द्र, परमात्मा की पूजा, भक्ति करते हैं। स्मरण रहे, उनमें हम से कई गुणा ज्यादा शक्ति व सामर्थ्य होता है फिर भी इन्द्रदेव परमात्मा की पूजा में तत्पर रहते हैं। करोड़ों देवता सेवा में हाजिर खड़े रहते हैं। इसलिए यहाँ सामान्य केवलज्ञानी न लेकर जिनेश्वरदेव को लिया गया है एवं देवेन्द्रों से पूजित', यह विशेषण रखा है। 4. यथास्थित वस्तुवादी- परम सत्य यानि यथार्थ को कहने वाले तीन विशेषणों से अलंकृत अरिहन्त परमात्मा धर्म-तीर्थ की स्थापना करके, मोक्षमार्ग के तत्त्वों का उपदेश फरमाते हैं, तत्पश्चात् ही मोक्ष पधारते हैं। यही सूचित करने के लिए यथास्थितवादी यह चौथा विशेषण कहा गया है। कहते हैं- चौदहपूर्वी श्रुतकेवली भगवन्त भी यथास्थित वस्तुवादी होते हैं, परन्तु सूत्रकार को श्रुतकेवली भगवन्तों को यहाँ नहीं लेना है। पूर्व के तीन विशेषणों को जोड़कर यहाँ यथास्थित वस्तुवादी श्री जिनेश्वरदेव को ही लिया गया है। सूत्र में अरूहंताण शब्द है। उसका अर्थ - जिनमें अब कर्मबन्ध का कोई भी कारण नहीं, जिनमें कर्म के अंकुर उदित नहीं होंगे। श्री तीर्थंकर प्रभु के चार विशेषण में चार महाअतिशय 1. अपायापगमातिशय - 'अपाय' अर्थात् दोष, 'अपगम' यानि नाश करने वाले अर्थात् जो सर्व राग-द्वेषादि दोषों से रहित हो गये, वे वीतरागा 'अपाय' का मतलब उपद्रव भी होता है। वीतराग प्रभु अपायापगम वाले हैं। तीर्थंकर नाम कर्म के उदय होते ही प्रभु विहार मार्ग के सवा सौ योजन में मारीमरकी इत्यादि उपद्रवों का निवारण करने वाले हैं। वीतराग विशेषण से अपायापगम अतिशय सूचित होता है। 2. ज्ञानातिशय - सर्वज्ञ विशेषण से ही ज्ञानातिशय अर्थात् सर्वद्रव्य, सर्व पर्याय को जानना, देखना; इसी सर्वज्ञता से ज्ञानातिशय जाना जाता है। 3. पूजातिशय - देवेन्द्रों से पूजित इस विशेषण से पूजातिशय को बताया गया है। वैसे भी परमात्मा इस अतिशय से विश्व के सर्व जीवों से पूजित कहलाते हैं। नर-नारी, देव-दानव, नारकी, तिर्यंच सभी परमात्मा की पूजा, भक्ति करते हैं। वचनातिशय - यथास्थित वस्तुवादी विशेषण से 35 अतिशयों से युक्त वाणी को वचनातिशय का निर्देश किया है। चार महा-अतिशय के स्वामी प्रभु तीन लोक के गुरु हैं। आत्महित का उपदेश फरमाने वाले ही सच्चे गुरु होते हैं। शुद्ध और सत्य धर्म के उपदेशक, संसार के त्यागी और वैरागी निग्रंथ मुनि के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकते हैं? अरिहन्त परमात्मा हमारे सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं। आद्य गुरु हैं। . वीतराग शब्द से वीतद्वेष, वीतमोह भी समझ लेना है। राग सभी दोषों का राजा For Perso 30. Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल है, इस एक राग के जाने से बाकी सभी दोष अपने आप नष्ट हो जाते हैं। द्वेष से भी ज्यादा बलवान दोष 'राग' है। राग का नाश दसवें गुणस्थानक के अन्त में होता है, द्वेष का नाश नवमें गुणस्थानक में ही हो जाता है। इससे ज्ञात होता है कि द्वेष नष्ट होने पर जितनी आत्मविशुद्धि होती है, उससे ज्यादा चित्त के अध्यवसाय की अधिक विशुद्धि हो तो ही राग नष्ट होता है। रागबड़ाबलवान राग दोष, द्वेष दोष से भी ज्यादा प्रबल दोष है। यह इस प्रकार है1. राग का आयुष्य द्वेष से भी ज्यादा बड़ा है। 2. द्वेष भूलना सरल है पर राग भूलना कठिन है। 3. द्वेष करना पड़ता है, राग सहजता से हो जाता है। 4. द्वेष से होने वाला नुकसान दिखाई देता है, परन्तु राग से जो नुकसान होता है वह समझ में नहीं आता। 5. द्वेष मत करो, ऐसा सभी कहते हैं, परन्तु राग मत करो, ऐसा जगत् में कोई नहीं - कहता, यह तो वीतराग का शासन कहता है। 6. द्वेष दुर्ध्यान कराता है। यह अनुभव होता है; परन्तु राग दुर्ध्यान कराता है, ऐसा नहीं लगता है। 7. द्वेष करने वाला अपने प्रति द्वेषी बनकर रहे, यह अच्छा नहीं लगता। परन्तु राग करने ... वाला अपने प्रति अखण्ड रागी बना रहे, ऐसा चाहता है; उसका रागीपना छूटे यह भी - अच्छा नहीं लगता। 8. द्वेष दुर्गुण है, यह फिर भी मालूम होता है; परन्तु राग आत्मा का स्वभाव नहीं है, बल्कि दुर्गुण ही है, यह ज्ञात नहीं होता। 9. द्वेष लम्बे समय तक रहे तो अच्छा नहीं लगता है, और राग लम्बे समय तक रहे तो भी अच्छा लगता है। 10. आठों कर्मों की जड़ 'मोहनीय कर्म' और मोहनीय की जड़ 'राग' है। मोहनीय की . प्रकृति के मूल में राग है। तीव्र कोटि का राग अर्थात् अनंतानुबंधी का राग जब तक नहीं जाएगा, तब तक मिथ्यात्व नहीं जाता है। राग के दो प्रकार हैं- प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग। प्रशस्त राग कर्म-बन्धन नहीं करता है, कर्म बन्धन को छुड़ाने वाला है। प्रशस्त For Perso31 & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल राग औषधि की तरह अप्रशस्त राग से छुड़ाता है। प्रशस्त राग अर्थात् देव- गुरु धर्म पर राग, सम्यक् शास्त्र, तीर्थ, पर्व, धर्मक्षेत्र पर राग होने से पाप का बन्ध नहीं होता है, गलत आकांक्षा का राग ही पाप का बन्ध कराता है। धर्मराग यानि धर्मलेश्या वालों का राग, पापों को काटकर आत्मा का विकास कराता है। अप्रशस्त राग अर्थात् पाप की लेश्यावाला राग । परन्तु प्रशस्त का दिखावा करने से प्रशस्त नहीं बन जाएगा ? दरिद्र यदि साहूकार के कपड़े पहन ले तो कोई साहूकार नहीं बन जाएगा। दरिद्रता की दिशा बदले; धंधा बदले, वृत्ति बदले तो लोग विश्वास करेंगे। पुत्र व पत्नी के ऊपर प्रशस्त राग तभी कहलाएगा जब स्नेह राग व काम राग चला जाएगा। ये साधु अच्छा वासक्षेप डालते है, इससे फायदा होता है, इत्यादि भी अशुभ, अप्रशस्त राग बन जाएगा। संसार के लाभ की अपेक्षा से, हास्यादि मोह की वृत्ति के पोषण की दृष्टि से राग करे तो अप्रशस्त राग होता है। संसार से निस्तार पाने के लिए, मुक्त होने के लिए तथा उसके उपाय से जुड़ने के लिए राग किया जाय तो प्रशस्त राग कहलाता है। इससे धर्म श्या और धर्म का राग, दोनों बढ़ते जाते हैं। धर्म लेश्या की मात्रा, शुद्धता और वेग जितना कम होगा, पुण्य उतना ही कमजोर बंधेगा। धर्म की लेश्या प्रशस्त तो पुण्य भी प्रशस्त और उससे धर्म सामग्री भी प्रभावी मिलेगी। शालिभद्र के जीव की धर्म लेश्या आहार दान के समय बहुत ऊँची थी तो देवता द्वारा नव्वाणु पेटियां रोज मिलती थी । उत्कृष्ट धर्म लेश्या से युक्त होकर जैसा चारित्र लिया, वैसा पालन किया। ऊंची धर्म लेश्या वाला अधूरी साधना की चाह नहीं करता । पूर्व भव में खीर दान के पश्चात् ही गुरु महाराज के प्रति प्रशस्तं राग का प्रवाह बहा । पेट में शूल की पीड़ा हो रही थी, फिर भी दर्द को भूलकर चित्त में गुरु महाराज ही बसे हुए थे। माता क्या कर रही है? मेरे पेट पर दवा लगा रही है या नहीं, इसका भान नहीं; परन्तु गुरु के उपकारों का चिंतन जारी था। अहो! मेरे उपकारी गुरु मुझे नि:संदेह तारेंगे, कितना सुन्दर योग ! खीर दान हेतु महात्मा का सुयोग मिला। ऐसी दान धर्म की अनुमोदना हृदय से कर रहा था। यही प्रशस्त राग है। इसी से वह उच्च वैभव की सामग्री का स्वामी बना । यह सामग्री पापानुबन्धी नहीं होने के कारण मोह में अंधा नहीं बनाती। शालिभद्र ने मात्र इतना जाना कि एक राजा मेरी ही तरह एक मानव है, फिर भी मेरा स्वामी है। विचार बदले । तुरन्त देव प्रदत्त रत्नादि नव्वाणु पेटियाँ भी लोहे की पेटी जैसी लगीं । अप्सरा जैसी बत्तीस पत्नियाँ समस्त संसार की माँ-बहिन जैसी लगने लगीं। जिस पुण्य में कुछ कमी हो, ऐसी पुण्याई मुझे नहीं 32 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल चाहिए। इसलिए ऋिद्धि, 32 पत्नियाँ एवं प्यारी माता को छोडकर वीतराग प्रभु महावीर भगवान् के चरण पकड़े और चारित्र ले लिये और संसार सागर से तिर गये। यही प्रशस्त राग तारता है, अप्रशस्त राग मारता है। राग से भी ज्यादा द्वेष खराब दिखता है, परंतु राग द्वेष से भी ज्यादा भयंकर होता है। राग आत्मा में वस्तु के प्रति आकर्षण भाव पैदा करता है, आत्मा को अपनी ओर खींचता है, जबकि द्वेष आत्मा को वस्तु से दूर रखता है। इस प्रकार अनेक दृष्टि से 'राग' द्वेष से भी ज्यादा बलशाली और महाअनर्थकारी है। इसी के साथ दूसरे दोष जबरन पोषित हो जाते हैं। इसलिए राग निकालेंगे तो दूसरे दोष अपने आप निकल जाऐंगे। रंगे वह राग है। आत्मा जिससे रंगी जाए, वह राग है। आत्मा को वस्तुओं के आकर्षण के रंग से रंगते हैं, इसलिए वह राग है। 'द्विष्' धातु अर्थात् अपसन्द होना, खराब लगना, इससे द्वेष शब्द बना है। जिन्हें इष्ट पर आकर्षण नहीं होता है, उन्हें अनिष्ट पर अप्रीति-अनादर का भाव भी नहीं होता है, जिनके इष्ट व अनिष्ट के प्रति आदर व खराब भाव चले गये, वे ही वीतराग होते हैं। वीतराग वीतमोह भी होते हैं। अर्थात्, जिनका मोह भी नष्ट हो गया है। मोह यानि अज्ञान, मिथ्याज्ञान, विपर्यास, मूढ़ता, मिथ्यात्व, दुराग्रह इत्यादि। राग-द्वेष दो बड़े डाकू आत्मा को अपने वश में करके, आत्मा के असली स्थान (मोक्ष) से इसे पराङ्मुख रखते हैं। इन दो डाकुओं के साथ मोह और भयंकर खतरनाक लुटेरा है। 'राग' बिना भौंके फूंककर, चाटकर काटता है, जबकि 'द्वेष' भौंककर काटता है। 'मोह' अंधेरे में रखकर फिर काट लेता है। राग और द्वेष में, काटने वाला कुत्ता है, यह ज्ञात होता है। जबकि मोह में जिसने काटा वह कुत्ता है, यह पता ही नहीं चलता है। मोह कुत्ते को बकरा दिखाता है, सांप को डोरी दिखाता है। जगत् में जो कुछ मूल्यवान है, जैसे जड़ पदार्थ - घर, दुकान, धन, कुटुम्ब, काया, ये ही महत्त्व के हैं, श्रेष्ठ हैं, सर्वस्व हैं, हितकारी हैं, ऐसा मोह बताता है। उसका मन मात्र जड़ पदार्थ को ही मूल्य देता है। उसके आगे आत्मा जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। 'जड़ से जीना और जड़ से ही मरना', यह सभी चाल मोह की है। आत्मा के लिए देह है, यह बात उसे भुला देता है। देह ही वस्तु है, इसलिए इसका ध्यान रखना है, ऐसा ही वर्तन है। आत्मा के लिए देह है, ऐसा नहीं बल्कि देह के लिए ही आत्मा है, ऐसा दिखाता ___ जितना मोह को जीतना कठिन है, उतना मोह से हारना सरल है। मोह नहीं होता, केवल राग-द्वेष ही होते तो काटने वाले कुत्ते को पहचान जाते। कुत्ते पर विश्वास नहीं 33 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल रखते, किन्तु मोह तो कुत्ते को बकरा दिखाता है। बकरा ही काट रहा है, ऐसा जबरदस्ती मनवाता है। इस प्रकार मोह प्रतिकूलता को अनुकूलता दिखाता है। अहित को हित, हित को अहित दिखाता है। मोह आत्मा का अति नुकसान तो करता ही है, साथ ही नुकसान को लाभ रूप में बतलाता है। मोह को काबू में करोगे तो ही राग वश में होगा। मोह है, तभी तक जीव आनन्द से राग करता है। राग को हितकारी मानता है। आत्मा से मोह यानि मिथ्या मति (असत्य धारण) दूर हो जाने के बाद ही राग उसे दुश्मन दिखाई देगा। मोह बड़ा गुण्डा है, लुटेरा है, ऐसा मानने के बदले उसे परम मित्र मान बैठे हैं, यही हमारी सब से बड़ी भूल मोह नहीं होगा, तभी राग-द्वेष के दूषणों की पहचान होगी, उसे दूषण (दोष) के रूप में मानेगा। पर मोह दूषण को दूषण के रूप में मानने ही नहीं देता, गुण की मुहर छाप लगा देता है। दोष पर गुण का लेबल लगाना यह महा भयंकर है। एक मानव अभिमानी है परन्तु स्वयं दोषित होते हुए भी स्वयं को गुणवान मानता है। मैं समझदार हूँ। मैं कोई मूर्ख नहीं, ठोठ नहीं, इस प्रकार अभिमानी व्यक्ति दोषों के ऊपर गुण का लेबल लगाता है। होगा प्रमादी धर्म के प्रति, आत्महित के प्रति बेपरवाही, और ऊपर से लेबल लगाता है सावधानी का, आत्मजागृति का। गुरू बहुत समझाते हैं, परन्तु अभिमान उसे सत्य वस्तु समझने ही नहीं देता। होगा तो अल्प ज्ञानी पर, अपने ज्ञान को महासागर मानेगा। अहं भाव और कुमति जाएगी तो आत्मा का स्वरूप समझ में आएगा। गुण दोष का विवेक होगा। दोष के ऊपर गुण का लेबल नहीं लगाएगा। पुण्य जागृत होगा तो दोष भी गुण में प्रकट होगा। पर दोष तो दोष ही है। गुण के रूप में दोष का सेवन महा-भयंकर रूप है। समझो! वीतराग के शासन को छोड़कर मन:स्थिति गलत सुख के पीछे, कदाग्रह के पीछे, मोह के द्वारा करा रही जगत् की शाबासी के पीछे, जीव स्वयं अपने हाथों से अपनी आत्मा को गुणों से दूर कर रहा है। आत्मा को दोषों में डुबो रहा है। इसलिए मोह का त्याग करें, परमात्मा की उपासना करें। ___वीतराग के पश्चात् सर्वज्ञ विशेषण ज्ञानातिशय को सूचित करता है। यानि अनन्त ज्ञान, सर्वज्ञ, विश्व के समस्त जीव, पुद्गल इत्यादि अनंतानंत द्रव्यों के अनन्त भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञान वाले; प्रत्येक द्रव्य के बने हुए, बनने वाले व बन रहे सर्व अनन्तानंत भाव पर्यायों (अवस्थाओं) को हाथ में रहे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखने और जानने वाले; वह त्रिकाल के सर्व परमाणु, सर्वपरमाणु के सर्व पर्याय और सर्व जीवों के अनंतानंत भाव, उन सभी को प्रत्यक्ष देखते हैं। इस केवल ज्ञान का प्रकाश जबरदस्त है। अनन्तानंत काल की कोई भी वस्तु अथवा घटना इसमें छुपी नहीं रहती है। प्रत्यक्ष शुद्ध ज्ञान 34 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल का स्वभाव ही ज्ञेय वस्तु को जानने का है। कितना जानते हैं, यह मर्यादा नहीं बांधी जा सकती है। क्योंकि मर्यादा बांधने में नियम यह है कि इतनी ही वस्तु को जानते हैं? केवलज्ञान प्रकाश का स्वभाव यह है कि जिसका नाम ज्ञेय है उसे जानेगा, बाद में भले ही वह अनन्त काल पूर्व का हो या बाद का हो। केवलज्ञानी वर्तमान, भूत, भविष्य सर्व-काल को, समस्त ज्ञेय को प्रत्यक्ष देखते हैं। उनसे कोई प्रसंग अथवा कोई स्थिति छिपी नहीं रहती 'देवेन्द्रों से पूजित' अरिहंत परमात्मा का तीसरा विशेषण है। इससे तीसरा पूजातिशय सूचित होता है। असंख्य देवताओं के स्वामी इन्द्र भी जिनकी पूजा भक्ति करते हैं, वे अरिहन्त भगवान् कैसे होंगे? उन परमात्मा की वे पूजा किस भाव से करते होंगे? यह समझना आवश्यक है। परमात्मा की पूजा दो प्रकार से की जाती है1. लालच या स्वार्थ से, पराधीनता या डर से की गई पूजा अधम पूजा कहलाती है। 2. उपकारी मानकर या गुणों के बहुमान से अथवा गुण प्राप्त करने के लिए जो पूजा करते __हैं, वह उत्तम पूजा कहलाती है। निर्मल अवधिज्ञान के मालिक और पूर्व भव की सुन्दर आराधना वाले इन्द्रदेव पराधीनता से या लालच से कभी प्रभु को नमन नहीं करते हैं। जिनको असंख्य काल तक पौद्गलिक सुखों का पार नहीं, ऐसे इन्द्र 'अरिहन्त परमात्मा' की पूजा दो कारणों से करते हैं- प्रथम अरिहन्त परमात्मा के अनन्तानंत उपकार व गुण के प्रति बहुमान भाव से। दूसरा उनके जैसे (परमात्मा के जैसे) गुणों का स्वामी बनने के लिए। जब इन्द्र इस भावना से पूजा करते हैं तब हमें किस प्रकार व किस आशा से पूजा करनी चाहिए? शास्त्रों में कहा गया है कि इन्द्रदेव परमात्मा की पूजा भौतिक अपेक्षा और ऋद्धि की आशा के बिना विशुद्ध भावों से करते हैं, मानव भव प्राप्त कर प्रभु के जैसे शुद्ध भाव और विशुद्ध चारित्र प्राप्त करने के लिए पूजां करते हैं। वह इन्द्रासन को चिरस्थायी करने के लिए नहीं, फिर से इन्द्र की ऋद्धि मिले, इसलिए भी नहीं, बल्कि जो मानव भव इन्द्रों को वर्तमान में नहीं मिला है उसके लिए इन्द्र तरसते हैं। .....और हमें जो श्रेष्ठ मनुष्य भव मिला है, उससे कैसी उत्तमोत्तम साधना हो सके, उसकी हमें कोई परवाह ही नहीं, भान नहीं! - हम मनुष्य भव पाकर केवल-तुच्छ विषयों को पाने में, कषायों का पारा चढ़ाने में, रस, ऋद्धि और शाता गारव के जाल में बंध जाने में अपना जीवन समाप्त कर रहे हैं। फिर भी देखो, इन्द्र मनुष्य भव के लिए कामना करता है, परमात्मा का पूजक बनता है। 35 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल यद्यपि इन्द्र की पूजा अधूरी है, क्योंकि वह वीतराग परमात्मा की सर्वविरति चारित्र की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता है। भगवान की श्रेष्ठ पूजा, भगवान् की आज्ञा सर्वांश पालने में रही हुई है; और वह सर्वविरति के पालन से होता है । प्रश्न हो सकता है कि भगवन्त की आज्ञा का पालन गणधर महाराज श्रेष्ठ रूप से करते हैं, तो पंच सूत्रकार को प्रभु को गणधर पूजित ऐसा कहना चाहिए था, देवेन्द्रपूजित क्यों कहा? इसका जवाब यह है कि दैविक अतिशय सुख-सन्मानादि से युक्त इन्द्रदेव अरिहंत परमात्मा की भक्ति करे, यह एक अनूठी विशेषता है। जिस क्षेत्र में अरिहंत भगवन्त विचरण करते हैं, उसी क्षेत्र में गणधर भी विचरण करते हैं। इसलिए वे वहीं रहते हुए उसी क्षेत्र में परमात्मा की पूजा करते. हैं, पर उससे भी अधिक दूर से, परजाति, परक्षेत्री, देवों के भी स्वामी मनुष्य क्षेत्र की दुर्गन्ध की अवगणना करके भी इन्द्र यहाँ प्रभु की पूजा के लिए आते हैं, यही विशेषता कहलाती है । जगत् के बाल जीव (अज्ञानी जीव) दिव्य ऋद्धिमंत और वैभवशाली ऐसे देवों के द्वारा तीर्थंकर भगवंत की पूजा होते देखकर अधिक आकर्षित होते हैं। देवताओं के द्वारा समवसरणादि की रचना करना बहुत उच्चकोटि की पूजा कहलाती है । असंख्य योजन से नीचे आकर देवता पूजा करते हैं, जिसे देखकर अज्ञानी जीव आकर्षित होते हैं। अरिहन्त परमात्मा क्या-क्या प्रकाशित करते हैं? इनका चौथा विशेषण 'यथास्थितवादी' है, जिससे वचनातिशय सूचित किया गया है । केवलज्ञान प्राप्त कर सर्वज्ञ बने, कृतकृत्य हुए, स्वयं का प्रयोजन सिद्ध कर मुक्ति निलय में चले गये। ऐसा नहीं होता। जो स्वयं को प्रकट हुआ, स्वयं को प्रत्यक्ष हुआ, उसका ज्ञान जगत् के समक्ष रखा। जगत् को मुक्ति मार्ग का उपदेश दिया और योग्य को तार कर स्वयं अक्षय रत्नत्रयी की साधना कर विश्व में उसकी प्रभावना की । आप वस्तुत्व को यथास्थित ( जैसा है वैसा ) कहने वाले हैं। वस्तुतत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (स्थिर) वाली हैं, तो उस वस्तु को वैसे ही बतलाने वाले हैं। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये ज्ञेय - हेय - उपादेय तत्त्व हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, ये चारों निक्षेप चार भेदों से वस्तुमात्र में बांटी हुई हैं। वस्तु 'प्रमाण' और 'नय' ज्ञान से ज्ञेय है । स्यादस्ति इत्यादि सप्तभंगी के स्याद्वाद से वस्तु का प्रत्येक धर्म प्रतिपाद्य है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। ये सभी यथार्थ अधिक और स्पष्ट कहने वाले हैं। मतिज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान से भी सर्वज्ञ का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। इस ज्ञान से परमात्मा ने देखा है कि जीव जड़ पदार्थ में मूर्च्छित बना है, फंसा है, अटका है, इसलिए संसार में भटक रहा है और दुःख में दुःखित हो रहा है। जड़ पदार्थों का आकर्षण टूटेगा, तभी मुक्ति का साधक बनेगा। इसलिए प्रभु ने जड़ रूपी काया के प्रति दया नहीं दिखाई। काया की नहीं, आत्मा की विशुद्धि दिखाई है। कहते हैं यह मानव भव 36 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल हाथ में है। अभी तक जीव ने पूर्व भवों में जो अनन्त कर्मों के जाल बांधे हैं, उन्हें तोड़ देने का अपूर्व अवसर है। इसलिए उस जाल को तोड़ ही देना है, बढ़ा नहीं देना है । सर्वज्ञ प्रभु के वचन हृदय को छूने चाहिए। सर्वज्ञ के वचन की श्रद्धा आत्मा के हर प्रदेश पर व्याप्त हो जानी चाहिए। इससे आत्मा भावित हो जानी चाहिए। इसके लिए गलत का बचाव नहीं करना चाहिए । जीव को बचाव करने की आदत अनादि काल से है । यह बचाव दम्भ है, यह बचाव मोह की शिक्षा है। अब तो ज्ञानी की शिक्षा चाहिए। ज्ञानी के वचन हृदय के आरपार उतर जाने चाहिए। उनके वैराग्य के उपदेश रूपी बाणों से राग रूपी हृदय गद्गद् हो जाए। इतना ही नहीं बल्कि सर्वज्ञ के वचन पर अविचल श्रद्धा से ये उपदेश अब आत्मघर में ऐसा रमण करने लग जायें कि घर-बाजार में या मित्रों में, सुख में या दुःख में आत्मा को ही जागृत रखे। बचाव किसी का चला नहीं। जरा भी अरुचि या अच्छा नहीं लगना, यह भी द्वेष है। दुनियाँ में अपने को अनिष्ट लगने वाले विषय, अनिष्ट जीव और अनिष्ट संयोग के प्रति द्वेष जितने समय रहे, उतने समय यह आत्मा को मूढ़ बनाता है । अहो ! क्या शुद्ध आत्मा पर विषयों में रह सकता है ? पर की जंजाल में गिर सकता है ? स्वयं को संभालने का, स्वयं की खराबी मिटाने में क्या कमी रही है? तो समझना चाहिए कि प्रभुवचन की श्रद्धा में कमी रही है, नहीं तो एक समय पर भी चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। दूसरे तो अपने भाग्य के अनुसार ही वर्तन करते हैं। चार विशेषणों से युक्त परमात्मा, तीन भुवन के गुरु, तीन लोक के जीवों के : हितकारी, आप ही एकमात्र शरण हैं, आप ही पिता, माता, भ्राता और त्राता हैं। स्मरण रहे अरिहन्त को अरुहंत, अरहंत भी कहते है । जिनसे कोई रहस्य अज्ञात यानि छिपा नहीं है। जो वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, वे यथार्थ वस्तु कहने वाले तो हैं ही, फिर दूसरे और विशेषण कहने की जरूरत नहीं थी, फिर भी कहा गया। इसका कारण यही है कि जो : असेत् वस्तु स्वीकार करते हैं, उनके निषेध के लिए ये विशेषण कहे हैं। उनकी मान्यता यह है कि 'वस्तु वाणी का विषय ही नहीं है । शब्द और अर्थ का सम्बन्ध लग ही नहीं सकता है। इसलिए वस्तु को यथार्थ कहने वाले कोई हो ही नहीं सकते हैं।' यदि वस्तु और शब्द का सम्बन्ध ही नहीं हो तो किसी संकेत- शब्द से वही वस्तु कैसे जानी जाती है ? पूर्वघर महर्षि भी यथास्थित वस्तुवादी हैं, पर उनको यहाँ नहीं लेना है; इसलिए वीतराग आदि विशेषण लिया गया है । कह सकते हैं कि साथ-साथ इन सभी की भी स्तुति हो जाए, पूज्यों की स्तुति करना अच्छा ही है ? परन्तु विवेक की बात यह है कि सर्वत्र गुणों 37 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल की पराकाष्ठा जिसमें हो, वही मुख्यरूप से स्तवन करने योग्य हैं। यहाँ उत्कृष्ट गुणों की स्तुति होती है। इन गुणों के अन्तर्गत समान अवान्तर गुणों की स्तुति तो आ ही जाती है। मात्र न्याय बताने के लिए ही दूसरे महर्षियों को नहीं लिया गया है, साथ ही उन्हें बाद में रखने के लिए भी नहीं लिया गया है, यहाँ यह भी समझना है। ' त्रैलोक्य गुरु' का विशेषण सर्व विशेषणों के अर्थ का उपसंहार करता है । 1. तीन लोक में रहने वाले जीवों को तत्त्व-भूत पदार्थ कहने वाले हैं। 2. तीन लोक के जीवों से भी अधिक गुण, प्रभाव और उपकार वाले हैं; एवं 3. तीनों लोक में पूज्य हैं, इसलिए प्रभु तीन लोक के गुरु कहलाते हैं। उनको नमस्कार हो। (भगवंत शब्द में 'भग' शब्द से समग्र ऐश्वर्य वैभव आदि संपत्ति लेना है ।) इस प्रकार परमात्मा को पाँच विशेषणों से नमस्कार किया गया। वीतराग, सर्वज्ञ, देवेन्द्रों से पूजित, यथास्थित वस्तुवादी और तीन लोक के गुरु। कर्मों का क्षय भी इसी क्रम से किया जाता है। परमात्मा ने सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का नाश किया और वीतरागी कहलाए। फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म अर्थात् इन तीन घाती कर्मों का नाश किया, तब सर्वज्ञ कहलाए । चार घाती कर्म नष्ट होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है। तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय प्रारम्भ हो जाता है । देवतागण अपने-अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मनुष्य लोक में आते हैं । परमात्मा की सेवा - भक्ति करके आनन्दित होते हैं। इससे परमात्मा देवेन्द्रों से पूजित कहलाते हैं। फिर देवताओं द्वारा समवसरण की रचना होती है। प्रभु उसी स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान होकर देशना फरमाते हैं। जो वस्तु (पदार्थ) जिस प्रकार की है, उसे उसी प्रकार से फरमाते हैं, इसलिए यथास्थित वस्तुवादी प्रभु कहलाते हैं। तीन लोक के जीवों को धर्म का उपदेश देने से आप त्रैलोक्य गुरु कहलाए। महान् चार अतिशयों से युक्त परमात्मा हमारे लिए वन्दनीय, पूजनीय हैं, इसलिए हम उन्हें कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं। 38 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला पंचसूत्र अरिहंतोपदेश खण्ड - द्वितीय जे-एव-माईक्-खंति 1. इह खलु, अणाई - जीवे, 2. अणाई - जीवस्स भवे, 3. अणाई - कम्म- संजोग-निव्वत्तिए 4. दुक्खरुवे, 5. दुक्खफले, 6. दुक्खाणुबंधे *** असणं च्छित्ती 'सुद्ध धम्माओ, सुद्ध धम्म- संपत्ती पाव-कम्म-विग-माओ, पाव-कम्म-विगमो तहा- भव्व-त्ताई-भावओ । *** तस्स पुण विवाग-साह-णाणि 1. चउसरण-गमणं, 2. दुक्कड - गरिहा, 3. सुकडाण सेवणं, अओ कायव्वय-मिणं होउ कामेणं सया, सुप्पणि-हाणं भुज्जो - भुज्जो संकिलेसे, तिकाल-मसंकिलेसे । अरिहंतोपदेश 39 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला 1. जीव अनादिकाल से है। हे मेरे अन्तर्यामि प्रभु ! आपने निम्नलिखित छः बातें बतलाई हैं (37) अरिहंतोपदेश 2. जीव का संसार अनादिकाल से है। 3. जीव के कर्म के साथ संयोग भी अनादिकाल से हैं, अनादिकाल से चलता आ रहा यह संसार..। 4. संसार स्वयं 'दुःखरूप' है। 5. भोगने के बाद फल में दु:खदायक होने से 'दुःखफलक' है। 6. और इन दुःखों की परम्परा चालू रहने से 'दुःखानुबन्धी' भी है। (ब) अरिहंतोपदेश विश्व वत्सल विभु! आपने ऐसे दुःख रूप संसार का नाश करने के निम्नलिखित उपाय बताये हैंदुःखस्वरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी संसार का नाश 'शुद्धधर्म' द्वारा होता है। शुद्धधर्म की प्राप्ति 'पापकर्मों के विनाश' से होती है। पाप कर्मों का विनाश ' तथाभव्यत्व' के परिपाक से होता है। तथाभव्यत्व- मोक्षगमन की योग्यतावाला अनादि-पारिणामिक भाव । जैसे- घास में केरी रखने से जल्दी पकती है, वैसे ही जीव की योग्यता स्वरूप तथाभव्यत्व भी अभी के उपायों से जल्दी तैयार होता है। जीव का काल पकते ही शुभफलों की हारमाला शुरू हो जाती है। 40 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश आत्म स्वरूप पर्व में 'नमो वीयरागाणं' सूत्र से इष्टदेव को नमस्कार किया गया। वह नमस्कार मंगल के लिए है। उसके पश्चात् विविध विशेषणों से परमात्मा के गुणों को जाना, जिससे उनके वचन हमारे हृदय में सरलता से उतरे। परमात्मा की वाणी पर जरा भी शंका न हो, इसलिए अब हमें जानना होगा कि परमात्मा मुक्ति की साधना का क्या उपाय बताते हैं? पापप्रतिघात- पाप नाश का उपाय यानि पाप उच्छेद से ही संसार का उच्छेद होता है। यह संसार किसका है? कब से है? किस प्रकार बना हुआ है? और कैसा स्वरूप और परिणाम वाला है? 'ईह खलु अणाइजीवे' ईह अर्थात् लोक में है, अलोक में नहीं। जीव यानि आत्मा। भिन्न-भिन्न ज्ञानादि पर्यायों में (अवस्थाओं में) नियमित रहे, वह आत्मा है। यही आत्मद्रव्य अनादि काल से है, सनातन है। नया उत्पन्न नहीं होता है। नवीन शरीर की उत्पति से आत्मा भी नवीन उत्पन्न होती है, यह धारणा / मान्यता गलत है। क्योंकि पूर्व में जो सर्वथा असत् था, वह कभी भी उत्पन्न होकर जगत् में आ ही नहीं सकता है। उसी प्रकार पंचभूत के समूह में आत्मा नवीन ही उत्पन्न हुई है, ऐसा मानना गलत है। जैसे माटी के पिंड में अप्रकट रूप से घड़ा है, जब उस पर घड़ा बनाने की क्रिया करते हैं, तब घड़ा प्रकट होता है। तंतु में अप्रकट रूप में भी घड़ा नहीं है, इसलिए तंतु क्रिया से कभी भी घड़ा प्रकट नहीं होता है। उसी प्रकार पृथ्वी आदि पंचभूत में अप्रकट रूप से चैतन्य है ही नहीं। इसलिए नया प्रकट हो ही नहीं सकता है। आत्मा उससे उत्पन्न हुई, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस सिद्धांत को सत् कार्यवाद कहते हैं। स्याद्वाद की शैली तो सदसत्कार्यवाद है, अर्थात् मिट्टी में घड़ा कथंचित् सत् है, इसलिए सत् भी है और असत् भी है। अघटित रूप से सत् है और घटित गोलाकार रूप से असत् है। जबकि तंतु में घड़ा सर्वथा असत् है। अब यदि आत्मा को भी सर्वथा असत मानेंगे तो यह कभी प्रकट होगी ही नहीं। इसलिए आत्मा अनादिकाल की और जड़-भूत से एकदम अलग प्रकार की सिद्ध होती है। यह आत्मा स्वयं के आत्म प्रदेशों पर कर्म के योग से शरीर की रचना करती है। . संसार का स्वरूप : जैसे आत्मा अनादि काल से है, वैसे जीव का भव अर्थात् संसार भी अनादि काल से है। संसार अर्थात् आत्मा की बदलती रहती अशुद्ध अवस्था, .आत्मा की विभाव दशा, मनुष्यादि गति, शरीर इत्यादि है। किसी काल में जीव एकदम शुद्ध, फिर कर्म से युक्त बना, ऐसा संसार पहले कभी था ही नहीं। जिसमें प्राणी कर्मों के परवश होकर मनुष्य, देव आदि रूप में उत्पन्न होता है, ऐसे संसार को भव कहते हैं। ये 41 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश अनादि संसार भी अनादि काल से कर्म संयोग से चला आ रहा है। अनादि की वस्तु, संसार ये अनादि के कारणों से होते हैं। नहीं तो जो पूर्व में किसी समय आत्मा कर्म संयोग से रहित होती, तो वह शुद्ध होती, और ऐसी शुद्ध आत्मा को मुक्ति मिले हुए जीव की तरह पुनः संसार शुरू करने का कोई कारण ही नहीं होता। फिर संसार होगा ही किस प्रकार से? वर्तमान संसार और शरीर, इन्द्रिय, प्राण इत्यादि पूर्व में बाँधे हुए कर्मों के कारण मिलते हैं। जैसे-जैसे पूर्व कर्म किये, वैसे-वैसे शरीर आदि मिले हैं। इसलिए शरीर आदि का प्राप्त होना उसके कर्मों के अधीन है, तभी ये कर्म, शरीर आदि संसार के लिए ही बंधे हुए है। ये शरीरादि उसके भी पूर्व के बाँधे हुए कर्मों से मिले हैं और वे कर्म उससे भी पूर्व के शरीर द्वारा, और वह शरीर पूर्व के कर्म द्वारा...। इस प्रकार पूर्व पूर्व काल का शरीर और कर्म का विचार करने से संसार और कर्म-संयोग का प्रवाह अनादि सिद्ध होता है। युक्ति सिद्ध इस अनादि संसार को नहीं मानते और कहते हैं- 'कभी तो इसकी शुरूआत हुई ही होगी।' इस प्रकार मनमानी काल्पनिक कल्पना करते हैं, यह युक्ति रहित है। क्योंकि इस प्रकार मानें तो सबसे पहली आद्य शुरूआत को तो कारण बिना का मानना पड़ेगा, जो गलत है। जगत् में कारण बिना कार्य हो ही नहीं सकता। कोई एक कर्म संयोग या संसार व्यक्तिगत रूप से उत्पन्न करने वाला होगा, जो जरूर प्रारम्भ वाला है। फिर भी उससे पूर्व उसके कारण रूप दूसरा ऐसा संसार और कर्म संयोग था ही, ये भी अनिवार्य है। इस प्रकार पूर्व-पूर्व का विचार करने से यह संसार प्रवाह से अनादि काल का सिद्ध होता है। अर्थात् संसार के होने की क्रिया अनादि काल से चल रही है। जैसे समय, घड़ी, वर्ष इत्यादि काल नये ही उत्पन्न होने वाले हैं, फिर भी काल का प्रवाह अनादि काल से चल रहा है, वैसे ही अनादि काल संसार के लिए समझना चाहिए। अनादिकाल की संसार यात्रा : संसार में निश्चय ही अनादि काल से जीव हैं। यह बहुत ही चिन्तनात्मक प्रश्न है कि क्या इस विश्व में हमारा जीव अनादि काल से है, और इसकी कोई आदि यानि आद्य उत्पति भी नहीं है? ऐसा कोई काल नहीं था, जब हम थे ही नहीं। अनन्तकाल से हम इसी लोक में थे और अनन्तकाल तक यहीं रहने वाले हैं। आज तक अपना जीव इसी संसार में कहीं न कहीं जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता हुआ यहाँ आया है। स्थिरता तो हमारी कहीं भी नहीं रही। अतः हे भव्य जीव! क्षणभर के लिए विचार कर कि अनादि काल से हमारा जीव इस संसार में ही है तो इतने समय कहाँ था? क्या कर रहा था? इसका अनादि इतिहास क्या है? किस प्रकार यह मनुष्य जन्म पाया? अनादि काल से हमारा जीव निगोद में था। वहीं अनन्त बार जन्म और मृत्यु को 42 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश प्राप्त करता रहा। एक अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने प्रमाण की एक काया में अनन्त जीवों के साथ रहा और ऐसे असंख्यात शरीर इकट्ठे होते हैं और अनन्तानन्त जीव एक साथ मिलते हैं, तब ये बादर निगोद कहलाते हैं। इन्हें हम अपने चर्म चक्षु से देख सकते हैं किन्तु सूक्ष्म निगोद तो हमें दिखाई भी नहीं देते हैं। चौदह राजलोक ऐसे सूक्ष्म निगोद से सम्पूर्ण ठसाठस भरा हुआ है। लोक के प्रत्येक प्रदेश में अनन्त-अनन्त जीव प्रत्येक समय जन्म-मृत्यु को धारण करते रहते हैं। ये जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इनका न किसी शस्त्र से छेदन-भेदन कर सकते हैं, न इनको पानी में बहा सकते हैं, न आग में जला सकते हैं, न इन्हें कोई कष्ट पहुँचा सकते हैं। मानव शरीर से हम इन सूक्ष्म जीवों का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, पर मन के द्वारा इनकी विराधना करने से पाप कर्म का बन्धन अवश्य होता है। एक निगोद में अनन्त जीव किस प्रकार रह सकते हैं? इस प्रश्न को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रों में इसे एक उदाहरण से समझाया गया है। जैसे एक वैद्यराज एक लाख औषधियाँ लेकर आता है और उन सभी औषधियों को बारीक पीसकर मिला देता है। फिर उन औषधियों को राई के दाने जितनी एकदम छोटी-छोटी गोली बना देता है। फिर कोई उनसे प्रश्न करें कि इस एक गोली में कितनी औषधि है? तो वैद्यराज जी यही कहेगें कि इस एक गोली में एक लाख औषधियां मिलाई गई हैं। वैसे ही एक शरीर में अनन्त जीव एक साथ समा जाते हैं। परमात्मा की वाणी शंका रहित है। परम सत्य होने से शंका नहीं करनी चाहिए। हमारा जीव अनादिकाल से सूक्ष्म निगोद में यानि अव्यवहार राशि में ही रहा। अनन्त काल हमारा अव्यवहार राशि में ही व्यतीत हुआ। निगोद में जीव का आयुष्य अन्तर्मुहूर्त काल जितना रहता है। अन्तर्मुहूर्त यानि 48 मिनट से कुछ समय न्यून। प्रत्येक जीवों का आयुष्य जरूरी नहीं कि दो घड़ी ही होगा। क्योंकि उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त एवं जघन्य से एक सेकन्ड का 22वाँ भाग है। यानि एक सेकण्ड में 22 बार जन्म मरण करना है। अन्तर्मुहूर्त यानि आयुष्य कितने भी सेकन्ड या मिनट का हो सकता है, पर दो घड़ी (48 मिनट) से ज्यादा नहीं होगा। सूक्ष्म निगोद में अनन्त जीवों के बीच एक शरीर प्राप्त होता है। उसी एक शरीर में सभी जीवों को एक साथ श्वासोच्छवास लेना होता है, एक साथ आहार ग्रहण करना पड़ता है। उन जीवों के न तो आँखें हैं, न नाक है, न कान, न जीभ की प्राप्ति है। मात्र एक इन्द्रिय है, वह है स्पर्शेन्द्रिया यानि मात्र उनको एक काया मिली है। उसी शरीर से आहार, श्वासोच्छवास आदि ग्रहण करना होता है। एकदम अल्प चेतना होती है। ऐसी दारूण परिस्थिति में हम सभी ने अपना अनन्त काल बिताया है। ___ अव्यवहार राशि के भयंकर दुःखों से छुटकारा प्राप्त करने का कोई उपाय है? 43 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश भयंकर दुःखों से मुक्ति का मात्र एक ही उपाय है इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय या रास्ता नहीं है। शास्त्रों में परमात्मा ने फरमाया है कि जब एक जीव मोक्ष यानि सिद्ध पंद प्राप्त करता है, तब एक जीव सूक्ष्म निगोद यानि अव्यवहार राशि (निगोद) से व्यवहार राशि में आता है। इसमें भी अनन्त जीवों में से किस जीव का नम्बर लगेगा, उन जीवों को यह पता भी नहीं चलता है। परमात्मा फरमाते हैं कि अनन्त जीवों में से जिस जीव की नियति, भवितव्यता जागृत हो गई हो, वही जीव अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आता है। इसके अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है। कम से कम एक समय में एक जीव और ज्यादा से ज्यादा 108 जीव एक साथ में मोक्ष जा सकते हैं। मोक्ष जाने का जीवों का अन्तर काल ज्यादा से ज्यादा छः महीने का है। क्योंकि एक जीव कम से कम छः माह के भीतर मोक्ष गमन करेगा, और एक जीव सूक्ष्म निगोद से बाहर आयेगा। यदि संख्यात जीव मोक्ष गमन करेंगे तो संख्यात जीव अव्यवहार राशि से बाहर आएँगे। व्यवहार राशि में आना अर्थात् भवों की यात्रा शुरू हो जाना। नील (काई), फूलण आदि जो जीव हमें दिखाई देते हैं, उस बादर निगोद में भी अनन्तानन्त जीव एक साथ होते हैं। उस बादर निगोद में भी हमारा जीव अनन्त काल व्यतीत करता है। अनन्त काल जन्म मृत्यु को धारण करने के पश्चात् पृथ्वीकाय में जन्म लेता है। पृथ्वीकाय भी दो प्रकार के होते हैं- सूक्ष्म पृथ्वीकाय एवं बादर पृथ्वीकाय। इसके पश्चात् सूक्ष्म अप्काय, बादर अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, बादर तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय, बादर वायुकाया इस प्रकार क्रमबद्ध जीव आगे ही बढ़ेगा यह निश्चित नहीं है। इन भवों के बीच वह पुनः बादर निगोद में भी जा सकता है, अनन्त काल के पश्चात् क्रम से या बिना क्रम से तिर्यंच, विकलेन्द्रिय, नरक आदि सभी भवों को प्राप्त करता है। वह सभी स्थानों पर जन्म-मृत्यु धारण कर भयंकर दुःखों को प्राप्त करता है। दुःखों को सहन करना ही साधना है। उसी अनन्त काल तक की साधना के पश्चात् बड़ी कठिनाई से एवं प्रबल पुण्योदय से जीव को मनुष्य भव की प्राप्ति होती है। बड़ी मुश्किल से दुर्लभ मानव भव प्राप्त हो जाने के पश्चात् इसकी सार्थकता आत्म साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त करने से है। समवाय की समझ _ परमात्मा ने पाँच समवाय बताये हैं- स्वभाव, नियति, काल, कर्म एवं पुरुषार्थ 1. स्वभाव - जीव स्वभाव से दो प्रकार के होते हैं। भव्यत्व और अभव्यत्वा भव्य जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर मोक्ष जा सकता है। किन्तु अभव्य जीव कभी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकता है. और मोक्ष भी नहीं जा सकता है। अव्यवहार राशि से बाहर आकर 44 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश भवों की यात्रा शुरू करते हुए कई बार वापस निगोद में जाता है और अनन्त काल तक वहाँ भयंकर दुःखों को भोगता है। 2. नियति - अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में लाने का कार्य ही नियति कहलाता है। अनन्त जीवों में जिस किसी भी जीव की नियति जागृत होगी, वही भाग्यशाली जीव अव्यवहार राशि से बाहर निकल पाता है। 3. काल- नियति ने जीव को अव्यवहार राशि से बाहर आने का सौभाग्य प्राप्त कराया किन्तु फिर भी व्यवहार-राशि में आते ही संसार में भटकने का कार्य शुरू हो जाता है। भवयात्रा में जीव अनन्त पुद्गलपरावर्तन काल (एक पुद्गलपरावर्तन यानि अनन्त कालचक्र) तक भटकता है। अनन्तकाल से अनन्त भवों में जीव सभी स्थानों में जाकर आ जाता है। एक पुद्गलपरावर्तन काल भी बहुत लम्बा समय है, तो इस जीव ने अनन्त पुद्गल परावर्तन काल कहाँ व्यतीत किये? कहते हैं लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर प्रत्येक जीव का अनन्त बार जन्म-मरण हुआ है, तभी अनन्तानन्त काल सम्पूर्ण हो सकते हैं। अभव्य जीव की दशा तो विचार कर देखो? उन जीवों को तो कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। साधना के द्वारा स्वर्ग प्राप्त कर लेंगे, पर सम्पूर्ण कर्मों को क्षय कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। उनका संसार भ्रमण चलता ही रहेगा। विचार करो! यदि हम अभव्य होते तो? क्योंकि अनन्त प्रयत्न करने पर भी अभव्य को भव्य नहीं बनाया जा सकता है। नियति को नमन करो कि उसने हमें भव्य बनाया है। अचरमावर्त काल में सभी जीव अभव्य की तरह ही होते हैं। धर्म कार्य करना अच्छा ही नहीं लगता है। जीव पाप कार्य रूचिपूर्वक करता है और दुर्गति में भटकता रहता है। कभी किसी के कहने से या किसी को देखकर थोड़ा-थोड़ा धर्म क्रिया किया भी तो स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और वहाँ से भी अप्काय या पृथ्वीकाय में गिरा। चरमावर्तकाल में आने से पहले तीर्थंकर के जीवों को भी चारों गति में भटकते रहना पड़ता है। जीव का काल परिपूर्ण (परिपक्व) होने पर ही मंजिल प्राप्त होती है। उसके पहले जीव का प्रयास साथ नहीं देता है। अचरमावर्त काल से चरमावर्त काल में लाने का कार्य काल का है। 4. कर्म - चरमावर्त काल में आ जाने के पश्चात् भी जीव को धर्म सरलता से नहीं प्राप्त होता है। उसमें भी शुभ पुण्यकर्म का उदय हो तो अरिहंत परमात्मा के दर्शन होते हैं। अन्यथा अन्य देव के दर्शन कर धर्म के स्थान पर अधर्म करके पापों का बन्ध कर लेते हैं। पुण्योदय से सुदेव, सुगुरु, सुधर्म एवं अच्छे कुल में जन्म मिलता है। चरमावर्त काल में पुण्य से अनुकूल धर्म साधन सामग्री मिली भी परन्तु प्रमाद के कारण उसका 45 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश सही उपयोग नहीं किया। आराधना के स्थान पर आशातना करके फिर से दुर्गति में गिरा। 5. पुरुषार्थ - सच्चा धर्म मिलने के पश्चात् पुरूषार्थ करना हमारा कार्य है। पुण्योदय से भोजन प्राप्त हो गया, परन्तु खाने का पुरूषार्थ स्वयं करेगा तभी पेट भरेगा। सामग्री मिलने तक का कार्य हो गया। अब उपयोग मात्र सही प्रयत्न व मेहनत द्वारा होना चाहिए। जब जीव सच्चा पुरूषार्थ कर कर्मों का क्षय करेगा तभी मोक्ष रूपी मंजिल को प्राप्त करेगा। ____ हमें जानना होगा कि अपना सही व सच्चा घर कहाँ है व कौन सा है? सर्वप्रथम 'भव्यत्व स्वभाव' के कारण हमारी नियति जागृत हुई और अव्यवहार राशि से बाहर आने का अवसर मिला। वैसे अनन्तानंत जीव भव्य होने पर भी कभी बाहर नहीं आ सकने के कारण मात्र जाति भव्य ही कहलाते हैं। सिद्ध जीवों के अनन्त उपकार से व 'नियति' जगने से हम बाहर आए। तत्पश्चात् भी अनन्त पुद्गलपरावर्तन काल तक संसार की यात्रा करते हुए तीसरे उपाय 'काल' को पार किया। फिर अनन्तकाल व्यतीत होने पर भी तुरन्त धर्म नहीं मिल पाया। 'कर्मयोग' व पुण्योदय से ही उत्तम व श्रेष्ठ धर्मसामग्री मिली। शुभकर्म के उदय से सुदेव, सुधर्म आदि सही साधन मिलने के पश्चात् मात्र एक ही कार्य बचता है, वह है 'पुरूषार्थ'। पहले चार कारण अपने हाथ में नहीं थे। उसके लिए इन्तजार करना ही पड़ता है, परन्तु चार कारण को पार करने के बाद पुरूषार्थ करना अपना कर्त्तव्य है। यदि अब भी सच्चा पुरूषार्थ नहीं करेंगे तो प्रकृति हमसे सभी सामग्री छीन लेगी। भाग्य से हमें देव, गुरु, धर्म मिले। फिर भी हम संसार को भोगने में, खाने-पीने में, मौज-शौक करने में सम्पूर्ण जीवन समाप्त कर देंगे तो फिर यह दुर्लभ जीवन दुबारा नहीं मिलेगा। इसलिए कड़ी मेहनत यानि कठिन पुरूषार्थ कर हमें साधना में लीन बनना है। आज भी ऐसे महान् संत हैं जो प्रमाद को छोड़कर 14-15 घण्टे स्वाध्याय, ध्यान में लीन रहते हैं तो क्या हम 2-4 घण्टे भी स्वाध्याय, ध्यान आदि नहीं कर सकते हैं? मनुष्य जन्म ही प्रतिदिन अरबों की कमाई कराने वाली पेढ़ी है। इस अमूल्य पेढ़ी में बैठने के बाद भी यदि हम मात्र खाने-पीने में अपना समय बिगाड़ देंगे तो क्या यह पेढ़ी आगे चल पायेगी। उस पेढ़ी में आगे नुकसान ही उठाना पड़ेगा। अनादि काल के दुःखों को याद करके चिंतन करो। किस भव में हमने संसार को नहीं भोगा? यानि संसार भोगने का कार्य ही हर भव में हमने किया। उनको याद कर मात्र धर्म पुरूषार्थ में लग जाना है। परमात्मा के द्वारा बताये गये धर्म-मार्ग पर आरूढ़ होकर तप-जप स्वाध्याय-ध्यान में लग - 46 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश जाना है। तब ही अपना यह भव भ्रमण टूटेगा और हम मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। संसार की असारता संसार की असारता को लेकर हर धर्म ग्रंथ में बहुत कुछ कहा गया है। जैन दर्शन में भी संसार की असारता पर परमात्मा ने जीव को सचेत किया है, उन्होंने अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा हृदय को स्पर्श करने वाली एकदम मार्मिक बात फरमाते हुए बताया है कि संसार में सभी जीव अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। इनका न आदि है न अन्त है। मात्र संयोग बदलते रहते हैं। शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा से पर्याय नष्ट और उत्पन्न होते हैं किन्तु संसार में एक भी परमाणु न तो सम्पूर्ण समाप्त होता है, और न ही एक परमाणु भी नवीन उत्पन्न होता है। संसार में जितने भी जीव और पुद्गल हैं, वे उतने ही रहते हैं, कम या ज्यादा नहीं होते हैं। . जो भव्य जीवं संसार की असारता को जान लेता है, वह साधना द्वारा मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। किन्तु अभंव्य जीव तो मोक्ष तत्त्व को ही स्वीकार नहीं करते हैं। जैन साधु-संत को धर्माराधना करते देखकर अभव्य जीव विचार करते हैं कि ऐसी आराधना करने से स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। इसी भावना से वे जैन साधु बनते हैं और मक्खी के एक पंख को भी वेदना ना पहुँचे, वैसे शुद्ध चारित्र का पालन करते हैं। द्रव्य से चारित्र का : पालन किया। किन्तु भाव चारित्र का स्पर्श हृदय को नहीं हुआ। मोक्ष के प्रति अरूचि भाव रखते हुए, स्वर्ग की अभिलाषा से साधु जीवन का पालन किया। इसलिए अभव्य जीव मर कर नव ग्रैवेयक में देव ही बन पाते हैं। अभव्य जीव अन्य भव्य जीवों को मोक्ष की सही प्ररूपणा तो करते हैं, पर स्वयं में मोक्ष के प्रति सही रूचि नहीं जगती है। इसलिए कहते हैं कि तीर्थंकरों से भी ज्यादा अनन्त जीवों को अभव्य जीव प्रतिबोधित करते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष नहीं जाते हैं, इसलिए अनादि अनन्त काल तक स्वयं भटकते ही रहेंगे और जो भटक रहे हैं उनको बोध भी देते रहेंगे। अभव्य जीवों का भी ज्यादा समय निगोद में ही व्यतीत होता है। सभी भव्य जीव अचरमावर्तकाल में अभव्य जीवों की तरह ही होते हैं। माया-प्रपंच, कषाय आदि के कारण बार-बार दुर्गति में जाते रहते हैं। वहाँ जीव ने सांसारिक सुखों की कामना के लिए कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को सच्चा देव आदि मानकर उनकी पूजा की। निःस्वार्थ भाव से धर्म नहीं किया। मोक्ष की कामना से नहीं बल्कि भोग की भावना से धर्म किया। धर्म नाम से भी कई बार झूठ-कपट करते रहते हैं। देव गुरु की 47 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश भयंकर आशातना करके अनन्त बार नरक में गये। सातों नरकों में 84 लाख नरकावास हैं। उनमें भी जाकर अनन्त बार दुःखों को सहन किया। उन नरकों में से बचने का न तो कोई उपाय किया, न तो बचने का कोई उपाय था। काल के प्रभाव के कारण जीव ने खूब दुःख, भयंकर कष्ट, पीड़ा को ही भोगा। इस संसार में एक भी दःख ऐसा नहीं होगा जो जीव ने नहीं भोगा होगा। यानि पाप करने से दुःख आता है और जीव ने संसार के सभी पापों को हँसते हुए किया। ऐसा कोई पाप नहीं बचा, जो जीव ने नहीं किया। संसार के अनन्त आकाश प्रदेश के एक-एक प्रदेश पर जीव ने अनन्तबार मृत्यु प्राप्त की है। संसार के सभी जीवों के साथ सभी प्रकार के सम्बन्ध रिश्ते-नाते बनाये हैं। यानि प्रत्येक जीव के साथ हमने माता-पिता, पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि परिवार के सम्बन्ध बनाये हैं। ‘महानिशीथ सूत्र' में आता है कि एक जीव ने मात्र 'ईयल' के कितने भव किये? तो कहा गया है कि 'ईयल' में से जब जीव च्यव जाता है, तब मात्र कलेवर रहता है। आज तक के सभी ईयल के भवों को इकट्ठा करें तो अनन्त लोकाकाश में समावेश नहीं हो सकते हैं, जीव ने इतने भव मात्र ईयल के भव के किये हैं। यह एक औपचारिकता है। इसी प्रकार तिर्यंच के पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौरेन्द्रिय के अनन्तानन्त भव किये हैं। इतने लम्बे समय तक मुश्किलों और दुःखों को ही झेलते रहे। पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, नरक, मनुष्य और देव के भी अनन्त भव किये। सभी जगह सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सभी प्रकार के दण्ड, सजा, मार खाते-खाते अचरमावर्त काल का लम्बा समय पूर्ण किया। इस प्रकार जीव संसार में भटकता भटकता चरमावर्त काल में आया। यहाँ भी सभी प्रबल पुण्य कर्मों का उदय हो तो ही अनुकूल धर्म की सामग्री मिलती है। देव-गुरु की प्राप्ति होती है। वर्तमान में पूरे विश्व में जैन धर्म कितने जीवों को मिला है? कर्म ने पुण्यात्मा को हरी झण्डी दिखाई और उच्च साधन-सामग्रियाँ प्राप्त हो गई। समय की सार्थकता को जानकर एक क्षण भी व्यर्थ में न जाने दें। क्योंकि जीव पुरूषार्थ के द्वारा ही कर्मों से छुटकारा पा सकता है। वह भी प्रमाद रहित होकर पुरूषार्थ करेगा तो। 'प्रज्ञापना सूत्र' में कहा गया है कि चौदह पूर्वधर समकित धारी जीव भी यदि प्रमाद के वशीभूत हो जाते हैं, स्वाध्याय नहीं करते हैं तो वे मृत्यु के पश्चात् निगोद में उत्पन्न होते हैं। । इस निगोद से बचने के लिए अरिहंत परमात्मा ने जीव को यह समझाया है कि वह इस अमूल्य मानव जीवन को प्रमाद में न गंवा कर अपने मन में वैराग्य के प्रति उत्कृष्ट भाव जगाए। 48 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला उत्कृष्ट वैराग्य के भाव संसार की असारता जानने के पश्चात् संसार से भय लगना चाहिए। क्योंकि संसार रूपी दावानल से सम्पूर्ण लोक जल रहा है। इस आग में जलते हुए अपने आप को कैसे बचाऊँ? इस भयंकर संसार से हम कैसे छूटेंगे ? कब छूटेंगे ? भीतर ऐसी आवाज उठनी चाहिए। इस दुःख रूपी संसार में अब और नहीं रह सकते, बस आज ही घर परिवार व संसार का त्याग कर संयम लेने के लिए तैयारी कर लेनी चाहिए। सोचो, आज तक कर्मों ने मुझे चारों गतियों में भटकाया ही है । अब मैं इन कर्मों को तोड़ दूँगा । इन कर्मों ने मुझ पर कौन से जुल्म नहीं किये। संसार की भयंकरता तो अव्यवहार राशि से ही चल रही है। एक साथ अनन्त जीवों के साथ एक काया में बार-बार जन्म मरण का भयंकर दुःख मिला। कितना लम्बा समय वहाँ व्यतीत करना पड़ा। वहाँ से व्यवहार राशि में आया तो कोई सुख नहीं मिला। वहाँ भी अचरमावर्त काल का लम्बा समय दुःख, पीड़ा सहन करने में ही पूर्ण हो गया । तिर्यंच गति में बादर एकेन्द्रिय बना, पर वहाँ भी सुख से जीने नहीं दिया गया। पृथ्वीकाय का जीव बना तो लोभ-मोह के कारण पहाड़ तोड़कर उन पत्थरों से बड़े-बड़े मकान बनाते, खदान खोदकर उनमें से सोना निकाल कर आभूषण बनाकर पहनते । अप्काय का जीव बना, वहाँ भी किसी ने मुझे सरलता से बहने नहीं दिया, बिना आवश्यक भी मेरा बहुत दुरूपयोग किया जाता था । इस तरह अग्नि या वायु या वनस्पति बना। वहाँ भी लोगों ने अपने सुख के लिये हमारे ऊपर कष्टों का पहाड़ गिराने का काम किया। स्वयं की खुशी के लिये हम पर छेदन-भेदन आदि पीड़ा देने का ही कार्य करते । इस तरह स्थावर के भव में अपार दुःख अनन्त काल तक भोगे । फिर त्रस जीव बना तो वहाँ भी छोटे जीव, बड़े जीवों का आहार बन जाते थे। मौका देखते ही पकड़कर मार डालते थे । बैल के भव में मुझसे हल चलवाया गया। गाड़ी से बँधकर भार खींचना पड़ा। कुत्ते के भव में पत्थरों की मार पड़ी। घोड़े के भव में चाबुक खाने पड़े। मछली बना तो मछुआरे पकड़ लेते • थे। पक्षी बना तो शिकारी जाल में फँसा कर मार डालते थे। ये तो पंचेन्द्रिय तिर्यंच के भव हैं। संसार के दुःखों को सहन नहीं कर पाते, तब पाप कार्य करते थे, इससे कई बार नरक में भी जाना पड़ा। वहाँ भी परमाधामी देव, जीवों को खूब तड़पा-तड़पा कर वेदना देते थे । क्षेत्र के दुःख भी अपार सहन करने पड़े। 84 लाख जीव योनि में भटका ही भटका । कहीं पर भी अच्छे भाव जागृत नहीं हुए । अनुत्तर देव एवं इन्द्रदेव के भव को छोड़कर, संसार में ऐसा कोई भी छोटा या बड़ा भव नहीं है, जिसे हर जीव ने प्राप्त न किया हो । अर्थात् सभी प्रकार के शरीर धारण किये। जन्म और मृत्यु से सभी स्थानों को स्पर्श करके आया । अचरमावर्त अरिहंतोपदेश 49 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश काल में भी भारी कर्मी जीव बना रहा। इसलिए देवाधिदेव परमात्मा के दर्शन भी दुर्लभ बन गये। सच्चे मार्गदर्शक नहीं मिले। जो मिले, वे भी गलत मार्ग बताने वाले मिले। सच्चे गुरु का योग भी दुर्लभ था। कभी थोड़ा आगे बढ़ भी जाता तो भौतिक आकर्षण आदि निमित्त से पतन हो जाता। फिर लम्बे समय तक कर्मों की मार खानी पड़ती। कर्मों ने मुझ पर जरा भी दया नहीं की। जुल्म-सजा देते समय एक प्रतिशत भी बचाव नहीं किया। कर्मों के द्वारा दिये गये भयंकर से भयंकर दुःखों को भी कभी समझ से, कभी बिना समझ से सहन किया। जब कर्म कुछ कम हुए, तब अपुनर्बन्धक बना। यानि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध अब यह जीव नहीं करेगा। कहते है कर्मों को कभी शर्म नहीं आती। पर जब जीव कर्मों को तोड़ने का दृढ़ संकल्प कर लेता है तब कर्म का कुछ नहीं चलता। अब मुझे परमात्मा मिले, सच्चे गुरु मिले व अरिहन्त प्ररूपित धर्म आचरण के लिए मिल गया है तो इस अपूर्व अवसर को मुझे छोड़ना नहीं है। अब प्रमाद रूपी बिस्तर का त्याग करना है, बैठे नहीं रहकर कर्मों से लड़ने की पूरी तैयारी करनी है। अब तो बाजी मेरे हाथ में है। केवल सत् (सच्चे) पुरूषार्थ की आवश्यकता है। पुरुषार्थ ही हमारा कर्तव्य इस भव में हमें सर्वश्रेष्ठ देव-गुरु धर्म रूपी उत्तम सामग्री प्राप्त हुई है। पूर्वकाल में तो उत्तम सामग्री का भी अभाव था। यदि मिला भी होगा तो अज्ञान के कारण हम पहचान भी नहीं पाये थे। कितने मुश्किल से पुण्य एकत्र किये होंगे, तब जाकर इतने उच्च शिखर के पास पहुँच पाये। शिखर के पास आकर अब क्या करना है? उसे छू लेना है अथवा लौट जाना है। अनुकूल बाजार, पूंजी, धन्धा सब मिलने पर भी बैठे रहने से मूर्ख ही कहलाये जायेंगे। प्रमाद छोड़कर मेहनत करेंगे तो आत्म धन प्राप्त होगा। वैसे ही संसार उच्छेद के लिए पुरूषार्थ को भी महत्त्व दिया गया है। क्रोध-मान-माया-लोभ, इन चार चाण्डाल चौकड़ी का नाश करना है। ये चारों लुटेरे हैं। इनको नष्ट नहीं करेंगे तो हम हमारे आत्मरूपी धन को कभी प्राप्त नहीं कर पायेंगे। परमात्मा ने अपनी देशना में फरमाया है कि जीव भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्य काल में रहेगा। जीव त्रिकाल ध्रुव है। ऐसा कोई काल या समय नहीं था, न होगा, जब जीव नहीं था न रहेगा। आज विज्ञान भी कहता है कि जगत् के पुद्गलों के पर्यायों में परिवर्तन होता है। परन्तु एकदम नया परमाणु न उत्पन्न होता है, न पुराना नष्ट होता है। यह सत् बात हमारे शास्त्रों को ही मान्य है, विज्ञान को नहीं। विज्ञान जड़ के विषय में शोध कर रहा है, तो आत्मा की शोध क्यों नहीं करता है? मेरी आत्मा पूर्व में कहाँ थी? 50 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश कौन थी? इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान क्यों नहीं देता है? 'आचारांग-सूत्र' में लिखा है कि अधिकतम जीव अपने को एक भारतीय या हिन्दू के रूप में जानते हैं। ज्यादा से ज्यादा जानेंगे तो 'मैं आत्मा हूँ', ऐसा जानते हैं। तत्त्व को जानकर तत्त्वों की बात करने वाले दुनियाँ में विरले लोग ही हैं। जो स्वयं को आत्मा मानता है, वह अपने विषय में ऐसा विचार करेगा कि मैं कहाँ से आया हूँ? मर कर मुझे कहाँ जाना है? मेरे ही सामने मेरे पूर्वज, सम्बन्धी, परिवारजन यमराज के घर पहुँच गये। फिर भी मैं मूर्ख की तरह प्रमाद में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। सबकी ही तरह मुझे भी एक दिन यहाँ से जाना है। इस बात को एक उदाहरण से समझें __ एक व्यक्ति भोजन करने बैठा। थाली में भोजन परोसा गया। पहला कवल मुँह में डाला। उसे अच्छी तरह चबाया। पहले कवल की स्थिति देखकर रोटी का दूसरा कवल उस पर हँसता है कि देख तुझे कैसे चबाया जा रहा है। उसकी इस स्थिति पर खुश हो रहा है और अपने आप को बच गया जान रहा है। पर वह यह नहीं समझ पा रहा है कि उस कवल की तरह ही उसे भी दूसरे ही क्षण चबा दिया जाएगा। ऐसी ही स्थिति हमारी भी बन गई है। प्रतिदिन समाचार पत्रों में भयंकर ट्रेन दुर्घटना में सैकड़ों मनुष्य मर गये, बीमारी से कितनों की मौत हो गई, घी, दूध, अनाज में मिलावट करने से उस जीव को पकड़ा गया। ऐसे अनेक दुःखद समाचार पढ़ने के पश्चात् हमारे मन में कैसे विचार आते हैं? आज सम्पूर्ण परिस्थितियाँ ही बदल गई हैं। आपके पास करोड़ों रुपए क्यों न हों, आपको शुद्ध घी, दूध नहीं मिल सकता है। और हम ही कहते हैं कि आज विज्ञान खूब प्रगति कर रहा है, उद्योग का विकास हो रहा है। चन्द वर्षों का यह जीवन मिला है, प्रतिदिन मृत्यु हमारे निकट आ रही है, फिर भी यदि हम जागृत नहीं होंगे तो पुनः अनन्तकाल के बाद ही मनुष्य जन्म प्राप्त होगा। यहाँ से न करोड़ों की सम्पत्ति साथ जायेगी, न परिवार साथ जारोगा। धन या धर्म क्या साथ चलेगा, सोचो? अनन्तकाल तक जीव ने संसार में भटकने का ही काम किया है। कर्मों ने जितने डण्डे मारे, उतनी मार हमने भी खूब खाई। अब हम पुरूषार्थ करके धर्म साधना नहीं करेंगे, तो कर्मों ने तो परेशान किया ही था और करते ही रहेंगे। अपना अतीत का इतिहास तो ज्ञात हो गया। अब भविष्य को कैसा बनाना है, यह अपने हाथ है। जिस किसी जीव का इतिहास सुनते हैं, वह हकीकत में अपना ही इतिहास है। अपना इतिहास सुनकर या पढ़कर संसार के प्रति तीव्र वैराग्य जग जाना चाहिए और संयम लेकर सुन्दर आराधना द्वारा कर्मों का क्षय करना चाहिए। अमूल्यमानव जीवन 51 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश वर्तमान में लोग मानव जीवन को अमूल्य नहीं मानते हैं क्योंकि जन्म से देवगुरु-धर्म की प्राप्ति सहजता से हो गई। परन्तु हकीकत में मानव जीवन हमें सरलता से नहीं मिला, बल्कि अनन्त काल की कठिन मेहनत के पश्चात् यह जन्म मिला है और उसमें भी सातों नरकों में असहनीय वेदना सहन की है। तिर्यंच का जीवन तो हमारी आँखों के सामने है। सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास का कष्ट जीवन भर सहन किया। नियति, काल, कर्म और पुरूषार्थ की असीम कृपा से हमें अन्त में अरिहन्त भगवान् मिले। विचार करें, संसार में हर कार्य के पीछे जब लाईन (कतार) में घण्टों खड़ा रहना पड़ता है, तब वहाँ थक जाते हैं तो विचार करते हैं कि हमारी बारी कब आएगी। परन्तु संसार यात्रा में अभी हमें थकान का अनुभव ही नहीं हुआ, इसलिए भव अटवी में भटक रहे हैं, और भटकते- भटकते अब नम्बर लग गया तो समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हैं। विकथा, प्रमाद में समय बिता देंगे तो अमूल्य मानव जीवन यूं ही खत्म हो जायेगा। अनन्तकाल फिर इन्तजार करना पड़ेगा। इसलिए भूतकाल पुनः रिपीट न हो, अतीत का पुरावर्तन न हो जाए, इसका पूरा ध्यान . रखते हुए धर्म में लग जाना चाहिए। जीव और कर्मकासंयोग जीव और कर्म का संयोग अनादि काल से है। किसी समय में बांधा हुआ कर्म किसी विशेष काल में नष्ट हो सकता है। परन्तु आत्मा और कर्म का संयोग अनादि काल से रहा हुआ है। कर्म समय-समय पर बदलते जाते हैं, क्योंकि कर्मों के बन्ध और उदय में बदलाव आता रहता है। फिर भी संयोग-प्रवाह की दृष्टि से कर्म जीव का संयोग अनादि ही कहलायेगा। पूर्व में बांधे गए कर्मों को इस भव में भोगते हैं। फिर इसी भव में बांधे गये कर्मों को जीव फिर अगले भव या कई भवों के बाद भी भोगते हैं। जैसे 1. ऋषभदेव परमात्मा ने अपने पूर्व भव में पाँचों मित्रों ने मिलकर आराधनासाधना की और पाँचों मित्र अगले भव में प्रथम तीर्थंकर, भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी बने। 2. मरीचि के भव में बांधे गये कर्म भगवान् महावीर को अपने अन्तिम भव में उदय में आए। नीच गोत्र कर्म बन्ध के कारण ही देवानन्दा ब्राह्मणी के कुक्षी में 82 दिन तक परमात्मा महावीर को रहना पड़ा। जिस उत्कृष्ट मानव जीवन को प्राप्त करने के लिए देवता लालायित रहते हैं, जब वह हमें प्राप्त हो जाता है और हम इस संसार में आ जाते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि हमें जीवन भर सुख ही प्राप्त होगा। सुख और दुःख हर व्यक्ति के अपने पूर्व जन्मों के कर्मों 52 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश का अर्जित फल है। यदि यह फल मीठा और रुचिकर है तो हमें सुख की अनुभूति होती है और यदि यह फल कड़वा और अरूचिकर है; तो दुःख की अनुभूति कराता है। हम उसे दुःख के रूप में व्यक्त करते हुए भोगते हैं। सचमुच सुख और दुःख दोनों भोग्य हैं। सुख और दुःख को जीवन के पैमाने पर यदि नापें तो हमें स्पष्ट दिखाई देगा कि हर प्राणी के जीवन में सुख क्षणिक है और जिसे वह प्रमाद वश भोग लेता है। शेष केवल दुःख ही बचता है, जिसे यदि ज्ञानियों की भाषा में कहें तो यह संसार दुःखानुबंधी है। ज्ञानी फरमाते हैं कि यह संसार दुःखरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी है। दुःखरूप कहने का तात्पर्य संसार दुःखवाला है, ऐसा नहीं बल्कि संसार स्वयं दुःख है, दुःख स्वरूप है। इसमें दिखने वाला विषय सुख ही दुःख है, सुखाभास है; कैसे ? जिस प्रकार शरीर में खुजली होने पर खुजाल चलती है, खुजाल लेने पर दुःख का क्षणिक प्रतिकार और क्षणिक सुखाभास होता है। वैसे ही पूर्व में उत्पन्न हुए तृष्णा की खुजाल दुःख के विषय सम्पर्क से क्षणिक प्रतिकार और क्षणिक विषयसुख भोगने से सुखाभास होता है। परन्तु बाद में खुजली की तरह भयंकर नयी तृष्णा, खुजाल और नये दुःख को जगाने वाली बनती है। इसलिए वस्तुत: संसार की कोई भी बात ऐसी नहीं है जो दुःखस्वरूप नहीं है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक ये ही महान् दुःख हैं और यही संसार है। इसलिए संसार दुःखरूप है। पुनः संसार दुःखफलक इस प्रकार कहा गया है कि संसार भवान्तर में यानि दूसरी गति में पुन: जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक इत्यादि दुःख देता है; इसलिए फलरूप में भी संसार दुःख देने वाला है। इसका कारण यह है, पूर्व कर्म के हिसाब से जन्म-जरामृत्यु आदि अनेक प्रकार से भोग को मजबूत करता है। इससे पुन: नया जन्मादि दुःख रूप संसार खड़ा हो जाता है। इसलिए संसार का फल भी दुःख ही देने वाला है। अत: संसार दुःखफलक है। एक बार कर्म उदय में आ गया, अब चला गया, फिर उदित नहीं होगा। ऐसा भी नहीं होता है, बल्कि अनेक जन्मों तक दुःख की परम्परा का सर्जन करता है । अर्थात् अनेक भवों में जाकर और नये-नये अशुभ कर्म को बांधता है, दुःख रूपी भवों को उत्पन्न करता है। ऐसे कर्म बीज हमारा वर्तमान संसार पैदा करने वाले होने से जन्म आदि सभी दुःख अन्य भवों में दुःख की परम्परा चलाने वाले भी हैं। अर्थात् संसार दुःखानुबन्धी है। प्रत्येक वस्तु को चार निक्षेपों से घटाया जाता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । संसार शब्द को चार निक्षेपों से किस प्रकार घटाया गया है, यह बताते हैं- कागज में 53 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश संसार शब्द लिखा हो, वह 'नाम संसार' कहलाएगा। संसार के चारों गतियों का चित्र बना हो, उसे 'स्थापना संसार' कहा जाएगा। एक गति से दूसरी गति में जीव का भ्रमण करना, यह 'द्रव्य संसार' कहलाएगा। आत्मा में विषय-कषायों के परिणाम होने पर, वह 'भाव संसार' कहलाएगा। वैसे सदैव द्रव्य ही भाव उत्पन्न का कारण होता है। परन्तु यहाँ विपरीत नियम है। भाव संसार, द्रव्य संसार का कारण है। चारों गतियों में जीव का भ्रमण करना यह विषय-कषाय के परिणामों के कारण ही है। 'योग शास्त्र' में भी कहा गया है कि विषय कषाय के पराधीन आत्मा ही संसार है। राग-द्वेष से युक्त आत्मा ही संसार है। जितने परिणाम बिगड़ते हैं, उतने द्रव्य संसार (भव) बिगड़ते हैं। वासुपूज्य स्वामी जी के स्तवन में उपाध्याय जी महाराज ने कहा कि 'क्लेशवासित मन ही संसार है', अर्थात् क्लेश, रति, अरति, निंदा, द्वेष, इन सभी में दौड़ता मन ही संसार है। इस एक पंक्ति में ही कितना गूढ़ अर्थ व तत्त्व भर दिया है। मन को समझा दो, क्योंकि यही मन संसार में भटकाता है। द्रव्य संसार तो भयंकर लगता है, पर कभी-कभी यह भाव संसार वास्तव में अच्छा नहीं लगता है। यहाँ राग करना तो अच्छा लगता है। परन्तु राग के आधार पर आया हुआ दुःख भयंकर लगता है। दुःख रूप राग-द्वेष को समझने के पश्चात् छोड़ने का प्रयत्न करना है। शुभ और शुद्ध धर्म से बढ़कर संसार में और कुछ अच्छा नहीं है। अज्ञानी जीवों की नजर हमेशा द्रव्य संसार पर होती है। जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता है वैसे-वैसे भाव संसार पर नजर टिकती है। जब एक-एक विषय-कषाय भयंकर दिखाई देने लगता है, तब द्रव्य और भाव संसार, दोनों ही दुःख रूप है, दुःख का कारण है, दुःख देने वाला, दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाला है। यह ज्ञात हो जाता है। जैसे- आग का छोटा सा कण भी पेट्रोल की टंकी पर गिरता है तो बड़ी दुर्घटना का सर्जन करता है। वैसे ही थोड़ा सा भी किया गया क्रोध, मान, माया रूप कषाय भयंकर संसार में भटकाने वाला है, गर्त में ले जाने वाला है। थोड़ा सा कर्ज भी किसी का देना हो तो उपेक्षा किए बिना चुका देना चाहिए। छोटा सा भी घाव हो तो उसकी उपेक्षा किए बिना इलाज करवाना चाहिए। उसी तरह थोड़ा भी रागादि भाव भीतर में दिखाई देता हो तो बिना उपेक्षा उस राग का त्याग कर देना चाहिए। आज छोटा सा दोष दिखाई देने वाला कल बड़ा विस्फोट करने वाला बन सकता है और उसका परिणाम कितना दुःखद् होगा, यह सोचना भी दुःखदायी है। संसार अनादि काल से चल रहा है तो इससे जीवों को किस बात की तकलीफ हो रही है? जिससे कहा जाता है कि संसार का उच्छेद करना चाहिए। जैसे सूर्य, चन्द्र, 54 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश ग्रह, नक्षत्र, तारे, पृथ्वी भी तो अनादि काल से हैं। इसी तरह संसार भी अनादि अनन्त काल तक चलता रहे? समझें, तकलीफ हमें इस बात की है कि संसार दुःखरूप है, दुःख देने वाला है, दुःख की परम्परा को बढ़ाने वाला है। वर्तमान में संसार दुःखरूप है जो आधि, व्याधि, उपाधि, रोग, जन्म, जरावस्था, मरण, दरिद्रता, संक्लेश, पैसा, कुटुम्ब, अपयश, अपमान आदि दुःखों की चिन्ताओं से भरा हुआ है। यहाँ किसी भी जीव को कहीं भी शांति नहीं है, चैन नहीं है। श्रीमन्तों को चैन की नींद नहीं। गोली खाकर नींद लेनी पड़ती है। करोड़ों, अरबों रूपये के मालिक हैं पर मन में शान्ति नहीं है। प्रतिदिन संसार में अट्ठारहपापस्थानक का पाप करते हैं और दुःखों को बढ़ाते जाते हैं। वस्तुतः संसार की प्रवृत्ति ही दुःख उत्पन्न करने वाली है। पाप प्रवृत्ति के द्वारा जब तीव्र रसयुक्त कर्मों को जीव बांधता है तो इसी भव में फल भोगने पड़ते हैं, ऐसा भी होता है। अन्याय, अनीति करके, लोगों को लूटकर धन इकट्ठा किया हो तो अन्तिम अवस्था में कैंसर अथवा लकवा जैसी बड़ी बीमारी शरीर में आ जाती है। बाहर से बड़े-बड़े महारथी दिखाई देने वाले भी भीतर से वैचेन होते हैं। अनेक चिन्ताएँ उनके सिर पर होती हैं। इसलिए संसार में कोई भी सुखी नहीं है, ऐसा कहते हैं। वर्तमान तो दुःख में बीत रहा है पर परिणाम भी दुःख रूप ही होता है। दुःख की परम्परा वाला होता है। दुःख की परम्परा एक या दो भव तक ही साथ चलकर फिर छूट जाने वाली भी नहीं है, बल्कि भवों भव तक साथ चलती है। गोशाले काजीवन . . परमात्मा महावीर आदि 24 तीर्थंकर केवलज्ञान के पश्चात् ही चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। फिर सर्वप्रथम गणधर, साधु आदि उनके शिष्य बनते हैं। इससे पहले छमस्थ अवस्था में मौन साधना करते हैं। परन्तु परमात्मा को केवलज्ञान प्रकट होने के पहले ही गोशाला उनका शिष्य बनकर उनके साथ विचरण करने लगा था। जब परमात्मा मौन ही रहते थे तो उनका लाभ गोशाला उठा लेता था। झूठ-कपट के सहारे लोगों में परमात्मा को नीचा दिखाता और खुद को ऊँचा और बड़ा ज्ञानी बताता था। काफी समय के बाद गोशाला ने परमात्मा से तेजोलेश्या चलानी सीखी और अन्त में क्रोधावेश में आकर उसी तेजोलेश्या का प्रयोग परमात्मा के ऊपर किया। परन्तु वही तेजोलेश्या की अग्नि परमात्मा को तीन प्रदक्षिणा लगाकर गोशाले के शरीर में प्रवेश कर गई। गोशाले ने प्रभु से कहा- छः महीने पश्चात् तेरी मृत्यु हो जाएगी। तब परमात्मा ने फरमाया - हे गोशाला! मेरी मृत्यु को अभी कुछ वर्ष बाकी हैं, किन्तु सात दिन पश्चात् तेरी मृत्यु हो जाएगी। 55 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश __गोशाला छः दिन तक तड़फता रहा और अंतिम दिन उसने खूब पश्चाताप किया, जिससे मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। कषाय से युक्त चिकने कर्मों को उसने पहले ही बाँध लिया था। जब कर्म उदय में आये तो हर भव में उसे जलना पड़ा, बार-बार जलाया गया। देवलोक से गोशाला का जीव च्यवकर मनुष्य लोक में आकर राजा बनेगा। वहाँ पर भी जब वह साधुजनों को परेशान करेगा, तब ज्यादा परेशान होकर साधुजन राजा को तेजोलेश्या से जला डालेंगे। इसी प्रकार आने वाले भवों में भी अनेक कष्टों को सहन करते हुए वह जीवन बिताएगा और अन्त में जल कर ही मरना पड़ेगा। एक, दो भवों की पीड़ा से, वेदना से कर्म छूटने वाले नहीं हैं। तीव्र कर्म बांधा है तो भवों तक परम्परा चलेगी ही। जब तक भगवान् साक्षात नहीं मिलेंगे, तब तक दुःख भोगना ही पड़ेगा। केवल नरकों में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक नरकावास में जाकर हम आये हैं। कत्लखाने में पशु को काटते व मारते देखते हैं तो हमारे शरीर में कंपकंपी होने लगती है। इसी प्रकार असंख्य बार अपने को भी काटा गया है। परमात्मा का, गुरु भगवन्तों का हम पर कितना असीम उपकार है कि इस भव में धर्म का मार्ग दिखाकर फिर से गिरते हुए बचा लिया। पशुओं के जीवन की कल्पना तो करो। जन्म मिला बैल का, फिर उसका पालनपोषण हुआ। थोड़ा शरीर हृष्ट-पुष्ट हुआ कि किसान की मजदूरी करनी चालू हुई। भयंकर सर्दी-गर्मी में भी खेत में हल खींचना पड़ा। जब शरीर का पूरा रस निकल जाता है, तब अंत में कत्लखाने ले जाया जाता है। कटते समय भयंकर पीड़ा में आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान आ गया तो सीधे नरक ही जाना पड़ेगा। हर भवों में मार पड़ती है फिर भी धर्म करने का मन नहीं करता है। पाप प्रवृत्ति ही चलती रहती है। इतना अधिक रांग-द्वेष होता है कि पाप वृत्ति से छूट ही नहीं पाते हैं। जब पुण्य प्रबल नहीं हो तो अनार्य देश में जन्म लेना पड़ता है। वहाँ भी मनुष्य जन्म मिलेगा पर फलदायक नहीं होगा, क्योंकि भव जल तारने वाले सच्चे देव-गुरु-धर्म का वहाँ अभाव है। जब सच्चा धर्म नहीं मिलेगा तो मानव धर्म के नाम पर अधर्म ही करेगा और दुर्गति में ही जाएगा। अनार्य देशों में मानव में मानवता का, दया धर्म का अभाव होता है। जीवित मानव को जला देना, पेट्रोल डालकर आग लगा देना, ऐसी अमानवता वहाँ नजर आती है। आर्य देश में ऐसे भी मानव के दर्शन होते हैं जिन्हें सच्चे देव-गुरु-धर्म नहीं मिलते हैं, फिर भी उनमें सज्जनता नजर आती है। न्याय नीति से प्रमाणिक जीवन जीने वाले होते हैं। लगता है थोड़े से पुण्य की कमी के कारण वे जैन धर्म से वंचित रह गये। पूर्व प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री बहुत ही सज्जन व्यक्ति कहलाते थे। 56 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश सादा-जीवन उच्च विचार को चरित्रार्थ करने वाले थे। एक बार शास्त्री जी अपनी पत्नी के साथ कलकत्ता में साड़ी खरीदने के लिए साड़ी की दुकान पर गये। दुकान का मालिक शास्त्री जी को देखकर तुरन्त आश्चर्य चकित होकर खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री जी स्वयं दुकान पर आये हैं तो महंगी साड़ियाँ निकालकर उनको दिखाने लगा। पाँच, दस हजार की साड़ी देखकर शास्त्री जी ने कहा- 'मुझे इतनी कीमती साड़ी नहीं चाहिए'। दुकान वाले ने कहा- 'आपको पैसे कहाँ देने हैं, आप तो मात्र साड़ी पसंद कीजिए।' शास्त्री जी ने कहा- 'मुझे मुफ्त में साड़ी नहीं लेना है।' दुकान के मालिक ने कहा- 'आप से कोई पैसे कैसे ले सकता है? यह आप ही की दुकान है। आप चाहे जितनी साड़ी लें।' दुकान वाले ने अपनी पहचान बताते हुए शास्त्री जी को दुकान में लगा हुआ उनका फोटो दिखाया, परन्तु शास्त्री जी ने एक न मानी। सामान्य साड़ी पसंद कर उसका मूल्य देकर अपनी पत्नी के साथ चले गये। कहने का तात्पर्य है कि शास्त्री जी को सज्जनता मिली, पर सच्चे देव-गुरु-धर्म नहीं मिले; और हमें धर्म मिला, कर्म ने हमारी आवाज सुन ली। परमात्मा की शरण में लाकर छोड़ दिया। अब हमें क्या करना है? परमात्मा के शरण में जाकर उनके चरण पकड़ लेना है या छोड़ देना है? अब तो मात्र एक ही सहारा है, परमात्मा की शरण स्वीकार कर लेने में ही सार है। अब मैं बहुत थक गया हूँ, मुझे दुर्गति में नहीं जाना है। मुझे एक दिन भी दुःख नहीं भोगना है, शीघ्र संयम लेकर सुन्दर आराधना करनी है। बालक की तरह भगवान् को पकड़कर लिपट जाना है। . कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी म. वीतराग स्त्रोत्र में भगवान् से प्रार्थना करते हुए कहते है कि 'जब तक आप मुझे मोक्ष नहीं ले जाओगे, तब तक मैं आपकी शरण नहीं छोडूंगा और आप भी मुझे मत छोड़ना।' - इतना सब कुछ कहने का तात्पर्य यही है कि कर्म ने हमको सभी सुविधाएँ दी हैं। जैसे माता हलवा बनाकर अपने लाडले बेटे के मुँह में कवल रख भी देती है, पर उस कवल को गले से नीचे तो उसके बेटे को ही उतारना होगा। बस इसी तरह कर्मों ने हमें सामग्री दे दी। अब उन साधनों का हमें सही उपयोग करना है। केवल सच्चा पुरुषार्थ करना है। अचरमावर्तकाल के कारण हमारा पुरुषार्थ भी हमें सही परिणाम नहीं दे पाया था। परन्तु चरमावर्त काल में आने के पश्चात् अब हमें सही सामग्री प्राप्त हुई है। सच्चे देव-गुरु-धर्म मिल गये हैं। अब सही पुरुषार्थ नहीं रहा तो कर्म सत्ता उस सामग्री को वापस छीन लेगी। 57 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चित्त, वित्त और पात्र ये तीनों वस्तुएँ एक साथ मिलती हैं, तब इनके आधार पर फल की प्राप्ति होती है। चित्त अर्थात् मन के परिणाम; यानि परिणाम बहुत उच्च होने चाहिए। वित्त अर्थात् किसी को दी जाने वाली वस्तु, यानी वस्तु भी शक्ति अनुसार श्रेष्ठ होनी चाहिए। पात्र से तात्पर्य यह है कि जिसे दिया जा रहा है, वह पात्र भी सुपात्र होना चाहिए | क्योंकि सुपात्र में दिये ये का परिणाम श्रेष्ठ होता है जैसे- शालीभद्र के जीव ने पूर्व भव में खीर का दान जैन साधु के बदले किसी अन्य संन्यासी को यदि दिया होता तो ऐसा श्रेष्ठ फल नहीं मिलता। अर्थात् श्रेष्ठतम पात्र हमें सुदेव - सुगुरु का मिल गया है। इसके साथ चित्त और वित्त हमारा जितना श्रेष्ठ होगा, उतना उत्तम फल प्राप्त होगा। दो महिलाएँ थीं, दोनों में मित्रता थी, परन्तु एक अन्य धर्म को और दूसरी जैन धर्म को मानती थी। पहली सहेली उत्तम से उत्तम द्रव्यों से अपने देव की पूजा करती थी । दूसरी शक्ति अनुसार सामान्य द्रव्य से अरिहंत भगवान् की अष्ट प्रकार की पूजा करती थी। ' दोनों ऊँचे भावों से प्रभु की सेवा पूजा करती रहीं। किसे ज्यादा लाभ होगा ? यहाँ ज्ञानी भगवतों का यही कहना है कि जिसके पास सामान्य द्रव्य व भाव है, पर पात्र श्रेष्ठ है उसे उत्तम फल प्राप्त होगा, किन्तु जिसके पास उत्तम द्रव्य है, उत्तम भाव भी है परन्तु श्रेष्ठ पात्र नहीं होने से उसको जैन महिला को मिले फल में से अनन्तवें भाग जितना फल भी नहीं मिलेगा। क्योंकि पात्र उत्तम नहीं है । परन्तु तीनों उत्तम हो तो अचिंत्य फल प्रदान करता है। अरिहंतोपदेश दूसरे उदाहरण से समझाते हैं। दो सेवक अपने-अपने सेठ जी की खूब मन लगाकर सेवा करते हैं। उनमें एक सेठ जी के पास साधारण संपत्ति है, और दूसरे सेठजी के पास करोड़ों की संपत्ति है। दोनों सेठ जी अपने सेवक के कार्य से खुश होकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए सेवक को क्या देंगे? यदि सेवक का वेतन 1000 रु. का होगा तो पहला सेठ ज्यादा से ज्यादा 1500 रु. का वेतन कर देगा। वहीं दूसरा सेठ अपने सेवक को 15000 रु. देकर अपनी खुशी व्यक्त करेगा। इसी तरह अन्य देवी-देवता जो स्वयं अपूर्ण हैं, असर्वज्ञ हैं, सरागी हैं, उनकी भक्ति चाहे जितनी भी ऊँचे भावों से की जाये, वे हमें क्या फल दे सकते हैं? थोड़ा ही फल हमें मिल सकता है जबकि वीतराग की सच्चे भावों से की गई थोड़ी भी भक्ति / पूजा हमें अनन्त गुणा फल देने वाली बनती है। पुरुषार्थ के लिए वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। शक्ति अनुसार हमारा पुरुषार्थ नहीं होगा तो वीर्यान्तराय कर्म का बन्ध होता है, और भी शक्ति रहित बनता है । जितनी शक्ति हमें प्राप्त हुई है, उससे कुछ अधिक पुरुषार्थ करना चाहिए। जितना 58 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश अधिक शक्ति का प्रयोग करेंगे, उतना स्वाभाविक रूप से कार्य होता चला जाएगा। इस प्रकार प्रयत्न से जीव ज्यादा से ज्यादा आगे बढ़ता जायेगा, और वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होगा। हमें श्रेष्ठ जिन शासन की प्राप्ति हुई है। उसमें भी ज्ञानी-ध्यानी, तपस्वी, गीतार्थ गुरु मिले हैं। अब मात्र पुरुषार्थ कर अपने कर्मों को शिथिल कर नष्ट करना है। वर्तमान में हम देख रहे हैं कि जगह-जगह देश-विदेश में क्रिकेट मैच खेले जा रहे हैं। इसका क्या फल मिलने वाला है? मैच आखिर क्या है? एक प्रकार का कौतुक है ना? कौन जीता, कौन हारा, यही देखना अच्छा लगता है। भीतर इच्छाएँ जगती हैं। यही इच्छा आगे हमारे जीवन में कैसे रूपान्तरित होती है। द्रष्टव्य है ___ एक मार्ग में दो मुर्गों को लड़वाया जा रहा है। इस कौतुक को देखने बहुत लोग खड़े हैं, दोनों मुर्गे लहुलुहान हो गये हैं। आप वहाँ से जा रहे हैं। आपके मन में इच्छा जगेगी कि कौन हारा और कौन जीता? और आप भी देखने के लिए वहाँ मार्ग पर खड़े हो जायेंगे। फिर कभी मल्ल कुश्ती, तो कभी दो देश के बीच युद्ध आदि कौतुक देखने की इच्छा जागृत होती है। अरब में अरबी ऊँट की पूंछ से छोटे बालक को बांधकर ऊँट को दौड़ाया जाता है। जब बालक को पूंछ से घसीटने पर मिट्टी के थपेड़े, पत्थर की चोट लगती हैं; और वह बालक जोर-जोर से चिल्लाता है, तब उस आवाज को सुनकर अरेबियन लोगों को आनन्द आता है, खुशी मनाते हैं। यह भी कौतुक देखने की रुचि है। ऐसे ही कौतूहल प्रिय परमाधामी देव, जो असुर निकाय के देवता कहलाते हैं, उनको नरक के जीवों से कोई दुश्मनी नहीं होती है। परन्तु इन देवों को भी कौतुक करने व देखने की अत्यधिक रुचि होती है। ये देव कौतूहल प्रिय होते हैं। इन्हीं संस्कारों से नरक में आते हैं और जीवों को दुःख देते हैं; और जब वे जीव जोर-जोर से चिल्लाते, रोते, गिड़गिड़ाते हैं तो उन्हें बड़ा मजा आता है, आनन्द आता है। इसी तरह क्रिकेट मैच आदि खेल देखने से ऐसे अनेक कौतुक देखने के बीजों का वपन होता है। ... परमाधामी जीव नियम से भव्य जीव ही होते हैं। हम भी भव्य जीव हैं। क्योंकि इस जीव ने भी परमाधामी के अनन्त भव किये हैं। नारकीय जीवों को भयंकर दुःख दिये। फिर वहाँ से मृत्यु प्राप्त कर तीसरे भव में नारकी का ही भव प्राप्त होता है। जीव वहाँ भयंकर दुःख को भोगता है। इस प्रकार कई भवों तक यह चक्र चलता रहता है। उस समय वहाँ हमें कौन बचाने आता है? परन्तु काल का परिपाक होता है, कर्मों का कुछ क्षयउपशम, क्षयोपशम होता है, तब सुन्दर मानव जन्म की प्राप्ति होती है। अब यदि भूल कर दी और जिन शासन का ख्याल न रखकर उसे छोड़ दिया तो भव भ्रमण फिर से आरंभ हो 59 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश जाएगा। पुरुषार्थ नहीं करेंगे तो अनादि संसार में भटकते ही रहना पड़ेगा। सच्चा व अच्छा पुरुषार्थ करेंगे तो ही संसार से पार हो पायेंगे। भयंकर संसार शास्त्रों में अनेक स्थानों पर संसार की असारता का वर्णन मिलता है, जहाँ प्रत्येक जीव को भयंकर दुःख भोगना पड़ता है। सुअर आदि तिर्यंच प्राणियों को पकड़कर कत्लखाने में ले जाया जाता है, उस समय उनको उल्टा लटकाकर उनके गुदे में गरम सलाखें डालकर जीभ के भाग से बाहर निकाला जाता है। तत्पश्चात् उनको गोल-गोल घुमाकर उनके नीचे अग्नि जलाते हैं। जीवित प्राणी को जलाते हैं और सेकते हैं! देवनार कत्लखाने में जीवित पशुओं की चमड़ी उतार दी जाती है। गरमागरम उबलते पानी में पशुओं को डालकर उनके शरीर से चमड़ी निकालते हैं। आज भी सम्पूर्ण विश्व में प्रतिदिन करोड़ों-अरबों की संख्या में मछलियों को काटा जाता है। इससे भयंकर पाप महापाप होता है। जाने अथवा अनजाने में व्यक्ति वध, हिंसा करके पाप कर्मों को बांध लेता है और बधे हुए कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ता है। यथा ____ परमात्मा महावीर के सम्पर्क में आने से पूर्व श्रेणिक राजा शैव धर्म को मानने वाले थे। उन्हें शिकार खेलने का अत्यधिक शौक था। एक दिन शिकार खेलते समय उन्होंने एक हिरणी पर बाण चलाया, जो गर्भवती थी। एक साथ अपने एक निशाने से दो जीवों का वध देखकर सम्राट श्रेणिक बहुत खुश हुए और वहीं परिणाम स्वरूप आयुष्य कर्म का बंध हो गया। बहुत समय बाद सम्राट श्रेणिक परमात्मा महावीर के सम्पर्क में आए। एक दिन भगवान से राजा ने पूछा, 'भगवन्! मैं इस भव के पश्चात् मरकर कहाँ जाऊँगा?' । भगवान् ने कहा- 'श्रेणिक! तुम यहाँ से मृत्यु प्राप्त कर नरक में उत्पन्न होने वाले हो।' तुरन्त राजा ने कहा- 'भगवन्त आप का भक्त, प्रतिदिन आपका स्मरण करने वाला, मेरे हृदय में, मेरे खून, मांस, हड्डी में मात्र आप बसे हो। आप के सिवाय राज्य के प्रति अथवा अन्तःपुर की रानियों के प्रति भी राग नहीं है। फिर भला कैसे मैं नरक में जाऊँगा?' भगवान् ने फरमाया- 'राजन्! अभी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति अटूट श्रद्धा भक्ति हैं, तुम्हारे हृदय में मेरा निवास है, सही है, परन्तु मेरे सम्पर्क में आने से पहले हिरणी का शिकार करते समय उसका वध किया, तब तुम्हें अत्यन्त हर्ष एवं खुशी हुई थी। बस वहीं नरक का आयुष्य कर्म बन्ध हो गया। राजन्! किये हुए पाप कर्मों को समभाव से भोगना ही 60 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश होगा। उसके पश्चात् तुम भी मेरी ही तरह तीर्थंकर बनकर सर्व जीवों का कल्याण करोगे। परन्तु मृत्योपरांत नरक के दुःखों को भोगना ही पड़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।' जैन धर्म में मानव जन्म प्राप्त करने के पश्चात् इस असार संसार से छूटने का सच्चा पुरुषार्थ करना ही होगा। परन्तु इस संसार का उच्छेद किस प्रकार से होगा? इसके लिए शुद्ध धर्माराधना करनी होगी। धर्माराधना में जितनी गड़बड़ी यानि विराधना होगी, उतना ही हमारा परिणाम कम हो जाएगा। प्रत्येक क्रिया जितनी शुद्धता पूर्वक की जाएगी, उसका परिणाम उतना ही श्रेष्ठ प्राप्त होगा। अन्तिम उच्च कक्षा की परिपूर्ण धर्माराधना करने से ही अन्तिम मोक्ष फल की प्राप्ति होगी। शुद्ध धर्म के तीन लक्षण 1. बहुमान पूर्वक धर्म करना - प्रत्येक मानव का कर्तव्य है धर्म करना। किन्तु धर्म कैसा? बहुमान पूर्वक किया गया धर्म श्रेष्ठ कहलाता है। इसलिए सम्पूर्ण आदर | बहुमान सहित धर्म करना चाहिए। मनुष्य जीवन में ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए कि धर्म के अतिरिक्त कुछ भी करने जैसा नहीं है। यदि कुछ करना भी पड़ता है तो लाचारी व कर्म की प्रबलता है। यहाँ एक मात्र भगवान् की भक्ति, गुरु की वैयावच्च और धर्माराधना, यही कर्तव्य है। ऐसी ही स्पष्ट बुद्धि की मान्यता हमारे भीतर चाहिए। 2. संज्ञा-निग्रह पूर्वक धर्म करना- सामान्यतः हम एक तरफ धर्म क्रिया करते हैं तो दूसरी तरफ संज्ञाओं को खुला छोड़ देते हैं। इस प्रकार किया हुआ धर्म लाभदायक नहीं होता है। इन्द्रियों का निग्रह करने वाला ही धर्माराधना का सच्चा पात्र होता है। उपवास तप करके पारणे के दिन भोजन पर आसक्त बनना, निश्चित रूप से ऐसा तप-धर्म शुद्ध नहीं कहलाता है। प्रत्येक क्रिया में आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि ओध संज्ञा को घटाते जाना है। जब संज्ञाओं का लश्कर अपने ऊपर टूट पड़ता है तब, उसके सामने संघर्ष कर संज्ञाओं का निग्रह करना है। 3. फल की इच्छा से रहितधर्म करना- दान आदि प्रत्येक धर्माचरण करने से संज्ञाओं के प्रति आसक्ति कम हुई या नहीं? संज्ञा पतली पड़ी अथवा नहीं? ब्रह्मचर्य पालन में मैथुन-संज्ञा को तोड़ना है। दान देकर परिग्रह-संज्ञा, तप द्वारा आहार-संज्ञा कम होनी चाहिए। इन्द्रिय विषयों के प्रति राग भाव घटते जाना चाहिए। बिना फल की इच्छा वाला धर्म होना चाहिए। कहा गया है कि दान देने से देवलोक का सुख मिलेगा। तपश्चर्या करने से - 61 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश तेजस्विता प्राप्त होगी। ब्रह्मचर्य के पालन से ज्यादा भोग सुख प्राप्त होंगे। इस प्रकार फल की इच्छा रख कर धर्म नहीं करना चाहिए। इच्छा सदैव एक ही होनी चाहिए। मेरी आत्मा कब मोक्ष को प्राप्त करेगी। अब संसार सागर में नहीं डूबना है ! मांगना भी हो तो भवसागर से तिराने वाली सामग्री का संयोग मांगें । समाधिमरण, सुगुरु का संयोग, गुरु वचन / आज्ञा का पालन मांगें, जिससे कि आगे चलकर ये सभी मोक्ष रूपी लक्ष्मी देने वाले बनें। हमें अशुद्धता से शुद्धता की ओर जाना है। शुद्ध धर्म तुरन्त यानि शुरुआत से प्राप्त नहीं होता, लेकिन लक्ष्य शुद्ध धर्म का ही होना चाहिए। उसकी अवगणना न करें। फिर भी कोई यदि संसार के सुखों की इच्छा से धर्म करता हो तो उसकी भावना को ठेस पहुँचे, वैसा नहीं कहना चाहिए। संघ में गीतार्थ आचार्यों की जवाबदारी बहुत बड़ी होती है, क्योंकि वे ही जीव को अशुद्ध धर्म से धीरे-धीरे शुद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं । यहाँ समझने जैसा यह है कि कोई अशुद्ध धर्माराधना करता हो तो उसे नीचा नहीं दिखाना चाहिए और न ही निम्न दृष्टि से देखना चाहिए। उसका धर्म नहीं छुड़वाते हुए मीठे वचनों द्वारा समझाना चाहिए कि तू लाख की कमाई को राख में क्यों खो रहा है। जिस धर्माराधना से देवलोक के सुख या मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है, तो ऐसे भयंकर इहलोक के तुच्छ सुखों की अपेक्षा क्यों ? धर्माराधना द्वारा जीव अनुकूलता पूर्वक मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ता है तो तू असार संसार की अपेक्षा क्यों रखता है? इत्यादि अनेक प्रकार से उसे समझा कर धर्म की ओर मोड़ना चाहिए। अब हमें यह निश्चय करना है कि हमें मात्र विशुद्ध धर्म ही चाहिए। प्रारंभ काल में बालजीव की तरह आराधना चली पर अब प्रौढ़ युवान की तरह चलना है। विशुद्ध धर्म की ही आराधना करनी है । भगवान् की भक्ति करते हुए कवि धनपाल कहते हैं - हे भगवान् ! तेरी भक्ति करने से मुझे देवलोक की भोग-सुख-समृद्धि नहीं चाहिए। तेरी भक्ति से मेरे नरक का दुःख समाप्त हो जाए, ऐसी भी इच्छा नहीं है। आपत्ति निवारण, रोगादि निवारण या चक्रवर्ती आदि पद भी नहीं चाहिए। यदि मुक्ति भी मिलने वाली हो तो भी नहीं चाहिए। मुझे तो मात्र तेरी भक्ति, केवल तेरी भक्ति ही चाहिए। ये मिल गया तो जीवन में सब कुछ मिल गया। सही भी कहा है कि जब भक्तजन परमात्मा की भक्ति में ऐसे एकाकार हो जाते हैं, तब इनकी मुक्ति की इच्छा भी छूट जाती है। शुद्ध धर्म संसार से छूटने का महत्त्वपूर्ण मार्ग शुद्ध धर्माचरण है। शुद्ध धर्माचरण के लिए बहुमानपूर्वक धर्माचरण, संज्ञानिग्रहपूर्वक धर्माचरण, फल की इच्छा से - 62 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश रहित धर्माचरण होना चाहिए। इनका पूरा-ध्यान रखना होगा। परमात्मा ने भी शुद्ध धर्माचरण के लिए राजपाट, सुख-समृद्धि, भोग-ऋद्धि, परिवार आदि सब कुछ छोड़ा... अर्थात् धर्म, संसार सुख को प्राप्त करने के लिए नहीं किया जाता है। शुरुआत में प्रत्येक बालजीव संसारी इच्छा से धर्म करता है, पर समझ आने के पश्चात् उसे छोड़ देना चाहिए। धर्म मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। फिर भी कोई पूछे कि संसार के दुःखों को दूर करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? तो उसे यही कहना चाहिए कि शारीरिक रोग, मानसिक रोग आदि सभी प्रकार के कष्ट धर्माचरण से ही दूर हो सकते हैं। अतः निस्वार्थ भाव से धर्म करो। संज्ञाओं को तोड़ना, इच्छाओं का निरोध करना इतने सरल कार्य नहीं हैं। संसारिक जीवों के लिए ये कार्य बहुत कठिन हैं। फिर भी सांसारिक इच्छाओं से धर्म करते-करते धीरे-धीरे आगे बढ़ना है और समझ बढ़ते ही शुद्ध धर्माचरण में आना है। कर्मवशात् हम पाप कर बैठते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में भी पाप हेय (छोड़ने जैसा) लगना चाहिए। वास्तव में तो करने योग्य आचरण तो शुद्ध धर्म ही है। यह तो मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे पापाचरण करना पड़ रहा है। कृष्ण महाराजा के अनेक रानियाँ और अनेक राजकन्याएँ थीं। जब राजकन्याएँ विवाह के योग्य हो गईं तो उन्हें अपने पास बुलाकर यही प्रश्न करते- बिटिया! तुम्हें दासी वनना है अथवा रानी? सभी कन्याएँ कहतीं, हमें रानी बनना है। कृष्ण राजा कहते- रानी बनना है तो जाओ मेरे भाई श्री नेमीनाथ परमात्मा के पास और चारित्र अंगीकार करो। इस तरह सभी को चारित्र मार्ग पर भेजते थे। यदि कोई कह देते कि मुझे दासी बनना है, तो उसकी शादी करवाते, पर उसे भी किसी प्रकार प्रतिबोध देकर चारित्र मार्ग पर भेज देते थे। वे भीतर से जानते थे, संसार हेय है, छोड़ने जैसा है। स्वयं अन्दर से अपनी आत्मा को धिक्कारते थे कि, 'देखो मेरा भाई सम्पूर्ण विश्व के जीवों को तार रहा है और मैं अभी तक आरंभ, समारंभ के भोग में डूबा हुआ हूँ।' राजपाट को भोगते हुए भी उनका मन सदैव मोक्षाभिलाषी बना रहता। चित्त रत्नत्रयी की प्राप्ति में उद्विग्न बना रहता। कृष्ण महाराजा को भी संसार तो हेय ही लगता था। चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने से चारित्र ग्रहण नहीं कर पा रहे थे। रत्नत्रयी की आराधना ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, यही मोक्ष का मार्ग है। इससे ही संसार का उच्छेद होता है। समकिती आत्मा को संसार में पाप करना भी पड़ता है तो उसका मन सदैव मोक्ष मार्ग पर ही होता है। 63 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश व्यवहार की तलहटी से निश्चय के शिरवरपर धर्म रूपी द्वार में प्रवेश करते ही प्रारंभिक अवस्था में ही सीधे शुद्ध धर्म की बात नहीं की जानी चाहिए। यहाँ जीवों के भव्यत्व के अनुरूप धर्माचरण के लिए कदम बढ़ाना चाहिए। निश्चय नय की दृष्टि से सांसारिक फल की इच्छा से धर्म किया जाय तो वह धर्म कौड़ियों की कीमत का कहा जाता है, परन्तु व्यवहार नय में समन्वय करना पड़ता है। निश्चय के शिखर तक पहुँचने के लिए साधक को बीच में व्यवहार की सीढ़ी चढ़नी जरूरी होती है। शुद्ध धर्म की प्राप्ति के लिए चार चरण बताये गये हैं 1. अपुनर्बंधक 2. समकित् 3. देशविरति 4. सर्वविरति जैसे-जैसे साधक शुद्ध धर्म का पालन करने लगते हैं, वैसे-वैसे और आगे बढ़ते जाते हैं, जैसे- श्रावक धर्म का पालन करने के पश्चात् साधु-धर्म को स्वीकार करते हैं, फिर उससे भी आगे वे निरतिचार व्रतों का पालन करने लगते हैं। शुद्ध से शुद्धतर और फिर शुद्धतम धर्म का पालन करने से केवलज्ञान और अन्त में सम्पूर्ण कर्मों को क्षय कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह शुद्ध से शुद्धतम तक ले जाने के लिए शास्त्रों में चार चरण बताये गये हैं। इन चारों चरणों में से हम किस चरण में हैं, यह जानने योग्य है। सर्वप्रथम सामर्थ्य हो तो सर्वविरति ग्रहण करें। यदि प्रबल सामर्थ्य योग न बने तो देशविरति चारित्र स्वीकार करें! अन्यथा समकित यानि सम्यग्दर्शन निर्मल बनाकर शुद्ध बनने का प्रयत्न करना चाहिए। इतनी भी शक्ति यदि नहीं हो तो अपुनर्बंधक में स्थिर होना 'अपुनबंधक' अवस्था अर्थात् जो तीव्र कषाय भावों से पाप नहीं करता है। जिसे नये भव बढ़ाने का राग नहीं होता, जो औचित्य के पालन में तत्पर रहता है। तीनों लक्षणों के पालन करने से साधक 'समकित' प्राप्त करता है। यानि देव-गुरु धर्म पर श्रद्धा-आदर, भक्ति, बहुमान के भाव आते हैं। इससे आगे जाकर स्थूल व्रत ग्रहण करने के भाव आते हैं। अंशतः यानि थोड़ी क्रिया, अणुव्रत आदि जीवन में ग्रहण करते हैं। वह 'देशविरति' कहलाती है। यही देशविरति आगे 'सर्वविरति' प्राप्त कराती है। यह पूर्वाभ्यास है। श्रावक-धर्म का अच्छे से पालन करना, एकासना आदि तप-त्याग, पर्वतिथि की आराधना, स्वाध्याय, वैय्यावच्च करना, श्रावक धर्म की आराधना करते हुए साधु धर्म में आना। परमात्म वचनों का निरतिचार पालन व गुरुजनों की वैयावच्च पूर्वक संयम की साधना करते-करते केवलज्ञान तक पहुँचना है। 64 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश शुद्धधर्मसाधने की विधि संसार का उच्छेद (नाश) ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप शुद्ध धर्म अचारण से होगा, किन्तु यह धर्म औचित्य सहित, निरन्तरता सहित, सत्कार सहित, विधिसहित सेवन करने से प्राप्त होगा। हमें ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि व्रतधारी श्रावक एवं अव्रती गृहस्थ क्या ऐसी आराधना कर सकते हैं? हाँ, कर सकते हैं। अभिग्रह करने से यानि दृढ़ संकल्प रूपी प्रतिज्ञा करने से श्रावक या गृहस्थ इनका पालन पूर्णरूप से कर सकते हैं। अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विविध आराधना प्रतिज्ञा पूर्वक करने से ही होती है। शुद्ध धर्म साधने की विधि यहाँ प्रस्तुत की जा रही है1. औचित्य- यहाँ सर्व प्रकार से औचित्य का पालन नहीं होगा तो अकेली शुद्ध धर्म की साधना भी आत्मा के अनादि काल के कुसस्कारों को मिटा देने में समर्थ नहीं बन सकती है। अनुचित आजीविका, अयोग्य व्यवहार आत्मा को कठोर बनाती है, आत्मा के साथ एकमेक नहीं होती है। जिस प्रकार कठोर मिट्टी से भिन्न-भिन्न आकृति के घड़ा, कुण्डी, शिकोरा आदि नहीं बनाये जा सकते हैं परन्तु वही घड़ा आदि कोमल मिट्टी से बनाये जा सकते हैं। उसी प्रकार अनुचित व्यवहार से कठोर बनी हुई आत्मा के लिए भी समझना होगा। मिट्टी से घड़े की तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र भी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर उतारने का परिणाम है। आत्मा औचित्य पालन से मुलायम बनती है। वह कैसे? औचित्य पालन में जब आत्मा अधिक प्रमाण में लोभ, क्रोध, अहंभाव, क्षुद्रता आदि को छोड़ता है, तब आत्मा मुलायम बनती है। 2. निरन्तरता (सातत्य)- भूतकाल के अनन्त भवों में जीव ने मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसादि पाप और इन्द्रियों की निरन्तर धाराबद्ध पाप प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा में मिथ्यात्व भाव, मूढ़ दशा, अज्ञानता और पाप प्रवृत्ति को ही दृढ़ किया है। इसे मिटाने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की निर्मल प्रवृत्ति से जीवन में सतत् आचरण करना चाहिए। शरीर में बहुत लम्बे समय से गाढ़ रूप से व्याप्त हुए रोग को दूर करने के लिए जैसे औषधि का सेवन सतत् करना पड़ता है, वैसे ही मिथ्यात्व आदि गाढ़ रूपी संसार रोग को दूर करने के लिए सम्यग्दर्शनादि का सतत् आचरण करना चाहिए। 3. सत्कार- हृदय के आदर-बहुमान सहित धर्माचरण करना चाहिए। इस जीव ने संसार रूपी रोग को बढ़ाने वाले मोह का खूब आदर सहित सेवन किया। इसलिए ही संसार में अनेक कष्ट और पीड़ा का अनुभव करने के पश्चात् भी जैसे प्रिय पुत्र के प्रति मोह नहीं हटता है, वैसे ही संसार से मोह नहीं हटता है। हृदय के बहुमान सहित जो 65 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश सम्यग्दर्शनादि शुद्ध धर्म आचरण में आएगा, तभी मोक्षाभिलाषी को मोक्ष के प्रति प्रीति बढ़ेगी और संसार के प्रति मोह, माया घटेगी। क्रम से संसार-रोग धीरे-धीरे नष्ट होता जाएगा। 4. विधि- इसके पश्चात् अन्त में धर्म श्रवण आदि साधना विधि का पालन करना जरूरी है। आदर पूर्वक सदैव सेवा करने वाला पुत्र यदि विधि से सेवा नहीं करता हो तो मात्र इस अविवेक दोष के कारण पिता-पुत्र को छोड़ता नहीं है। धर्म छोड़ना नहीं, परन्तु सेवा तो विधि से ही होनी चाहिए। औषध भी सतत् और बहुत श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने के साथ-साथ उस समय खान-पान एवं कुपथ्य का त्याग आदि विधि का सेवन करना चाहिए। अन्यथा औषध रोग को मिटा नहीं सकता है। बड़े राजा-महाराजा भी सत्कार सम्मान के पश्चात् विधि को अवश्य महत्त्व देते हैं। वैसे ही भव रोग को मिटाने के लिए धर्म रूपी औषध का सेवन विधि अनुसार ही होना चाहिए। औचित्य-आजीविका के लिए योग्य व्यवसाय, लोक व्यवहार का उचित पालन, उचित रहन-सहन, उचित भाषा व भोजन, कुटम्ब-परिवार, मित्र-मण्डल के साथ उचित व्यवहार, इस तरह सर्वत्र औचित्य का पालन होना चाहिए। सातत्य-दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्रवृत्ति जीवन में नित्य अथवा समय-समय पर नियमित रूप से सदैव चलनी चाहिए। जिससे सुन्दर व अच्छे संस्कार दृढ़ बन जाएं। आदर, दानादि धर्म और धर्मी पर मूल्यवान रत्न के निधान की तरह अगाढ़ प्रीति रखें। उनके संवाद के प्रति अनुराग रखें, उनके प्रति की गई निन्दा को श्रवण नहीं करें, निन्दक के प्रति दया, संसार की सभी वस्तुओं से भी धर्म को अधिक महत्त्व, धर्म प्राप्त करने की उत्कृष्ट आतुरता, धर्म प्राप्त करने के लिए विशिष्ट उद्यम, धर्म की प्राप्ति होने पर अपूर्व हर्ष और रोमांच का अनुभव, धर्म प्राप्त होने का इतना आनन्द कि अपने जीवन को इसी से महाभाग्यशाली समझें, इसमें किसी प्रकार की रूकावट या बाधा न आ जाए, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखें। विधि-शास्त्र में बताए गए काल, स्थान, आसन्न, मुद्रा, आलम्बन इत्यादि का पालन करें तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप-वीर्य इनके आठ-आठ आचारों का सेवन करें, धर्मरहित आत्माओं के प्रति भाव दया, धर्मी जीवों के प्रति हृदय से सहर्ष प्रेम इत्यादि अनेक वस्तु इस विधि में गिने जा सकते हैं। . पूर्व में कथित वैसी स्थिति प्रकट करने के लिए जीवन में उन्हीं विषयों का अभिग्रह ग्रहण कर पालन करना होगा, इस अभिग्रह से धर्म सतत् रूप से जीवन में 66 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश उपयोगी सिद्ध होते हैं व स्थाई स्थिर हो पाते हैं। शुद्ध धर्म को सम्यग्दर्शनादि रूप में पूर्व में कहे गये अनुसार समझना होगा। ऐसे शुद्ध धर्म की भाव से आत्मा में स्पर्शना होनी चाहिए। यह स्पर्शना मिथ्यात्त्व-मोहनीय, ज्ञानवरण, दर्शनावरण, अनन्तानुबंधी कषाय आदि पापकर्म के पूर्णतः नाश से होती है। इन पापों के क्षय के लिए तथाभव्यत्त्व (स्वभाव), काल, नियति (भवितव्यता), कर्म (पुण्य-पाप) तथा पुरूषार्थ, इन पाँच कारणों का समवाय (अनकुल संयोग) होना जरूरी है। सर्वप्रथम तथाभव्यत्त्व का परिपाक होते ही अन्य काल, नियति आदि कारण स्वयं ही अनुकूल बन जाते हैं। तधाभव्यत्व कास्वरूप शुद्ध धर्म की प्राप्ति पाप कर्म की मंदता से होती है। पाप कर्म की मंदता तथाभव्यत्व के परिपाक से होती है। भव्यत्व अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता, तथाभव्यत्व यानि विशिष्ट भव्यत्व, उन भव्य जीवों के मोक्ष प्राप्त करने की वैयक्तिक योग्यता / तथाभव्यत्व। कहने का तात्पर्य यह है कि सामान्य से सभी भव्य जीवों में भव्यत्व-स्वभाव समान होने पर भी मुक्ति एक समान रीति से प्राप्त नहीं होती है. बल्कि अलग-अलग काल में, अलग-अलग सामग्री प्राप्त कर भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्मबीज की प्राप्ति कर के, बीज के ऊपर अंकुर आदि फल पर्यन्त तक विकास की तरह मोक्ष पर्यन्त तक विकास से प्राप्त होता है। ये सभी विचित्रता वस्तु के स्वभाव की विचित्रता के बिना नहीं बन सकती हैं। अलग-अलग व्यक्तियों का अलग-अलग भव्यत्व, यही उन व्यक्तियों का तथाभव्यत्व है। यह तथाभव्यत्व साध्य व्याधि के समान है। कहते हैं कि रोग असाध्य हो तो उसका इलाज नहीं है, पर साध्य हो तो साधनों के द्वारा रोग को समझ कर उसका इलाज करने से रोग का अन्त हो जाता है। उसमें तथाभव्यत्व भी उपायों के द्वारा पक सकता है और अंत में भव आरोग्य यानि मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथाभव्यत्व का अन्त हो जाता है। • साध्य-व्याधि के समान तथाभव्यत्व का परिपाक करने के लिए यहाँ तीन साधन बताये गये 1. चार शरण का स्वीकार 2. दुष्कृत की गर्दा 3. सुकृत की अनुमोदना। संसार से मुक्ति और मोक्ष पाने की इच्छा रखने वाले जीवात्मा को इन उपायों का सेवन नियमित, उपयोग पूर्वक करते रहना चाहिए। हाँ, जब भी चित्त अप्रसन्न हो, मन 67 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश में भय, खेद, द्वेष, चिन्ता आदि संकल्प-विकल्प आते हों, तब बार-बार इन तीनों साधनों का सेवन करें। जब कभी मन अशांत और डांवाडोल स्थिति में न हो तो भी इन तीनों साधनों का तीन बार स्मरण करें। हमारे पूर्व ऋषि मुनियों ने अपूर्व साधना की थी। अपने कर्मों का उच्छेद करने हेतु हमें भी शुद्ध धर्म की आराधना करनी चाहिए। जैसे कि धन्ना अणगार, शालिभद्र, मेघकुमार आदि अनेक महात्माओं ने शुद्ध आराधना द्वारा कर्मों को क्षय करने का पुरुषार्थ किया। धन्ना काकंदी ने दीक्षा अंगीकार करते ही अभिग्रह सहित छठ-तप (दो उपवास) के पारणे, छठ-तप किये थे। पारणा भी आयम्बिल तप से करते। आयम्बिल में भी कैसा आहार लेते थे? जब लोगों के घर सभी सदस्यों का खाना समाप्त हो जाता, तत्पश्चात् वे गोचरी लेने यानि आहार ग्रहण करने निकलते थे। उसमें भी बचा हुआ अच्छा आहार नहीं लेते बल्कि तपेले में नीचे चिपका हुआ अथवा जला हुआ आहार, जिसे लोग फेंकते थे, उस पर मक्खी भी बैठना पसन्द न करे, ऐसे नीरस-विरस आहार आयम्बिल में लेते थे। आहार ग्रहण करते समय मन में एक ही विचार करते, इस शरीर को खब षडरस भोजन कराया, इसलिए अनादि काल से इस संसार में भटकना पड़ा है। अब इस शरीर के प्रति मोह त्याग कर आत्मा को उसकी खुराक देनी है। इस प्रकार छठ का तप जीवन-पर्यन्त स्वीकार करके आत्म कल्याण करने लगे। , शालिभद्र के जीव ने पूर्व भव में केवल एक बार ही और एक ही मुनि भगवन्त को थोड़ा खीर दान किया, परन्तु प्रणिधान (एकाग्रता) जबरदस्त होने से वह क्रिया कितना फल देने वाली बनी। मन में मात्र एक ही भाव - कैसे गुरु? कैसा उनका त्याग-तप? अन्त समय में भी एक शरण का ध्यान था। वचन से भी बहुमान, सत्कार पूर्वक, भक्ति-भाव पूर्वक अपने घर बुलाकर उन्हें खीर बोहराया था। ऊँचे भावों से बोहाराने से अगले भव में गुरु के स्थान पर साक्षात् अरिहंतदेव भगवान् मिले। इतनी ऋद्धि-सिद्धि मिलने पर भी अनासक्त भाव मिला। बाह्य वैभव सब कुछ मिलने पर भी आन्तरिक वैभव प्राप्त करने हेतु प्रभु शरण में चारित्र ग्रहण करते हैं। शुद्ध चारित्र धर्म का पालन कर अंत में अनशन करके अनुत्तर देवलोक में गये। वहाँ से च्यवकर पुनः राजा के घर राजकुमार रूप में जन्म लेंगे और चारित्र ग्रहण कर उसी भव में मोक्ष जायेंगे। तथाभव्यत्व परिपाक करने के साधन तथाभव्यत्व परिपाक करने के तीन साधन हैं। पहला साधन श्री अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ भाषित धर्म का सच्चा शरण स्वीकार करना है। इस जगत् में दूसरे सभी शरण मात्र औपचारिक रूप से शरण हैं, 68 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश यानि कहने मात्र के लिए शरण हैं। क्योंकि उनकी शरण स्वीकार करने के बाद कर्म रोग के सामने सच्चा रक्षण नहीं मिलता है, हमेशा के लिए आपत्तियां नहीं टलती हैं, इसलिए फिर बार-बार शरण की अपेक्षा रहती है। इसमें थकावट भी निश्चित है और परिणाम से तो अवश्यमेव निराधार व दुःख की स्थिति ही मिलती है। जबकि देव, गुरु, धर्म की शरण में सच्चा व पूर्ण रक्षण है। सभी प्रकार की आपत्तियों से बचने का श्रेष्ठ उपाय यही है। इनको प्राप्त कर लेने के पश्चात् जिंदगी में कभी धोखा नहीं खा सकते हैं और भविष्य में बारम्बार अन्य शरण भी स्वीकार नहीं करने पड़ते हैं, क्योंकि क्रम से आत्मा इनकी शरण से संसार रोग से मुक्त हो जाती है। . दूसरा साधन दुष्कृत्य गर्दा है। इसमें जो दुष्कृत्य जरा भी करने योग्य नहीं थे, ऐसे नहीं करने योग्य कार्य मैने किये, यह गलत किया है। इस प्रकार की बुद्धि सहित वे पाप मेरे मिथ्या हों, ऐसी हार्दिक भावना जागृत रहती है। गुरु की साक्षी में इन दुष्कृत्यों को यथारूप यथास्थित निवेदन करना, 'अहो! यह मैंने गलत किया है।' ऐसा स्वहृदय से पश्चात्तापपूर्वक स्वीकार करना ही गर्दा है। ये दोनों शरण पूर्व में बांधे गये कर्म के अनुबन्ध को तोड़ने में अप्रतिहत (सचोट) शक्ति प्रदान करते हैं। कर्म का अनुबध यानि कर्म में रही हुई स्वयं के उदय समय नये कर्म बंध की परम्परा चलाने की शक्ति, उसका नाश दुष्कृत्य गर्दा करती है। तीसरा साधन सुकृत की अनुमोदना है। अर्थात् अरिहंतादि आत्माओं की उत्तम प्रवृत्तियाँ और उत्तम गुणों की अनुमोदना का सेवन करना। यहाँ सुकृत शब्द के साथ अनुमोदना इसलिए लिया है कि अनुमोदन यदि विवेक वाला यानि बिना दंभ का और वस्तु का मूल्यांकन करने वाला हो, साथ ही नियमित होता हो तो ही आत्मा में अखण्ड शुभ अध्यवसाय को अवश्य साध सकता है। अच्छी प्रवृत्ति स्वयं करने में अथवा दूसरे से करवाने में निश्चित रूप से वैसे भाव की सिद्धि होगी ही, ऐसा सदैव नहीं बन सकता है। अनुमोदना में तो मन-वचन-काया, तीनों योग की प्रसन्नता चाहिए। ये प्रसन्नता आत्मा में महान् शुभ परिणति को जगाये बिना नहीं रहती। पुण्य हो या पाप, दोनों तीन प्रकार से होते हैं1. स्वयं करने से, 2. दूसरे के द्वारा करवाने से, एवं 3. स्वयं के अनुमोदन से। इसमें उत्तम (शुभ) अनुष्ठानों की अनुमोदना भी एक प्रकार का आसेवन है। यह पवित्र कार्य है। इससे विशुद्ध भाव हृदय में जागृत होते हैं। ये तीनों उपाय औचित्य, निरन्तरता, सत्कार और विधि के सेवन से, औषधि से 69 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश साध्य रोग की तरह ही तथाभव्यत्व का परिपाक करते हैं, और परिपाक होते ही पापकर्मों का नाश होता है, शुद्ध धर्म के भाव से प्राप्त हुआ संसार का उच्छेद होता है। इन तीन साधनों से अवश्य ही दुःखमय, दुःखफलक और दुःखानुबंधी संसार के नाशवानं तत्त्व की सिद्धि होती है। इसलिए मोक्षार्थी भव्य जीवों को इन सच्चे साधनों का हमेशा सेवन करना चाहिए। वह भी प्रशस्त प्रणिधान, एकाग्रता, भावविशुद्धि और कर्त्तव्य के निश्चय से करना चाहिए । यहाँ काल का विचार नहीं है, किन्तु जब भी किया जाय तब सुन्दर प्रणिधान सहित किया जाय। क्योंकि कार्यसिद्धि में प्रणिधान साधना का प्रधान अंग है। कहा गया है कि प्रणिधान पूर्वक किया गया कर्म प्रबल विपाकवाला माना जाता है। इसमें अवश्य अनुबन्ध होता है और इससे आगे की प्रवृत्ति इत्यादि योग सिद्धि तक पहुँचाते हैं। प्रणिधानपूर्वक किया गया कार्य ज्यादा फल प्रदान करता है । जैसे, अर्जुन जब लक्ष्य को साध रहा था, तब उसे पुतली की एकमात्र आँख दिखाई दी। बाकी कुछ भी उसे दिखाई नहीं दे रहा था । ऐसी तन्मयता आए, अन्य वस्तु अथवा आवाज पर ध्यान नहीं जाए तभी प्रणिधानपूर्वक कार्य कहलाता है। प्रणिधानपूर्वक किये गये कार्य का फल तीव्र विपाकवाला होता है। पेथड़शाह मंत्री जब परमात्मा की अंग रचना कर रहे थे, तब कैसी अद्भुत एकाग्रता थी। राज्य कार्य हेतु बुलवाने पर भी परमात्म-पूजा को छोड़कर नहीं गये, इन्कार कर दिया। राजा स्वयं पेथड़शाह मंत्री की एकाग्रता देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उनकी परीक्षा हेतु स्वयं माली के स्थान पर खड़े रहकर पुष्प देने लगे तब नियमानुसार पुष्प न आते देखकर मंत्री ने पलटकर देखा। आज पुष्प देने में गलती क्यों हो रही है, तब ज्ञात हुआ कि पुष्प तो राजा स्वयं दे रहे हैं। पूजा द्रव्य हमारी क्रिया प्रणिधानपूर्वक ( एकाग्रतापूर्वक) होनी चाहिए। धर्मक्रिया थोड़ी सी भी करो, किन्तु अच्छे तरीके से करो । अधिक मात्रा की जरूरत नहीं है। मंदिर में मात्र पूजा की, फिर बाहर निकल आए तो वह पूजा अल्प फल प्रदान करने वाली कहलाएगी। वही साथ-साथ भावों को जोड़कर चैत्यवंदन - स्तवन आदि प्रणिधान पूर्वक की है तो करोड़ों गुणा अधिक मूल्य वाली बन जाती है । अनन्त गुणा पुण्य का उपार्जन होता है । अनन्तगुणा अशुभ कर्म खत्म होते हैं, एक कच्चे हीरे की कीमत 5000 रुपये है, यदि उसी हीरे के पीछे हम 5-10 दिन मेहनत कर अच्छी घिसाई करके अंगूठी में लगा दें तो वही हीरा पाँच करोड़ रुपये का हो जाता है। ऐसी ही गतानुगतिक धर्मक्रिया करते रहने के बदले प्रणिधानपूर्वक करने का अभ्यास करना चाहिए। For Persona Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश प्रणिधानपूर्वक की गई क्रिया से तीव्र विपाक वाले कर्मों का बंध होता है। साथ ही अनुबध भी होता है। फिर चाहे पुण्यकर्म हो या चाहे पापकर्म। शुभ प्रणिधान से पुण्य कर्म का बंध और अशुभ प्रणिधान से पाप कर्म का बंध होता है। मेघकुमार के जीव ने हाथी के भव में एक खरगोश की रक्षा की, जिससे उस जीव ने तीव्र रस वाले शुभकर्म का बंध किया। उस पुण्य कर्म के उदय से श्रेणिक महाराजा के यहाँ राजपुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म मिला। पूर्व भव में एक खरगोश की रक्षा की। अगले भव में दीक्षा लेकर छः काय के जीवों की रक्षा करने वाले बने। यही है प्रणिधान पूर्वक की रक्षा। प्रणिधान के तीन लक्षण 1. विशुद्धभावनापूर्वक क्रिया - इस क्रिया में अल्प मात्र भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए। निःस्वार्थ भावना से की गई क्रिया, विशुद्ध क्रिया कहलाती है जैसे, दान देने के पश्चात् अपने नाम की कामना होना, यह विशुद्ध भाव की क्रिया नहीं है। विशुद्ध भाव में संसार के सुख, देवलोक की इच्छा, स्वार्थ आदि भाव नहीं होने चाहिए। धर्म कार्य को करोड़ों, अरबों से भी अधिक मूल्यवान धर्मानुष्ठान को संसार के थोड़े से तुच्छ सुख के पीछे बेचना नहीं चाहिए। जो सांसारिक सुख की इच्छा करता है, उसे धीरे से, मधुर वाणी से समझाकर धर्म मार्ग से जोड़ना चाहिए। धर्म क्रिया को प्रणिधानपूर्वक ही करना चाहिए। शुद्ध प्रणिधान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। परम्परा से मोक्ष प्राप्ति की साधना का भी प्रणिधान कर सकते हैं। जब परमात्मा महावीर चार माह तक ध्यानस्थ अवस्था में लीन होकर खड़े थे, तब जीरण सेठ वहाँ परमात्मा से विनती करते और कहते, 'हे प्रभो! आपश्री मेरे घर पारणे का लाभ देने के लिए पधारिए।' जीरण सेठ जी प्रतिदिन परमात्मा के दर्शन, वन्दन करते और हाथ जोड़कर विनती करते, 'प्रभु! मुझे लाभ दीजिए।' कितने विशुद्ध भाव होंगे। यहाँ सेठ के मन में किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं थी। मात्र विशुद्ध भावों से अन्तिम दिन (चार महीने बाद) भी विनती करके आये थे। आज परमात्मा महावीर के चार महीने के उपवास का पारणा है। आज प्रभु जरूर पधारेंगे। पूरी गली सुगन्धित जल छिड़ककर, खुशबूदार बनाकर फूलों से सजा दी गई। पारणे की तैयारी करवा कर, स्वयं घर के बाहर खड़े होकर इंतजार कर रहे हैं। भगवान् आज तो पारणा करने जरूर पधारेंगे। अभी पधार ही रहे होंगे, अभी पधारने ही वाले हैं। इन्हीं विशुद्ध भावों में आरोहण हो रहे हैं। इतने में पंच दिव्य की वृष्टि होती है, उस समय मन में साढ़े बारह करोड़ सोनैय्या की भावना नहीं थी। 71 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश मन में एक ही विचार था कि परमात्मा को पारणा करवा कर मेरी भी मुक्ति निकट आ जाये। मैं भी मोक्ष सदन का स्वामी बनूं। हमें भी प्रत्येक धर्म क्रिया करते वक्त ऐसे ही शुभ भाव लाने चाहिए। मेरे द्वारा किया गया स्वाध्याय, प्रभु भक्ति, नाम की कामना के लिए नहीं, मेरी आत्मा की मुक्ति के लिए है। संसार की इच्छा और आशय हमारे भावों को अशुद्ध बनाते हैं। 2. एकाग्रता पूर्वक क्रिया प्रत्येक क्रिया में मन को उसी में समर्पित कर देना चाहिए। भगवान् को जब जीरण सेठ जी पारणे के लिए विनती कर रहे थे, तब मात्र वाणी से ही नहीं बल्कि हृदय के भावों से विनती कर रहे थे । मन समर्पित हो गया था। एक क्रिया में दूसरी क्रिया का भाव नहीं आना ही सच्ची एकाग्रता कहलाती है। 3. यथाशक्ति क्रियालिंग प्रतिक्रमण आदि धर्म क्रिया विधिपूर्वक करना । जैसी विधि शास्त्रों में बताई गई है, वैसी ही विधि करना। शक्ति अनुसार प्रत्येक धर्म क्रिया करनी चाहिए। शास्त्रानुसार जीव ने अनन्त रजोहरण (ओघे) ग्रहण किये हैं। इस कथन अनुसार अब हमें रजोहरण नहीं लेना, मात्र ध्यान, साधना ही करें, ऐसा सोचना गलत है, ऐसा विचार करना भी अपलाप करना कहलाता है। शक्ति अनुसार क्रिया करना अनिवार्य है। जीरण सेठ ने घर पर बैठे-बैठे ही प्रभु को पारणा करवाने की भावना नहीं प्रकट की । प्रतिदिन तिनती करने जाते । परमात्मा कभी कुछ नहीं कहते, फिर भी रोज जाते और कहकर आते, 'भगवन् ! पारणे का लाभ दो!' उनके भाव बिल्कुल विशुद्ध थे। मन भी परमात्मा को समर्पित था। मन में एक ही भाव था- 'भगवान्! मुझ पामर के घर-आंगन कब पधारेंगे? मुझ पतित को पावन कब करेंगे?' इन्हीं भावों से विनती करते रहते और मार्गशीर्ष कृष्ण एकम् का दिन आ गया। मध्यान्ह के समय अचानक देवदुंदुभी बजने लगी। प्रभु का पारणा पूरण सेठ के यहाँ हो गया। प्रभु का पारणा हो गया, जानकर जीरण सेठ जी को ऐसा विचार नहीं आया कि मैने इतनी विनती की, चार महीने प्रतिदिन गया, फिर भी प्रभु मेरे घर नहीं आये | बल्कि ऐसे विचार आते हैं कि मेरे कर्म अभी भी इतने कम नहीं हुए हैं, इसलिए प्रभु का पारणा मेरे यहाँ नहीं हुआ। ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि पारणा का लाभ पूरण सेठ को मिला फिर भी उससे भी ज्यादा अनन्त गुणा लाभ जीरण सेठ ने प्राप्त किया। बारहवें देवलोक का आयुष्य कर्म बांध लिया। जीरण सेठ के भावों में कुछ क्षण स्थिरता रह जाती तो केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते। 72 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश यहाँ उल्लेखनीय यह है कि तीव्र प्रणिधान वाले कर्म उच्च फल प्रदान करते हैं, क्योंकि तीनों लक्षणों से युक्त हैं। हमें भी अब निश्चित करना है कि धर्म क्रिया में सांसारिक भाव नहीं आने चाहिए। भगवान् का शासन ही महान् है। इस जिन शासन की तुलना में दूसरा कोई नहीं आ सकता है। क्षपक श्रेणी एवं तीर्थंकर नामकर्म, दोनों प्रणिधान के अन्तिम फल कहे गये हैं। नागकेतु ने भी परमात्मा की पूजा करते समय प्रणिधान को एकदम मजबूत बनाया था। उसी से क्षपक श्रेणी पर चढ़ गये। जब बुढ़िया माँ पुष्प लेकर भगवान् की पूजा करने निकली, तभी राजा श्रेणिक अपने प्रजाजनों के साथ प्रभु दर्शन-वन्दन के लिए समवशरण में जा रहे थे। उसी भीड़ में बुढ़िया माँ भी चलने लगी, पर तेज गति से जा रही भीड़ के बीच बुढ़िया माँ आ गई और वहीं शुभ परिणामों सहित उसकी मृत्यु हो गई। मर कर वही माँ वैमानिक देवलोक में उत्पन्न ___जब 'सवि जीव करू शासन रसी' की ऐसी भावना मन में आती है, तभी तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। भावना मात्र मन से ही नहीं की, उसके अनुरूप क्रिया भी थी। यहाँ प्रणिधान मजबूत बना। प्रणिधान यानि मन-वचन-काया जिसमें ओतप्रोत हो अर्थात् संकल्प शक्ति जितनी मजबूत उतनी क्रिया में सफलता प्राप्त होती है। प्रत्येक कार्य के चार चरण बताए गये हैं। इसी से कार्य सिद्ध होता है। 'षोडश शास्त्र' में साधक के लिए प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि इस प्रकार क्रमशः चार चरण बताये गये हैं। 1. प्रणिधान - 'संकल्पात् सिद्धि जायते'। संकल्प से सिद्धि होती है। किसी कार्य को करने का दृढ़ संकल्प करना ही आधा कार्य सम्पन्न हुआ समझना। क्योंकि प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ ही दृढ़ निर्णय पर संभावित है। · · जैसे- द्रौपदी पाँच पाण्डवों की पत्नी थी। एक बार जब नारद जी के घर आने पर द्रौपदी ने उनका विनय-बहुमान नहीं किया तो नारद जी को यह अच्छा नहीं लगा। बात मन में बस गई। द्रौपदी को इस बात का मजा चखाने के लिए नारद जी घातकी खण्ड द्वीप पहुँचे। वहाँ जाकर पद्मोत्तर राजा के सामने द्रौपदी के रूप की खूब प्रशंसा की। राजा द्रौपदी को पाने के लिए लालायित हो उठा। राजा ने देवता से सहायता मांगी। देव ने कहा कि द्रौपदी महासती स्त्री है। यह कार्य मुझसे नहीं होगा आप दूसरा कार्य कहिए। अत्यधिक आग्रह करने से देव ने द्रौपदी को पलंग सहित जम्बूद्वीप से घातकी खण्ड में लाकर उसे सौंप दिया। प्रातःकाल होते ही पाण्डवों को द्रौपदी दिखाई नहीं दी। आस-पास सभी स्थानों 73 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश पर ढूँढा गया, पर द्रौपदी कहीं दिखाई नहीं दी। पाण्डव श्रीकृष्ण की सहायता लेकर सभी जगह द्रौपदी को खोजने लगे। तभी नारद जी को आते हुए देखा और पूछा कि आपने द्रौपदी को कहीं देखा है क्या? नारद जी ने कहा- घातकी खण्ड में द्रौपदी के समान ही एक स्त्री तो मैंने देखी थी, पर वह द्रौपदी है या नहीं, मुझे पता नहीं। श्रीकृष्ण जी समझ गये थे। काम नारद जी का ही है। पाण्डवों को कहा, चलो हमें घातकी खण्ड जाना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने देवताओं की आराधना की। उनकी सहायता से दो लाख योजन का पुल बनाया गया। पुल के सहारे सभी घातकी खण्ड पहुँचे। वहाँ पहुँचकर सभी पद्मोत्तर राजा के राज्य के बाहर आकर ठहर गये। पाण्डवों ने मिलकर श्रीकृष्ण से कहा- आप यहीं आराम फरमाइये, पद्मोत्तर राजा को हम पाँचों भाई जीतकर द्रौपदी को लेकर आते हैं। श्रीकृष्ण ने कहाराजा महाबलवान है। तुम जीत नहीं सकोगे? पाण्डव - कोई समस्या नहीं। अगर समस्या है, तो उसका समाधान भी है। जीतेंगे या मरेंगे। इस प्रकार संकल्प सहित पाँचों पाण्डव निकल गए, पर पद्मोत्तर राजा की सेना पाण्डवों की सेना से कई गुणा बड़ी था। पाण्डव लाख प्रयत्न करने पर भी जीत नहीं पाये। आखिर पुनः लौट आए। श्रीकृष्ण ने कहा - मुझे पता ही था। तुम मुँह उतार कर वापस आओगे। पूछा- कैसे ? श्रीकृष्ण ने कहा - तुम कहकर ही इस प्रकार गये थे, जीतेंगे या मरेंगे। तुम्हारा संकल्प ही अधूरा था। हम जीत कर ही रहेंगे, ऐसा दृढ़ संकल्प होना चाहिए। संकल्प जितना प्रबल होगा, सिद्धि उतनी ही निकट होगी। 2. प्रवृत्ति - जबरदस्त प्रणिधान (संकल्प) ग्रहण करने के पश्चात् कार्य में प्रवृत्ति होनी चाहिए। संकल्प स्वीकार कर लेने के बाद बैठे रहना सच्चा संकल्प नहीं कहलाता है। जितनी ज्यादा से ज्यादा शक्ति हो, उस शक्ति के अनुसार कार्य प्रारंभ करें। 3. विजजय - अच्छे कार्य में अवश्य ही विघ्न उत्पन्न होते हैं। कार्य में आने वाले विघ्नो को धैर्यता, बहादुरी व सोच समझ कर उसे दूर करना चाहिए। कष्टों के आगे झुकना नहीं बल्कि अडिग होकर खड़े रहना चाहिए। ताकि विघ्न दुम दबाकर भाग जाए। 4. सिद्धि-विनों को दूर करने से ही सिद्धि की प्राप्ति सामने नजर आने लगती है। कार सिद्ध हो जाना यानि सिद्धि मिल जाना होता है। इसके पश्चात् क्या करन चाहिए? अन्तिम एक चरण और है। वह पाँचवा चरण विनियोग का कहलाता है। 5. विनियोग- प्राप्त हुए फल को अन्य जीवों को प्रदान करना। अन्य जीवों में उस ज्ञान आदि का बोध देना, बाँटना वही विनियोग कहलाता है। 74 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पंचसूत्र चारशरण खण्ड - तृतीय जावज्जीवं मे भगवंतो-परम-तिलोग-नाहा, अणुत्तर-पुण्ण-संभारा, खीण-राग-दोस-मोहा,अचिंत-चिंतामणी, भवजलहि-पोआ,एगंत-सरणा, अरिहंता-सरणं। तहा-पहीण-जर-मरणा, अवेअ-कम्म-कलंका, पणट्ट-वा-बाहा, केवल-नाण-दंसणा, सिद्धिपुर-निवासी, निरुवम-सुह-संगया, सव्वहा-कय-किच्चा, सिद्धा सरणं *** *** तहा-पसंत-गंभीरा-सया, सावज्ज-जोग-विरया, पंच-विहा-यार-जाणगा, परो-वयार-निरया, पउमाइ-नि-दसणा, झाणज्-झयण-संगया, विसुज्झ-माण-भावा, साहू सरणं। तहा-सुरा-सुर-मणुअ-पूइओ, मोह-तिमिरं-सुमाली, राग-दोस-विस-परम-मंतो, हेऊ सयल-कल्ला-णाणं, कम्म-वण-विहावसू, साहगो सिद्ध-भावस्स, केवलि-पण्णत्तो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरणं। * ** 75 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण स्वीकार हमने परमात्मा की शरण अनेक बार स्वीकार की। फिर भी संसार से हमारा निस्तार नहीं हुआ। इसका कारण क्या है ? इसका उत्तर शास्त्रों में यह बताया गया है कि जीव ने अनन्त बार धर्माराधना की तथा चारित्र भी अंगीकार किया, अरिहंत आदि की शरणागति । भी स्वीकार की, फिर भी संसार से पार नहीं हुआ। इसका एक ही कारण समझना होगा कि जीव ने अभी तक श्रद्धापूर्वक शरण स्वीकार नहीं किया, शरण का स्पर्श हृदय की गहराई से नहीं हुआ। अब हमें मात्र परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा भाव जागृत करने हैं। चार शरण सूत्र में अरिहंत आदि चार शरणों को अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। इसमें सूत्रकार का एक ही लक्ष्य था कि इन विशेषणों के द्वारा जीवों में अरिहंत परमात्मा आदि चार शरणों के प्रति विशेष श्रद्धाभाव जागृत हो । श्रद्धा जीवन्त होनी चाहिए। जो गुण इनमें दर्शाये गये हैं, वे गुण अन्य में घटित नहीं हो सकते हैं; ऐसी भावना हृदय में पूर्ण रूप से बस जानी चाहिए। ऐसी दृढ़ मान्यता ही हमें अरिहन्त देव के प्रति सच्ची श्रद्धा का सुख प्रदान करेगी। यही भावना जीव को उत्तरोत्तर भावों में आगे बढ़ाती है। इसी से संसार की यात्रा कम होते-होते शीघ्र ही मुक्ति दिलाने वाली बनेगी, ऐसा निश्चित हो जाता है। जब यह तथ्य हृदय को स्पर्श कर जाता है, तब अशुभ आश्रव, पाप का प्रतिघात करता है। पाप का प्रतिघात होते ही गुण रूपी बीजों का आधान करने में समय नहीं लगता है। इसे हम सुलसा महाश्राविका के जीवन प्रसंग से जानेंगे। महाश्राविका सुलसा की कथा भगवान् महावीर चम्पा नगरी पधारे। भव्य जीवों पर उपकार हेतु प्रभु अनराधार धर्म देशना फरमा रहे थे। देशनांत में अम्बड़ नामक परिव्राजक वहाँ आया। 'प्रभु...! मैं राजगृही नगरी जा रहा हूँ। कोई कार्य हो तो फरमाइये ?' अम्बड़ को अप्रशस्त जिनधर्मी बनाने हेतु प्रभु ने कहा- 'राजगृही में सुलसा श्राविका को धर्मलाभ कहना।' अम्बड़ आश्चर्यचकित हो उठा। कौन सुलसा... ? नागसारथी की पत्नी...? हाँ वही ... । भगवान् महावीर ने उसे धर्मलाभ कहलवाया। न तो वह राजरानी है, और न वह सेठ श्रीमन्त की पत्नी है, वह तो मात्र सारथी की पत्नी है। एक सामान्य सी नारी को महावीर ने धर्मलाभ कहलवाया। आखिर उसमें क्या हैं? सम्पूर्ण रास्ते भर में अम्बड़ ने यही सोचा और अन्त में निर्णय किया- 'पहले मैं सुलसा की परीक्षा करूँगा, फिर धर्मलाभ कहूँगा ।' 76 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला अम्बड़ परिव्राजक था । अनेक शक्तियाँ एवं विद्याएँ उनके चरण चूमती थीं । योगिनी के सात आदेशों का पालन करने से उसने योगिनी को वश में कर रखा था। सुलसा की परीक्षा करने के लिए उसने जैन मुनि का वेश बनाया एवं सुलसा के गृहांगन में जा खड़ा हुआ। 'धर्मलाभ... ।' मुनिराज को गृहांगन में आया देखकर श्राविका सुलसा भाव-विभोर हो गई। रोम-रोम पुलकित हो उठा उसका। चार शरण 'पधारो मुनिवर....पधारो।' साधुवेशी अम्बड़ ने मुनिराज को न शोभे, वैसी वस्तु की याचना की तो श्राविका समझ गई कि वह साधु नहीं, पक्का ठग है । श्राविका ने अम्बड़ को रवाना कर दिया। अम्बड़ हताश न हुआ। अपनी विद्या शक्तियों से ब्रह्मा का वेश बना कर वह नगर के बाहर उद्यान में बैठ गया । राजगृही की प्रजा ब्रह्मा के पदार्पण से पागल हो गई। लोग नगर के बाहर दौड़ने लगे। लोगों के टोले के टोले आने लगे। पड़ोसी ने कहा'श्राविका सुलसा...! चलो, आज तो साक्षात् ब्रह्मा पधारे हैं, दर्शन कर आएँ! चलो चलो देखकर तो आएं कि ब्रह्मा जी हैं कैसे ?" किन्तु सुलसा समकित दृष्टि वाली श्राविका थी । उसने कहा- 'मैं राग-द्वेष को जीतने वाले वीतराग भगवान् को ही देव मानती हूँ। किसी अन्य को नहीं। मैं नहीं आती।' अम्बड़ ने हजारों लोगों को वहाँ आया देखा । उसकी आँखें सुलसा को ढूँढ़ रही थी, किन्तु सुलसा नजर नहीं आई। तीसरे दिन श्रीकृष्ण की लीला रचकर वह नगर के बाहर सुलसा की राह देखने लगा । सारा नगर श्रीकृष्ण के दर्शन को उमड़ा, किन्तु सुलसा वहाँ भी नजर नहीं आई। अत: अम्बड़ ने साक्षात् तीर्थंकर का रूप बनाया एवं नगर के बाहर समवशरण की रचना की। 'मैं पच्चीसवाँ तीर्थंकर हूँ', ऐसी उद्घोषणा भी उसने नगर में करवाई । हर्ष के मारे लोगों के टोले के टोले उद्यान में आने लगे। पड़ोसियों ने सुलसा से कहा- 'हमारे भगवान् के दर्शन करने तो तू नहीं आई, किन्तु आज तो तेरे ही तीर्थंकर भगवान आए हैं, दर्शन करने चल, आज तो तू आएगी ना?' सुलसा श्रद्धावान श्राविका थी । अश्रद्धालु और अन्य श्रद्धालु भी नहीं थी । उसने लोगों से स्पष्ट कह दिया- 'यह तीर्थंकर नहीं, कोई पाखण्डी है, क्योंकि मेरे भगवान् 77 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण महावीर कहा करते हैं, तीर्थंकर एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में चौबीस ही होते हैं, तो यह पच्चीसवाँ तीर्थंकर कहाँ से आया? मुझे मेरे भगवान् के वचनों पर दृढ़ श्रद्धा है, मैं इसके पाखण्ड में फंसने वाली नहीं हूँ।' सारा नगर आया किन्तु सुलसा दर्शन करने नहीं आई। यह देख अम्बड़ हर्षित हो उठा। ओह...! कैसी दृढ़ श्रद्धा है जैन धर्म पर इस श्राविका को, भगवान् महावीर ने जो धर्मलाभ कहलवाया, वह योग्य ही है। एक दिन प्रातःकाल अपनी सारी माया समेटकर अम्बड़ सुलसा श्राविका के गृहांगन में जा पहुँचा। सुलसा ने अतिथि के योग्य सत्कार कर पूछा- 'कहाँ से आए हो? क्या काम है?' अम्बड़ ने कहा- 'मैं चम्पापुरी से आया हूँ। भगवान् महावीर ने तुम्हें धर्मलाभ का सन्देशा भेजा है।' भगवान् महावीर का नाम सुनकर सुलसा की रोम-राशि विकस्वर हो गई। कैसी अगाध करूणा की भगवान् ने, मुझ जैसी सामान्य नारी को धर्मलाभ कहलवाया। धर्मलाभ, सुनते ही सुलसा पानी-पानी हो गई। तुरन्त खड़ी होकर प्रभु जिस दिशा में विचरण कर रहे थे, उस दिशा में स्वयं के मन में प्रभु का स्मरण कर बारम्बार पंचांग प्रणिपात वन्दन किया और बोल उठी... 'हे प्रभु! प्रभु! ये आपकी कितनी बड़ी दया है कि आपने पाप घर में बैठी हुई मुझे याद किया? आपने मेरी खबर ली? मेरी क्या औकात है? विषय वासना के कीचड़ में फंसी हुई मेरे ऊपर इतनी अधिक करूणा!' बोलते-बोलते उसकी आँखें प्रभु के अनहद उपकार से भरभरा गयीं। रोते-रोते कहने लगी'मेरे नाथ... आप चिरंजीवी रहो, अहो, आपके बड़े-बड़े गणधर महाराजा और इन्द्र जैसे सेवक। कैसे सुयोग्य और कहाँ पाप से भरी हूँ मैं? प्रभु! अब तो अन्त तक दया करना कि जिससे संयम-तप-ध्यान में चढ़ जाऊँ, आपके एक मात्र आधार से भवसागर पार हो जाऊँ।' ___अम्बड़ यह देखकर पानी-पानी हो गया। आँखों में आँसू भरकर कहने लगा'सुलसा! तुम धन्य हो, तुम्हारा जीवन धन्य है, इतनी अपार श्रद्धा भगवान् महावीर प्रभु पर रखती हो। जगत् में इन्हें ही सारभूत मानकर दूसरी कोई भी इच्छा, आतुरता तुम्हारे मन में उठती ही नहीं है। संसार में बैठी हो, फिर भी प्रभु के प्रति ऐसा आत्मसमर्पण, निःसंदेह आश्चर्यकारक है, आपको मेरा कोटि-कोटि वन्दन है।' ऐसा कहकर अम्बड़ स्वयं के सम्यक्त्व को निर्मल करता हुआ वहाँ से चला गया। __ अरिहंत देव की शरण। ये ही एक नाथ हैं, ये ही तारणहार हैं, सकल सुख के बीज हैं, यही सभी प्रकार के भय से छुड़ाने वाले हैं, ये ही दर्शनीय; वन्दनीय, सेवनीय हैं। 78 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण मन कहे कि जगत् में अरिहंत से बढ़कर देखने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है, वन्दन करने योग्य कोई देव नहीं है, स्तुति, गुणगान और सेवा करने योग्य अरिहंत की तुलना में कोई दूसरी विभूति नहीं है, इनकी शरण स्वीकार करने से हृदय में ऐसा अनुभव होता है, जैसे कि सब कुछ प्राप्त हो गया। इनमें समा जाऊँ, मेरा जीवन मैं इनके सम्पूर्ण आदेश से परिपूरित बना दूँ, और संसार से छूट जाऊँ। साधक को ऐसे उच्च विचार रखने चाहिए। शरण स्वीकारने की चाबी यहाँ यह बात ध्यान में रखनी है कि शरण को स्वीकार किस प्रकार किया जाता है? दृष्टान्त से समझें- जंगल में खूब धन लेकर कोई चला जा रहा हो, उसके पीछे यदि कोई लूटने वाले लग जाए तो वह कितने भयपूर्वक दौड़ने लगता है? अब सामने से कोई शस्त्रधारी पक्का रक्षक (मिलेट्री) मिल जाए, तब कितने विश्वास और कितनी ज्यादा गरज से उनसे शरण मांगता है? 'तू चिन्ता मत कर। किसकी हिम्मत है जो तुझे कोई हानि पहुंचा सके?' यदि इस प्रकार आश्वासन मिलता है तो उसके मन में शरण स्वीकारने का कितना गद्गद् भाव व आनन्द आ जाता है? गद्गद् हृदय से कैसे उसकी शरण को स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार स्वयं को लगना चाहिए कि इस संसार अटवी में कर्म और कषाय रूपी लुटेरों से हम सभी पकड़े गये हैं। इससे अनन्त आत्म-धन नाश और जन्म मरण की परम्परा निश्चित है। इस स्थिति में, जब हमें निश्चित रूप से बचाने वाले अरिहंत आदि चारों की शरण प्राप्त हो चुकी है तो अवश्य इनकी शरण में जाकर प्रार्थना करनी चाहिए कि, 'हे अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म, मुझे केवल आपकी ही शरण है, दूसरा कोई मेरा आधार नहीं। कोई मेरा रक्षणहार-तारणहार नहीं, मित्र नहीं, नाथ नहीं, आप ही मेरे प्राण, शरण, नाथ हो।' हृदय में कर्म और कषाय के तीव्र भय के साथ ये शरण स्वीकार करें। अर्थात् 'अरिहंता मे शरणं' बोलने के साथ कर्म कषाय की भयंकर वेदमा का अनुभव हो। अरिहंत आदि चारों शरण का इस वेदना से बचाने का अकाट्य सामर्थ्य समझ में आता हो; और इसके साथ ही जीवन में इसकी आवश्यकता का अनुभव भी हो। इस प्रकार कर्म-कषाय का भय, जिससे मुक्त करने वाले अरिहंत आदि चारों के प्रति रक्षण की तीव्र श्रद्धा और कर्म-कषाय से मुक्ति की आवश्यकता; ये तीनों मिल जाएंगे तभी सच्ची शरणागति का भाव खड़ा होगा। शरण स्वीकारने का उच्च भाव लाने के लिए यहाँ एक बात समझने जैसी है। मरण शय्या पर पड़ा हुआ मानव कितना ज्यादा गद्गद् और द्रवित हृदय से अरिहंत आदि 79 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार शरण परमात्मा बनने की कला की शरण स्वीकार करता है? इसका कारण? स्वयं द्वारा माने हुए सभी सगे-सम्बन्धी, काया, स्वयं की सभी सम्पत्ति आदि कुछ भी स्वयं को शरण नहीं दे सकते हैं। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है। स्वयं को अब तुरन्त परलोक गमन करना है, यह वास्तविकता आंखों के सामने घूम रही है। जीवन भर आचरित पापों से हृदय द्रवित होता है। ऐसी परिस्थिति में स्पष्ट दिखाई देता है कि परलोक जाने में कोई रक्षण दे सकता है तो मात्र अरिहंत आदि चार शरण हैं। बस! ऐसे ही अन्त समय में स्वीकार किये गये शरण की तरह इस जीवन में भी ऐसी परिस्थिति को मन में लाएँ। किसको पता है कि बाद के समय में मैं जिन्दा रहूँगा कि नहीं? ऐसा समझकर गद्गद् भाव से शरण स्वीकार करना चाहिए। ... वैसे तो द्रव्य-संसार खराब है, पर भाव-संसार उससे भी ज्यादा खराब है। सहज में छोटा सा निमित्त मिला नहीं कि अंतर में संकल्प-विकल्प आरंभ हो जाते हैं। अशाता वेदनीय कर्म मात्र शरीर को पीड़ित करता है, जबकि मोहनीय कर्म मन को पीड़ित करता है। यह नहीं करने योग्य पाप करवाता है। हमें किसकी हाय ज्यादा लगती है? रोग आए उसकी अथवा राग हो जाए उसकी? अपनी दृष्टि रोग की तरफ है, परन्तु हम राग की तरफ नहीं देखते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से संसार भयावह लगता है और इस भयावह अटवी को पार लगाने वाले अरिहंत आदि चारों की शरण ही तारणहार कहलाती है। भयंकर कैंसर आदि रोग में शीतलता प्रदान करने वाले, आत्मा की परिपूर्ण रक्षा करने वाले, ये चारों शरण हैं। इन को हर पल हृदय में बसाकर रखना चाहिए। अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म; ये चारों मात्र जीव के शरणभूत हैं। इनके अतिरिक्त सर्वत्र अशरण हैं। हिरणों के समूह पर आक्रमण कर सिंहराज एक हिरण को ले जाता है। उस समय हजारों हिरण भी साथ में क्यों न हों, वे सभी मात्र सिंह को हिरण ले जाते हुए देख सकते हैं, पर उसकी रक्षा नहीं कर सकते हैं। ____मृत्युराज रूपी सिंहराज जब आक्रमण करता है, तब आस-पास स्थित स्वजन माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची आदि सभी मिलकर भी किसी को मृत्यु से बचा नहीं सकते हैं। मृत्युराज के आगे किसी भी प्राणी का कुछ नहीं चल सकता है। आयुष्य कर्म के पूर्ण होने के पश्चात् कोई भी व्यक्ति एक पल का भी जीवनदान नहीं कर सकता है। कर्म प्रकृति का नियम सर्वत्र लागू होता है। तीर्थंकर भगवान् अचिंत्य शक्ति के स्वामी, प्रचण्ड पुण्य आदि सामर्थ्य बल होने पर भी अपना आयुष्य कर्म एक क्षण के लिए. भी नहीं बढ़ा सके। हर दिन आयुष्य कर्म घटता जाता है। आप भी अपना आयुष्य एक सेकेंड भी घटा या बढ़ा नहीं सकते हैं। इसलिए जब काल रूपी सिंह छलांग लगाकर हमें मारकर 80 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण ले जाने आएगा, तब शोक या खेद नहीं करना कि मंदिर निर्माण करने की मेरी भावना, साधर्मिक भक्ति करने की भावना मन में ही रह गई। प्रायश्चित करना, आलोचना लेना तो रह गया। सावधान! यहाँ कर्म राजा के आगे किसी जीव का कुछ भी नहीं चलता है। आयुष्य पूर्ण हुआ तो जाना ही पड़ेगा। ___ जीव का कोई शरण नहीं है। जो सोचा, वह कुछ भी होता नहीं है। फिर फूलकर गुब्बारा क्यों होते हो? पुण्य न रहा तो दबा हुआ धन भी कोयला बन जाता है। फिर किस बात पर अभिमान करना? किस प्रकार से बड़ा बन कर दिखाना है? सगर चक्रवर्ती के 60,000 पुत्रों के मन में अष्टापद तीर्थ की सुरक्षा करने का विचार आया। पर्वत के चारों दिशाओं में बड़े-बड़े खड्डे खोद दिये। गंगा नदी का पानी लाकर उसमें भरने लगे। पाताल लोक के देवता उन पर क्रोधित होकर बोले- 'रूक जाओ! इस तरह नदी का पानी बिना आज्ञा मत ले जाओ।' पर वे रूके नहीं। आवेश में आकर देवों ने क्रोधाग्नि से 60,000 पुत्रों को एक क्षण में जलाकर भस्मीभूत कर दिया। सभी पुत्र तीर्थरक्षा के भावों से मरे। अशुभ कार्य के लिए गए होते तो उनकी क्या गति होती? कोणिक राजा ने चेड़ा राजा से राज्य प्राप्ति हेतु युद्ध किया। एक करोड़ पचास लाख योद्धा युद्ध करते-करते मृत्यु को प्राप्त हुए। एक को छोड़ सभी मनुष्यों की दुर्गति हुई। एक की सद्गति का एक ही कारण, किसी व्यक्ति के द्वारा ग्रहण किए जा रहे चार शरण को स्वीकार करना व दुष्कृत गर्दा, इस विधि की देखादेखी करना। द्रव्य से की गई प्रतिपत्ति क्रिया भी कभी सद्गति यानि मनुष्य गति देती है। सद्गति प्राप्त करना दुर्लभ है। कषायों के वशीभूत होकर मृत्यु को प्राप्त करने वाले अन्य सभी तिर्यंच व नरक गति में उत्पन्न हुए। अरिहंत, सिद्ध, साधु व धर्म; इन चारों शरणों को पकड़ लो। एक बार इन्हें स्वीकार लो, फिर कभी मत छोड़ना। हर परिस्थिति में इनकी शरण आपको सद्गति दिलाने वाली होगी। पार्श्वनाथ भगवान् के जीव मरुभूति से भूल हुई तो अन्त समय में समाधि चली गई। आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान में मन चला गया। गति बिगड़ गई। कभी-कभी पुण्यशाली जीव सम्पूर्ण जीवन स्वस्थ रहते हैं, और अन्त में मृत्यु के समय भयंकर पीड़ा से ग्रस्त हो जाते हैं तो वह पीड़ा समाधि को नहीं टिका पाती है। उस समय चार शरण भी याद नहीं आते हैं। जबकि जीवन भर दूसरों की सेवा-सुश्रुषा में ही तन, मन समर्पित किया। जिसने दूसरों की सेवा द्वारा अनेक कष्टों को सहर्ष सहन किये हैं, वे सद्गति को प्राप्त करते हैं। बादाम खाते समय चिन्तन करो कि इससे दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना होगी 81 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कि नहीं? अगर नहीं तो वह बादाम निष्फल गई। एक मिष्ठान के टुकड़े को आराधना के लिए मुँह में डालते हैं, अथवा राग के पोषण के लिए? 'उपदेशमाला' ग्रन्थ में कहा गया है कि जिस वस्तु से रत्नत्रयी की आराधना में वृद्धि न होती हो, वे सभी वस्तुएँ लौकिक (दुनियावी) कहलाती हैं। हे श्रमण! इसमें तेरा अधिकार नहीं है। कहते हैं, दुनिया में सभी को नौकर से 'कैसे काम निकालना चाहिए', यह आता है परन्तु इस शरीर को मुफ्त में ही खिलाते रहते हैं। आखिर यह शरीर ही हमारी आत्मा का पतन करेगा। दुकान में सेठ ने नौकर को सम्पूर्ण कार्यभार सौंप दिया, लेकिन नौकर ऐसा निकला कि सेठ को ही दुकान से निकाल दिया और स्वयं दुकान पर कब्जा जमा लिया। साधु जीवन में दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना अनिवार्य रूप से करनी होती है। इसके अतिरिक्त की क्रिया उसको अपराधी साबित करती है। साधु जीवन के अधिकार की तरह श्रावक जीवन में भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना के साथ आजीविका की छूट होती है, अन्यथा नहीं होती। मैच, सिनेमा आदि देखने का अधिकार नहीं होता है। अत्यधिक परिग्रह रखने का अधिकार नहीं होता है। रत्नत्रयी की आराधना सुखमय हो, यहीं तक आजीविका की छूट होती है, अन्यथा नहीं। अरिहंतादि चारों शरण आपत्तियों से बचाते हैं। आपत्ति दो प्रकार की होती है1. बाह्य आपत्ति यानि शरीर, घर, चोरी, अपहरण, इनसे ये शरण रक्षा करते हैं। 2. आभ्यंतर आपत्ति - विषय-कषाय का उठना, संक्लेश, उद्वेग, इनसे भी ये शरण हमें बचाते हैं। मृत्यु के समय में ही नहीं बल्कि जीते जी ये चारों शरण हमारी रक्षा करेंगे। अरिहंतदेव, सिद्ध प्रभु, साधु व धर्म इन चारों को सच्चे दिल से हृदय में स्थापित करना चाहिए। वह भी तीन प्रकार से स्थापित करें। स्मरण से शरण, शरण से समर्पण। जैसेकभी-कभी भगवान को याद करना, यह स्मरण है। शरण में गौण व मुख्य दो प्रकार के भाव होते हैं। प्रत्येक प्राणी के जीवन में अरिहंत आदि चार प्रधान वस्तुएं हैं। ये निकट के सम्बन्धी हैं, रिश्तेदार हैं, जबकि संसारी दूर के सम्बन्धी हैं। जिनकी शरण स्वीकार हो, वे मुख्य रूप से हृदय में स्थापित होते हैं। घर की तिजोरी में रत्न भी होते हैं, सोने-चांदी के आभूषण भी होते हैं। घर में कपड़े, खाने-पीने की वस्तुएँ भी होती हैं। प्रत्येक वस्तु के प्रति भाव एक समान है अथवा अलग-अलग है? अलग-अलग ही होते हैं। रत्नों के मूल्य अधिक ही होंगे। रत्नों के स्थान पर अरिहंत आदि चार शरण होते हैं। ये निकट के सम्बन्धी कहलाते हैं एवं अन्य सभी वस्तुओं की तरह अन्यों 82 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण की शरण हमारे दूर के सम्बन्धी कहलाते हैं। इसका नाम ही शरण कहलाता है। शरण स्वीकारने से क्या फल मिलता है? तो कहते हैं कि सभी प्रकार की आपत्तियों से अपनी रक्षा होती है। जब हृदय में मात्र अरिहंत, सिद्ध, साधु व धर्म को स्थान दे दिया जाए, अन्य सभी का त्याग कर दिया जाए। इन चारों शरणों से ही मेरा सच्चा सम्बध है, अन्य से नहीं; ऐसा स्वीकार हो, तब वह सच्चा समर्पण कहलाता है। - समर्पण की बात तो अभी बहुत दूर है। पहले धर्म में व्यवस्थित हो जाना है। क्योंकि जिसने भी अरिहंत आदि चार शरण को स्वीकार किया, वही जगत् में निर्भय बनता है। जिसने अपने अन्तःकरण में इनको बैठाया, उनके ग्रह, नक्षत्र योग अनुकूल हो जाते है। ये सभी अरिहंत के दास हैं। उनकी सेवा करने वाले हैं। अरिहंत आदि के प्रति अस्थि-मज्जा राग करना चाहिए। ये चारों ही मेरे जीवन में प्रधान हैं। आपत्ति या कष्ट आए तब भी हमें अपनी श्रद्धा को स्थिर रखना चाहिए। श्रद्धा होतो ऐसी ___एक समय किसी देश में वर्षा नहीं हो रही थी। कितने समय से पानी की बूंद नहीं गिर रही थी। उस समय सभी लोग मिलकर प्रार्थना करने के लिए चर्च में गये। उस दिन एक छोटी-सी लड़की छाता लेकर आई थी। लोगों ने पूछा तुम छाता क्यों लाई हो? उसने बड़े प्यार से कहा- 'यदि प्रभु से प्रार्थना करेंगे तो बारिश आयेगी न, इसलिए भीगने से बचने के लिए छाता लेकर आई हूँ।' श्रद्धा हो तो ऐसी। कहते हैं कि परमात्मा की शरण स्वीकारने के पश्चात् कभी स्वयं के जीवन में अच्छाई नजर नहीं आए तो भी हमें उसे बुरा नहीं मानना, अच्छा ही मानना चाहिए। क्योंकि परमात्मा की शरण हमारे लिए आगे कुछ न कुछ अच्छा ही करने वाली है। सगर चक्रवर्ती के 60,000 पुत्रों की घटना में देखें। जब 60,000 पुत्र जल रहे थे तब इन्द्र उन्हें बचाने नहीं आए, किन्तु इनके साथ दूसरे सेवक जलकर मरने लगे तो इन्द्र आकर उनको रोकने लगे। यह सब पुण्य की बात है। अतः अरिहंत परमात्मा की शरण पुण्य को बढ़ाने वाली है। कर्म सत्ता की कैसी विचित्रता है। सेवक को बचाने आने में पुण्य ही कारण है। देवता भी पुण्य हो तो ही आते हैं। अतः पुण्य का पुंज एकत्रित करें। अरिहन्तों की शरण स्वीकारने से, उनकी भक्ति से सर्व पुण्य प्रबल होते हैं। अतः इनकी कृपा प्राप्त करें। जिस किसी प्रकार से पुण्य बढ़ता हो, उसी प्रकार की भक्ति-सेवा करनी चाहिए। सर्वत्र पूछकर भी, जानकारी प्राप्त कर गुरुजनों द्वारा बताए मार्ग पर चलकर पुण्य उपार्जन करें। सच्चे देव-गुरु के मिल जाने के पश्चात् इस संसार में किसलिए दूसरों से मांगना For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पड़ता है। पुण्य इकट्ठा करने के लिए सच्चे हृदय से इनकी भक्ति करें। अरिहंत का शासन मन में बसा लो, 'व्यापार में अनीति नहीं करना चाहिए'; ऐसा विचार आना भी प्रतिपत्ति पूजा कहलाती है। यह आज्ञापालन रूप पूजा है। जगत् कीनश्वरता इन्द्र ने भयभीत सेवकों को बचाकर कहा- 'चक्रवर्ती तुम्हें कुछ नहीं कहेगा। तुम सभी निर्भय होकर जाओ। मैं उन्हें जवाब दे दूंगा।' सब पहुँचें, उससे पहले इन्द्र ब्राह्मण का रूप बनाकर वहाँ पहुँच गया और अपने कंधों पर मुर्दे को रखकर करूण क्रन्दन करने लगा। जोर-जोर से चिल्लाते हुए कहने लगा- 'मुझे मंगल अग्नि दो।' सगर चक्रवर्ती ने उसकी आवाज सुनी और पूछा- 'ऐसा करूण क्रन्दन कौन कर रहा है? उसे यहाँ बुलाओ। उसके दुःख को दूर करो। ऐसी करूण आवाज सुनी नहीं जाती।' सैनिक ब्राह्मण को लेकर राजा के पास आया। ब्राह्मण राजा से कहता है- 'मेरा पुत्र मर गया है। कल संध्या के समय साँप ने उसे डस लिया था। शरीर हरा हो गया है।' सज्जन व्यक्ति का हृदय मक्खन जैसा मुलायम व कोमल होता है। दूसरों के दुःख को देखकर द्रवित बन जाता है। जगत् के जीवों के दुःख रूपी अग्नि से सगर चक्रवर्ती का हृदय रूपी मक्खन पिघल गया। सगर चक्रवर्ती द्रवित हो उठा- 'अरे पगले! मरा हुआ व्यक्ति कभी जीवित हो सकता है क्या?' ब्राह्मण ने कहा- 'कल रात्रि में मुझसे प्रसन्न होकर कुलदेवी ने कहा- मैं तेरे पुत्र को बचा सकती हूँ। यदि तू मंगल अग्नि लेकर आ जाएगा। सम्पूर्ण नगरी में भ्रमण करने पर भी मुझे मंगल अग्नि नहीं मिली। मंगल अग्नि यानि जिस घर से एक भी व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो, उस घर से अग्नि लेकर आना है।' सगर चक्रवर्ती बोले- 'अरे ब्राह्मण! तुम क्या कह रहे हो? मृत्यु तो मेरे परिवार में भी अनेक लोगों की हुई है। कुलदेवी ने आकर तुम्हें प्रतिबोध दिया है। जरा विचार करो। सम्पूर्ण विश्व हर क्षण बदलता रहता है। जहाँ जन्म है, वहाँ मृत्यु निश्चित है। हे भूदेव! मृत्यु तो एक दिन सभी की आएगी।' उसी समय सभी सेवक विलाप करते हुए वहां आते हैं। सगर चक्रवर्ती सभी से रोने का कारण पूछते हैं- 'भाई! क्या बात है? तुम सभी क्यों रो रहे हो?' सभी ने कहा'आपके 60,000 पुत्रों को देवों ने अग्नि में भस्म कर दिया।' . - अभी-अभी जो सगर चक्रवर्ती ब्राह्मण को शिक्षा दे रहे थे, अपने पुत्रों के मृत्यु 84 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला की बात सुनते ही तुरन्त मुर्च्छित हो गये। अब सगर चक्रवर्ती के 60,000 पुत्रों को कौन जीवित कर सकता है, अर्थात् कोई भी नहीं। इसी अशरण स्थिति का विचार करना चाहिए। हमें इन दुःखों से कौन बचा सकता है, इसी बात पर चिंतन करना होगा। जीव में इतना सत्व नहीं है कि सम्पूर्ण समर्पण के भाव रखे । संसार यदि पूरा नहीं छूटता हो तो बीच का चरण अर्थात् शरण को स्वीकार करो। सगर चक्रवर्ती के 60,000 पुत्रों में से एक भी पुत्र नहीं बच सका । अर्थात् कुल चलाने के लिए एक भी पुत्र नहीं रहा । जिस प्रकार सुलसा श्राविका के भी 32 पुत्र श्रेणिक महाराजा के एक ही बाण से मृत्यु को प्राप्त हो गए। संसार की असारता को बताते हुए कहा गया है कि यहाँ लाख भी एक दिन में राख हो सकते हैं और खाक भी एक दिन में लाख बन सकते हैं। यहाँ एक दृष्टान्त विषयानुकूल प्रतीत होता है एक सेठ था। वह रेशमी कपड़ों का व्यापार करता था । कारोबार में प्रमाणिकता और स्पष्टता के कारण उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी। सेठ के प्रति सभी का अच्छा विश्वास था । उनकी लोकप्रियता भी खूब थी, क्योंकि सेठ का स्वभाव मिलनसार, हृदय सरल एवं निश्छल था। चार शरण • एक दिन राजा को कुछ रेशमी कपड़े की आवश्यकता होने से उन्होंने सेठ के घर बुलावे का संदेशा भेजा। अचानक राजा का संदेशा पाकर सेठ घबराते हुए महल में पहुँचा। राजा ने एकदम से ही सवाल किया- 'सेठ ! तुम्हारी दुकान में रेशमी कपड़ा है ? ' यह सुनते ही सेठ असमंजस में पड़ जाने से चकरा गया। उसे कुछ सुध-बुध ही नहीं रही, नहीं चाहते हुए भी सहसा उसके मुँह से निकल गया- 'राजन् ! मेरी दुकान में रेशमी कपड़ा नहीं है।' इतना कहकर सेठ जी लौट आए। सेठ जी के जाने के बाद कुछ लोगों ने राजा से कहा- 'नाथ ! सेठ बिलकुल झूठ बोलता है। हम अभी-अभी उसकी दुकान से आये हैं । उसकी दुकान में रेशमी कपड़ों का ढेर लगा हुआ है। ' राजा बोला- 'मैं जानता हूँ। सेठ बड़ा सत्यवादी है, नीतिज्ञ है और उस पर मुझे पूर्ण भरोसा है, वह कभी भी असत्य नहीं बोलेगा।' लोगों ने कहा- 'राजन् ! हाथ कंगन को आरसी की कहाँ आवश्यकता है। आप हमारे साथ सेठ की दुकान पर पधारें। आपको स्वतः ही पता लग जाएगा कि हम झूठे हैं या सेठ ?' यह सुनकर राजा बोला- 'अच्छा, कल सुबह चलेंगे।' सेठ ने घबराहट में अनायास ही निष्प्रयोजनार्थ जो असत्य भाषण कर दिया था, उस कारण वे बड़े दुःखी हो गए। उनके चेहरे पर गहरी उदासी छा गई। उनका मन अपनी 85 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण भूल का एहसास कर पश्चात्ताप के भावों से भर गया। शीघ्र अपने बेटे को बुलाकर उन्होंने कहा- 'बेटा! आज गजब हो गया। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। मैंने घबराहट में राजा को गलत बात कह दी कि मेरी दुकान मे रेशमी कपड़ा नहीं है। पता नहीं मेरे द्वारा ऐसा मिथ्या-वचन क्यों निकला? अतः अब मेरी प्रतिष्ठा का सवाल है। इस कहे गए वचन के अनुसार सारा माल जला दो।' बेटा बोला- 'पिताजी! दुकान में लाख रुपये का माल है, कैसे जलाया जाए? यदि आपने राजा को मिथ्या कह भी दिया तो क्या हो गया? राजा को क्या पता चलेगा कि आपके पास माल है या नहीं? अतः व्यर्थ चिंता न करें।' ___ यह सुनकर सेठ ने कहा- 'पुत्र! मुझे लाख की चिन्ता बिलकुल भी नहीं है, मुझे अपनी साख की चिन्ता है। अपनी साख के कारण मुझे वचन की चिन्ता है, क्योंकि कहते लाख गया साख रह्या, फिर भी लाखज होय। साख गया लाखज रह्या, बात न पूछे कोय॥ अर्थात् लाख चले जाने पर भी यदि साख रह जाएगी तो लाख फिर हो जाएंगे परन्तु साख गई और लाख रहे तो कोई बात भी नहीं पूछेगा। आखिर पिता जी के आदेशानुसार पुत्र ने सारा माल रातों-रात जला दिया। दूसरे दिन अचानक राजा सेठ की दुकान पर जा पहुँचे। घर और गोदाम को बारीकी से जांचा किन्तु कहीं भी रेशमी कपड़े का तार उन्हें नहीं मिला। राजा सेठ की सच्चाई से बड़ा प्रभावित होता हुआ राजमहल पहुँचा। राजमहल में आकर उन्होंने क्रुद्ध होकर आदेश दिया- 'मंत्रीश्वर! उन समस्त चुगलखोरों की जीभ निकाल ली जाए, मेरे सामने भी उन्हें ऐसे सत्यनिष्ठ सेठ की चुगली करते हुए शर्म नहीं आई।' जैसे ही सेठ को इस आदेश का पता लगा, वैसे ही सेठ दौड़कर राजा के पास गया और करबद्ध होकर बोला- 'राजन्! वे लोग झूठे नहीं हैं, सच्चे हैं। वे चुगलखोर नहीं, सज्जन हैं। कल तक मेरी दुकान में रेशम का सामान अवश्य था, किन्तु कल मैने घबराहट के कारण आपको रेशमी कपड़े के लिए मना कर दिया था। इस वचन को निभाने के लिए रात्रि में मैने सारा रेशमी कपड़ा जला दिया। अतः उनको बिलकुल दण्ड न दिया जाए।' सेठ की ऐसी सरल-स्पष्ट सत्यवादिता से राजा प्रसन्न हुआ और उसने पूछा'सेठ जी! आपकी दुकान और गोदाम में रेशम का माल कितना था?'' 86 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण सेठ बोला- 'राजन्! एक लाख का माल था।' राजा ने सेठं की नेक नीति पर प्रसन्न होकर उसी समय सेठ को एक लाख रुपये राजकोष से दिलवा दिये। सेठ ने घर जाकर बेटे से कहा- 'बेटा! देखो, यह है साख का प्रभावा साख से लाख वापस हो गये।' सुकरात ने लिखा है- 'अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए स्वयं को उतना योग्य बनाने का प्रयास करना, जितना तुम दूसरों की नजरों में दिखना चाहते हो।' इस संसार में किसका आधार है? न धन का है, न व्यक्ति का है। आधार तो उसी का लिया जाता है जो स्वयं मजबूत हो, नाशवान न हो। हमें विचार करना चाहिए कि करोड़ों, अरबों की सम्पत्ति क्यों न हो पर जब आयुष्य पूर्ण हो जाता है, तब वही सम्पत्ति हमारी रक्षक नहीं बनती है। इस संसार में अरिहंत आदि चारों शरण के बिना कोई रक्षक नहीं है। इनको जीवन में प्रत्येक कार्य खाते-पीते, सोते-उठते समय याद करना चाहिए। इनके बिना मैं अशरण हूँ। इनके अतिरिक्त अन्यों के साथ मेरा कोई व्यवहार नहीं है। अरिहंत परमात्मा के वचन ही मेरे लिए सर्वस्व हैं। . अरिहन्त, सिद्ध, साधु, केवली प्ररूपित धर्म; इन चारों की शरण को बारम्बार स्वीकार करना चाहिए। जो जीवन में इन चारों की शरण स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन में आपत्तियाँ दूर से ही गायब हो जाएँगी। क्रूर व अन्य ग्रह हैरान, परेशान भी नहीं करेंगे, वहीं रुक जाएँगे। अपशकुन भी टलकर शकुन रूप में परिवर्तित हो जाएँगे। दूसरे भवों में दुर्गति में जाने से ये चारों शरण ही हमें रोक पायेंगे। इस भव में भी चारों के शरण ही हम सब की संसार के दुःखों से रक्षा करेंगे। हरिभद्रसूरीश्वर महाराज की रक्षा का प्रेरक प्रसंग हमारे सामने है आचार्य हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज के दो विद्वान शिष्य अध्ययन के लिए बौद्ध भिक्षु के पास गये थे। वहाँ बौद्धों को जैन संतों से द्वेष होने से उन दोनों विद्वान शिष्यों को मरवा दिया गया। इस घटना को सुनकर आचार्य श्री को सहन नहीं हुआ और वे भयंकर क्रोध में आ गये। विद्या के प्रभाव से 1400 बौद्ध साधुओं को कबूतर बनाकर अग्नि में रखे गरम तेल में डालकर मरवाने का विचार किया। सम्पूर्ण तैयारी हो गई। उनके गुरु (आचार्य श्री) ने जब जाना तो तुरन्त पत्र लिखकर उनके क्रोध को शान्त किया। . न्याय किसे कहना चाहिए? किसी व्यक्ति ने किसी से लाख रुपये लेकर उन्हें पुनः वापस देने से इनकार कर दिया, तो उस लाख रुपये के लिए लड़ना, कोर्ट में केस डालना, ये लौकिक न्याय कहलाएगा; किन्तु लोकोत्तर न्याय जैन शासन उसे कहता है 87 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला जहाँ रुपये के लिए कषाय नहीं हो । स्व, पर के हित की भावना न्याय एवं अहित की भावना अन्याय कहलाती है। हरिभद्रसूरि जी महाराज भी कषाय के वशीभूत हो गये। गलत निर्णय ले चुके थे। बौद्धों के गलत कृत्य पर आवेश में आगे बढ़ चुके थे। उस समय अरिहन्त - देव एवं गुरु की शरण ही उनको कषाय से बचा पाये। उनकी दुर्गति को अटका सके। वे ही हमारे रक्षक हैं, तारणहार हैं। गुरु ने मात्र दो वाक्य लिखे थे- 'जिसने कषाय किया, उसकी आत्मा अनन्त संसार में भटक गई और जिसने क्षमा रखी, उसका मोक्ष हुआ।' यहाँ एक और दृष्टांत प्रस्तुत है गुणसेन का जीव क्षमा रखता है, जबकि इसके विपरीत अग्निशर्मा का जीव क्रोध करता है। अग्निशर्मा ने तापसी दीक्षा ग्रहण की। मासक्षमण के पारणे मासक्षमण की तपस्या चल रही थी। पारणा भी अभिग्रह पूर्वक होना चाहिए; अन्यथा पारणा निष्फल हो जाता है। ऐसे तीन मासक्षमण हो गये। तीनों बार पारणे में गुणसेन से भूल हो गई । अग्निशर्मा तापस का पारणा नहीं हो पाया। दो मासक्षमण के पारणे की भूल तक भाव विशुद्ध थे, किन्तु तीसरे पारणे की भूल में उसके भाव परिवर्तित हुए, भयंकर आवेश आ गया। यह मेरा दुश्मन है। अब इसे मेरे तप का बल दिखा दूँगा । ... और जनम-जनम तक मैं ही इसे मारने वाला बनूँ, उसने ऐसा निदान कर लिया। गलती गुणसेन राजा की थी । कषाय उत्पन्न अग्निशर्मा को हुआ । चार शरण मन बड़ा चंचल है, इसे पकड़ कर रखना पड़ेगा । मन छोटी बात या छोटा कारण होने पर भी भयंकर रूप से बिगड़ जाता है। साधक क्षपक श्रेणी यूं ही नहीं चढ़ने लगता है। कोई चमड़ी उतार रहा हो, उस व्यक्ति के प्रति भी बहुत अच्छे भाव हों, तभी गुणों की श्रेणी चढ़ी जाती है। हमें इन दोनों कथानकों में यह देखना है कि अरिहंत देव, गुरु आदि की शरण स्वीकार करने से उसी भव में कैसे रक्षा हुई और शरण नहीं स्वीकार करने से दुर्गति में जाना पड़ा। अगर अभी भी हमने शरण स्वीकार नहीं किया तो हमारा क्या होगा ? जब गुरु द्वारा संदेश प्राप्त हुआ तो हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज ने विचार किया- 'मेरा क्या होगा ? मैं मरकर कहाँ जाऊँगा? मैंने कितना आवेश किया, कषाय किया। यदि यह संदेश समय पर नहीं मिला होता; दो दिन देरी से मिलता तो कितना पाप, कितना अनर्थ हो जाता। मेरे गुरु ही रक्षक हैं। यह उनकी शरण का ही परिणाम है। ' शरण बने तारण तरण आगमों के प्रमुख भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 'विशेषावश्यक 88 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला भाष्य' में फरमाते हैं अरिहं ति वंदण-नमंसणाई, अरहं ति पूय सक्काइ। सिद्धिगमणं च अरहा, अरिहंता तेण वुच्चति ।। देवासुर-मणुयाणं अरिहा, पूया-सुसत्तमा जम्हा। अरिणो हंता रयं हंता, अरिहंता तेण वुच्चति ॥ | अर्थात्, जो वन्दन / नमस्कार के योग्य हैं, पूजा - सत्कार के पात्र हैं, सिद्ध गति को प्राप्त करने की क्षमता - योग्यता जिनमें है, तथा जिन्होंने कर्मरूपी रज ( मैल) को दूर किया है, उन्हें अरिहंत कहा जाता है। चार शरण अरिहंत शब्द के चार अक्षरों में अजब - गजब की ताकत है। एटम बम में विशेष प्रकार के अणुओं के मिलने से उसमें प्रचण्ड शक्ति इकट्ठी होती है । उसी तरह कुछ विशेष प्रकार के अक्षरों के संयोग से उन अक्षरों में जबरदस्त ताकत इकट्ठी हो जाती है। संयोग से ताकत बढ़ती है; विघटित होने से ताकत घटती है। संयोग में शक्ति की बात को इस प्रकार कहा गया है- 'संघे शक्ति कलियुगे'। कलयुग में संगठन में ही शक्ति है । ठीक वैसे ही, जैसे कि दो व्यापारी मिलकर व्यापार करते हैं तो व्यापार ज्यादा फैलता है; किन्तु सभी मूर्खों के मिलने से लिमिटेड कम्पनी नहीं चल सकती। उसको चलाने के लिए एक इंजिनियर, एक उद्योगपति चाहिए। सभी का सम्यक् समन्वय चाहिए। वैसे ही सम्यक् 1. अक्षरों के मिलने से सम्यक् शक्ति उत्पन्न होती है। अक्षरों के परस्पर संयोग से विशेष प्रभाव पड़ता है। इसलिए ज्ञानी भगवन्तों ने 68 अक्षरों का संयोग किया है, 'नमस्कार : महामन्त्र' के रूप में। इस मन्त्र में जितनी गहराई में हम उतरेंगे, जितनी ज्यादा सूक्ष्मता में जाएँगे, उतनी ही ज्यादा ताकत प्राप्त होगी। सूक्ष्म तरंगों से ही तो टी.वी. चैनल चलते हैं। यहाँ मूल बात यही कहनी है कि अरिहन्त आदि की शरण को हृदय में मुख्य स्थान देना है। ये ही प्रधान हैं, शेष सभी गौण हैं। हमें इन्हीं की शरण स्वीकार करनी है। : हमें अपनी चिन्ता का भार उनके सिर पर डाल देना है। इससे हमारी रक्षा करने की जिम्मेदारी उनकी हो जाती है। क्योंकि, शरण भी उसी का होता है, जो स्वयं सक्षम हो, जिसमें अनन्त शक्ति हो । अरिहन्त आदि चारों शरण शक्तिशाली हैं। उनकी शरण स्वीकार करने से 'चाहे जैसे कर्म क्यों न बांधे हों, वे सभी कर्म टूट जाते हैं। सभी पापों का क्षय हो जाता है, पुण्य का उपार्जन होता है। अरिहंत भगवन्तों की शरण हमें दुनियाँ के सभी सुखों को प्रदान कराने वाली है। सिद्ध भगवन्तों की शरण से अटके हुए कर्म नष्ट हो जाते हैं । साधु भगवन्तों की शरण से 89 For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पाप की प्रवृत्ति चली जाती है। केवली प्ररूपित धर्म की शरण से सर्व कर्मों की निर्जरा होती श्रेणिक महाराजा ने जब से परमात्मा महावीर की शरण स्वीकार की थी, तभी से वे सुखी बन गये। और तो और, दूसरे भव में वह स्वयं भगवान् महावीर के समान बन जाते हैं। जो समर्पण भाव के साथ शरण में आता है, उसको प्रभु अपने जैसा ही बना देते हैं। मोह राजा बड़ा बलवान है। हम जैसे-जैसे ऊँचे उठने का प्रयास करते हैं, वैसे-वैसे मोह रूपी डाकू के हमले तीव्र होने लगते हैं। उस समय परमात्मा की शरण स्वीकार कर ली हो तो हमें किसी का भय नहीं लगेगा। हम निर्भय बन जायेंगे। शरण को छोड़ना नहीं। जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए को लकड़ी का तख्ता हाथ लग जाता है, उसे कठिनाइयों में भी पकड़ कर रखता है तो वह बचकर समुद्र से पार हो जाता है; उसी प्रकार कठिनाइयों में भी प्रभु की शरण को जो नहीं छोड़ता है, वह संसार रूपी समुद्र से, भवसागर से पार हो जाता है। शरण स्वीकार कर लेने से अरिहंत भगवान् हमें भी अवश्य भवसागर से पार करेंगे। जिनेश्वर आदि की शरण हमारी द्रव्य व भाव, दोनों अपाय से रक्षा करते हैं। यदि मुम्बई जाना हो तो आप बस में बैठते हैं। फिर पीछे खड़े रहने वालों या मार्ग में आने वालों की चिन्ता कौन करता है? 200, 500 रुपये टिकट के देकर विश्वासपूर्वक बस में बैठते हैं। टिकट ले लेने से भीतर निश्चिंतता आ जाती है। वैसे ही जिन शासन को प्राप्त करने के लिए एक टिकट बनवा लो और जिन शासन की नौका में बैठ जाओ। चार शरण ही जिन शासन की नौका है। इनमें इतनी अधिक ताकत है कि वे नौका में बैठने वालों की द्रव्य और भाव, दोनों अपाय से रक्षा करते हैं। अपाय अर्थात् दुःख, प्रतिकूलता, रोग, पेढ़ी की चिन्ता, ये सभी द्रव्य अपाय है। मोह, राग, रति, वेदना, ये सभी भाव अपाय हैं। मन के भीतर उठने वाले अध्यवसायों से रक्षा ये शरण ही करेंगे। मोह के डाकू दूर से ही भाग खड़े होंगे। परंतु सदैव स्मरण रखना होगा, शरणों का स्वीकार सम्यक् होना चाहिए। बीसवें तीर्थंकर भगवंत मुनिसुव्रत स्वामी को एक अश्व को प्रतिबोध देने व उसकी रक्षा के लिए साठ मील विहार कर रात्रि में आना पड़ा; क्योंकि उस अश्व ने अरिहन्त परमात्मा की शरण स्वीकार की थी। अश्वमेध नामक यज्ञ में वह अश्व समाप्त होने वाला था। किन्तु, जाति स्मरण ज्ञान से जानकर उसने परमात्मा की एकमात्र शरण स्वीकार कर ली और ध्यान में स्थिर खड़ा हो गया। उसकी वही सच्ची पकड़ परमात्मा को साठ मील दूर से यहाँ तक खींच कर ले आई; और उस अश्व की रक्षा हुई। इसलिए कहा 90 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण गया है कि जैसे-जैसे अरिहन्त आदि चारों की शरण स्वीकार करेंगे, वैसे-वैसे उत्कृष्ट कोटि के संयोग स्वयं सामने उपस्थित होंगे व उत्तम कोटि का चारित्र मार्ग सम्प्राप्त होगा। नवकार मंत्रहीतारे भव्यत्व के परिपाक का चिन्तन करना जीवन का हेतु होना चाहिए। अरिहन्त आदि ही मेरे शरण रूप हैं, दूसरा कोई भी नहीं। भयंकर आपत्ति, संकट, रोग, कष्ट, दुःख में भाई-बहन, माता-पिता आदि परिजन, कोई भी रक्षा नहीं कर सकते हैं। रक्षा की ताकत मात्र इनकी शरण में ही हैं। कहते हैं कि बड़े से बड़े जेड सिक्युरिटी वाले भी इस दुनियाँ से विदा हो गये, किन्तु 'नमस्कार महामन्त्र' जिनके हृदय में बस गया, वे इस संसार से पार हो गये। भविष्य में आने वाली आपत्ति, संकट के समय मन में दृढ़ संकल्प धारण करना चाहिए कि इनकी शरण के अलावा और कोई भी मेरी रक्षा करने वाले नहीं है। मन में आने वाले अशुभ विचारों से भी ये ही रक्षा करने वाले हैं, क्योंकि मन आत्मा के अधीन नहीं है। __मन में उठने वाले बुरे विचार आत्मा का हित करने वाले नहीं हैं। एक सुअर खा-पीकर कीचड़ में पड़ा रहेगा तो उसे कैसे विचार आएँगे? उसका मन कहाँ दौड़ेगा? कीचड़ में ही या कहीं और? क्योंकि उस सुअर ने कीचड़ के अतिरिक्त कुछ और देखा ही नहीं है। हमारी आत्मा ने भी अनादि काल से इन्द्रिय-विषय रूपी कीचड़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देखा है। हम आहार आदि संज्ञाओं में पड़े रहे। एक भव में ही नहीं अनादिकाल से ही इन पाँचों इन्द्रिय विषयों के सेवन में हम भटकते रहे; तो इस भव में भी पुनः उसी का ही विचार आएगा। सुन्दर पुष्पों का बगीचा, धर्म, वैयावच्च, आराधना, स्वाध्याय, परमात्म भक्ति, पूजा रूपी सुन्दर उद्यान तो हमने कहीं देखा ही नहीं। सुन्दर पुष्प देखना है तो धर्म-आराधना रूपी बगीचे में भ्रमण करना होगा। जैसे कि भ्रमर को सदैव पुषों का चिन्तन चलता है। पुष्पों के विचार ही उसे पुष्यों के पास खींच लाते हैं। परमात्मा हीरक्षणहार . हमारी आत्मा में कर्म रूपी आठ-आठ चोर विराज रहे हैं। ये चोर किस समय कौन सा अहित कार्य हमारे द्वारा कराने को कटिबद्ध कर दें, यह कुछ नहीं कह सकते हैं। किन्तु जब भी इन कर्मों का उदय आता है तब नवीन कर्मों का बंध निश्चित ही है। उस समय हमें कैसे जागृत रहना चाहिए? पंच सूत्रकार कहते हैं- 'हे देवाधिदेव! मुझे मात्र अब आपकी ही शरण स्वीकार है। हे परमात्मा! जिस समय मिथ्यात्व की गहन कालिमा युक्त आँधी आए, उस समय तुझे ही मेरी रक्षा करनी है। मैं जब कभी भी गलत मार्ग में भटक 91 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण जाऊँ तो पुनः सम्यक् मार्ग में मुझे तुझे ही लाकर बचाना होगा। तू ही माता, तू ही भ्राता, त ही रक्षणहार है। हे प्रभु! आज दुनियाँ के लोग इतनी विकट परिस्थिति में जी रहे हैं तो आने वाला कल कैसा होगा? फिर इस जिन शासन का क्या होगा? संघ, तीर्थ, मंदिर आदि का क्या होगा? धर्म संस्कृति पर जब भी आपत्ति आएगी; जैसे भी उपसर्ग आएँगे, तब मात्र तू ही बचाना। भगवान्! मुझे एक मात्र तेरा ही आधार है। हे तारणहार! मुझे मेरे पापों से, दुःखों से छुड़ाने वाला कोई नहीं है।' जिस प्रकार अमर कुमार पर विकट परिस्थिति में जब दुःखों का पहाड़ गिरा, माता-पिता परिजनों ने नहीं अपनाया, उसका साथ छोड़ दिया, तब नमस्कार मंत्र की शरणागति ही चमत्कार सृजन करती है। अमरकुमार की कथा राजगृही नगरी अत्यन्त सुन्दर थी। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। वह शैवधर्मी था, परन्तु जैन धर्म का द्वेषी भी था एवं शिकार का अत्यंत प्रेमी था। एक बार श्रेणिक राजा को अपनी नगरी में एक अद्वितीय चित्रशाला बनाने की इच्छा हुई। संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। उसने तुरन्त देश-परदेश से अच्छे-अच्छे शिल्पी एवं कुशल चित्रकारों को बुलाया। चित्रशाला बनाने का कार्य जोर-शोर से आरम्भ हुआ। दीवारें, खण्ड एवं बागबगीचे तैयार हो गये। शिल्पियों ने चित्रशाला में नक्काशी कार्य तो इतना अद्भुत किया कि उसके आगे कुछ भी उपमेय नहीं। ऐसी अद्भुत चित्रशाला तैयार हो गई। चित्रकारों ने प्रत्येक दीवार पर ऐसे चित्र बनाए कि देखने वाले आश्चर्यचकित हो जाएँ। एक बार स्वयं श्रेणिक राजा चित्रशाला को देखने आए। एक स्थान पर चित्रित मुँह फाड़े खड़े सिंह को देखते ही राजा एक क्षण के लिए तो घबरा गए। बाद में यकायक ध्यान आया कि यह तो चित्र है। अनेक लोग देश-परदेश से चित्रशाला को देखने के लिए आते थे। चित्र इतने जीवंत थे कि देखने आने वाले लोग भी आश्चर्य चकित हो जाते थे। चित्रशाला पूर्णरूप से तैयार हो गई, किन्तु मुख्य दरवाजे के अभाव में बाहरी दृश्य शोभारहित लग रहा था। राजा ने शिल्पियों को नक्काशी वाला सुन्दर दरवाजा तैयार करने की आज्ञा दी और साथ ही यह भी कह दिया कि दरवाजे में ऐसी पुतलियाँ बनाना, जिसे देखने वालों को ऐसा लगे कि जीवंत स्त्रियाँ ही हैं। शिल्पियों ने अपनी सम्पूर्ण शिल्पकलाओं का उपयोग कर राजा की इच्छा से भी 92 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण अधिक अद्भुत दरवाजा तैयार कर दिया। किन्तु यह क्या? एक रात्रि में ही वह पूरा दरवाजा टूटकर गिर पड़ा। फिर दूसरे दिन भी वही बात। शिल्पी बिचारे अत्यन्त चिंतित हो गये। राजा ने महान् राजज्योतिषियों को बुलवाया और उनसे दरवाजा टूटने का कारण पूछा। _ 'राजन्! चित्रशाला की भूमि के अधिपति देवता आप पर क्रोधित हुए हैं। इस देवता ने ही मुख्य दरवाजे को रातों-रात तोड़कर गिरा दिया है। हाँ, यदि बत्तीस लक्षण युक्त बालक की विधिपूर्वक बलि दी जाए तो देवता प्रसन्न हो जाएंगे। फिर चित्रशाला का दरवाजा नहीं टूटेगा।' अपने ज्ञान द्वारा ज्योतिषियों ने सत्य बात कह दी। राजा को अत्यंत चिंता हुई। एक ओर दरवाजे के अभाव में चित्रशाला की शोभा समाप्त हो जायेगी, देश-परदेश से देखने आने वाले राजा इत्यादि भी इस कमी को बताए बिना नहीं रहेंगे एवं दूसरी ओर बत्तीस लक्षण वाले बालक का वध करना पड़ेगा। एक ओर हत्या का कलंक है, तो दूसरी ओर चित्रशाला का मोह तथा संसार में यश-कीर्ति प्राप्त करने की कामना का भूत है। - राजा का जीवन धर्ममय नहीं था। जिसके हृदय में करूणा धर्म हो, वह पाप से बच सकता है, किन्तु जिसके हृदय में यश-कीर्ति की लालसा व मोह हो, वह पाप से नहीं बच सकता। अन्त में राजा ने निर्णय किया कि बत्तीस लक्षण वाले बालक की बलि देकर भी चित्रशाला का दरवाजा तैयार किया जाय। . राजा ने तुरन्त मंत्रियों को बुलवाया। सलाह करके नगर में ढिंढोरा पिटवाया गया- 'हे नगरवासियों! राजा की चित्रशाला का दरवाजा बनाने के लिए उस भूमि का देवता बत्तीस लक्षण युक्त बालक की बलि माँग रहा है। अतः इसके लिए जो अपने बत्तीस लक्षण युक्त बालक को बलि हेतु देगा, उसे राजा की ओर से बालक के तोल के बराबर सोने की मोहरें दी जाएगी।' राजा की आज्ञा के अनुसार सेवकों ने पूरे नगर में यह ढिंढोरा पीटना जारी रखा। कौन तैयार होगा? सबको सोने की मोहरों से अधिक अपना जीवन एवं कुटुम्ब के सभ्य ही अधिक प्रिय होते हैं। नहीं, नहीं, असार संसार में सब जगह ऐसा नहीं है। पूरा संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। स्वार्थ की उत्पति जड़ वस्तुओं की लालसा से ही होती है। ... 'अरे भद्रा! तूने सुना? वजन के बराबर सोने की मोहरें!' ऋषभदत्त ने अपनी 93 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पत्नी से कहा। 'हाँ, स्वामीनाथ! अपने चार पुत्र हैं; एक को दे दें। अपनी दरिद्रता समाप्त हो जाएगी।' पत्नी ने कहा। _ 'कौन सा पुत्र दूं?' 'इसमें पूछने की क्या बात है? सबसे छोटा अमरिआ (अमर कुमार) खा पीकर हृष्टपुष्ट हो गया है। घर में कोई काम करता नहीं, मैं भी उससे दुःखी हो गई हूँ। उसे दे दो, एक आफत कम हो जायेगी और हमारी दरिद्रता मिट जायेगी।' ___ अमर कुमार भद्रा का सबसे छोटा पुत्र था। उसकी खुराक घर में सबसे अधिक थी। खुशमिजाजी एवं लट्ठबाज था। यदि वह किसी से लड़ाई करे तो एक ही मुष्टि प्रहार में सामने वाले की बत्तीसी बाहर निकाल दे, ऐसा ताकतवर था। घर में बदमाशी भी खूब करता था और बाहर सबके साथ झगड़ा करता था। घर का कोई काम करने के लिए कहें तो वह तुरन्त मना कर देता था। माता पिता उससे दुःखी थे। किंतु... दुनियाँ में कहावत है, पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माँ कभी कुमाता नहीं होती। अपने पेट के पुत्र को बलि के लिए बेच देने का इस ब्राह्मण माता-पिता का बहुत ही क्रूरता भरा यह विचार था। हाय! संसार कितना स्वार्थी है, क्रूर है, ऐप्ते संसार को सौ कोस दूर से ही प्रणाम कर देना चाहिए। संसार को लात मार कर संयम ही लेना चाहिए। माता-पिता ने अमर कुमार को बलि के लिए राजा को सौंप देने का अंतिम निर्णय कर लिया। 'राजन् ! नमस्कार! आपकी चित्रशाला पूर्ण नहीं हो रही है, इसका प्रजाजन के रूप में हमें बहुत दुःख है। आपके दुःख में हम भी दुःखी हैं। बहुत विचार के बाद अन्त में आपके जैसे महान राजा की इच्छा को पूर्ण करने के लिए हम अपने प्रिय सुन्दर पुत्र को बलि देने के लिए सौंपने को तैयार हैं।' ब्राह्मण ने राजमहल में जाकर राजा को अपना अंतिम निर्णय बता दिया। 'मेरे प्रिय प्रजाजन! पूरे नगर में मात्र तुमने ही मेरे हृदय के दुःख को स्पर्श किया। तुझे धन्यवाद है।' प्रसन्न राजा ने सम्मानपूर्वक ब्राह्मण और ब्राह्मणी को विदा किया। दीवारों के भी कान होते हैं। पूरे नगर में यह बात फैल गई। अमर के एक मित्र ने उससे कहा, 'मित्र समाचार मिले?' 94 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला 'कौन से समाचार ?' अमर ने पूछा? 'राजा की चित्रशाला की बलि तुझे बनाया जायेगा ।' "हे हे... ऐसा नहीं हो सकता। मुझे क्यों बलि बनाएँ ?' 'अरे मित्र ! तेरे माता-पिता ने सोन की मोहरों की लालच में तुझे बलि के लिए बेच देने का राजा को वचन दे दिया है।' चार शरण मित्र की बात सुनते ही घबराहट से काँपता हुआ अमर दौड़ा सीधा माँ के पास'माँ! माँ! सच्ची बात है क्या? क्या तू बलि के लिए मुझे राजा को सौपेगी ?" ‘हाँ! हाँ!! खा पीकर बहुत तगड़ा हो गया है। बदमाशी, लड़ाई-झगड़ा करने के अतिरिक्त तुझे कुछ दिखाई नहीं देता, तो तेरी ऐसी दशा ही होगी।' आक्रोश में माँ ने कहा। अमर अत्यंत दुःखी हो गया। उसके मुख की लालिमा, शरीर का जोश व बदमाशी करने का स्वभाव; सभी एक ही क्षण में कपूर की तरह उड़ गये। जीवन में पहली बार माँ के चरणों में गिर पड़ा- 'माँ-माँ मुझे क्षमा करो। अब कभी बदमाशी नहीं करूँगा। माँ तेरी पूरी सेवा करूँगा और घर का सभी काम करूँगा। माँ बर्तन भी मैं मांजूंगा और कपड़े भी धोऊँगा । माँ मुझे मत बेच।' सोने की मोहरों के लोभ में अंधी बनी हुई क्रूर माता अमर को लात मार कर दूसरे कमरे में चली गयी। फिर धरती एवं वृक्षों को भी कंपित कर दे, ऐसा करूण क्रन्दन प्रारम्भ हो गया। अमर सबके पास भटकता है और विनती कर रहा है कि मुझे बचाओ, मुझे बचाओ । जो मुझे बचायेगा, उसका मैं सेवक बन जाऊँगा, दास हो जाऊँगा । उसके घर का सब काम करूँगा। पिता के पास गया। मामा, मामी के पास भी गया। चाचा, चाची के पास भी गया; मित्रों से मिला । सबने अमर के सामने विवशता बताई। सबका एक ही उत्तर था कि 'तेरे माता-पिता ने तुझे बेच डाला है। अब राजा के सामने हमारी क्या चले ?' अन्त में बलि के लिए निश्चित किया हुआ दिन आ गया। राजसेवक अमर को लेने के लिए उसके घर पर गये । 'खबरदार मुझे हाथ लगाया तो ।' राजसेवकों को जोर-शोर से अमर ने कहा । राजसेवक अमर की बात सुनकर घबरा गये, किन्तु राजा की आज्ञा का पालन त उन्हें करना ही था। अत: वे अमर को पकड़ने लगे तो अमर ने एक सेवक को मुक्का मारकर उसके दाँत उखाड़ दिये, किन्तु अन्त में राजसेवकों ने अमर के हाथ-पाँव बांध दिये। 05 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण बाजार से होकर अमर को घसीटकर ले जाया गया। अमर के रूदन से नगरजनों की आँखों में से आँसुओं की धाराएं बहने लगीं और सबने मन ही मन राजा और ब्राह्मण-ब्राह्मणी को धिक्कारा। अमर बार-बार बोलता रहा। 'जो मुझे बचायेगा, उसका मैं आजीवन दास बन जाऊँगा। मुझे बचाओ-बचाओ।' अमर कुमार को राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। 'राजन्! प्रजापालक होकर मेरे जैसे निर्दोष बालक की हत्या करने के लिए आप तैयार हुए हैं, यदि रक्षक ही भक्षक बनेगा तो यह धरती पाप से भर जायेगी।' यह कहते ही अमर राजा के पैरों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला, 'मेरे नाथ! मुझे बचाओ। मैं हमेशा आपकी सेवा करूँगा। मुझे मत मारो, मुझे मत मारो।' 'वत्स! मैं क्या करूँ? तेरे माता-पिता ने ही तुझे तेरे तोल के बराबर सोने की मोहरों के बदले बेचा है।' राजा सिंहासन पर से खड़ा होकर बोला 'हे सेवकों, अब एक घटिका की ही देर है। अतः सभी तैयारी करवाओ और इस बालक को स्नान आदि करवाकर, आभूषण पहनाकर सजाओ।' . 'जी राजन्! आपको घणी खम्मा। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।' राजसेवक बलपूर्वक अमर को ले गए। स्नान करवाकर सुन्दर वस्त्र एवं आभूषणों से सजाकर तैयार किया और अग्निकुण्ड के सामने लाकर खड़ा किया। सामने दिखती निश्चित मौत से घबराया हुआ अमर बचने की किसी आशा से चारों ओर देख रहा है। सामने जलती हुई अग्निकुण्ड की ज्वालाएँ दिखाई दे रही हैं। अग्नि कण्ड के चारों ओर बैठे हुए ज्योतिषी मंत्रोच्चार करके अग्नि में 'ओम स्वाहा' बोलते हए कुछ डाल रहे थे। चारों ओर नगर के लोगों के झुण्ड दिखाई दे रहे थे। पूर्व दिशा में राजा सजधज कर सिंहासन पर बैठा था। पास ही मंत्रीगण, नगरजन तथा श्रीमन्त दिखाई दे रहे थे। तभी यकायक एक ज्योतिषी बोला, 'अब समय निकट है।' यह सुनते ही अमर अत्यन्त घबरा गया। बचाओ की तेज चीख निकल गई। यकायक मन में अपने जैन मित्र के गुरु महाराज याद आए। कई दिनों पहले जैन मित्र के साथ अमर उपाश्रय में गया था। तब गुरु महाराज ने अमर को नवकार मंत्र सुनाया था और कहा था- 'वत्स, जब भय लगे, तब नवकार मंत्र का स्मरण करना। यही संकट, आपत्ति तथा कठिनाइयों में से अपने को पार उतारने के लिए समर्थ है। जिसके हृदय में नवकार उसका क्या करे संसार।' बालक अमर अब सावधान हो गया। माता-पिता ने बेच डाला। राजा मारने के लिए तैयार हुआ और संसार में अब कोई भी शरण नहीं रहा। अतः अब गुरु महाराज के 96 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कहे अनुसार नवकार मन्त्र में ही लीन हो जाऊँ। जो होगा सो होगा। यह सोचकर अमर नवकार मन्त्र में लीन हो गया। इतना तल्लीन कि वह सब कुछ भूल गया। सामने वाले अग्निकुण्ड और मौत के भय को भी वह भूल गया। क्षण-प्रतिक्षण बीते जा रहे थे। एक क्षण पूर्व एक सेवक ने अमर को उठाया और मुहूर्त के समय पर थाली के डंके, घण्टे और वाजिंत्रों की ध्वनि के साथ अग्निकुण्ड में फेंक दिया। किन्तु आश्चर्य! 'नमस्कार महामन्त्र' ने अद्भुत चमत्कार का सर्जन किया। जिसका संसार में कोई नहीं, उसका तारणहार नवकार मन्त्र है। अमर ने स्मरण प्रारम्भ किया और नवकार के प्रभाव से तुरन्त ही अग्निकुण्ड की अग्नि गायब हो गई। अमर ने अपने आपको सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ पाया। यह है नवकार मंत्र का चमत्कार। अग्नि कुण्ड से सोने का सिंहासन बन गया। यह देखकर राजा ने उसे मुक्त कर दिया। अमरकुमार ने घर न जाकर मुनि वेश धारण कर लिया और साधना करने जंगल में चला गया। ध्यान में लीन अमर मुनि पर स्वयं की माता का उपसर्ग आया। यहाँ से मृत्यु प्राप्त कर अमर मुनि बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए। श्रीपाल कुमार को कितनी आपत्ति आई? धवल सेठ ने प्रपंच से समुद्र में गिराया, तब भी श्रीपाल कुमार के मन में तो अरिहन्तादि नवपद की ही शरण थी, जिनके प्रभाव से मगरमच्छ ने नौंका की तरह अपनी पीठ पर बैठाकर समुद्र के किनारे लाकर उतार दिया। यहाँ राजकन्या के पति के रूप में श्रीपाल को लेने के लिए राजा के सैनिक लोग आने लगे। श्रीपाल कुमार को अरिहंत आदि की शरण स्वीकारने के प्रताप से ही नौ-भव की समृद्धि को तो देखा ही, साथ ही वह मोक्ष की अनन्त समृद्धि को भी वरण करने वाले . कहते हैं- भव्यत्व के परिपाक के लिए प्रतिदिन तीन बातों का बारम्बार स्मरण होना चाहिए। चार शरण स्वीकार करना, दुष्कृत की गर्दा और सुकृतों की अनुमोदना। इन तीनों बातों का महत्त्व तो है ही, पर इनमें भी सबसे ज्यादा महत्त्व उनमें प्रणिधान का होना है। बिना प्रणिधान के, हजार बार की गई क्रिया हमें सम्पूर्ण फल देने वाली नहीं होती, जबकि प्रणिधान पूर्वक की गई एक बार की क्रिया भी हमें सच्चे फल को दिलाने वाली बन सकती है। समस्त कार्यों की सिद्धि अर्थात् कार्य की सफलता के लिए प्रणिधान मुख्य कारक है। आध्यात्मिक जीवन में जिस कार्य की इच्छा करते हैं, वह कार्य यदि प्रणिधान पूर्वक होगा तो अवश्य फल दिये बिना नहीं रहेगा। प्रणिधान पूर्वक क्रिया से तीव्र रसवाले For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कर्मों का बंध होता है। प्रणिधान यानि जिसका लक्ष्य हमने बनाया है उसके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का विचार ही मन से निकाल देना। मात्र उसी वस्तु को मन में बैठाकर रखना। परमात्मा दर्शन विधि में त्रिदिशा-त्याग विधि आती है, जिसमें तीन दिशाओं का त्याग करके मात्र परमात्मा की दिशा में दृष्टि होनी चाहिए। जिनालय में किसने प्रवेश किया अथवा कौन जा रहा है, उनकी जानकारी बिलकुल नहीं रखनी चाहिए। प्रतिक्रमण करते समय भी इसी विधि का ध्यान रखना है। सूत्र व अर्थ, दोनों में चिन्तन चलना चाहिए। वर्तमान में ऐसे साधु भगवन्त व श्रावकगण मौजूद हैं, जो प्रतिक्रमण के एक-एक सूत्र में एक-एक शब्द का चिन्तन करके अपने पापों का स्मरण करते हुए आँखों से चहुंधारा आँसू बहाते हैं। प्रत्येक सूत्र में गूढ़ रहस्य भरा है। अरिहंत चेईयाणं सूत्र व उसके अर्थ में भी गूढ़ रहस्य व फल छिपा हुआ है। सम्पूर्ण विश्व के लोगों द्वारा परमात्मा को जो वन्दन, पूजन, स्तवना, स्तुति, वस्त्रफूल आदि से सम्मान किया गया हो, उन सभी का फल हमें मिल सकता है। पर कैसे? अनुमोदना से; और इनके अनुमोदनार्थ एक नवकार का कायोत्सर्ग करके फल को प्राप्त कर सकते हैं। कायोत्सर्गमीसप्रयोजन सम्यक्त्व की प्राप्ति, अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। श्रद्धापूर्वक कायोत्सर्ग होना चाहिए। मात्र श्रद्धा ही नहीं, बुद्धिपूर्वक श्रद्धा चाहिए। जल्दी-जल्दी नहीं, धैर्यता पूर्वका धीरज धारण कर के, शब्दों के अर्थ की धारणा से एवं अनुप्रेक्षा पूर्वक सूत्र अर्थ का चिन्तन करना ही कायोत्सर्ग है। इतना ही नहीं, बढ़ती हुई श्रद्धा से, बढ़ती हुई बुद्धि से, धैर्यता से, धारणा से, अनुप्रेक्षा से कायोत्सर्ग करना चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण भाव पूर्वक किया गया कायोत्सर्ग का सुन्दर परिणाम प्राप्त होता है। इनका लाभ मात्र एक नवकार के कायोत्सर्ग से सम्प्राप्त हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है सूत्र का एक भी पद उच्चारण करो तो प्रणिधान पूर्वक करना चाहिए। ऐसी धर्म क्रिया मोक्ष दिलाने में सफलीभूत बनती है। कम करो पर श्रद्धापूर्वक करो, एकाग्र होकर करो। एक बार नवकार का उच्चारण करना है तो भी भाव सहित उच्चारण करो। मन सम्पूर्ण रूप से इसी में स्थिर बन जाए। नवकार महामन्त्र के एक अक्षर मात्र 'न' में 1008 विद्यादेवियाँ विराजमान हैं। मात्र डूबना आना चाहिए, कार्य में सफलता अवश्य मिलती है। 98 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला हे अरिहंत भगवन्त ! आप तीनों लोक में सर्वश्रेष्ठ हैं। आप सर्वोत्कृष्ट पुण्य के भण्डार हैं।. आप राग द्वेष और मोह को जीत चुके हैं। आप अचिन्त्य चिंतामणि रत्न के समान हैं। अरिहंत भगवान् की शरण आप इस संसार सागर से तारने के लिए जहाज स्वरूप हैं। हे दया के सागर! हे कृपा के भण्डार! हे अनाथों के नाथ! हे अनंतानन्त अरिहंत भगवान्! जीवन भर आप ही मेरे एकमात्र शरण हैं। आधि, व्याधि और उपाधि से ग्रस्त इस संसार सागर में फंसा हुआ हूँ। मैं अनन्य और अकाम भाव से आपकी शरणागति को स्वीकार करता हूँ। भगवान् परम त्रिलोकीनाथ, उत्कृष्ट पुण्य समूह वाले, रागद्वेष-मोह का क्षय कर दिया, अचिन्त्य चिंतामणि, भवसागर में जहाज रूप, एकान्त शरण करने योग्य, अरिहन्त देव हमारे शरणभूत हैं। परमत्रिलोकी नाथ चार शरण सर्वप्रथम अरिहंत भगवन्तों की शरण स्वीकार करना है। इस सूत्र में अरिहंत प्रभु विशिष्ट विशेषण बताए गये हैं। उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और अतिशय आदर वाला बनना है। यह बात भूलनी नहीं है। तभी ये शरण स्वीकार करने में सफल बनेंगे। जीवनभर अरिहंत भगवन्तों का मुझे शरण हो । यह एक प्रकार की प्रतिज्ञा समान है। यदि सामान्य भावना रूप • अभिलाषा होती तो आगे भवान्तर के लिए भी की जा सकती थी, किन्तु जावज्जीव की मर्यादा न बँधती । मर्यादा बान्धी गई है तो भवान्तर में अज्ञानतावश कभी इस प्रतिज्ञा का खण्डन न हो जाए इस हेतु से । खण्डन का भय प्रतिज्ञा में होने का गिना गया है, पर अभिलाषा से नहीं। इसलिए शरण स्वीकारने वाले को यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि ये शरण इस जीवन के अन्त तक ही हैं। अब इनकी शरण छोड़ना नहीं और दूसरे की शरण स्वीकार करना नहीं। यहाँ जिसमें कर्म के अंकुर नहीं उगते, अष्ट-प्रतिहार्य की ऋद्धि से जो शोभित हैं, परम ऐश्वर्य रूप यश- ज्ञान धर्म वाले ऐसे अरिह-भु की शरण स्वीकारना है। " प्रभु हमें इस लोक और परलोक की दुर्गति के भय से बचाते हैं। भविष्य में दीर्घ 99 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण संसार से बचाते हैं। युगों-युगों तक जन्म-जरा-मृत्यु के जटिल जंजाल से संरक्षण कराते हैं। इस विशेषण के प्रति श्रद्धा यह बताती है कि मैं नाथ तो अरिहन्त देव को ही मानता हूँ। अभी जगत् में कोई करोड़ों की ऋद्धि देकर दरिद्रता से बचाते हैं, औषध देकर महारोग से बचाते हैं, सहारा देकर निराधार से बचाते हैं, सेवा करके असुविधा से बचाते हैं, रक्षण देकर चोर, डाकू से बचाते हैं पर इनसे क्या बहुत खुश होना? इनसे क्या जरा या मृत्यु का भय टल गया? फिर नये जन्म-मरण आदि के दुःख दूर हो गये? दुर्गति को ताला लग गया? भविष्य में उत्पन्न होने वाले रोग, दारिद्र-दुःख दूर हो गये? नहीं। इनको दूर करने की शक्ति तो मेरे अचिंत्य प्रभावी अरिहंत देवाधिदेव में ही है। कहाँ सामर्थ्य त्रिलोकीनाथ का और कहाँ ये स्वयं अनाथ। कमठ के काष्ठ से पार्श्व प्रभु ने जलते सर्प को बाहर निकाला व प्रभु द्वारा नवकार मन्त्र सुनकर सर्प ने भी प्रभु की शरण स्वीकार कर ली और मरकर धरणेन्द्र बना। दुर्गति टली। ये अरिहंत के बिना कौन करता? सर्प भी प्रभु की शरण पाकर धरणेन्द्र बन गया। उत्कृष्ट पुण्य के स्वामी ___ सर्व पुण्यों में श्रेष्ठ पुण्य, तीर्थंकर नाम कर्म, श्रेष्ठ यश, सौभाग्य आदेय आदि पुण्य के प्राग्भार वाले हैं। इनके अद्भुत योग से, ये माता के गर्भ में आते हैं, तभी इन्द्रों के अचल सिंहासन कम्पायमान हो उठते हैं। जन्म समय 56 दिग्कुमारिकाएं पलना झुलाती हैं। 64 इन्द्र देवता सहित प्रभु का जन्माभिषेक महोत्सव करते हैं। जन्म से रोग, मैल, पसीने से मुक्त कंचन जैसी काया, सुगन्धी श्वासोच्छवास, अदृश्य आहार-निहार आदि विधि, गाय के दूध सदृश्य रूधिर और अविभत्स मांस, इन अतिशय से सुशोभित, केवलज्ञान के पश्चात् अपूर्व अष्ट-प्रतिहार्य, समवशरण, चलते समय चरणों के नीचे स्वर्णकमलों की ऋद्धि वाले, देवेन्द्रों-नरेन्द्रों से सेवित कुल 34 और वाणी के 35 अतिशयों से युक्त ये प्रभु होते हैं। जगत् में दूसरे पुण्य, इस पुण्य के आगे कुछ महत्त्व नहीं रखते हैं। भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि ऋषभदेव प्रभु की दैविक रजत-स्वर्ण-रत्नमय समवसरण की अलौकिक समृद्धि के पुण्य-देखकर विचारों में आगे बढ़ गये। इससे उनको जगत् के पुण्य पर वैराग्य उत्पन्न हो गया। वहीं मरीचि ने दीक्षा अंगिकार की। भवों के अन्त में वे ही महावीर प्रभु बने। ऐसे प्रभु के एकान्त रूप से शरण में जाने से हम भी प्रभु बन सकते हैं। ये सभी इसी पुण्य की विशिष्टताएं हैं। तो क्या दूसरे पुण्यों का स्वागत, सम्मान या गीतगान, इच्छा करना क्या हमको शोभा देगा? अहो! कितने उत्कृष्ट पुण्य को धारण करने वाले देवाधिदेव की प्राप्ति मुझे हुई। इस पुण्य को देखकर जगत् में दूसरे आकर्षण व 100 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला इच्छित जैसा है ही क्या ? जीवन में मेरे तो ये पुण्यवन्त अरिहंत ही नाथ हों, यही श्रद्धा चाहिए। - राग-द्वेष मोह के विजेता फिर से राग-द्वेष-मोह अर्थात् इष्ट के प्रति आसक्ति, अनिष्ट के प्रति अरुचि और अज्ञान । मिथ्या ज्ञान जिनका एकदम नष्ट हो गया है, ऐसे प्रभु की मुझे शरण हो । मेरे प्रभु भक्तों पर लेशमात्र भी न राग वाले, न शत्रु पर द्वेष वाले हैं। वीर प्रभु ने महाभक्त गौतम पर न राग किया और तेजोलेश्या छोड़ने वाले गोशाले पर न द्वेष किया। उसी प्रकार प्रभु के कोई भी कथन मूढ़ता - अज्ञानता से भरे नहीं हैं। क्योंकि वे वीतराग, सर्वज्ञ हैं। ऐसे दूसरे कोई देव नहीं, मानव नहीं, वे तो मात्र प्रभु ही हैं। ऐसे नाथ के शरण में जाने से सम्यक् ज्ञान वैराग्यादि की जरूर प्राप्ति होती है। इसलिए इनकी शरण स्वीकार करनी चाहिए। ऐसे प्रभु 'अचिन्त्य चिन्तामणि' स्वरूप हैं। अचिन्त्य चिन्तामणिरत्न चार शरण अचिन्त्य क्यों कहा? इसलिए कि चिन्तामणि तो आपके द्वारा सोचा गया उसके अनुसार फल को प्रदान करता है। वह भी लौकिक अर्थात् इस लोक में उपयोग आए जितना ही फल देता है, जबकि परमात्मा तो धारण किये गये फल से भी उत्कृष्ट ऐसे अकल्पनीय, अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्ति के फलों को देने वाले हैं। ऐसे अचिन्त्य चिन्तामणि रूप प्रभु को प्राप्त करने के पश्चात् अब मेरे पास और क्या कमी है, जो मैं लौकिक किसी आपत्ति के प्रसंग में कुछ कम मानूं अथवा दुःखी होऊँ ? भवसागर में जहाज रुप भगवान् संसार से पार उतारने वाले होने से भवसागर में जहाज के समान हैं। इनकी शरण में रहते हुए मैं जरूर भवसागर को तिरने के लिए प्रयास करूँगा, ऐसी मेरी इच्छा है। भव अर्थात् चतुर्गति रूप संसार। उसी तरह विषय, कषाय, अनादि की संज्ञा आदि भी भव हैं। इन सभी से जीव को छुड़ाते हैं अरिहन्त प्रभु । एकमात्र शरण भगवान् अरिहंत देव ही एकांत रूप से शरण स्वीकारने योग्य हैं। क्योंकि ये भेदभाव बिना स्वयं के अपराधी अथवा निरपराधी सभी आश्रितों का हित करने वाले हैं। उसमें भी आश्रित के सम्पूर्ण हित करने वाले हैं। उनके जैसे सर्व-कल्याण करके महान् उपकार दूसरा कौन कर सकता है? कोई नहीं कर सकता है । जगत् के पृथ्वीकाय, अप्काय आदि एकेन्द्रिय जीव तक सभी जीवों की पहचान और दया करने की बात तीर्थंकर भगवान् 101 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण ने सिखा कर भव्य जीवों को इन जीवों की रक्षा करने वाला बनाया। इतने सूक्ष्म जीवों के कल्याण व हित की बात दूसरे किसी ने नहीं कही। यदि दूसरे किसी ने नहीं कही है तो ऐसे दूसरों की शरण हृदय में कैसे रख सकता है कोई। हृदय में रखने की जरूरत ही नहीं है।. इसलिए 'अरिहंता शरणं' अर्थात् अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि इत्यादि अष्ट-प्रतिहार्य रूपी पूजा के योग्य ऐसे अर्हत् भगवन्त मेरे जावज्जीव शरण हैं, आश्रयभूत हैं, इनका ही मुझे आधार है। जगत् के कहे हुए, कल्पित नाम मात्र के शरण पर मुझे श्रद्धा नहीं है। ऐसे नाम . के शरणभूत सेठ, मित्रों, कुटुम्ब, धन, सत्ता इत्यादि मुझे किसी भी अवसर में सहाय न भी करे तो भी मैं दुःखी नहीं होऊँगा। चिन्ता नहीं करूँगा; क्योंकि मैं जानता हूँ कि इनमें से कोई भी मेरा सच्चा शरण नहीं है। मैंने तो एकमात्र देवाधिदेव का सच्चा अनन्य शरण रूप धारण कर लिया है। अब मुझे किसी प्रकार का भय या आपत्ति नहीं है। पूर्व के तीव्र कर्म के उदय से कभी प्रतिकूलता आ भी जाए तो नाथ की शरण के प्रताप से वह कर्म अन्त को प्राप्त करने वाला ही बनेगा। इसमें से अब नये कर्मों का अंकुर नहीं फूटेगा, कर्म की धारा रूक जाएगी और दुःखों का सदा के लिए अभाव हो जाएगा। योगक्षेमकारक अरिहंत परमात्मा के इन्हीं विशेषणों को हम अन्य रूप से समझने का प्रयास करते हैं। अरिहंत परमात्मा हमारे नाथ हैं, रक्षक हैं। जो योगक्षेम करते हैं, वे ही हमारे नाथ . होते हैं। परमात्मा की कृपा से ही मोक्षमार्ग में नये-नये योग की प्राप्ति होती है और उन प्राप्त हुए योगों की रक्षा भी परमात्मा की कृपा से ही होती है। दुर्गति में गिरते हुए जीवों की रक्षा भी अरिहंत परमात्मा करते हैं। बाह्य और आभ्यंतर शत्रुओं से जीवों की सुरक्षा एवं तीनों लोकों के जीवों को बचाने वाले भी अरिहंत भगवान् हैं, क्योंकि परमात्मा अनुत्तर पुण्य के स्वामी होते हैं। दुनियाँ में ऐसे विशिष्ट पुण्य किसी के नहीं हैं, वैसे विशिष्ट पुण्य को वे धारण करने वाले हैं। इन्द्रदेव, सुर, असुर आदि देवताओं को सेवा के लिए बुलाना नहीं पड़ता है। वे स्वयं दौड़े-दौड़े आते हैं। परमात्मा की सेवा में प्रथम हम पहुँचेंगे, इस प्रकार कहते हुए उनके विमान आगे बढ़ते जाते हैं। जब परमात्मा का जन्म होता है, तब चौदह राजलोक सम्पूर्ण क्षणभर के लिए प्रकाशित हो जाता है। सम्पूर्ण आकाश देवताओं से भर जाता है। असंख्य देवता मेरू पर्वत पर स्वयं पहुँच जाते इन्द्र महाराज जहाँ परमात्मा की माता शयन कर रही हैं, वहाँ आकर प्रथम प्रभु को वन्दन, पश्चात् माता को भी वन्दन करते हैं। फिर कहते हैं- 'हे जगत् दीपिका! सम्पूर्ण 102 For Personal Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण जगत् को प्रकाशित करने वाले जगत्कल्याण कर्ता प्रभु को जन्म देने वाली रत्नकुक्षी माता, आपको वन्दन हो।' ऐसा कह कर इन्द्र महाराज माताश्री के समक्ष प्रभु का अन्य स्वरूप स्थापित करते हैं तथा मां को अवस्वापिनी निद्रा में सुलाकर परमात्मा को अभिषेक हेतु ले जाने के लिए पाँच रूप धारण करते हैं। प्रथम रूप से वह परमात्मा को स्वयं अपने करकमलों से उठाते हैं। द्वितीय रूप से परमात्मा के मस्तक पर छत्र धारण करते हैं। तृतीय रूप से हाथों में वज्र लेते हैं। चतुर्थ व पंचम रूप से परमात्मा के दोनों तरफ चामर ढुलाते हैं। परमात्मा जन्म से अनन्त पुण्यशाली होते हैं। जन्म लेते ही एक करोड़ साठ लाख कलशों के द्वारा करोड़ों देवता परमात्मा का जल-अभिषेक करते हैं। एक कलश की नाल एक योजन प्रमाण की होती है। जिनकी सेवा में इन्द्र देवता हाजिर होते हैं, करोड़ों देवता सेवा में उपस्थित होते हैं, ऐसे उत्कृष्ट पुण्य मात्र तीर्थंकर परमात्मा के ही होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा जब माता के गर्भ में पधारते हैं, तब से उनका अचिन्त्य प्रभाव प्रत्यक्ष नजर आने लग जाता है। कई बार परमात्मा का नामकरण भी उनके प्रभाव के अनुसार माता-पिता रखते हैं। जैसे अजितनाथ परमात्मा के माता-पिता सोगठबाजी का खेल खेला करते थे। हर बार माताश्री हार जाती थीं, किन्तु जब से दूसरे तीर्थंकर परमात्मा का माँ के गर्भ में अवतरण हुआ, माँ खेल जीतने लग गईं। इसलिए परमात्मा का नाम अजितनाथ रखा गया। सुमतिनाथ परमात्मा का नाम कैसे रखा गया? कहते हैं उस समय राज्य में एक कठिन समस्या उत्पन्न हो गई थी। राजा के समक्ष एक ऐसा जटिल प्रश्न आया, जिसका समाधान महारानी ने अपनी मति से किया। एक पति के दो पत्नियाँ थी। पति की अनायास मृत्यु हो गई। दोनों पत्नी के बीच एक पुत्र था। नियमानुसार जिसका पुत्र होता है, उसे सम्पत्ति दी जाती है। अतः दोनों पत्नियाँ उसे अपना पुत्र कहने लगीं। स्वयं को उसकी माता बतलाने लगीं। ... महारानी ने कहा- 'इस समस्या का समाधान मैं करूँगी। एक पुत्र के दो टुकड़े कर दीजिए। पुत्र का आधा-आधा शरीर और आधी-आधी सम्पत्ति दोनों स्त्रियों को दे दिया जाया' नकली माँ ने इस न्याय को स्वीकार कर लिया; पर असली माता ने कहा कि मुझे नहीं चाहिए मेरा पुत्र, इसके दो टुकड़े मत करो। मारने से अच्छा मेरा पुत्र उसके पास जीवित तो रहेगा। ऐसा कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। दूसरी स्त्री के हृदय में जरा भी 103 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दर्द नहीं था । पुत्र मरेगा, परन्तु आधी सम्पत्ति तो प्राप्त होगी। 'महारानी ने कहा- न्याय हो गया । पुत्र व सम्पत्ति, दोनों इस माँ को दे दिया जाए, अपने बच्चे को मरते हुए नहीं देख सकती, वही सच्ची माँ है। परमात्मा जब माँ के गर्भ में अवतरित हुए तब माता को सद्बुद्धि उत्पन्न हुई, इसलिए पुत्र का सुमतिनाथ नाम रखा गया। ऐसे विशिष्ट पुण्य के धारक, राग-द्वेष-मोह को क्षीण करने वाले वीतरागी परमात्मा ही हमारे अरिहंत देव होते हैं। अरिहन्त परमात्मा हमारे लिए अचिन्त्य चिन्तामणि रत्न के समान हैं। चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति तप साधना से होती है। अट्ठम तप के द्वारा : साधना सिद्ध हो जाने पर साधक चिन्तामणि रत्न के समक्ष हाथ जोड़कर जो भी माँग या कामना करता है, वही वस्तु क्षणभर में आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाती है। कहते हैं रत्न से यदि सप्तमंजिल के महल की इच्छा करें अथवा करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं की कामना करें तो भी सब कुछ तुरन्त मिल जाते हैं। किन्तु हमारे अरिहंत परमात्मा तो चिन्तामणि रत्न से भी बढ़कर रत्न हैं। क्योंकि मांगने या सोचने से ही ये रत्न वस्तु को प्रदान करते हैं, किन्तु. अरिहन्त परमात्मा तो कभी सोचा भी न हो, वैसे अचिन्त्य फल को देने वाले होते हैं। चार शरण आचार्य हेमचन्द्रसूरि जी महाराज साहेब ने लिखा है कि यदि मानव को थोड़ी भी समझ आ जाए तो उस बुद्धि का एकमात्र उपयोग अरिहंत परमात्मा की भक्ति करने में लगा दे, अन्य सभी कार्य को छोड़ दे। जीवन में कभी भी कुछ भी मांगना नहीं पड़ेगा। अरिहंत परमात्मा के चरणों में मस्तक टिका दो। तुम्हारी कल्पना से कई गुणा ज्यादा ही प्राप्त होगा। प्रभु के शासन की सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहना है । भवोभव तक प्रभु के सान्निध्य के अलावा कुछ नहीं चाहिए। अरिहंत परमात्मा इस भीषण भव रूपी समुद्र से पार उतारने में वाहन की तरह हैं। इस पर बैठने से यानि इनको भजने से वे हमें शीघ्र संसार से पार उतार देते हैं। अत: ‘ऐसे तारणतरण जहाज स्वरूप अरिहंत देव की शरण ही मेरे लिए योग्य है। मैं अष्ट प्रातिहार्य व समवशरण से युक्त देवाधिदेव की ही एक मात्र शरण स्वीकार करता हूँ', ऐसी कामना करनी चाहिए। 104 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण सिद्ध भगवान कीशरण हे सिद्ध भगवन्त! आप जन्म जरा मरण से रहित हैं। आपने कर्म रूपी कलंक को धो दिया है। आप सब पीड़ाओं से मुक्त हैं। आपने कैवल्यज्ञान और कैवल्यदर्शन को धारण किया है। आप सिद्ध शिला नाम की शाश्वत् नगरी के निवासी हैं। आपके सर्व कार्य संपन्न हो गये हैं। आप सर्वथा कृतकृत्य हैं। प्रकट प्रभावी सिद्ध भगवन्त! जीवनभर आप ही मेरे सच्चे शरण हैं। हलाहल कलियुग में चारों तरफ से घिरा हुआ मैं सच्चे हृदय से भावपूर्वक आपकी शरण स्वीकार करता हूँ। सिद्ध स्वरुपबोध निच्छिन्न सत्वदुक्खा, जाई-जरा-मरण बंधन विमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहुँति सासयं सिद्धा॥ (औपपातिक सूत्र) चन्देसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवर गम्भीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ (आवश्यक सूत्र) .. सिद्ध भगवान् का स्वरूप बताते हुए शास्त्रों में कहा गया है- जिनके समस्त दुःख क्षय हो गये हैं, जिन्हें जन्म-जरा-मृत्यु और कर्म आदि का कोई भय नहीं, बन्धन नहीं। जो प्रतिक्षण अनन्त आनन्द और परम सुख का अनुभव कर रहे हैं, जो अविनाशी स्वरूप हैं, वे हैं सिद्ध भगवान्। जो हजारों चन्द्रमा से भी अधिक निर्मल और शांत हैं, हजारों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं और महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान् हमें सिद्ध गति - चन्दसु निम्मलया, प्रदान करें। _ विशेषणों से युक्त सिद्ध प्रभु, जन्म-मरण रहित, कर्मकलंक से मुक्त, समस्त पीड़ा नष्ट हो गई जिनकी, केवल ज्ञान-दर्शन वाले, सिद्ध नगरी के वासी, अनुपम सुख सम्पन्न, सर्वथाकृतकृत्य, सिद्ध भगवन्त हमारे शरणभूत हैं। भावपूर्वक शरण 105 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण अरिहंत भगवान् की तरह ही अब मैं सिद्ध भगवान् की शरण को स्वीकार करता हूँ। सिद्ध भगवान् कैसे है? 'पहीण जरामरणा' अर्थात् जिनके जन्म रूपी इत्यादि बीज ही नहीं होने से जरा (वृद्धावस्था) और मृत्यु रूपी अंकुर भी एकदम क्षीण हो गए हैं, जिससे. जन्म-मरण फिर से कभी भी जीव का स्पर्श कर ही नहीं सकता है, इसलिए सदा के लिए अक्षय स्थितिवाले श्री सिद्ध भगवन्त बने हैं। अहो! यह कितनी सुन्दर अवस्था। विचित्र विश्व की रंगभूमि पर विदूषक की तरह नवीन-नवीन गति के वेश में जन्म धारण करना, पुद्गलों को धारण करना, शरीरादि का घाट तैयार करना, इनके पोषण हेतु बेकार की कठिन मेहनत करनी व बाद में भी घसाते रहना, बूढ़े होना या जल्दी मर जाना। इसलिए वहाँ ये सभी लुप्त हो जाते हैं। वहाँ पूर्व की सभी मेहनत, उनका फल और उसमें बान्धे गये पापों का भार, सिर पर इन सभी विडम्बनाओं का हमेशा के लिए अन्त आता हो तो पीड़ा किस बात की? अरे, संसार में दूसरे त्रास-पीड़ा तो बाद की बात हैं, परन्तु मात्र बारम्बार पराधीनता पूर्वक जन्म ग्रहण करना पड़ता है, वह भी विवेकी जन के लिए शर्मनाक बात है। __ छोटे बाल राजकुमार अईमुत्ता जैसे को भी जब परमात्मा महावीर के सान्निध्य में समझ मिली कि 'संसार के पाप से बार-बार जन्म-मरण प्राप्त होता है। अतः चारित्र ग्रहण कर कर्म क्षयकर सिद्ध बनने के बाद फिर कभी जन्म-मरण नहीं करना पड़ता है', अईमुत्ता ने घर आकर माता जी को समझाकर स्वयं चारित्र लेकर कर्मक्षय कर मोक्ष प्राप्त किया। सिद्ध बन गये। सिद्ध प्रभु की अक्षय स्थिति का मीठा / मधुर ख्याल ही जीव को स्वयं के जन्म-मरणादि के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न करता है। मुझे ऐसी मनोरम अक्षय स्थिति प्राप्त हो, ऐसी लगन उत्पन्न करता है। जब 'मिच्छामि दुक्कडम्' अन्तःकरण पूर्वक होता है, तब चमत्कार का सृजन होता है और अइमुत्ता मुनि की तरह केवलज्ञान व मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यहाँ हम आपको अईमुत्ता मुनि की कथा बता रहे हैं। अईमुत्ता मुनिकी कथा पोलासपुर नामक नगर था। वहाँ विजय नामक राजा राज्य करता था। उनकी श्री देवी नामक महारानी थी। महारानी श्रीदेवी रूपवती, गुणवती और शीलवती थी। महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम था अईमुत्ता। अईमुत्ता जब छह वर्ष का था तब भगवान् महावीर अपने गौतम आदि शिष्यों के साथ पोलासपुर पधारे। पोलासपुर की जनता भगवान् महावीर के पधारने से हर्षान्वित हो उठी। 106 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण भगवान् महावीर देव के प्रथम गणधरदेव गौतम स्वामी जी बेले के पारणे बेला करते थे। आज उनका पारणा होने से वे पोलासपुर की गलियों में निर्दोष गोचरी (आहार) लेने के लिए भ्रमण कर रहे थे। राजमार्ग पर राजकुमार अईमुत्ता अपने बाल मित्रों के साथ खेल रहा था। उसने तप के तेज से दैदीप्यमान साक्षात् धर्ममूर्ति गौतम स्वामी जी को देखा तो आश्चर्य हुआ। उसने गणधर देव से पूछा- 'देवार्य आप कौन हैं? और नगर में किसलिए घूम रहे हैं?' गणधर देव बोले- 'हम जैन मुनि हैं एवं गोचरी लेने के लिए नगर में भ्रमण कर रहे है।' 'तो आप मेरे यहाँ गोचरी के लिए चलिए।' अईमुत्ता ने आग्रह पूर्वक कहा- 'मैं आपको भिक्षा दूंगा।' गणधर देव अईमुत्ताकुमार के साथ राजमहल में गोचरी लेने पधारे। राजकुमार ने मोदक वोहरा कर पुण्य प्राप्त किया। . गौतम स्वामी को छोड़ने के लिए जाते समय अईमुत्ता ने पूछा- 'कृपालु...। आप कहाँ रहते हैं?' गौतम स्वामी फरमाते हैं- 'महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र वर्धमान, जिन्हें लोग महावीर कहते हैं । वे महावीर परमात्मा हमारे गुरु हैं। हम उन्हीं के साथ रहते हैं।' .. अईमुत्ता गणधरदेव के साथ भगवान् महावीर के पास आया। भगवान् देशना फरमा रहे थे। प्रभु की मेघ जैसी गंभीर वाणी सुनकर अईमुत्ता कुमार को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने राजमहल आकर अपनी माता श्रीदेवी से कहा- 'माँ, मैं भगवान् का शिष्य बनकर आत्म कल्याण करूँगा। मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दीजिए।' - माँ ने कहा- 'बेटा, क्या तू जानता है, दीक्षा क्या होती है?' अईमुत्ता ने कहा- 'जो मैं जानता हूँ, वह नहीं जानता हूँ और जो नहीं जानता हूँ वह जानता हूँ।' श्रीदेवी महारानी ने पूछा- 'तू कहना क्या चाहता है?' अतिशीघ्र अईमुत्ता बोला- 'जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यमेव है, मैं यह जानता हूँ। तथा मैं यह नहीं जानता कि जीव किन कर्मों से नरकादि दुर्गति में जाता है, किन्तु यह अवश्य जानता हूँ कि जीव स्वयं अपने कर्मों के कारण गति प्राप्त करता है।' माता बड़ी प्रसन्न हो उठी पुत्र की बात सुनकर। पिता विजयराजा को भी इसी तरह 107 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला . चार शरण समझा कर माता-पिता की इच्छा से एक दिन के लिए राजा बनकर अईमुत्ता ने भगवान् महावीर के पास संयम ग्रहण कर लिया। अब वह राजकुमार से अईमुत्ता मुनि बन गये। . भगवान् महावीर ने बालमुनि अईमुत्ता को स्थवीर मुनियों को सौंप दिया। स्थविर मुनियों के पास रहकर अईमुत्ता मुनि शास्त्राभ्यास करने लगे। एक दिन की बात है कि बालमुनि स्थविरों के साथ स्थंडील गए थे। अन्य मुनि दूर अन्दर झाड़ियों में छुपकर अपनी शंका निवारण कर रहे थे, तब बालमुनि अईमुत्ता निपट चुके थे। वे नदी के किनारे पर खेल रहे बच्चों को एकटक दृष्टि से देख रहे थे। मेघवृष्टि के कारण गड्ढों में पानी भर गया था। वहाँ बच्चे कागज की नाव तिराने का खेल खेल रहे थे। बालमुनि का मन हाथ में न रहा और उन्होंने अपने पात्र को पानी में छोड़ दिया- 'यह मेरी नौका पानी में तैर रही है।' इतना बोलकर वे हर्ष से नाच उठे। इतने में स्थविर मुनि वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अईमुत्ता मुनि को पानी में नाव चलाते देखा और बोल उठे- 'अरे अईमुत्ता...। तुम यह क्या कर रहे हो? तुम साधु होकर अप्काय (पानी) के जीवों की हिंसा कर रहे हो। असंख्य जीवों का नाश कर तुमने घोरातिघोर पाप बान्ध लिया है। चलो भगवान् के पास चलकर तुम्हारे पापों के प्रायश्चित का प्रतिक्रमण करो।' . बालमुनि चौंक उठे स्थविर मुनियों की बात सुनकर, क्योंकि वे पापभीरू थे। पाप हो गया तो घबरा गए, उफ...। मैंने पानी के जीवों की विराधना कर दी। भयंकर पाप किया है आज मैंने। अब मेरा क्या होगा? प्रमादवश हो गए पाप का पूरे रास्ते चलते-चलते पश्चाताप करते हुए बालमुनि भगवान् महावीर के पास आए। स्थविर मुनियों ने कहा'चलो अपने पापों का प्रतिक्रमण कर लो।' बालमुनि अईमुत्ता अपने पापों का प्रतिक्रमण करने लगे। 'इरियावहियं सूत्र' लघु प्रतिक्रमण कहलाता है। इस सूत्र के द्वारा जीवों के साथ क्षमापना की जाती है। अईमुत्ता मुनि इरियावहियं करने लगे। इरियावहियं बोलते बोलते 'पणगदग' यानि पानी के जीवों की विराधना की, शब्द आते ही अईमुत्ता मुनि धुज उठे! आगे बढ़ने के बजाय वे उन्हीं शब्दों का बारम्बार उच्चारण करने लगे, पणग-दग पणग...दग पणग...दग एवं अर्थ की विचारधारा- 'अहो अप्काय के जीवों की विराधना द्वारा आज मुझे कितना पाप लगा?' आँखों में आँसू आ गए। जीव विराधना खटकने लगी। ___ अईमुत्ता मुनि पापों का प्रायश्चित कर रहे थे। पणग...दग... का उच्चारण एवं अर्थ की विचारणा एवं अन्तःकरण पूर्वक का पश्चाताप होने से कर्मों का निकन्दन निकलने 108 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण लगा। शुभ ध्यान में आरूढ़ हो गये, घनघाती कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया बालमुनि अईमुत्ता ने। स्थविर मुनियों ने बालमुनि से कहा- 'चलो पर्षदा मैं बैठ कर प्रभु की देशना श्रवण करें।' बालमुनि अईमुत्ता स्थविर मुनियों के साथ चल पड़े। जैसे ही वे केवली भगवन्तों की पर्षदा के पास पहुँचे, अईमुत्ता मुनि उधर मुड़ गये। यह देख कर स्थविर मुनियों ने कहा- 'अरे बालमुनि! तुम उधर चलो। क्या तुम्हें मालुम नहीं कि वह केवली पर्षदा है।' तब भगवान् महावीर ने फरमाया- 'मुनियों! केवली की आशातना मत करो!' स्थविर मुनि यह सुनकर चौंक पड़े! क्या फरमा रहे हैं भगवान्! क्या अईमुत्ता को केवलज्ञान हो गया? ___ परमात्मा ने फरमाया- 'हाँ, पापों का प्रायश्चित करते-करते अईमुत्ता मुनि को केवलज्ञान हो गया है। अब वे केवली हैं, इसलिए इसी पर्षदा में बैठेंगे।' कर्मरूपीकलंक से मुक्ति सिद्ध भगवन्त कर्म कलंक से रहित होते हैं। इसलिए स्फटिक के समान अत्यन्त निर्मल बने हुए हैं। श्रद्धालुजन को जगत् की ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करने वाले कर्म, कलंक रूप में प्रकाशित होते है। कर्म कलंक को दूर करने वाले जीव ही निश्चित रूप से महावीर और विक्रमशाली होते हैं। क्योंकि कर्मों का अहिंसा, संयम और तप से सर्वनाश करने का - कार्य ही अत्यन्त कठिन है। सर्वपीड़ासे रहित सर्व पीड़ा, विन, कष्ट इत्यादि सर्वथा नाश हो जाने से श्री सिद्ध भगवन्त सर्वथा बाधारहित बने हुए हैं। ये सभी प्रकार की ऊँची नीची विषमता, स्वरूप-हानि, विभाव आदि से परे हैं अर्थात् 1. सिद्ध भगवान् शरीर, कर्म आदि से एकदम रहित होने से उनको मान-अपमान, यश-अपयश, शाता-अशाता, इष्ट-अनिष्ट आदि विषमता नहीं हैं। 2. निज का अनन्त ज्ञान-सुखादि मय स्वरूप पूर्णतः खिला हुआ होता है। इसमें स्वरूप हानि नहीं हैं। 3. राग-द्वेष-अज्ञान-हास्य-भय-दीनता-मद-माया-काम-क्रोध इत्यादि विभाव अर्थात् पराधीन भाव भी नहीं हैं। मैं ऐसे सिद्ध प्रभु की मैं शरण में जाता हूँ। इस प्रकार समझकर कि 'कर्म है तभी For Perso109 Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला तक ही बाधा और विषमता है । निर्बाध स्थिति के लिए निष्कर्म स्थिति चाहिए। सभी लोगों अच्छा तो कर्म से ही आकुल व्याकुल होकर कर्मों का अन्त से आकुल-व्याकुल होने से करने का प्रयत्न करूँ। केवलज्ञान दर्शन से युक्त उत्तम केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान) और केवलदर्शन को धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। क्योंकि ज्ञान-दर्शन तो आत्मा का स्वभाव ही है । इसलिए तो वे चेतन हैं अन्यथा इनका चैतन्य क्या है? यह ज्ञान अर्थात् ज्ञेय मात्र को जानते हैं। तीन काल के समस्त भाव ज्ञेय हैं तो फिर तद्न आवरण रहित बने हुए ज्ञान जगत् के सभी भावों को कैसे नहीं जानेगा? जगत् के सभी भावों को तटस्थ रूप से ( राग-द्वेष के बिना) देखना व जानने की कैसी सुन्दर रमणता। मुझे भी कब शुद्ध ज्ञानदशा की प्राप्ति होगी । . सिद्धपुर के वासी चार शरण मिथ्या मतों की मान्यता की तरह यह जगत्-व्यापी नहीं हैं, परन्तु लोक के अन्त में सिद्धशिला के ऊपर निवृत्ति नगरी के निवासी बने हुए हैं। अनुपम सुख सम्पन्न सिद्ध भगवंत अनुपम स्वाधीन सुख से परिपूर्ण हैं। कोई विषय, कोई काल, कोई संयोग या कोई भी परिस्थिति की इस अनन्तसुख को अपेक्षा नहीं हैं, ऐसे असांयोगिक, नित्य, सहज, आनन्द के भोक्ता श्री सिद्ध प्रभु है । अहो ! हमारे सापेक्ष सुख की तुच्छता, क्षणिकता, दुःखपरिणामितादि कहाँ है ?, और कहाँ ये निरपेक्ष अनन्त आनन्द की बात ? अनन्त आनन्द पाने के लिए हमें अनन्त आनन्दमय श्री सिद्ध प्रभु की शरण है। करकंडु राजा ने पहले पुष्ट शरीर वाले बैल को, बाद में जीर्ण शरीर वाले बैल को देखकर विचार किया कि, 'अरे! बाद में हमारी भी यही स्थिति बनने वाली है। संसार का सुख कहाँ नित्य रहने वाला है? जवानी, सम्पत्ति और आरोग्य के सापेक्ष ये सुख क्या पड़े रहने हैं? क्योंकि जवानी इत्यादि नश्वर होंगे तत्सापेक्ष सुख भी नश्वर है। सच्चा सुख तो सिद्धावस्था में है। इसके लिए उद्यम नहीं करूँ ?' ऐसा विचार करके उन्होंने सिद्ध शरण रूप चारित्र अंगिकार किया। प्रवृत्ति मात्र का आयोजन इष्ट की सिद्धि है, और जीव का इष्ट एकांत सुख है। सर्वथा कृतकृत्य हैं सिद्ध भगवंत् सर्व प्रकार से कृतकृत्य हैं। सिद्ध प्रयोजन वाले बने हैं। अब इनको For Persor 110 Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कोई प्रयोजन शेष नहीं है। इसलिए कोई भी प्रवृत्ति साधने की जरूरत नहीं है। ऐसे सिद्ध भगवन्त श्रेष्ठ मोक्षतत्त्व रूप हैं। __ जगत् में तत्त्व दो हैं- जड़ और जीवा जड़ से भी जीव तत्त्व उत्तम है। क्योंकि इस विश्व में कोई भी जड़ कभी भी शाश्वत् शुद्ध बन नहीं सकता है, जबकि जीव एकदम शुद्ध बन सकता है, जिससे पुनः अशुद्ध कभी भी नहीं होगा। दूसरी बात, जीव तत्त्व में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त जीव दूसरे जीवों से ज्यादा श्रेष्ठ हैं, क्योंकि ये सर्वथा कर्म-कलंक से रहित हैं। तीसरी बात तत्त्व में अंतिम साध्य मोक्ष तत्त्व है। इन्हें साधने के पश्चात् कुछ भी साधने की जरूरत नहीं है। यही मोक्ष सिद्ध स्वरूप है। इसलिए ही सिद्ध भगवन्त परम तत्त्व रूप हैं। इनसे ऊँचा या इनके समान दूसरा कोई तत्त्व नहीं है। ये ऐसे सम्पूर्ण कृतार्थ होते हैं कि इनको मोक्ष मिलने के पश्चात् दूसरा कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता है। अब इनको शरीर नहीं, भूख नहीं, प्यास नहीं, खुजाल नहीं, वेदना नहीं, इच्छा नहीं, अज्ञान नहीं; अब क्या करना बाकी रहा? इसलिए मुझे तो सिद्ध भगवान की ही शरण है, इन्हीं की सेवा करने योग्य है, इनका ही ध्यान करने योग्य है, प्राप्त करने योग्य है, स्तुति करने योग्य है। जिन्होंने अपने प्रबल पुरूषार्थ के द्वारा अपने सभी कर्मों को क्षय कर दिया एवं पुनः इस धरती पर जिनका आवागमन नहीं, जन्म-जरा-मरण रूपी तीन भयंकर रोग जिनके नष्ट हो गए, ऐसे सिद्ध भगवन्तों को हमारा कोटि-कोटि वन्दन। - कर्म आत्मा पर लगा हुआ कलंक है, इसलिए सासांरिक आत्मा कर्मों से कलंकित है। सिद्ध भगवन्तों के कर्म नहीं हैं, इसलिए सिद्ध भगवन्त अकलंकित होते हैं। अरिहंत भगवन्त के घाती कर्म चले गए और अघाती कर्म भी जाने वाले हैं, इसलिए अरिहंत परमात्मा भी अकंलकित ही कहलाते हैं। जन्म लेते ही यह सिद्ध हो जाता है कि हमारे कर्म बाकी हैं, कर्म हैं तभी जन्म होता है, दुःखों को भोगना पड़ता है। इस दुनियाँ में प्राणी अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी है। चाहे वह रोग हो या बुढ़ापा हो या कुटुम्ब परिवार की चिन्ता हो, इनसे सम्पूर्ण दुनियाँ के जीव दुःखी बने हुए हैं। मनुष्य जन्म प्राप्त करने के पश्चात् उसका एक ही लक्ष्य निश्चित हो जाना चाहिए की मुझे इन कर्मों को क्षय करना है। आराधना, साधना के द्वारा अशुभ कर्म दूर करना है। नये शुभ कर्मों के बन्ध पश्चात् शुद्धता को बढ़ाते हुए मोक्ष को प्राप्त करना है। जहाँ कर्म ही नहीं, वहाँ पीड़ा किस प्रकार की अर्थात् जिनकी सर्व-पीड़ा समाप्त हो चुकी है, वैसे सिद्धों का स्वरूप कैसा होगा? वे केवल ज्ञान व केवल दर्शन से युक्त हैं। मात्र 111 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण आत्मा के स्वाभाविक गुणों का आस्वादन लेते हैं, उसमें रमण करते हैं। दुःख चला गया है. और सम्पूर्ण सुख प्रकट हो गया है। केवलज्ञानी सर्वज्ञ बन गये। तीनों काल में ऐसा कोई भी समय नहीं है, जिस समय की वस्तु, घटना या पदार्थ को वे नहीं जानते हों। अर्थात् प्रत्येक ज्ञेय पदार्थ, जानने योग्य पदार्थ को जानते हैं, वे ही सर्वज्ञ हैं। सर्वज्ञता की प्राप्ति मूल्यवान वस्तु की प्राप्ति की तरह कठिन पुरूषार्थ से प्राप्त होती है। सिद्धपुर अर्थात् मोक्षा पैंतालीस लाख योजन प्रमाण की सिद्धशिला है जो 14 राजलोक में सबसे ऊपर, लोक के अन्त में स्थित है। उसके पश्चात् अलोकाकाश है। जब. कर्मों से आत्मा सम्पूर्ण मुक्त बनती है, उसी समय आत्मा सिद्धपुर पहुँच जाती है, आत्मा उससे आगे अलोक में नहीं जा सकती है। जिनको किसी भी उपमा से उपमित नहीं कर सकते हैं, न किसी के सुखों से बराबरी या तुलना की जा सकता है, विश्व के सम्पूर्ण जीवों के सुखों को एकत्रित करें तो वह मात्र काल का सुख हुआ। तीनों काल के सुख से भी अनन्त गुणा सुख सिद्ध परमात्मा को होता है। जिनके सर्व प्रयोजन पूर्ण होते हैं। इस संसार में कोई भी इच्छा या कार्य बाकि नहीं हैं, संसार की अनन्त भ्रमणा समाप्त हो गई है। सर्वथा कृतकृत्य हो गये, ऐसे सिद्ध भगवन्त की मुझे शरण हो। साधु भगवन्तों की शरण' हे मुनि भगवन्तों!!! आप प्रशांत और गंभीरता के महासागर हैं। . आप सर्व प्रकार की पापप्रवृत्तियों से दूर हैं। आप पंचाचार के पालने में समुद्यत हैं। आप सर्व जीवों पर परोपकार करने में मग्न हैं। आप संसार के कार्यों से अलिप्त हैं। आप संसार सरोवर में पद्मकमल जैसे निर्मल हैं। आप हमेशा के लिए ध्यान और स्वाध्याय में तत्पर हैं। आप सदैव दूसरों का भला करने के लिए विशुद्ध विचारों में रमण करने वाले हैं। हे हितकारी! हे उपकारी! हे परमोपकारी! हे साधु भगवंत! जीवन की अंतिम श्वास तक आप ही की मुझे शरण हो। 112 For Personal a Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला क्लेश कलह और कषायों से भरे इस संसार के अंधेरे में भटकता मैं सच्चे भावों आपकी शरण में आता हूँ! प्रशांत और गम्भीर आशय क्षमा नम्रता आदि गुणों को धारण करने वाले होने से इनके चित्त के परिणाम प्रशान्त हैं, उछलते नहीं हैं। उनमें भी क्षमा गुण को पहले लिया गया है। इसलिए ये क्षमाश्रमण कहलाते हैं, तुच्छ और क्षुद्र नहीं । तुच्छ स्वभाव, तुच्छ इच्छा व सोच इनकी नहीं है। सच्चे सुख का कितना सुन्दर साधन है । पामर प्राणी आवेश के वश होकर क्रोधी बनकर पहले स्वयं दुःखी होता है, साथ ही दूसरे को भी दुःखी करता है, और परिणाम से अनेक दुःखों को पुनः आमन्त्रण देता है। क्षमाशील मनुष्य आवेश को नष्टकर शान्त चित्त वाला बना, न कभी आन्तरिक रागादि क्लेश का भोग करने वाला बना हुआ, न कभी आन्तरिक रागादि क्लेश का भोग करने वाला बनता है और न ही दूसरों को बनाने वाला बनता है। वह तो स्व पर के कर्म के विचित्र नाटक को निहारता हुआ आपत्ति में भी सच्ची प्रसन्नता का अनुभव करता है। इसी प्रकार अवसर आने पर दूसरों को भी धार्मिक और प्रशांत बनाता है। यशोधर चारित्र में एक प्रसंग आता है चार शरण सुदत्त मुनीश्वर नगर के बाहर ध्यान में खड़े हैं। राजा शिकार के लिए निकला हुआ है, उसी जंगल में मुनि को देखकर अपशकुन मानकर उनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़ देता है । परन्तु कुत्ते प्रशांत मुनि के नजदीक पहुँचते ही उनके तप संयम के प्रभाव से आकर्षित होकर, शांत होकर वहीं खड़े रह जाते हैं। राजा खूब क्षोभ को प्राप्त करता है। वहाँ उपस्थित एक श्रावक द्वारा बतलाने पर समझ में आया कि ये तो पहले एक बड़े राजकुमार थे, अब महात्यागी साधु तपस्वी बने हुए हैं। जानकारी प्राप्त होते ही राजा को पश्चात्ताप होता है कि मैं एक कुत्ते से भी गया गुजरा हूँ। राजा, मुनि के पास जाकर क्षमा मांगते हैं । प्रशान्त मुनीश्वर थोड़ा-सा भी क्रोध अथवा अरूचि दिखाए बिना आत्म हितोपदेश, धर्मोपदेश देकर राजा को महान् धर्मात्मा बनाते हैं। मुनि इसी प्रकार गंभीर आशय वाले होते हैं। वे चित्त की गंभीरता को लेकर • अकार्य होने से बचाकर मृदुभाव को टिकाकर रखते हैं। वहाँ अहंभाव और गर्व के आवेग कहाँ से खड़े हो सकते हैं? जगत् की कर्मजनित विचित्र घटनाएं सागर सम गंभीर चित्त को नहीं हिला सकती हैं, विस्मययुक्त नहीं बना सकती हैं। तुच्छ विचारादि में कमजोर नहीं बना सकती हैं । किन्तु, इससे विपरीत ये घटनाएँ तो ऐसे गम्भीर चित्त में शांतरूप में समाकर तात्त्विक विचारों को गति देती हैं और आत्मा को ज्यादा ओजस्वी तेजस्वी बनाती 113 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण हैं। जिससे आत्मा में कषाय की इच्छा परिणति या विषय की तुच्छ विचारणा उत्पन्न नहीं होती है। सर्व पापवृत्तियों से दूर 'साधु भगवन्त सावद्य योग से विराम प्राप्त हुए हैं, निवृत्त हो गये हैं। सावद्य अर्थात् पाप, पाप वाली मन-वचन काया की प्रवृत्ति। यह सावद्य व्यापार करने रूप, करवाने रूप और कोई कार्य करते हों तो उसमें अनुमति अनुमोदना रूप; ऐसे तीन प्रकार के होते हैं। सावद्य व्यापार सांसारिक कथा करने वाला है; घर, कुटुम्ब और आरम्भ परिग्रह, एक रामायण रूप है। इससे साधु भगवन्त सर्वथा निवृत्त हैं, अर्थात् पट्काय जीव के संहारमय अथवा परिग्रहादि का मोह मूढ़तामय हिंसादि पाप व्यापार अब न ही तो वे स्वयं करते हैं, न ही दूसरों के से करवाते हैं। इतना ही नहीं, दूसरे करते हों तो उसमें खुश होना या सम्मति देना भी पसन्द नहीं करते हैं। उनके पास से अपने सावद्य कार्य में सम्मति की आशा भी नहीं रख सकते हैं तो हमें उनके द्वारा करवाने की बात ही कहाँ आती है। यहाँ एक दृष्टांत का उल्लेख किया जा रहा है ये आचार्य भगवंत नगर के बाहर पधार चुके थे। कुमारपाल राजा के मंत्री हवेली में पधारने के लिए आचार्य श्री से विनती करते हैं। आचार्य महाराज के आगमन के पश्चात् मंत्रीश्वर कहते हैं, 'महाराज साहेब जी ! यह हवेली अभी नई तैयार की गई है।' आचार्य श्री मौन रहे । पुनः मंत्री जी ने पूछा- 'क्यों, आपने कुछ कहा नहीं ?' साथ में स्थित अन्य मुनिजन मंत्री को जागृत करते हुए कहते हैं- 'मंत्री जी ! तुमको पाप के सावद्य कार्य में साधु भगवन्तों की सम्मति चाहिए, पर नहीं मिलेगी। सम्मति तो धर्मकार्य में ही मिलेगी । ' मंत्री जी तुरन्त समझ गये और कहते हैं- 'लीजिए आज से यह हवेली पौषधशाला के लिए सौंपता हूँ। ' अब आचार्य श्री कहते हैं- 'इसमें धर्म-आराधना - साधना सुन्दर रूप से प्रवर्तमान होगी।' आचार्यदेव ने सम्मति प्रदान की, पर कहाँ ? धर्म कार्य में सम्मति दी। इस प्रकार मन-वचन-काया के द्वारा होने वाले पापों से सर्वथा निवृत होकर साधु शुभ प्रवृत्ति का पालन करने वाले होते हैं। इसलिए कहा गया है- 'पंचविहायार जाणगा ! ' 114 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला पंचाचार पालक ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार; इन पाँच प्रकार के पवित्र आचार के सम्यक्ज्ञाता अर्थात् ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा वाले अर्थात् जानने वाले और पालन करने वाले होते हैं। इसमें इनको सम्यक्शास्त्रज्ञान, सम्यग्दर्शन, पंचमहाव्रतमय सम्यक्-चारित्र, बाह्य - आभ्यन्तर तप, इन चारों में प्रबल वीर्योत्साह पोषक, समर्थक, वर्धक विविध आचारों का ही पालन करने वाले होते हैं। ऐसे सुन्दर आत्मोपकारी और पर को लेशमात्र भी पीड़ा नहीं देने वाले स्वयं जीवन जीने के उपरान्त वे महर्षि परोपकार में भी लीन होते हैं । अवसर मिलने पर भव्य जीवों को मात्र पवित्र निष्पाप जीवन जीने का उपदेश देकर दोषत्याग और गुणप्राप्ति में उत्साहित करते हैं। योग्य जीवों को साधुता का पालन करवाकर घर का उत्तम उपकार करने वाले मुनिराज ही हैं। 1. इनका उपकार स्वयं के लिए एवं दूसरों के लिए एकान्तिक रूप से है, अपकार लेशमात्र भी नहीं हैं। केवल शुद्ध उपकार है। चार शरण 2. वह उपकार आत्यंतिक अर्थात् अंतिम है, जिस उपकार के पश्चात् दूसरे उपकार की अपेक्षा ही नहीं रहे। क्योंकि जीव इस दोषत्याग और गुणपालन के उपकार से अन्त में अनन्त शाश्वत् सुख प्राप्त करके हमेशा के लिए कृतकृत्य बनेंगे, ऐसा इनका उपकार है। नास्तिक प्रदेशी राजा ने क्या किया, इसका दृष्टान्त यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - प्रदेशी राजा की कथा श्वेताम्बी नामक नगरी में प्रदेशी राजा राज्य करता था। वैसे तो राजा न्यायीप्रजापालक एवं शूरवीर था, किन्तु था वह नास्तिक । उसे किसी भी धर्म पर श्रद्धा नहीं थी । उसकी पटरानी का नाम सूर्यकान्ता था। सूर्यकांता विलासी एवं व्यभिचारिणी थी। परपुरुषों • में आसक्त रानी प्रदेशी राजा को हमेशा ठगती रहती थी। राजा के मंत्री का नाम चित्रसारथी था। मंत्री परोपकार परायण एवं आस्तिक था। वह पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा के केशीकुमार नामक श्रमण का परमभक्त भी था। एक - बार महाश्रमण केशीकुमार श्वेताम्बी नगरी में पधारे, तब परोपकार परायण मंत्री चित्रसारथी ने मन ही मन सोचा, किसी बहाने राजा को गुरुदेव के पास ले जाऊँ ताकि राजा आस्तिक बन सके। एक दिन मंत्री चित्रसारथी घूमने के बहाने राजा को उस जगह ले आया, जहाँ 115 For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण केशीकुमार विराजमान थे। राजा ने जब मुनि को देखा तो उसके मन में गर्व आ गया। उसने महामुनि केशीकुमार को हाथ तक न जोड़े। बल्कि गर्व सहित बोला- 'हे मुनि। तुम वृथा कष्ट क्यों सहन करते हो? इस दुनिया में धर्म नाम की कोई वस्तु है ही नहीं । ' केशीस्वामी बोले- 'तुम किस आधार पर यह कह रहे हो ?' राजा ने कहा- 'मेरी माता धर्मनिष्ठ थी। उसके मृत्यु के समय मैने उससे कहा था कि यदि धर्म के प्रभाव से तू स्वर्ग में जाए तो मुझे वहाँ के सुखों के बारे में बताना । मेरे पिता जी नास्तिक थे। उनकी मृत्यु के समय मैने उनसे कहा था कि यदि अधर्म से नरक की प्राप्ति हो तो आप मुझे आकर बताना । किन्तु आज तक न माता आई, न पिता आए। अतः मैने निर्णय किया कि न तो स्वर्ग है और न नरक । स्वर्ग और नरक की बातें आकाश पुष्प की तरह मात्र काल्पनिक हैं। ' · राजा प्रदेशी की बात श्रवणकर महाश्रमण केशीकुमार ने धीर, वीर, गंभीर वाणी से कहा- 'राजन् ! तुम्हारा निर्णय अज्ञानता पूर्ण है। यह वास्तविक सत्य है कि तुम्हारी माता श्राविका धर्म का पालनकर स्वर्ग में गई हैं एवं तुम्हारे पिता जी नास्तिक होने के कारण अधर्म करके नरक में गए हैं। ' केशीस्वामी ने दृढ़ता के साथ अपनी बात प्रस्तुत करते हुए कहा- 'तुम्हारी माता तुम्हारे पास स्वर्ग के सुखों का बयान करने नहीं आई, इसका कारण वहाँ के अत्यधिक सुख हैं। देवलोक में व्यक्ति सुखासन्न होने के कारण वह अपने वचन का पालन करने में कायर बन जाते हैं एवं तुम्हारे पिता जी नरक से तुम्हें वहाँ के दुःखों के बारे में बताने नहीं आए। इसमें उनकी पराधीनता कारणभूत है । नरक का कोई भी जीव कदापि नरकागारों से बाहर नहीं जा सकता है। ' केशीस्वामी की बात श्रवण कर उत्तेजित हो राजा प्रदेशी ने नया प्रश्न खड़ा करते हुए कहा- 'आत्मा जैसी कोई वस्तु जब संसार में नहीं है तो यह परलोक कहाँ से आया ?' महाश्रमण ने पूछा- 'तुम किस आधार पर कहते हो कि आत्मा नहीं हैं ? ' 'मुनिवर ! इसके लिए मैने कई प्रयोग किए जैसे, किसी चोर को जब मृत्युदण्ड दिया गया, तब उसकी देह के तिल बराबर टुकड़े-टुकड़े करके मैने देखे तो भी मुझे आत्मा दिखाई नहीं दी | यदि आत्मा होती तो अवश्य दिखाई देती ?' प्रदेशी राजा बोला | केशीकुमार ने कहा- 'राजन् ! यह सोचना अज्ञानता भरा है । मैं तुमसे ही पूछता हूँ कि अरणी काष्ठ में अग्नि है या नहीं ?" 116 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण 'है।' -राजा बोला 'तो उसके टुकड़े-टुकड़े करके तुम मुझे अग्नि दिखा सकते हो?' -केशी स्वामी ने पूछा। ___ राजा क्षण भर के लिए सोच में पड़ गया। केशी स्वामी बोले- 'राजन! अरणी काष्ठ के टुकड़े करने पर अग्नि दिखाई भले न देती हो, किंतु इससे ऐसा निर्णय करना कि उसमें अग्नि नहीं है, यह तो मात्र अज्ञानताजनित बात है। दूध में घी नहीं दिखाई देता, इससे क्या यह मानेंगे कि दूध में घी नहीं है?' प्रदेशी राजा का गर्व खण्डित होने लगा। आज प्रथम बार कोई उसे निरुत्तर कर रहा था। फिर भी उसने हार न मानते हुए प्रश्न किया- 'यदि आत्मा है तो जीवित या मृत व्यक्ति के भार में अंतर क्यों नहीं होता?' केशी कुमार ने सहजता से प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'लुहार की धमणी में हवा भरने के बाद एवं हवा रहित धमणी के वजन में कोई फर्क नहीं होता है, ठीक वैसे ही देह में आत्मा होने पर एवं न होने पर वजन में फर्क नहीं पड़ता है।' प्रदेशी राजा का मन स्वच्छ होने लगा था। उसने अन्तिम प्रश्न करते हुए कहा'प्रभु! मैंने एक अपराधी को वायुरोधी (एयर टाइट) कोठरी में बंद करवा दिया था। उससे वह मर गया एवं उसके मृतदेह में हजारों कीड़े पैदा हो गये। सवाल यह है कि वायुरोधी कोठरी में से आत्मा बाहर कैसे निकली एवं हजारों कीड़ों की आत्मा ने अन्दर प्रवेश कैसे किया?' .: 'इसमें क्या आश्चर्य है राजन्...? जहाँ अज्ञानता होती है वहीं आश्चर्य होता है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि वायुरोधी कोठरी में बैठकर यदि शंख बजाया जाए तो उसकी आवाज बाहर आएगी या नहीं?' '. 'आवाज तो आएगी ही।' - ''जब कोठी में कोई छिद्र नहीं था तो आवाज बाहर कैसे आएगी? और यदि आवाज बाहर आ सकती है तो आत्मा बाहर क्यों नहीं आ सकती है?' केशी कुमार ने राजा को समझाते हुए कहा- 'राजन्! आत्मा है किन्तु वह अरूपी होने से प्रत्यक्ष भले नहीं दिखाई देती हो, किन्तु प्रमाणों से वह सिद्ध होती है।' ... राजा प्रदेशी निरुत्तर हो गया। उसने केशी कुमार मुनि के चरण पकड़ लिए'प्रभु... आपने मुझे संसार-सागर में डूबने से बचा लिया, अन्यथा में भवसागर में डूब 117 For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला जाता। ' प्रदेशी राजा उस दिन से आस्तिक बन गया। उसने धर्म को स्वीकार कर लिया। अब वह परम उपासक बन साधनामग्न रहने लगा। पर्व के दिनों में पौषध भी करने लगा । यही उपकारी गुरु का उपकार है। परोपकार में मग्न साधु भगवन्त 'पउमाई निदंसणा' कमल उपमा वाले हैं। जैसे कीचड़ में उत्पन्न और जल में निवास होने पर भी कमल, इन दोनों को स्पर्श किए बिना ऊँचा रहता है, वैसेही साधु भगवन्त काम-भोग से उत्पन्न हुए और भोग से पले हुए होने पर भी, काम-भोग दोनों का स्पर्श किए बिना निर्वासनामय योगी जीवन जीते हैं। ऐसे ही स्वरूप से निर्मल, उपशम, स्वच्छ, करुणा से मधुर और तृप्ति गांभीर्य से भरे हुए हृदय वाले साधु भगवन्त भी पवित्र, दयालु, गंभीर और शान्त होते हैं। इनका सत्संग शीतल और अनन्त गुण वाला होता है। ऐसे महर्षियों की शरण स्वीकार कर 'कब मैं भी कमल - दृष्टान्त जैसा जीवन जीऊँगा?' अर्थात् संसार के कार्यों से अलिप्त कब होऊँगा, ऐसी भावना भावित करें। . ऐसे मुनिराज काम भोग की गंदी वृत्ति प्रवृत्ति मात्र से अलग रहकर झाणज्झयणसंगया अर्थात् ध्यान और अध्ययन में लीन रहते हैं। ध्यान व स्वाध्याय में तत्पर ‘ध्यानसंग' अर्थात् (1) धर्मध्यान - 1. जिनाज्ञा की अतिनिपुणतादि । 2. रागद्वेषादि आश्रवों का अपाय अनर्थ। 3. ज्ञानावरणीयादि कर्मों का विपाक । 4. लोक संस्थान स्थिति। इन विषयों पर ध्यान अथवा शुक्ल ध्यान यानि द्रव्य-पर्याय के साथ एक विषय पर ध्यान वाले होते हैं। चार शरण (2) महाव्रत की पच्चीस भावना, मैत्री आदि चार भावना, अनित्यादि बारह शुभ भावना के साथ, किसी भी भावना के एक विषय पर एक प्रशस्त एकाग्र विचारधारा जहाँ दूसरे-तीसरे विचारों का व्याक्षेप नहीं, ऐसे ध्यान वाले हैं। (3) समस्त क्रिया मार्ग में एकाग्र शुभ चित्त रूप ध्यान वाले हैं। 'अध्ययनसंग' अर्थात् ज्ञानयोग, सम्यक् शास्त्रों की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा; इन पाँचों का आत्मलक्षी सतत् अभ्यास कर इन्हीं में लीन रहते हैं। जीवन में अध्ययन और ध्यान की ही मुख्य प्रवृत्ति मुक्ति का आस्वाद कराते हैं। 118 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण विशुद्ध विचारों में रमणता ऐसे साधु भगवन्त 'विसुज्झमाणभावा' शास्त्र में कहे अनुसार समिति-गुप्तिस्वाध्याय-आवश्यक इत्यादि अनुष्ठानों से आत्मा के भावों को उत्तरोतर विशुद्ध करने वाले होते हैं। जिस प्रकार हिंसा, झूठ, जुआ, निंदा, परिग्रह, विषय-सेवन आदि क्रिया से हृदय के भाव क्रूर, निष्ठुर, मायावी आदि बन जाते हैं, उसी प्रकार इन समिति, गुप्ति, शास्त्राध्ययन, प्रतिक्रमण-पडिलेहण आदि क्रियाओं से भाव शुद्ध व शुद्धत्तर बनते हैं। यह सहज है। अहो! मानव भव की ये कैसी सुन्दर सफलता। सच ही है- अनन्तकाल से चले आ रहे काम, क्रोध, लोभ (मद, मत्सर, हास्य, शोक, रति, अरति) इत्यादि मलिन भावों से अत्यन्त दूषित हुई आत्मा का संशोधन-विशुद्धिकरण श्री जिनाज्ञाकथित प्रशस्त वृत्ति और प्रवृत्तियों का त्रिकरण योग के पालनरूप जल से होता है। यदि मलिन भावों का नाश और प्रतिपक्षी ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि विशुद्ध भावों को आत्मसात् करने की बात यहाँ नहीं करेंगे, तो फिर दूसरे भव में क्या कर सकेंगे? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप से मात्र मुक्ति मार्ग को साधने वाले होने से वे साधु कहलाते हैं। आपका मुझे जीवन-पर्यन्त शरण हो, आश्रयभूत हो; ऐसे महान् आत्माओं के शरण में जाने वाले हृदय का परिवर्तन इतना तो जरूर होता है कि आदर्श-जीवन जीने की पद्धति तथा वस्तु लाभ-अलाभ का लेखा-जोखा, भय-निर्भयता की गिनती इत्यादि जगत् से तो विलक्षण भाव ही इन महात्माओं को होते हैं। इनका अनुसरण करना चाहिए। तीसरे शरण में विशेषण युक्त साधु भगवन्तों की शरण को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि वर्तमान काल में सच्चे गुरु भगवन्तों का प्राप्त होना कठिन है। ज्ञानी गुरुजनों का मिलना दुर्लभ है। अतः उनकी प्राप्ति के लिए गुरुजनों की परीक्षा की जाए, यह उचित नहीं है, बल्कि उनकी प्राप्ति के लिए वीतराग भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए। "प्रार्थना सूत्र' में मोक्षमार्ग के लिए अत्यंत उपयोगी भवनिर्वेद आदि आठ वस्तुओं की भगवान से माँग की गई है। यह प्रार्थना मन की एकाग्रता और दृढ़ निश्चय के साथ करनी होती है, हमें क्या मांगना है? किससे मांगना है? और याचक के रूप में हमें कैसा होना चाहिए, इसका भी विवेक होना चाहिए। साधक विचार करता है 'सर्वगुणों के धारक, सर्व सुख के कारक ये ही परमात्मा हैं, इसलिए वास्तविक सुख के साधन भी मुझे वहीं से मिलेंगे।' ऐसे बहुमानपूर्वक साधक परमात्मा से प्रार्थना करता है 1. भव का निर्वेद-संसार से अरुचि 2. मोक्षमार्ग का अनुसरण 3. इष्टफल की सिद्धि 4. लोक अव्यवहार का त्याग 119 For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला . गुरुजनों की पूजा 5. चार शरण 6. परोपकार का अनुकरण 8. सुगुरु के वचनों का सदैव पालन | 7. सुगुरु का योग हे भगवान! आपके प्रभाव से मुझे भव-निर्वेद आदि गुणों की प्राप्ति हो । भव-निर्वेद आदि जिन आठ वस्तुओं की प्रार्थना करनी है, वे मुख्यतया आंतरिक भाव हैं। हे भगवान! आप गुणों के भण्डार, करूणा के सागर हैं, अचिंत्य शक्ति से युक्त हैं, इसलिए हे प्रभु! आपके प्रभाव से मुझे भव-निर्वेद आदि की प्राप्ति अवश्य होगी, ऐसा मुझे विश्वास है। ऐसे दृढ़ विश्वास और श्रद्धापूर्वक साधक प्रार्थना करता है। हे भगवान । मुझे सुखी होना है। सच्चा सुख मोक्ष में है । मोक्षमार्ग पर चलने के लिए गुणों की प्राप्ति अनिवार्य है, इसलिए मोक्ष के लिए जरूरी गुणों की प्रगति के लिए मैं सहृदय प्रार्थना करता हूँ। हृदयपूर्वक की गई मेरी इस प्रार्थना को आप सुनें और हे कृपानिधान! कृपा करके मुझे इन गुणों का दान करें। संसार के प्रति अरुचि हे नाथ! मुझ पर कृपा करें और विषय कषाय से भरे इस संसार पर मुझे उद्वेग पैदा करवाएँ जिससे मैं मोक्ष और उसके अनन्त सुखों के लिए कुछ यत्न कर सकूँ। जब तक इस संसार का मेरा राग कम नहीं होगा, उसकी आसक्ति कम नहीं होगी, तब तक मुझे धर्म में रस नहीं पड़ेगा, उसमें रुचि नहीं बढ़ेगी और मेरे कर्म का अन्त नहीं आएगा। इसलिए हे प्रभु | सबसे पहले आप मुझे भव का वैराग्य प्राप्त करवाएँ, जिससे वास्तविक अर्थ में मैं धर्म का आरंभ कर सकूँ। मोक्ष मार्ग का अनुसरण करना हे नाथ! अनादिकाल से मेरा जो कुमार्ग-गमन है, अनादिकाल की जो मेरी टेढ़ी चाल है, उसे रोक कर आप मुझे मोक्षमार्ग की ओर गमन करवाएँ। आप मेरी वृत्ति और प्रवृत्ति को मोक्षमार्ग की ओर मोड़ें। प्रभु! मैंने धर्म तो बहुत बार किया है, परन्तु वह भी इस लोक या परलोक के सुख के लिए ही । तप-त्याग भी बहुत किया है, परन्तु वह भी मानादि कषाय के लिए; परंतु धर्म करके मुझे कषायों का त्याग करना है, मुझे आत्मा का आनन्द प्राप्त करना है, ऐसी भावना से मैने कभी धर्म नहीं किया होगा । इसलिए हे विभु ! सबसे पहले मुझे आप आत्माभिमुख बनाएँ । आत्मा के आनन्द के लिए तप त्याग में प्रयत्न करवाएँ तो ही मुझमें मार्गानुसारिता नाम का गुण प्रकट होगा। 120 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण 'मनोवांछित फल की प्राप्ति हे नाथ! मैं पामर हूँ, जिससे संयम स्वीकार नहीं कर सकता और संसार में संपत्ति या स्त्री आदि के बिना भी नहीं चलता, इसलिए दुर्भाग्यवश कमाने तो जाना ही पड़ता है। धनादि भी भाग्यानुसार ही मिलने वाले हैं। तो भी हे नाथ! आप की कृपा से संपत्ति ऐसी मिले, जिससे कि धर्म साधना में कोई अवरोध न आए। हे नाथ! आपकी कृपा से न्याय-नीतिपूर्वक उतना धन मिले कि जिससे मैं सामायिक आदि धर्मक्रिया स्वस्थ चित्त से कर सकूँ तथा दूसरे अनेक अनर्थ से बच सकूँ, जिससे मेरा मन मोक्षमार्ग से लेश मात्र भी न हटे। यह एक श्रावक की प्रार्थना है जो संयम अंगीकार नहीं कर सका हो। जिज्ञासा- वीतराग परमात्मा के पास रागवर्धक स्त्री, धन या निरोगी शरीर आदि की प्रार्थना करना क्या योग्य है? तृप्ति- सांसारिक सुख को भोगने और मौज करने के लिए स्त्री, धनादि को भगवान के पास मांगना योग्य नहीं है, परन्तु जिनको मोक्ष की साधना करनी है और ऐसा सत्व नहीं है कि सर्वसंग का त्याग कर सके, इस कारण जिसे संसार में रहना पड़ता है, उसे संसार चलाने के लिए धनादि की जरूरत पड़ती है। ये चीजें जब तक न मिलें, तब तक उनके अभाव में मन अस्वस्थ हो और जिसके कारण मन संक्लेश से घिरा रहता हो, आंधि-व्याधि, उपाधियों के कारण मन आर्त्त-रौद्रध्यान से ग्रस्त हो जाता हो, तब ऐसे साधकों द्वारा अपनी साधना को जीवंत रखने या आगे बढ़ाने के लिए तथा अशुभ ध्यान से बचने के लिए मात्र मन की स्वस्थता स्थिर करने की मांग की जाए तो वह अयोग्य नहीं है। लोक-विरुद्ध कात्याग हे नाथ! अनादिकालीन कुसंस्कारों के कारण मुझमें स्वयं तो शक्ति नहीं है कि इस निंदा आदि लोक-विरूद्ध कार्य से बच सकूँ, फिर भी हे परमात्मा! आपके प्रभाव से मुझमें ऐसा सामर्थ्य प्रकट हो, जिससे कि मैं लोक-विरूद्ध कार्य का त्याग कर सकूँ। गुरुजनों की पूजा ___ हे परमेश्वर! आपकी कृपा से मेरे मानादि कषाय नष्ट हों और मुझे गुरुजन की पूजा प्राप्त हो। परोपकार हे नाथ! अनादिकाल से आत्मा में स्थित यह स्वार्थ या संकुचित वृत्ति मुझे 121 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला - चार शरण परोपकार में उत्साहित नहीं होने देती, उदारता गुण को प्रकट नहीं होने देती। हे प्रभु! आप कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि आपकी कृपा से मेरी स्वार्थ-वृत्ति का विनाश हो और मैं परोपकार में रत बनूं। सद्गुरु कायोग हे वीतराग! आपके सामर्थ्य से मेरे पुण्य का उदय हो, जिससे मुझे सुगुरु की प्राप्ति हो। हे देवाधिदेव! आपके प्रभाव से मेरे मानादि कषाय बन्द हों। उनके प्रति मेरा नम्रता भरा विनयपूर्ण व्यवहार हो। उनके प्रति मेरी श्रद्धा और समर्पण का भाव दिनप्रतिदिन बढ़े। सुगुरु के वचनों का अनुसरण ___ हे नाथ! सद्गुरु मिलें, उनके वचन सुनने को मिलें, परन्तु ऐसी शक्ति नहीं कि उनका पूर्ण पालन कर सकूँ। इसलिए हे वीतरागा आपकी कृपा से मुझमें ऐसा बल प्रकट हो कि इन गुरु भगवन्तों के वचन की मैं पूर्ण उपासना कर सकूँ। उनकी हितशिक्षानुसार अपने जीवन को सुधार सकूँ। उनकी आज्ञा का पूर्ण पालन कर अपने मोहनीय आदि कर्मों का विनाश कर सकूँ। हे नाथ! ये आठ अमूल्य गुण मुझे मात्र इस भव में ही नहीं चाहिए बल्कि जब तक मेरा मोक्ष न हो, तब तक मुझे जितने भी भव करने पड़ें, उन सभी भवों में मुझे इन विशिष्ट आठ वस्तुओं की प्राप्ति हो। अब मेरा कोई भव ऐसा नहीं होना चाहिए कि जिससे मेरे पास ये आठ गुण न हों। .. इस प्रार्थना सूत्र द्वारा यही जानना समझना है कि गुरु के वचनों पर सच्ची श्रद्धा होनी चाहिए। गुरु के वचनों पर तर्क नहीं करना चाहिए। सच्ची श्रद्धा से गुरु वचन को स्वीकार करना एवं अखण्ड पालन करना चाहिए। यही सच्ची श्रद्धा सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करवा देती है। श्रद्धा के बिना ज्ञान शुष्क है, ज्ञान से भी श्रद्धा बलवान है; क्योंकि भीतर के राग-द्वेष के भावों की विशुद्धि तो गुरुजनों पर श्रद्धा रखने से ही होती है। ___ सदैव इन्हीं भावों से प्रभु के समक्ष प्रार्थना करनी है। प्रभु सुविशुद्ध हैं। अतः आपके समक्ष की गई प्रार्थना फलीभूत होकर रहेगी। परन्तु क्या हमें सच्ची प्रार्थना करनी आती है? अथवा मात्र गतानुगतिक प्रतिदिन की तरह बोलकर आ जाते हैं। अर्थ या भावों का ज्ञान न होने से प्रतिदिन की प्रार्थना समान हो जाती है। जबकि योगों की स्थिरता केवलज्ञान दिला सकती है। सूत्रों के प्रत्येक शब्द मन्त्राक्षर स्वरूप हैं। अनेक रहस्य समाहित हैं इनमें। अपने विचारों से भी ज्यादा अनेक गुणित लाभों से युक्त होते हैं। 122 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण प्रभु से हर समय प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे प्रभु! तेरी कृपा से सुगुरु का योग और उनके वचन को पालन करने का संबल प्राप्त हो।' मात्र एक भव ही नहीं, भवोभव इन्हीं की मांग करें। इस पंचम आरे में महागीतार्थ गुरु की हमें कृपा प्राप्त हुई। प्रत्यक्ष रूप से भले ही केवलज्ञानी परमात्मा प्राप्त नहीं हुए हों, परन्तु लोकप्रकाश सूत्र के रचयिता अपने सूत्रों में लिखते हैं कि- 'हमें प्रधान मंत्र की प्राप्ति हुई है। इस मन्त्र की प्राप्ति से ही यह सिद्ध हो रहा है कि गुरु का प्रत्येक वचन तीर्थ स्वरूप है। प्रत्येक वचन में द्वादशांगी का समावेश है। गुरु के वचन ही शास्त्र हैं। अत: मन को गुरु के चरण-कमलों में समर्पित करना चाहिए।' जो प्रत्येक परिस्थिति में चित्त को स्वस्थ बनाए रखते हैं; उत्तेजना-उद्वेग से रहित, हर्ष-शोक से रहित, प्रशांत व गंभीर उद्देश्य वाले होते हैं; सुख के प्रसंग अथवा दुःख के दिन में जिनके चेहरे की रेखा में जरा.भी अन्तर नजर नहीं आता है; पद की प्राप्ति पर हर्षोल्लास नहीं, अपयश की प्राप्ति पर खेद नहीं; ऐसे गुरु भगवंत को मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। हिंसा-झूठ-चोरी-मैथुन-परिग्रह-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-कलह-पैशून्यरतिअरति-परपरिवाद-माया-मृषावाद-मिथ्यात्वशल्य; इन अठारह पाप स्थानकों से जो विरम गये, रूक गये हैं। पवित्र जीवन व उच्च परिणाम वाले मुनि सावध पाप से दूर रहते हैं। साधु जीवन में जीवदया का पालन किया जाता है, इसलिए आत्मा पापभीरू बन जाती है। थोड़ी भी गलती से आत्मा को भय लगता है। अतः प्रायश्चित कर पुनः अपनी आत्मा विशुद्ध बना लेते हैं। . पंच महाव्रतों को स्वीकार करके मुनि सर्व पापों से विरत हो जाते हैं। गृहस्थ दिनभर के पापों का प्रायश्चित लें तो कितना होगा? ज्ञानी भगवन्त कहते हैं- दुनियाँ के सभी पर्वत स्वर्णमय हो जाएं, उन सभी पर्वतों को दान कर दिया जाए, तो भी उन पापों का प्रायश्चित पूर्ण नहीं होता है। मात्र एक समय का भोजन ग्रहण करते हैं तो उनमें कितने पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय आदि जीवों की हिंसा होती है। अतः इन पापों से बचना है तो एक मात्र उपाय चारित्र है। इतनी जानकारी हो जाने के पश्चात् भी जीव यदि चारित्र अंगीकार करके कष्टों को स्वीकार नहीं करेगा तो कर्मसत्ता किसी को भी नहीं छोड़ेगी। पापों का फल अनेक गुणा हमें भव-भव तक भुगतना ही पड़ेगा। परमात्मा महावीर के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में सेवक के कानों में गरम-गरम शीशा डलवाया था। सेवक को संगीत प्रिय लगा व कुछ 123 For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण देर आनन्द और ले लूँ, इतने मात्र के संगीत श्रवण सुख का फल इसी भव में सेवक को मिला। वासुदेव ने जो कर्म किया, वह अंतिम भव में प्रभु को मिला। पच्चीसवें भव में परमात्मा के जीव द्वारा ग्यारह लाख अस्सी हजार छः सौ पैंतालीस मासक्षमण की तपस्या करने पर भी कर्म समाप्त नहीं हुए। निकाचित बांधे गए कर्म अन्तिम भव में भी उदय में आए। ग्वाले ने परमात्मा के कानों में कीलें ठोंकी और उन्हें समता से परमात्मा ने सहन किया, तब वे कर्म समाप्त हुए। जिनशासन ही हमें आत्मोत्थान का सच्चा मार्ग बतलाता है। साधु भगवन्तों के पंचाचार को जानने एवं पालन करने को तत्पर बनें। ये निम्न प्रकार हैंज्ञानाचार - स्वयं पढ़ें, दूसरों को पढ़ायें व ज्ञान ज्ञानी की आराधना करें। दर्शनावार - साधु का विनय, भक्ति, वैय्यावच्च करें। चारित्राचार - चारित्र के आचार व क्रियाओं का पालन करें। तपाचार- छः बाह्य, छः आभ्यन्तर तप का पालन करें। वीर्याचार - शक्ति अनुसार आराधना में वीर्य और सत्व का उपयोग करें। साधु सदैव दूसरों को सहायता प्रदान करते हैं। भलाई करते हैं। संसार के सुखों में, पैसे कमाना, दुकान या फैक्टरी का मुहूर्त निकालना आदि में नहीं बल्कि मोक्ष मार्ग में . सहायता प्रदान करते हैं। संसार के सुख ज़हर के समान हैं। साधु ज़हर खिलाने में सहायता प्रदान नहीं करते हैं। पैसा कमाना पापों का बध करना है। साधु संसार क्रिया में नहीं, धर्म-क्रिया में सहायक बनता है। स्वयं निर्लिप्त कमलवत् जीवन जीते हैं, अन्य को भी उससे ऊपर उठने के लिए प्रेरणा प्रदान करते हैं। ज्ञान-ध्यान-अध्ययन में रत, एकाग्रचित्त होकर जीवन को शान्त-प्रशांत बनाते हैं। वे हर समय उच्च भावों में बढ़ने वाले होते हैं। वैयावच्च, भक्ति के भावों में मन को विशुद्ध बनाते हैं। इन्हीं साधु भगवन्तों का मुझे शरण प्राप्त हो। शास्त्र में मात्र शरण स्वीकार की ही बात नहीं कही गई है बल्कि किस प्रकार शरण स्वीकार करना, इसका भी व्यवस्थित वर्णन शास्त्रकारों ने किया है। सचमुच, उनका हम पर बहुत बड़ा उपकार है। प्रत्येक शरण को विशेषणों से विभूषित करके उनके गुणों से हमें परिचित कराया है। ये विशेषताएँ हमारे शुभ भावों में वृद्धि कराती हैं। सूत्रों में अनेक प्रकार की संपदा समाहित कर हमें एक साथ प्रदान किया है। अब उस संपदा को प्राप्त करने हेतु श्रम नहीं करना है, बल्कि उसका सही उपयोग करने मात्र का प्रयत्न जीवन में हमें करना होगा। मनुष्य भव प्राप्त हो गया, अब शुभ भावों को प्राप्त करना है, सुप्रणिधान करना है। 124 For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला साधु भगवन्त की शरण स्वीकार करके श्रावक को विचार करना है कि प्रतिदिन जितना अनाज पचाने की शक्ति रखते हैं, तो जीवन में जो कुछ जानते हैं अथवा सुनते हैं उन कटु सत्य को भी पचाने की शक्ति रखें। यह गंभीर गुण साधु जीवन से प्राप्त करें। सावद्य पाप व्यापार नहीं करना चाहिए, पर वर्तमान में जो करोड़ों रुपये कमा रहे तो उसे प्राप्त कर अनुमोदन न करें एवं करोड़ रुपये का नुकसान होने पर खेद न करें। धन के पीछे जीवन को व्यर्थ नहीं खोना है। मन वचन काया से पाप करना नहीं, करवाना नहीं, करते हुए का अनुमोदना नहीं करना । जैसे मुनि भगवन्तों ने पाप त्यागा है, वैसे मैं भी करूँ। साधु जीवन में सर्व सावद्य व्यापार का त्याग होता है । सामायिक में श्रावक दो घड़ी के लिए सावद्य व्यापार का त्याग करता है, किन्तु मुनि जीवन पर्यन्त सावद्य व्यापार को त्यागता है। साधु तीन करण व तीन योग से पापों को छोड़ता है। श्रावक दो करण व तीन योग से पाप त्याग करता है। सामायिक में रहता है पर घर, दुकान को मालिकी का त्याग नहीं करता है। अनुमोदना चलती रहती है। बैंक में रुपये का ब्याज आता रहता है। वस्तु की मालिकी का अनुमोदन चलते रहने से पाप का क्रम भी चलता है । सर्वविरति महान् साधना है। चार शरण गर्मी में ठण्डी हवा आती है तो हम अनुमोदना करने लग जाते हैं। अनुमोदना से वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। ऐसा हमारे परमात्मा ने बताया है। जिनशासन की बलिहारी है, जिसने हमें छोटे-बड़े पापों से बचने का उपाय बताया है। संघ की अभिवृद्धि के विषय में शिष्य ने गुरु से पूछा- 'भगवन्त ! सम्पूर्ण संघ अभिवृद्धि को कैसे प्राप्त करे ?' आचार्य श्री ने कोई योजना बनाकर नहीं बताई, बल्कि मात्र दो शब्दों में उत्तर दिया- 'पंचाचार का पालन करे'। आगे बढ़ने के लिए पांच आचारों का पालन करना चाहिए। स्वार्थ-परायणता को छोड़कर परोपकार परायण बनें । तीर्थंकर स्वयं परम उपकार की भावना भाते हैं। अत: हमें भी दूसरों से अपेक्षा की भावना रखे बिना परोपकार करना • चाहिए | जिनशासन में ऐसे भाग्यशाली भाई भी अनेक हैं जो किसी से अपेक्षा रखे बिना, वापस लेने की भावना बिना सेवा, भक्ति करते हैं। जब धार्मिक आयोजनों में उपधान तप, वर्षीतप सामूहिक रूप से कराया जाता है, वहाँ सर्वप्रथम कार्य करवाने पहुँच जाते हैं। तन-मन से तपस्वियों की सेवा - भक्ति करके अन्त में बिना कुछ ग्रहण किये घर चले जाते . हैं, और कहते हैं कि हम परमात्मा दर्शन पूजन करने के पश्चात् ही भोजन ग्रहण करते हैं। कुछ महानुभाव इस प्रकार भी संघ की भक्ति करते हैं। 125 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला धर्म की शरण हे जिनधर्म ! देव दानव और मानव से आप पूजित हैं। हे जिनधर्म! मोहरूपी अंधकार का नाश करने के लिए आप सूर्य समान हैं। हे जिनधर्म! रागद्वेष रूपी विष का नाश करने के लिए आप उच्चस्तर के मंत्र हैं। हे जिनधर्म! सभी जीवों के कल्याण में आप ही एक मात्र कारण हैं । हे जिनधर्म ! कर्मरूपी वन को जलाने के लिए आप दावानल के समान हैं। हे जिनधर्म ! आप हमारे सिद्ध स्वभाव को प्रकट करने वाले हैं। हे जिनधर्म! आप अरिहंत भगवान के श्रीमुख से प्रकट हुए हैं। हे जिनधर्म ! हे निराधारों के आधार! हे अनाथों के नाथ! विश्व में सर्वोत्कृष्ट जिनधर्म! मैं भव-भव तक आपकी ही शरण स्वीकार करता हूँ। चार शरण चार गति और चौरासी लाख जीव योनियों के भवभ्रमण में फंसा हुआ मैं, हे जिनधर्म ! आज से मन, वचन और काया से आपकी शरण स्वीकार करता हूँ। अब यहाँ चौथा शरण बतलाते हैं । मात्र साधु की शरण स्वीकार करता हूँ, इतना ही नहीं बल्कि केवलज्ञानी भगवन्त द्वारा प्ररूपित शुद्ध धर्म की मैं शरण स्वीकार करता हूँ। वह धर्म कैसा है ? कहाँ से आया ? सुर-असुर - मनुष्य से पूजित सुर यानि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों से, असुर अर्थात् भवनपति और व्यन्तर देवों से, वैसे ही मनुष्यों अर्थात् गगनगामी विद्याधरों से पूजित धर्म है। ये विशेषण ऐसी श्रद्धा करवाते हैं कि जगत् की ऋद्धि-समृद्धि इत्यादि देने वाले सेठ साहूकार या राजा से भी ज्यादा यह धर्म मुझे अधिक मान्य है। क्योंकि धर्म तो देवों को भी मान्य और पूज्य है। ऐसे ही अति पूज्य उच्चतम धर्म की शरण प्राप्त करने का मुझे गौरव है, मेरा अहोभाग्य है कि मुझे ऐसा शुद्ध धर्म मानने व पूजने के लिए मिला है। मोहरूपी अंधकार के नाशक यह धर्म मोहरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य समान है । 'मोह' अर्थात् सत्-असत्य, असली-नकली, तारक-मारक, हित-अहित, स्व-परक, कार्य-अकार्य इत्यादि के विवेक का अभाव, अविवेक और इससे आत्मा की होने वाली मूढ़ अवस्था । यह मोह निश्चित ही वस्तु के सच्चे, उदासीन, तटस्थ, निष्पक्ष स्वरूप के दर्शन नहीं करने देता है। इसलिए यह मोह अंधकार के समान है। श्रुत-सम्यक्त्व और चारित्रं रूप त्रिपुटी धर्म 126 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण आत्मा को सूर्य समान प्रकाश प्रदान कर उस मोह को दूर करते हैं। इससे अब जगत् की वस्तुओं का सच्चा स्वरूप आत्मा में भाषित होता है। यह सम्पूर्ण प्रताप धर्म का है। ऐसे धर्म की शरण इस इच्छा से स्वीकार करता हूँ कि 'अंश मात्र भी ऐसा धर्म प्राप्त हो जाए तो आत्मा की मूढ़ दशा शिथिल पड़ेगी।' परममंत्र समान . राग-द्वेष रूपी विष को दूर करने के लिए धर्म श्रेष्ठ मन्त्र समान है। जैसे विष से प्राणी की मृत्यु होती है वैसे राग-द्वेष से आत्मा की भाव-मृत्यु होती है। जो ज्ञानादि भाव प्राण हैं, वे सभी रुक जाते हैं, साथ ही ये रागद्वेष से बंधे हुए तीव्र कर्मों को लेकर जीव को भावी अज्ञान-संसार में भव-भव तक मृत्यु प्राप्त कराते हैं। इसलिए यह राग-द्वेष एक विचित्र भयंकर विष है। धर्म ही के द्वारा इनका घात किया जा सकता है। इसलिए जिनधर्म इस विष के सामने मंत्र-तुल्य है। जिनधर्म की शरण ऐसी श्रद्धा की मांग करती है कि यदि आत्मा में जिनधर्म की सच्ची स्पर्शना करनी हो तो रागद्वेष का पहले की तरह पालन-पोषण नहीं करना होगा, बल्कि रागद्वेष को पहले कम करना होगा। अहो! कैसा सुन्दर यह धर्म? इसको प्राप्त करने से रागद्वेष रूपी ज़हर और इससे चढ़ी हुई मूर्छा उतर जाएगी; साथ ही यह भी सत्य है कि धर्म का ऐसा स्वरूप होने से ही धर्म की शरण जाने वाला1. धर्म का सेवन करते हुए किसी प्रकार की विषयों की आकांक्षा नहीं रखेगा, ये इच्छाएँ : तो रागद्वेष रूपी विष का पोषण करने वाली हैं। 2. अन्य धर्मावलम्बियों की वृत्ति के भीतर जाने पर वहाँ धर्मवृत्ति के बदले, राग का तांडव देखता है तो उसमें मन नहीं लगाता है। 3. सांसारिक प्रवृत्ति में रागद्वेष के तूफान में स्वयं जुड़ा होगा, वहाँ भी ऐसा विचार होगा कि अरे! ऐसा सुंदर महामन्त्र समान शुद्ध धर्म मेरे पास होने पर भी मैं रागद्वेष का ज़हर आत्मा में घोल रहा हूँ। यह कैसा दुर्भाग्य है? कब इन शरणों को स्वीकार - करूंगा? कब मुझे शुद्ध धर्म स्पर्श देकर रागद्वेष से बचाएगा? सर्वकल्याण कारक .. यह धर्म सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कहा हुआ (हेउ सयल कल्लाणाण) देव, मनुष्य गति, यश, शाता इत्यादि मोक्ष तक सभी कल्याणों का पूर्ण साधन है। यह विशेषण यह 'सूचित करता है कि अधर्म अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह तथा क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्व, कुशास्त्र इत्यादि ये सभी कल्याण के साधन नहीं है। कदाचित् अज्ञानतावशात् 127 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला . चार शरण इनमें से किसी का आलम्बन लिया हो तो भी ये कल्याण व सुख के साधन रूप कभी भी नहीं माने जाएँगे। कल्याण और सुख का कारण धर्म ही है। इसी श्रद्धा से धर्म का शरण सफल होता है। जैसे सच्चे वैद्य को 'मैं तुम्हारी शरण आया हूँ', ऐसा कहने वाला पीड़ित मानता है कि दूसरे गलत-वैद्य तथा दोषपोषक वस्तु आरोग्य के हितकारक नहीं हैं, बल्कि हित के घातक हैं, अवरोधक हैं; वैसे ही जैसे कोई बड़े व्यक्ति के शरण में गया हुआ दुःखी दरिद्र यह समझता है कि इनकी शरण से ही मेरी दरिद्रता और दुःख दूर होगा। साथ ही लुटेरों के कष्टों से बचा सकता है। ऐसे रक्षकों के शरण में जाने वाले 'यह धर्म सर्व कल्याण का कारण है, इसलिए धर्म के शरण जाता हूँ।' उसके मन में धर्म का मूल्य अगणित होगा। वह समझता है कि 'खाना-पीना' धर्म नहीं है, बल्कि त्याग, तप धर्म है। इसलिए कल्याण भी त्याग-तप में है, खाने-पीने में नहीं। पुण्य की किताब में त्याग-तप जमा होते हैं, खाने-पीने का हिसाब नहीं होता। अनादि काल से खाने-पीने की आदत, रस के त्याग और तप से ही मिटती है, खाने-पीने से नहीं। अनेक प्रकार के रागद्वेष के संक्लेश, कुविचार, अतृप्ति, अधीरता आदि ये सभी खाने-पीने के पीछे हैं। त्याग-तप में तो इन सभी की शांति हैं। मानव जीवन की महत्ता त्याग-तप में रही हुई है, खाने-पीने में नहीं। परलोक उज्ज्वल त्याग तप से बनता है, अनेक पाप त्याग-तप से ही रुकते हैं, सद्विचारणा त्याग-तप से ही विकसित होती है, निर्विकारता त्याग तप से आती है, लड़ाई-झगड़े त्याग तप से समाप्त होंगे; ये सभी भविष्य में मिलने वाले अनेक सुख त्याग तप रूपी धर्म से ही प्राप्त होंगे। परन्तु राग-रंग भोग सुख से नहीं, धर्म की शरण लेते समय जरूर पूर्णरूपेण हृदय में प्रकाशित होना चाहिए कि इनके सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु से मेरा कोई कल्याण अथवा किसी प्रकार का भला नहीं होने वाला है। जैनधर्म की महत्ता वीतराग सर्वज्ञ श्री तीर्थंकर भगवान ने जो धर्मशासन की स्थापना की है, वह सर्व कल्याण अर्थात् वीतरागता सर्वज्ञता तक समस्त शुभ भावों को प्रकट करने वाला है। ऐसे धर्मशासन के प्रति श्रद्धा कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरिश्वर जी महाराज ने राजा कुमारपाल के हृदय में मजबूत की थी। ___ कुमारपाल पहले जैन नहीं थे। कुमारपाल हेमचन्द्राचार्य महाराज से पूछते हैं'प्रभो! कौन सा धर्म सच्चा है? और मुझे कौन-सा धर्म करना चाहिए?' हेमचन्द्राचार्य महाराज ने उस समय ऐसा नहीं कहा कि जैन धर्म सच्चा है, तू इसी धर्म को स्वीकार कर। सर्वधर्म की परीक्षा करने के पश्चात् सच्ची पहचान करनी चाहिए, इसलिए जवाब देते हैं'हे राजन्! तुम्हारे लिए सभी धर्म की आराधना आवश्यक है। तुम्हारे लिए सभी देव उपास्य 128 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला । चारशरण हैं।' आचार्य भगवन्त समझते थे कि सभी देवों का स्वरूप जानकर स्वयं की बुद्धि से ही उसे निर्णय कर लेना चाहिए कि कौन से देव श्रेष्ठ हैं? ___धर्म किसी पर थोपने की वस्तु नहीं है, अन्दर से लगने की / छूने की चीज है। इसलिए वीतराग परमात्मा सर्वदोषों से रहित हैं और सर्वगुणों से युक्त हैं, ऐसा उसे समझ आ जाएगा। तब वह उसका मूल्यांकन कर सकेगा। यही बात 'भक्तामर' की सत्ताईसवीं गाथा में कही गई है को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! दोषैरूपातविविधाश्रय जात गर्वैः स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ अर्थात् हे मुनीन्द्र! दुनियाँ के समस्त गुण अन्य किसी में नहीं प्राप्त होने से तुझमें ही निहित हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। बल्कि विविध जीवों में आश्रय लेने से गर्विष्ठ बने दोषों से युक्त अन्य की तरह आप को स्वप्न में भी हमने देखा नहीं है। इससे निश्चित होता है कि वीतराग देव श्रेष्ठ हैं। वीतरागता भगवान शंकर के पास रहने गई तो पार्वती पास में बैठी होने से वह पुनः वापस आ गई। निर्भयता शस्त्रधारी देवों के पास रहने गई तो वहाँ भी भयसूचक शस्त्रों को देखकर वह भी फिर से लौट कर वीतराग के पास आ गई। इस प्रकार श्री वीतराग प्रभु सर्वगुणयुक्त हैं और सर्वदोषमुक्त हैं। उनके द्वारा बताया गया अंहिसामय धर्म ही श्रेष्ठ है। 1444 ग्रन्थों के रचयिता हरिभद्रसूरि जी ‘महाराज कहते हैं पक्षपातो न मे वीरे, न च द्वेषः कपिलादिषु। · युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः॥ . अर्थात् मुझे वीरप्रभु पर राग नहीं है, और न ही कपिल, गौतम, कणाद इत्यादि पर द्वेष है। तर्क की सीढ़ी पर चढ़ते हुए मुझे जो वचन युक्तियुक्त लगता है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ। जो श्रद्धालु हैं, उनको क्रिया के माध्यम से धर्म दे सकते हैं। परन्तु जो श्रद्धालु नहीं . हैं, बुद्धिजीवी हैं, बुद्धिशाली हैं, उनको पदार्थ के माध्यम से धर्म देने में सफलता मिलती कर्मवन दाहक धर्म ज्ञानावरणादि कर्मरूपी वन को जलाकर रखने वाला होने से अग्निसमान है। 129 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कर्मवन में दुःख और क्लेश के फल उत्पन्न होते हैं। सर्वज्ञ कथित शुद्ध धर्म को प्राप्त नहीं करने के कारण आत्मा में यह वन फला-फूला है। अनादि अनन्तकाल से संसारी जीवों को दुःखरूपी कड़वे फल चखाते रहते हैं। यह दुःख आत्मा का सहज स्वभाव नहीं है। ये तो कर्म के उदय से आते हैं। कर्म हिंसादि पापों से जन्म लेते हैं । सर्वज्ञ के द्वारा कहा हुआ शुद्ध और सिद्ध अहिंसादि धर्म इस कर्मवन को जलाकर भस्मीभूत करता है। फिर दुःख का नामोनिशान नहीं रहता है। बाद में स्फटिक के समान निर्मल आत्मा में अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख की शाश्वत् ज्योति जगमगाती है । अहो ! कैसा सुन्दर धर्म; मैं इसको सा लूँगा तो मेरे कर्म तो नष्ट हो ही जायेंगे। क्योंकि इससे ही कर्म नष्ट होते हैं। सिद्धभाव का साधक धर्म सिद्धता का, मुक्ति का साधक है, संपादक है। धर्म के बिना सिद्धि नहीं होती, इस प्रकार धर्म होगा, तभी सिद्धि की ओर अवश्य प्रयाण होगा। जैसे-जैसे धर्म सधेगा, वैसे-वैसे जीव वीतराग दशा, शुद्ध ज्ञान दृष्टि इत्यादि के निकट जा रहा होगा। ऐसे धर्म की मैं जावज्जीव शरण स्वीकारता हूँ। यहाँ चारों शरणों के कार्य एक समान हैं, इसलिए एक के बदले चारों शरण स्वीकार करने में परस्पर के कार्यों का विरोध नहीं आने वाला । अरिहंत प्रभु वीतराग हैं, वीतरागता के उपदेशक हैं। सिद्ध प्रभु भी वीतराग हैं, साधु एक मात्र वीतरागता के साधक हैं, धर्म वीतरागता का उपायभूत है। इस प्रकार चारों वीतराग बनने में उपयोगी हैं। इसलिए चारों शरण में अन्यान्य विरोध नहीं है। चौथे शरण में धर्म को स्वीकार कर हमें विचार करना है कि अनादिकालीन संसार रूपी भवसागर से तिराने वाला यह धर्म है । किन्तु आज मानव की मन:स्थिति बड़ी उलझन से भर गई है। भारत देश में ही अनेक धर्म हैं । उनमें भी जैन धर्म के अनेक विभाजन हैं। वर्तमान में सम्पूर्ण ज्ञानी, केवलज्ञानी परमात्मा की उपस्थिति नहीं है। ऐसे में सच्चा व मध्यस्थ व्यक्ति तो असमंजस स्थिति में पड़ जाता है । किन्तु हम सभी को बचपन से केवलज्ञानी भगवन्तों के द्वारा कहा गया शुद्ध और सात्विक धर्म प्राप्त हुआ है। जिस किसी को इस शुद्ध धर्म की प्राप्ति नहीं हुई, वे अनेक धर्मों की परीक्षा करते रहते हैं और अन्त में इसी धर्म को श्रेष्ठ बतलाते हैं। सही मार्ग का चयन हमें जन्म के साथ ही जिनशासन सम्प्राप्त हो गया। जैन धर्म में भी अनेक पंथ, सम्प्रदायों का विभाजन है। इनमें भी श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि 130 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कितने गच्छ-पंथ हैं। कान जी स्वामी से निश्चय नय का धर्म निकला, दादा भगवान, रजनीश ओशो आदि कितने ही पंथ निकले हैं। जहाँ बातें बड़ी, पर आचरण में शून्यता होती हो, वहाँ विशेष सावधानी रखनी चाहिए। 'दुःखमा' नामक पंचम् आरे को विषैले सर्प की उपमा दी गई है, जो मानव को दंश मारता रहता है। यह पंचम आरा भयंकर होने से उपाध्याय जी महाराज ने कहा- 'कलिकाले जिनबिम्ब जिनागम्, भवियण कुंआधारा।' इस कलिकाल में परमात्मा की प्रतिमा और शास्त्र, ये ही एकमात्र आधारभूत हैं; संसार से तिरने के साधन हैं। धर्म की शरण स्वीकार करने वालों के लिए इसे समझना जरूरी है। जिनेश्वर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित धर्म के अतिरिक्त अन्य कहीं भी नहीं जाना अर्थात् दूसरी जगह भटकना नहीं। जीवन पर्यन्त यही मेरा धर्म है, ऐसी दृढ़ता से उसे स्वीकार करना है। तीर्थंकर परमात्मा ने जगत् के जीवों के लिए हित की भावना से जिस धर्म को बताया है, उसी धर्म को मैं स्वीकार करता हूँ। भीतर में विशेष हर्षोल्लास की वृद्धि हो, इस कारण धर्म की विशेषता बताई गई है। यह सामान्य कोटि का धर्म नहीं हैं, बल्कि सम्यग् दृष्टि के देवताओं द्वारा पूजनीय है। ___धर्म को पूजने के लिए धर्मी को पूजना पड़ता है। धर्म आत्मा का गुण है। इसलिए वह आत्मा में रहता है और जब वह धर्म को जीवन में स्वीकार कर धर्म करता है, तब देवताओं द्वारा वह धर्मी व्यक्ति पूजित बन जाता है। उस धर्मी पुरूष की देवता भी प्रशंसा करते हैं, इन्द्र महाराज भी इन्द्रसभा में बैठने से पहले विरतिधर को प्रणाम करते हैं। परमात्मा विरति धर्म का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि सम्यग्दृष्टि देवता भी देवलोक में ऐसा संकल्प करते हैं कि यहाँ से मनुष्य गति जाने के बाद आठ वर्ष की उम्र में चारित्र ग्रहण करूँगा और कर्मों को क्षय करूंगा। इसीप्रकार विरति धर्म को हमें भी स्वीकार करना चाहिए, जिसे प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं है। 'चारित्र बिन नहीं मुक्ति रे।' संसार का अंत विरति धर्म से ही आता है। कहते हैं, महाभोग महाऋद्धि के स्वामी चक्रवर्ती भी 64000 महारानियों एवं छः खण्ड का आधिपत्य का त्याग कर चारित्र धर्म, सर्वविरति धर्म को स्वीकार करने के लिए चले जाते हैं। यह मार्ग महापुरूषों द्वारा निर्मित है। तीर्थकर 'भगवन्त को भी चारित्र धर्म स्वीकार करने के पश्चात् ही केवलज्ञान प्रकट होता है, गणधरदेव, बलदेव, राजा, महाराजा भी चारित्र धर्म स्वीकार करते हैं। परमात्मा ऋषभदेव के शासन में अनेक राजा हुए। उन सभी ने राज्य-सत्ता छोड़कर दीक्षा ग्रहण की। कर्मक्षय कर मोक्ष पधार गये। कुछ अनुत्तर विमान के देव बने। देव, सम्राट आदि के द्वारा सेवित ऐसे धर्म की शरण हमें स्वीकार करना है। 131 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला परन्तु, जब तक मोहनीय कर्म का प्रगाढ़ अन्धकार है, तब तक मिथ्यात्व - मोहनीय कर्म सत्य को नहीं समझने देता है | चारित्र - मोहनीय जीवन 'अच्छे संस्कार नहीं आने देता है | दर्शन - मोहनीय श्रद्धा प्रकट नहीं होने देता है। भगवान के दर्शन से हमारी आँखों में अश्रुधारा प्रवाहित नहीं होने का कारण यही है कि अभी समकित की नींव मजबूत नहीं बनी है। परमात्मा का नाम स्मरण भी यदि मन में हर्षोल्लास पैदा नहीं करता है तो यह भी सम्यक्त्व की कमजोरी का कारण है। परमात्मा हमें अभी तक हमारे प्रतीत नहीं हो रहे हैं, यह भी मोह जाल का खेल है। जीव यहीं पर फंसता जाता है। मोह के गाढ़ आवरण का नाशक यदि शुद्ध धर्म हमारे हृदय में आ जाए तो मोह का अंधकार तुरन्त भाग जाता है। जैसे इलाची पुत्र का मोह रूपी अधंकार मुनि को देखकर तुरन्त चला गया। नगर सेठ का पुत्र एक नटिनी के पीछे पागल बना हुआ है । नटिनी के प्यार के पीछे घर, कुटुम्ब, पैसे आदि सभी का त्यागकर नटिनी को प्राप्त करने नटों की टोली में आ गया। चार शरण एक बार इलाची कुमार रस्सी पर नृत्यकला प्रदर्शित कर रहा था । नृत्य करतेकरते एकदम सामने महल में दृष्टि पड़ी। रूपवान, देवांगना, अप्सरा जैसी एक श्राविका मुनि भगवन्त को मोदक (लड्डू) वोहरा रही थी, किन्तु मुनि भगवन्त एक दृष्टि से आहार ले रहे थे। उनका ध्यान जरा भी विचलित नहीं हुआ। इस दृश्य मात्र से इलाची कुमार के मन में विचार आया कि 'मेरा मन कैसा अपवित्र है, पापी है। मुनि कितने पवित्र हैं! दृष्टि भी नीचे धरती की ओर है।' इसी विचार से रस्सी पर ही मन परिवर्तित हुआ और अपने पापों का प्रायश्चित करते-करते कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। शुद्धधर्म ने ही मोहरूपी अंधकार को दूर किया है। कहने का तात्पर्य यही है कि धर्म की सच्ची शरण स्वीकार करने के लिए दृढ़ श्रद्धावान बनना जरूरी है। परमात्मा की वाणी शत्-प्रतिशत सत्य है। इस पर अंशमात्र भी शंका नहीं होनी चाहिए। संसार के भय से आत्मा की रक्षा करने के लिए आश्रय रूप यह धर्म ही है। गुण्डों से बचने के लिए जैसे पुलिस का आश्रय होता है, ठीक वैसे ही राग-द्वेष और मोह रूपी तूफान से बचने के लिए अरिहंत आदि चारों की शरण को भावपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अरिहंत आदि की शरण स्वीकार करने के साथ ही यह भी स्वीकार करें कि परमात्मा ने जिन बातों का निषेध किया है, उनका आचरण नहीं करूँगा; आत्मसाक्षी व प्रभु-साक्षी से स्वयं के पापों की निन्दा करूंगा। वैसे दुनिया में सदैव दूसरों की निंदा करना प्रायः सभी को प्रिय लगता है और इसी कारण चिकने रस कर्म का बन्धन 132 For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण होता है। यहाँ अपनी आत्मा की निन्दा स्वयं को करनी होती है। आत्मनिन्दा करते-करते तो वैराग्य पाकर केवलज्ञान तक पहुँच जाते हैं। आत्मनिन्दा करके कल्याण को प्राप्त करने वाले राजा-रानी की कहानी के लिए हम सहनशीलता की प्रतिमूर्ति खंधक मुनि का उदाहरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो कि सभी के लिए आदर्श है खंधक मुनि की कथा खंधक राजकुमार के जीवन में मुनिवर के उपदेश का प्रभाव पड़ा। खंधक कुमार ने उत्साह और वैराग्य के साथ माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर संयम स्वीकार किया। पिता श्री ने विचार किया - खंधक ने आज तक किसी प्रकार का कष्ट सहन नहीं किया है। अतएव मुझे ऐसी व्यवस्था कर देनी चाहिए कि उसे किसी प्रकार का अभाव, उपद्रव न सताये। इस प्रकार विचार करके पिता ने पुत्र मोह से प्रेरित होकर पाँच सौ सैनिकों की व्यवस्था कर दी। ऐसा प्रबन्ध किया गया कि खंधक मुनि को इस बात का पता न लगे और उनकी बराबर रक्षा होती रहे । खंधक मुनि को गुप्त रूप से रक्षा करने वाले सैनिकों का पता नहीं था। वे तो यही जानते थे कि मेरी तो रक्षा करने वाली मेरी आत्मा है, अन्य कोई नहीं है। इस प्रकार खंधक मुनि तपश्चर्या करके आत्मकल्याण करने लगे। आत्मा को भावित करते हुए ग्रामानुग्राम विचरने लगे। विहार करते-करते वे अपनी सांसारिक बहिन के राज्य में पधारे। उनके पीछे गुप्त रूप से चल रहे सैनिक विचार करने लगे कि अब खंधक मुनि अपनी बहिन के राज्य में आ पहुँचे हैं, अब किसी प्रकार के उपद्रव की सम्भावना नहीं है । इस प्रकार निश्चिंत होकर सैनिक दूसरे कार्यों में लग गये। इधर खंधक मुनि आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान हो जाने के कारण तपश्चरण द्वारा शरीर को सुखाकर आत्मा को बलवान बनाने में लगे हुए थे। एक बार खंधक मुनि भिक्षाचरी करने के लिए राजमहल के पास से निकले। उस समय राजा और रानी राजमहल की अटारी पर बैठ कर नगर निरीक्षण करने के साथ ही मनोविनोद कर रहे थे। रानी की दृष्टि अकस्मात् मुनि के ऊपर पड़ गई। मुनि को देखते ही रानी विचारने लगी। मेरा भाई भी इन्हीं मुनि की तरह भ्रमण करता होगा। इस तरह विचारमग्न होने के कारण रानी क्षणभर के लिए मनोविनोद और वाणी - विलास को भूल गई। राजा ने देखा - साधु को देखकर यह मुझे भूल गई है। दूसरे के विचारों में डूब गई है। इस साधु के प्रति रानी का प्रेमभाव तो नहीं होगा? इस विषय में दूसरों की सलाह लेना भी अनुचित है। अतएव किसी और से पूछने की अपेक्षा इस साधु को समाप्त कर देना ही ठीक 133 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण है। इस प्रकार विचार कर राजा ने नौकर को बुला कर आज्ञा दी- जाओ! उस साधु को वधभूमि पर ले जाओ और मारकर उसकी खाल उतार लाओ। __राजा की कठोर आज्ञा सुनकर चांडाल कांप उठा। वह मन ही पन विचार करने लगा कि आज मुझे कितना जघन्य काम सौंपा गया है। यदि मैं राजा की आज्ञा भंग करूँगा तो मुझे प्राण-दण्ड दिया जाएगा। इस प्रकार विचार कर खंधक मुनि के पास आया और उन्हें पकड़ने लगा। मुनि ने पूछा- मुझे किस कारण पकड़ा जा रहा है? चांडाल बोलाराजा की आज्ञा अनुसार श्मशान भूमि में तुम्हारा वध किया जाएगा और तुम्हारे शरीर की खाल उतारी जाएगी। यह हृदयविदारक वचन सुनकर मुनि को आघात पहुँचना स्वाभाविक था। परन्तु खंधक मुनि को शरीर और आत्मा का भेद-विज्ञान ज्ञात था। अतएव वे विचारने लगे- यह शरीर नश्वर है। किसी न किसी दिन जीर्ण-शीर्ण हो जाएगा। ऐसी स्थिति में अगर आज ही यह नष्ट होता है तो इसमें मुझे दुःख करने की क्या आवश्यकता है? मेरी आत्मा तो अजर-अमर है। उसे कोई कष्ट नहीं पहुँचा सकता है। ऐसा विचार कर और धैर्य धारण कर. वे चुपचाप चांडाल के पीछे चलने लगे। जब दोनों वध स्थल पर पहुँचे, तब मुनिवर ने कहा- भाई! मेरे शरीर में रक्त नहीं है, इस कारण चमड़ी हड्डी के साथ चिपक गई है। अतः खाल उधेड़ने के लिए कोई साधन साथ लाये हो या नहीं? अन्यथा तुम्हें बहुत कष्ट होगा। चांडाल मन में विचार करने लगा- मैं कितना पापी हूँ? आप महात्मा हैं। आपके हृदय में मुझ जैसे पापात्मा के प्रति भी करूणा है, परन्तु इस समय मैं निरूपाय हूँ। मुझे अनिच्छा से और दुःखित मन से भी आपके वध का पाप करना पड़ेगा। वधस्थल पर ले जाकर चांडाल ने दुःखी हृदय से मुनि का वध किया और उनके शरीर की खाल उतार ली। परन्तु वे शान्तमूर्ति मुनिराज, परमात्मा के ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए। शरीरनाश के समय अपनी आत्मा परमात्मा के साथ ऐसा अनुसन्धान किया कि परमात्मा का ध्यान करते हुए उन्हें मृत्यु का दुःख अनुभव ही नहीं हुआ। मुनि के मन में किसी के प्रति न क्रोध भाव उत्पन्न हुआ और न वैरभाव ही। खंधक मुनि ने इस प्रकार की उच्च भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने संसार का त्याग किया था, वह आत्म श्रेय साधन का उद्देश्य सिद्ध करके मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार खंधक मुनि सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गए। चांडाल वध करके मुनि की खाल लेकर राजा के सामने उपस्थित हुआ और अथ 134 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण से इति तक बातें बताने लगा। इसी बीच एक चील राजा के महल पर उड़ती-उड़ती आई, जिसके मुँह में कुछ था। रक्त रंजित वस्त्र में उसे कोई स्वाद नहीं आया, अतएव वह वस्त्र राजा के महल पर ही छोड़कर उड़ गई। 'खून से लथपथ यह ओघा किसी मुनि का मालूम - होता है', ऐसा विचार कर रानी राजा के पास गई और कहने लगी- 'महाराज! आपके राज्य में किसी मुनि का घात हुआ है। यह ओघा उसी मुनि का मालूम होता है। उस मुनि ने ऐसा क्या अपराध किया था कि उसे प्राण दण्ड दिया?' . रानी के प्रश्न के उत्तर में राजा ने अथ से इति तक का सारा वृन्तात कह सुनाया। राजा का कथन सुनकर रानी के दुःख का पार न रहा। अपार वेदना के साथ राजा ने खोज कराई तो मालुम हुआ कि वह मुनि रानी के संसारावस्था के भाई थे। यह जानकर राजा को घोर पश्चाताप हुआ। रानी के कहा- 'मात्र पश्चाताप करने से मुनि फिर से जीवित नहीं होंगे। इस मुनि के मार्ग का अनुकरण करेंगे तभी अपना कल्याण है।' आत्मनिंदा करते-करते राजा-रानी ने संयम मार्ग ग्रहण करके आत्मकल्याण किया। . जीव संसार सागर में परिभ्रमण करते-करते अनन्त काल बिता देता है। इस कारण उसे अध्यात्म की प्राप्ति नहीं हुई। ऐसा अध्यात्म, जो संसार सागर से पार लगा दे, वह चरमावर्त काल में ही प्राप्त होता है। अचरमावर्त काल में जीव को सच्चे अध्यात्म-सुख की प्राप्ति नहीं होती है। अध्यात्म का अर्थ है आत्मा की प्रीति, शुद्ध स्वरूप का भान, तत्त्व के प्रति श्रद्धा। अचरमावर्त काल में आत्म-तत्त्व के प्रति प्रीति न होने के तीन कारण बताए गए हैं 1. जीव के अभी बहुत भव बाकी हैं। . 2. आत्मा में अतिशय मलीनता है, भव्यत्व की अपरिपक्व अवस्था है। 3. अतत्त्व अभिनिवेश यानि अतत्त्व का आग्रह कदाग्रह छूटा नहीं है। ... अतत्त्व के प्रति आग्रह यानि जबरदस्त पकड़ होना आत्म-प्रगति में अवरोधक है। गलत वस्तु को पकड़कर छोड़ता नहीं, वह कदाग्रह है। इसलिए शास्त्रों में श्रेष्ठ गुण प्रज्ञापनीयता का उल्लेख मिलता है। आराधक आत्मा में सर्वप्रथम यह योग्यता होनी पाहिए। प्रज्ञापनीयता हो तो गुरुजनों द्वारा समझायी गई बातें हृदय में स्पर्श करती हैं। इसके बिना संयम-तप-चारित्र की सभी आराधना व्यर्थ चली जाती है। हरिभद्रसूरि जी महाराज के मन के भीतर जब तीव्र आवेश आ गया था, तब 1400 बौद्धों को कौए बनाकर गरमागरम उबलते हुए तेल में तलने का जघन्य कोटि का 135 For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण पाप करने का विचार आया। उसी समय गुरु द्वारा प्रदत्त श्लोक की अन्तिम पंक्ति पढ़कर उसका चिन्तन करने लगे। भीतर की प्रज्ञापनीयता प्रकट हुई। .. . एकस्य तओ मोक्खो बीयस्स अणन्त संसारो। कषाय के उपशम से एक का मोक्ष तथा कषाय की तीव्रता से दूसरे का अनन्त संसार बढ़ गया है। उसी प्रज्ञापनीयता के कारण बात हृदय में उतरी, और जघन्य पाप करने से बच गया . - शासन के प्रत्यनिक के प्रति भी द्वेष, अरूचि, असद्भाव नहीं होने चाहिए। हृदय के असद्भाव स्वयं की आत्मा को मलिन करते हैं। दूसरे का अहित होगा ही, यह जरूरी नहीं पर स्वयं का अहित निश्चित है। जरा इधर देखें- तीन खण्ड के अधिपति प्रतिवासुदेव कहलाते हैं। रावण हजारों विद्याओं से विभूषितं थे, पर अभी तीन खण्ड जीतना बाकी था। जंब रावण तीन खण्ड को जीतने के लिए लंका से प्रयाण कर चुके थे। अन्त में केवल बालि को जीतना बाकी रहा, तब उसे ललकारा गया। रावण ने कहा- 'बालि! मेरी आज्ञा को स्वीकार कर ले अन्यथा तुम्हें पछताना पड़ेगा।' बालि ने रावण की ललकार सुनकर एक ही बात कही- 'बालि ने जीवन में एक बार जिनेश्वर देव की आज्ञा स्वीकार कर ली, अब उसे किसी की भी आज्ञा स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है।' रावण और बालि के बीच युद्ध आरंभ हो गया। बहुत बड़ी सेना, भयंकर युद्ध, लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बालि ने ऐसा दांव खेला, जिससे कभी न पराजित होने वाला रावण भी हार गया। तभी बालि ने विचार किया कि इतने बड़े महान् पुरूष की यह हालत हो गई तो इस संसार में क्या रखा है। फिर इस संसार में छोटे लोगों का क्या सम्मान होगा? हार से रावण का मस्तक लज्जा से नीचे झुक गया। सबके समक्ष उसको अपमानित होना पड़ा। क्या से क्या दशा प्राप्त हो गई। यह संसार दुःख रूप है। ऐसा चिन्तन मात्र ही बालि के जीवन में परिवर्तन लेकर आया। बालि युद्ध भूमि में ही अपने मस्तक के बालों का लोच करके चारित्र अंगीकार कर वहाँ से विहार कर गए। अब बालि मुनि बन गए। बालि मुनि धरती पर विचरण करते-करते अष्टापद पर्वत पर गये और वहीं ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये। उसी समय रावण उनके ऊपर से आकाश मार्ग से जा रहे थे। बालि मुनि के तप-त्याग के प्रभाव से विमान स्तंभित हो गया। नीचे बालि मुनि को देखते ही रावण क्रोध की अग्नि से जलने लगे और विचार करने लगे- 'यह मुझे अभी भी परेशान - For Perso136 Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कर रहा है। सता रहा है। अभी चखाता हूँ मजा।' रावण विमान से नीचे उतरकर अष्टापद की तलहटी पर आते हैं। नीचे गुफा में बैठकर विचार करते हैं कि सम्पूर्ण अष्टापद को उठाकर बाली सहित लग्ण समुद्र में फेंक हूँ। 1000 विद्याओं के स्वामी रावण अपने विद्या-बल से सम्पूर्ण पर्वत को उठाने का प्रयत्न करते हैं। चारों ओर से पत्थर गिरने लगे। एक साथ पत्थरों के गिरने की आवाज से बालि मुनि का ध्यान विचलित हुआ। इतना भयंकर उपद्रव! उन्होंने अपने ज्ञान से जाना कि रावण अष्टापद पर्वत को उठाकर फेंकने की तैयारी में है। इस पर भी बालि के मन में एक प्रतिशत भी रावण के प्रति गलत विचार उत्पन्न नहीं हुआ। शासन के प्रत्यनिक को कभी शिक्षा स्वरूप सजा देनी भी पड़े, तब भी मन में उसके प्रति कभी भी द्वेष के भाव नहीं होने चाहिए। बालि मुनि के भी मन में रावण के प्रति जरा भी द्वेष भाव नहीं था। मन में मात्र तीर्थ रक्षा के भाव से वे अपना कर्त्तव्य पूरा करते हैं और मुनि मात्र पैर के अंगूठे से पर्वत को दबाते हैं। तुरन्त गुफा के अन्दर बैठे रावण के मुख से जोर से चीख निकलती है, खून की उल्टियाँ होने लगती हैं। कहने का तात्पर्य तीर्थ रक्षा हेतु कर्तव्य निभाते समय मात्र किसी भी प्रतिपक्षी के - प्रति द्वेष, अरूचि या तिरस्कार के भाव नहीं होने चाहिए। यदि द्वेष आदि के भाव रहेंगे तो . वहाँ स्वयं को डूबना पड़ेगा। - संघ महान् है। गच्छ-मत आदि पन्थ अलग-अलग होंगे, फिर भी हमें अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ना चाहिए। वर्तमान में गीतार्थ गुरु भगवन्तों पर विकट समस्या उपस्थित है, फिर भी देवगुरु की कृपा से सब व्यवस्थित धर्म चल रहा है। अन्य धर्मी लोगों का कहना है कि हमारे अलावा अन्य सभी काफिर हैं। अन्य . धर्मों में दूसरे धर्मों की निंदा की जाती है, किंतु जैन धर्म में अन्य धर्मों में रहे गुणीजनों की अनुमोदना करते हैं। अपनी आत्मा संक्लेश से दूर रहे। किसी के प्रति असद्भाव नहीं हो जाए, इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। 137 - For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा पंचसूत्र दुष्कृत गर्दा खण्ड - चतुर्थ सरण-मुव-गओ-अ एएसि, गरिहामि दुक्कडं। जण्णं अरिहंतेसु वा, सिद्धेसु वा, आयरिएसु वा, उवज्झाएसु वा, साहूसु वा, साहूणीसु वा, अन्नेसू वा, धम्म-हाणेसु माणणि-ज्जेसु पूअणि-ज्जेसु, तहा माईसु वा, पिईसु वा, बंधुसु वा, मित्तेसु वा, उवयारीसु वा। ओहेण वा जीवेसु मग्ग-द्विएसु अमग्ग-ट्ठिएसु, मग्ग-साहणेसु, अमग्ग-साहणेसु, जंकिंचि वितह-मायरियं, अणा-यरि-अव्वं अणिच्छि-अव्वं, पावं पावाणु-बंधि, सुहुमं वा बायरं वा, मणेण वा वायाए वा, काएण वा, कयं वा, कारावियं वा, अणु-मोइअं वा, रागेण वा, दोसेण वा, मोहेण वा, इत्थ वा जम्मे, जम्मंतरेसु वा, गरहिअ-मेयं, दुक्कड-मेयं; उज्झियव्य-मेयं *** विआ-णिअं-मए, कल्लाण-मित्त-गुरू-भगवंत-वयणाओं, एव-मेअंति रोइअं सद्धाए, अरिहंत-सिद्ध-समक्खं, गरिहामि अह-मिणं, दुक्कड-मेअं, उज्झियव्व-मेअं, इत्थ मिच्छामि दुक्कडं, मिच्छामि दुक्कडं, मिच्छामि दुक्कडं। *** होउ मे एसा सम्म गरिहा, होउ मे अकरण-नियमो, बहु-मयं ममे-अंति, इच्छामो अणु-सडिं, 1 अरिहंताणं भगवंताणं 2 गुरूणं कल्लाण-मित्ता-णंति होउ मे एएहिं संजोगो, होउ में एसा सुपत्थणा, होउ मे इत्थ बहुमाणो। होउ मे इयो मुक्ख-बीअंति। पत्तेसु एएसु अहं, सेवा-रिहे सिआ, आणा-रिहे सिआ, पडिवत्ति-जुत्ते सिआ, निरइ-आर-पारगे सिआ। For Perso138 Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा दुष्कृत गर्दा हे प्राणेश्वर परमात्मा! इस तरह अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण स्वीकारने से मेरी बुद्धि निर्मल बनी है। अब मुझे पापकार्यों और दुष्कर्मों के प्रति दुर्भाव पैदा हुआ है। भूतकाल में किये पाप-कर्मों के लिए मैं पश्चाताप पूर्वक पंच-परमेष्ठी के समक्ष गर्दा-निंदा शुरू करता हे परमेष्ठी भगवन्त! ___ इस संसारवास में कभी भी अरिहंत भगवन्तों, सिद्ध भगवन्तों, आचार्य भगवन्तों, उपाध्याय भगवन्तों, साधु भगवन्तों, साध्वी जी भगवन्तों की आशातना की हो, दूसरे भी धर्म के स्थान रूप गुणाधिक ऐसे माननीय और पूजनीय आत्माओं के प्रति अयोग्य वर्तन किया हो, जन्म-जन्मांतर में प्राप्त हुए, माताओं, पिताओं, भाइयों, मित्रों और उपकारियों के प्रति मैंने जो भी विपरीत आचरण किया हो, उनका दिल दुःखाया हो तो उसके लिए माफी मांगता हूँ, क्षमा चाहता हूँ। हे प्रातः स्मरणीय परमात्मा! . मैं कितने को याद करूँ। सामान्य रूप से कहूँ तो इस विश्व में मोक्ष मार्ग में रहे हुए अथवा मिथ्यात्वरूपी उन्मार्ग में रहे सब जीवों के प्रति अथवा उन्मार्ग के साधनरूप तलवार आदि अधिकरणों के प्रति, अविधि से परिभोग करने में जो कोई विपरीत आचरण किया हो, नहीं करने लायक तथा नहीं इच्छने योग्य ऐसा पापानुबन्धी पाप आचरण किया हो; फिर वह पाप इस जन्म में या जन्मांतर में किया हो, वह पाप सूक्ष्म हो या स्थूल हो, मन से, वचन से, काया से, राग से, द्वेष से, मोह से किया हो, करवाया हो, अनुमोदन किया हो; वह संब अवश्य निन्दा करने योग्य है। दुष्कृत्य स्वरूप है। छोड़ने जैसा है। ये बातें मैंने एक मात्र मित्र जैसे मेरे गुरु भगवन्त के वचनों से सुनी हैं और ये बातें ही ठीक हैं, ऐसा मेरे हृदय में स्थित हो गया है। इसलिए हे अरिहंत परमात्मा! हे सिद्ध भगवान! आपके समक्ष मैं इन पापों और दुष्कृत्यों की निन्दा करता हूँ। मेरे ये सभी पाप मिथ्या हों, मिथ्या हों, मिथ्या हों। हे प्रभु! उन भूलों के प्रति बार-बार मिच्छामि दुक्कड़म्, मिच्छामि दुक्कड़म्, मिच्छामि दुक्कड़म्। 139 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ऐसे पाप भीतर सत्ता में पड़े हुए हैं। यह संसार बन्ध से नहीं, अनुबन्ध से चलता है । प्रणिधान अनुबंध कराता है । प्रणिधान पूर्वक के पाप-उदय के समय नवीन पाप बांधकर पाप की परम्परा को चलाते रहते हैं। पाप का राग तोड़ें आत्मा में अशुभ रस वाले कर्म रूपी टाईम-बम भरे पड़े हैं। चाहे जब उदय में आ सकते हैं। कुछ भी नहीं कह सकते अर्थात् अशुभ कर्म रूपी बम का विस्फोट कभी भी हो सकता है। यदि प्रणिधान पूर्वक झूठ बोलना, चोरी करना, अनीति, अन्याय, भोगविलास में तीव्र अनुबन्ध किया । अनादिकाल के अभ्यास से इस जीव को पापकर्म में ही रस आता है, उसी में आनन्द और उल्लास आता है । जिससे तीव्र अनुबंध वाले कर्मों का बन्ध किया है, इसलिए इससे विपरीत कर्म के लिए दुष्कृत्य की गर्हा भी प्रणिधान पूर्वक करनी होगी। जीव सत्वहीन है। वर्तमान में सर्वत्र राग के ही निमित्त मिलते हैं । उसी में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है। पूर्वकाल की तरह अल्प राग-द्वेष का जीवन तो फिर भी ठीक, पर यहाँ तो कर्मों का लेप जबरदस्त लगा हुआ है। कर्मों का बंध करना आसान है, किन्तु उन्हीं कर्मों का उदय आने पर भोगना बड़ा कठिन होता है। क्षण में बांधे गये कर्म को भोगने में पल्योपम - सागरोपम लग जाते हैं। इसलिए चार शरण, दुष्कृत्य गर्हा, सुकृत अनुमोदना इनका त्रिकाल चिन्तन करना चाहिए। जिससे अन्त समय भाव टिके रह जाएं और समाधि प्राप्त हो जाए। जीवन पर्यन्त के काले धन्धे व पापों को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि समाधि तो अभी अति दुर्लभ है। शायद कभी देव गुरु की कृपा-दृष्टि हो जाए और अध्यवसाय अच्छे हो जाएं तो अलग बात है। जीवन में कभी परमात्मा की प्रतिष्ठा करवाई हो, उस समय यदि उच्च भाव थे और अन्त समय में वह याद आ जाएं, भाव शुभ बन जाएं तो समाधि मृत्यु हो जाए, अन्यथा दुर्लभ है। आत्मा की निंदा : तोड़े भव दुःख फन्दा प्रतिदिन बार-बार स्मरण करते रहो 'मैं पापी हूँ, नीच गति गामी हूँ', मेरी प्रवृत्ति कितनी खराब है। कषाय रूपी अध्यवसाय की तलवार कितनी बार गुरु महाराज पर चलाई है। मैं यानि कौन? जगत् अनन्त पापों से भरा हुआ है । भूतकाल में लाखों, करोड़ों पाप हम करके आए हैं तथा नये पाप करते ही जा रहे हैं। ऐसे में कैसे सद्गति प्राप्त होगी ? कौन सद्गति देगा? ऐसे ही मोक्ष नहीं मिलता। अनन्तकाल और भटकना पड़े, ऐसी तो हमारी तैयारी है। दाल में थोड़ा नमक ज्यादा गिर जाए तो सहन करने की ताकत नहीं है। पत्नी पर 140 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा बिगड़ पड़ते हैं। उसने तो भूल से एक दाल ही बिगाड़ी है, किन्तु हमने तो जानकर अनन्त पाप करके अपने अनन्त भव बिगाड़ दिये, उसका क्या होगा? भूतकाल के सभी पाप-कर्मों के माध्यम से संस्कारों से वासित हो गए। इस भव में जीव को करोड़ों भवों में इकट्ठा किए हुए पाप-कर्मों को कम करने चाहिए थे, परन्तु नवीन पाप करके इस जीव ने उन पाप-कर्मों को और बढ़ाने का कार्य किया। हिंसा, झूठ, चोरी में विमूढ़ बन गया। परार्थ सेवा को भूलकर स्वार्थांध बन गया। जीवन का हिसाब दो भागों में कर सकते हैं- पहला जमा-खाता, दूसरा उधार-खाता। जो कुछ भोग में आनन्द किया, वह उधार खाता; खाना-पीना, मौज-मजा करना, ये सभी। अब दूसरा जमा खाता, साधर्मिक भक्ति, तपश्चर्या, धर्माराधना आदि किन भावों से किए? उनका विचार तो करें। क्या हमें परलोक में जाना है या नहीं? जाना ही पड़ेगा। आयुष्य पूरा होने में जितनी देर है। एक अंगूठे से पूरे मेरू पर्वत को हिला देने वाले अचिन्त्य शक्ति के स्वामी तीर्थंकर परमात्मा ने भी इन्द्र को यही कहा- आयुष्य का एक भी क्षण न तो बढ़ा सकते हैं, न ही घटा सकते हैं। जो समय चला गया, उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। आज वर्तमान में जीव जो दुःख भोग रहा है, वह दुःख भूतकाल के दुष्कृत्य का ही फल है। इन से छुटकारा पाने हेतु हमें बारम्बार दुष्कृत्यों की गर्दा करनी होगी। मैं क्रोधी, मानी, लोभी रति-अरति करने वाला हूँ। मैं माया-मृषावादी हूँ। मेरे जैसा पापी अधम आत्मा और इस संसार में कोई नहीं है। .. दुनिया में अनेक पापकर्म करने वालों को देव-गुरु का संयोग नहीं मिला तो वे कदाचित् क्षम्य हैं। परन्तु हमें तो उत्तमोत्तम वस्तु मिलने के पश्चात् भी इन अठारह पाप स्थानों का हम सेवन कर रहे हैं। उनको छोड़ने का अभी तक प्रयास भी नहीं किया, जबकि हम तो जिनशासन के सैनिक हैं। हम पर देव-गुरुजनों की अनन्त कृपा है। संस्कारी माता-पिता युक्त परिवार मिला है। इतना सब कुछ प्राप्त होने के पश्चात् जिनशासन की डोर संभालने की जवाबदारी और अधिक बढ़ जाती है, फिर भी इन सभी कर्तव्यों को भूल कर हम पापों में डूब रहे हैं। प्रभुसे प्रार्थना . परमात्मा से नित्य प्रार्थना करें। आप गुणी, मैं कैसा अवगुणी हूँ! आप कितने पुण्यशाली, मैं कैसा पापी! आप शिखर पर विराजमान हैं, मैं गहरी खाई में गिरा पड़ा हूँ। यदि प्रभु आपकी कृपा दृष्टि नहीं बनी तो मैं कभी भी निगोद रूपी खाई में जा सकता हूँ। 141 For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग किन्तु मुझे आपसे एक ही आशा है, प्रभु! आपकी कृपा दृष्टि रूपी किरण मुझ पर पड़ेगी। आप मुझ पर करुणा का अमृत वर्षाओ, मेरा कल्याण करो। हम सभी जीवों ने खूब पाप किए, इसलिए पापी हैं। ऐसे-ऐसे कुसंस्कार डाले हैं, उससे आप ही बचा सकते हैं। सातवीं नरक में ले जाएं, ऐसे कर्म भी किए हैं। उन कर्मों से छुड़ाने वाले भी आप ही हैं। इतना जानते हुए भी आप ही रक्षक हैं, तारणहार हैं। पापों की निंदा करते समय अकर्त्तव्यभाव (अकर्ता) होना चाहिए। नहीं करने लायक पाप मैने किए। इनको चतुर्भंगी से जाना जा सकता है 1. दूसरों का बड़ा पाप भी छोटा लगना चाहिए। 2. अपना छोटा पाप भी बड़ा लगना चाहिए। 3. अपना बड़ा गुण भी छोटा लगना चाहिए। 4. दूसरों का छोटा गुण भी बड़ा लगना चाहिए। इस प्रकार के विचारों से भी आत्मा संस्कारित बनती है। भव्यत्वगुण ज्यादा परिपाक होता है। परमात्मा के गुणों को याद करते हुए अपने दुष्कृत्य की ज्यादा से ज्यादा गह करनी है। हे प्रभु! मैं इन भोग सुखों के पीछे, काम और अर्थ के पीछे पागल बना फिरता हूँ। रात-दिन उन्हें ही पाने की लालसा में दौड़ लगा रहा हूँ। आपने जिन साधनों का त्याग किया वर्षीदान देकर दीक्षा अंगीकार की; शरीर पर रहे वस्त्र, आभूषण, मुकुट सब कुछ " त्याग कर दिया। आपने परिवार में रहे माता-पिता, पुत्र, पत्नी, स्वजन- परिजन का त्याग किया। सभी के प्रति मोह माया छोड़ आत्मा को साधना में लगा दिया। फिर मुड़कर भी नहीं देखा, न उन सभी को याद किया। हे प्रभु! आपकी नित्य पूजा करने वाले हम आपके ही द्वारा त्यागे हुए भोगों की कामना करते हैं। उन्हीं के पीछे उन्हें पाने के लिए पागल बने हुए हैं। परमात्मा ने उन्हें शत्रु मान कर त्यागा और हम उसे मित्र मानकर अपने घर में बसाते हैं। ये मेरी कैसी मूर्खता है! जीवात्मा का उद्धार जिस प्रकार पैर से धूल का त्याग किया जाता है वैसे ही परमात्मा ने संसार को रज की तरह त्याग दिया। उसी संसार में हम कितने उलझे हुए हैं! कभी पच्चीस लाख रुपये कमाने के पश्चात् एकांत में जाकर उन पापों को याद कर रोए नहीं! ये खोखा, पेटी साँप की पेटी की तरह अन्त में हमें ही डंक मारने वाले हैं, ऐसा लगा नहीं; बल्कि उन पर 142 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत अत्यधिक मूर्च्छा जगी, लोभ जगा, ये सभी अज्ञानता हैं, मूढ़ता है । जितना अधिक परिग्रह होगा, उतने ही ज्यादा पापों की गठरी बढ़ेगी। हम दुनिया के सभी 'अर्थ' 'अनर्थ' को करने वाले हैं, जबकि 'काम' को विष की उपमा दी गई है। जो आत्मा के गुणों को तुरन्त समाप्त कर देता है। ये सभी पाप बड़ी प्रसन्नता से किए। इन पापों की निन्दा करनी है। अभी हम जो धर्माराधना कर रहे हैं, वे सभी गतानुगतिक क्रियायें हैं। जैन धर्म में उत्पन्न हुए, इसलिए थोड़ा बहुत धर्म हम कर लेते हैं । किन्तु अर्थ और काम के प्रति रही हुई मूर्च्छा कम करने का कितना प्रयास किया? धर्म करने वाला यह कहता है कि धर्म के प्रभाव से हमारा सभी कुछ अच्छा चल रहा है। परन्तु अर्थ और काम का सुख प्राप्त हो, ऐसी भावना रखना भी उचित नहीं है। विशुद्ध भाव नहीं है । यही मूर्च्छा भाव है । इसे घटाना व हटाना होगा। तभी कहते हैं जीव का उद्धार कब होगा ? मूल बात यह है कि अभी तक दुष्कृत्य हमें दुष्कृत्य लग ही नहीं रहे हैं। हिंसा करना पाप है, ऐसा लगता है परन्तु परिग्रह संग्रह करना क्या पाप लगता है? पैर के नीचे मेंढक आ जाए तो तुरन्त गुरु भगवन्त के पास प्रायश्चित लेने के लिए जाते हैं। परन्तु पैसों के प्रति अतिराग हो गया अथवा पैसा ज्यादा आ गया, उसका प्रायश्चित् दीजिए ऐसा कभी गुरुजनों से कहा? गतवर्ष मैंने खूब पैसे कमाए, उनका प्रायश्चित लेना है; कभी ऐसा विचार आया क्या ? साधु को अर्थ और काम से सदैव दूर रहने के लिए कहा गया है। गुरुजन हमें दो बातें बताते हैं, स्त्री और पैसों की पंचायत में नहीं पड़ना । धर्म के लिए भी पैसों की बातें श्रावकों से नहीं करना। स्त्री से सदैव दूर रहना, बातचीत नहीं करना । जो इन बातों का : ध्यान रखेंगे, उनकी साधुता मजबूत रहेगी। परिग्रह भार लगना सामान्यतया आप देखते हैं कि पैसे वाले व्याख्यान में आगे आकर बैठते हैं। सामान्य जनता पीछे बैठती है, उस समय पैसे वालों को क्या ऐसा लगता है कि मैं करोड़ों रुपये का मालिक हूँ, अतः इतने अधिक परिग्रह के भार से भारी बना हूँ, मुझे पीछे बैठना चाहिए। सच्चा श्रावक अपनी सम्पत्ति को देखकर अपनी आत्मा को धिक्कारता है, हे आत्मन्! इन रुपये-आभूषणों का मुझे क्या करना है? किसके लिए हैं ये सब ? इनकी मूर्च्छा उतार दूँ तो कितने साधर्मिकों की भक्ति का लाभ प्राप्त कर सकता हूँ। इन धन-सम्पत्ति को सात क्षेत्र में लगाकर, भक्ति का लाभ लेकर पुण्यानुबन्धी पुण्य का अर्जन हो सकता है तो क्यों न वह लाभ उठा लूँ। 143 For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा पर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि यह जीव अनादिकाल से धन की मूर्छा से ग्रसित रहा है। दुष्कृत्यगहसिसमकित दुष्कृत्य को दुष्कृत्य के रूप में स्वीकार करना, उसकी सम्यग् प्रकार से गर्दा करना, यही बड़ी से बड़ी आराधना है। नरक के जीव आज भी भयंकर वेदना में समकित का उपार्जन करते हैं; और हमें अरिहंत, जिनप्रतिमा, साधु भगवन्त के दर्शन, वन्दन, भक्ति एवं सिद्धगिरि का सुन्दर योग मिला, फिर भी समकित नहीं मिलता है। नारकी के जीवों को इनमें से कुछ नहीं मिला, फिर भी समकित कैसे प्राप्त हुआ? तो यहां कहते हैं-वहाँ के नारकी जीव अपने दुष्कृतों की गर्दा करके समकित प्राप्त करते हैं, विभंग ज्ञान से पूर्व भव देखकर कि पूर्वभव में मैंने अनेक पाप कर्म किए थे, उन्ही भयंकर पापोदय के कारण मुझे नारक में उत्पन्न होना पड़ा। उन दुःखों, वेदनाओं को सहन करते समय अपने ही पाप दुष्कृत्य याद आते हैं और उनकी गर्दा करते हैं। बारम्बार पापों की गर्दा की जाती है तो मिथ्यात्व मोहनीय कर्म विशुद्ध होता हुआ समकित मोहनीय में बदल जाता है। इस प्रकार दुष्कृत्य गर्दा से नारकी सम्यक्त्वी बनते हैं। कर्मों का अंत कब? तीव्र राग के कारण जीव को पाप अभी तक पाप रूप नहीं लगते हैं, जबकि पापों को पाप रूप मानना ही समकित है। परमात्मा का हम पर अनन्त उपकार है। जब उन्होंने हमारा हाथ पकड़ा तब हमने उनसे हाथ छुड़ा लिए। उनकी अमृतमय वाणी को समझ नहीं पाए और संसार में ही भटकते रहे। इससे चारों गति में भटकना पड़ा। जन्म-मरण करना पड़ रहा है। उस समय उनकी उपेक्षा की, अब किस प्रकार उनके पास जाएं? अनन्तकाल में अनन्तानन्त भवों में अनन्त पाप किए। अब क्या पैर उठेंगे? आँखों के समक्ष अधंकार छा जाए, ऐसी मेरी दुष्करणा है। उन सभी दुष्कृत्यों की मैं गर्दा करता हूँ। अपने दुष्कृत्यों का मैं अपने मुख से भी उच्चारण नहीं कर सकता। तीव्र आर्तध्यान -रौद्रध्यान किये। इस भव में आकर हर प्रकार से पापों को निकालना था, पर मेरी दिशा ही अलग थी। मैंने पाप घटाने के बदले पापों को बढ़ाने का कार्य किया। कहते हैं, जहाँ अरिहंत भगवन्तों का शरणा मिल जाता है, वहाँ अपना पूर्व का सम्पूर्ण लेखा-जोखा चुका कर कर्जा समाप्त कर सकते हैं। तिर्यंच के भव में कातिल कब कत्लखाने में ले जाए और मस्तक धड़ से अलग कर दे, पता ही नहीं चलता। नरक में परमाधामी जीवों ने खूब सताया, पीड़ा देने में किसी भी प्रकार से कमी नहीं छोड़ी। इतना सब कुछ जानने के बाद 144 For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा भी एक नवकारसी करने से दो सौ वर्ष के नरक के दुःख समाप्त हो जाते हैं, तो भी नवकारसी नहीं करता हूँ। सामायिक करने से, प्रभु दर्शन, गुरुदर्शन से भी अनन्त पुण्य का उपार्जन होता है, फिर भी इस लाभ से वंचित रहा। पशु-पक्षी भी यदि देव-गुरु के दर्शन की भावना से निकलें व उनका आयुष्य वहीं समाप्त हो जाए तो उनका मनुष्य भव या देव भव निश्चित हो जाता है। इस भव में सब कुछ पाकर यदि कुछ नहीं किया, यदि यही छूट गया . तो भवान्तर में फिर मनुष्य गति से तिर्यंच या नरक गति की ही प्राप्ति होगी। मनुष्य का अत्यधिक समय आर्तध्यान में व्यतीत होता है। चौबीस घण्टों में मन-वचन-काया तीनों ज्यादा कहाँ दौड़ते हैं? वह तो उसी आर्तध्यान में ही ज्यादा जाते हैं। काया से ज्यादा वाणी चंचल है, और वाणी से भी ज्यादा चंचल मन को कहा जाता है। वाणी को फिर भी वश में किया जा सकता है, पर मन का क्या करना? मुख से उच्चारण 'णमुत्थुणं सूत्र' का हो रहा है और मन बाजार में, घर में भटक रहा है। साथ ही हम अपने खजाने रूपी पुण्य से सद्गति की अपेक्षा रखते हैं। । सदैव आंखों से आँसू बहाते-बहाते परमात्मा से यही प्रार्थना करना है कि- 'मुझ सम खल को नहीं स्वामी, मुझ सम खल को नहीं।' त्रिकालयाद आते देव-गुरु . अनन्त उपकारी परमात्मा के साथ हमने कितना सम्बन्ध रखा? प्रातःकाल मात्र 15 मिनट, आधा या एक घण्टा दर्शन पूजन के लिए निकाल लिए, बाकी का समय सम्पत्ति अर्जन व भोग में बिता देते हैं। - यदि किसी मंदिर के निर्माण में धन अर्पण करने से लाखों रुपये प्राप्त हुए, किसी कत्लखाने में जा रहे पशुओं को अभयदान देने से स्वास्थ्य स्वस्थ हो गया; तो यही विचार करते हैं कि मैंने अपनी बुद्धि के बल से धन व आरोग्य को प्राप्त किया है, परमात्म-कृपा से व उनके प्रभाव से ऐसा नहीं हुआ; जबकि उनको ये मार्ग बताने वाले भी कौन हैं? अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले प्रथम हमारे परमात्मा ही हैं। इन्हीं के प्रभाव से सब कुछ प्राप्त होता है। इन्हीं के समक्ष हमें अपने पापों का मुक्त हृदय से स्वीकार कर उनकी निन्दा गर्दा करनी है। नहीं करने योग्य प्रभु मैने खूब पाप किए। मुझे मेरे पापों की क्षमा प्रदान करें। ऐसा बार-बार दोहराना चाहिए। अन्यकीसाक्षीमें पापों की निन्दा जनसभा के समक्ष किये गये पापों का प्रायश्चित जनसमुदाय के सामने ही होना 145 For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग चाहिए। वहीं क्षमा याचना करनी पड़ती है। एकांत में किए पापों की आलोचना गीतार्थ गुरु (ज्ञान, दीक्षा पर्याय व उम्र में बड़े) के पास करनी चाहिए। सभी छोटे-बड़े पापों को प्रकट कर उनसे आलोचना लेना व उनसे लिये गये प्रायश्चित को सम्यक् प्रकार से सम्पूर्ण करना। जो इस प्रकार प्रकट करता है, वही महान् बनता है, आदर का पात्र बनता है। क्योंकि धर्म के अनेक कार्य कर लेना सरल है, किन्तु अपने पापों को दूसरों के समक्ष प्रकट करना बहुत कठिन है। यहाँ तक कहा गया है कि यदि चक्रवर्ती को कहा जाय कि अपने सम्पूर्ण पापों को गुरु के समक्ष कहो अथवा अपना छः खण्ड का राज्य गुरु को समर्पित कर दो, तो दोनों में से वह छ: खण्ड राज्य समर्पित कर देगा, पर पापों को नहीं कह पायेगा । इसलिए कहा जाता है कि परमात्मा के वचन को जो स्वीकार लेता है, उसके लिए पापों का स्वीकार कठिन नहीं होता है। प्रायश्चित करने के लिए भी योग्य गुरु होने अनिवार्य हैं। योग्य गुरु नहीं मिले तो 700 योजन (1 योजन = 12 किमी.) तक खोज करें। फिर भी न मिले तो 12 वर्ष तक भी उनकी खोज करके ही उनसे प्रायश्चित लें। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। श्रेष्ठ, दान, शील, तप की धर्म आराधना करता हो, परन्तु अन्तर- हृदय में छोटा भी पाप, रूपी शल्य पड़ा हो तो वह अपने आपको घृणित अनुभव करता है । शल्य रहित आत्मा की शक्ति बढ़ती जाती है, वहीं शल्य से युक्त आत्मा की शक्ति घटती जाती है । पाप रूपी शल्यों की गर्हा करने से हमेशा के लिए कर्मक्षय कर मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। वहीं भीतर शल्य भरे पड़े हों तो आराधना की प्रगति रूक जाती है। शल्योद्धार से हो आत्मोद्धार एक छोटा सा शल्य किस प्रकार हमारी आत्मा की प्रगति में रूकावट पैदा कर सकता है, इसे हम एक दृष्टान्त से समझेंगे। शुभ लक्षण युक्त अश्व के कारण राजा अपने राज्य में तथा दूसरे राज्य में भी प्रसिद्धि को प्राप्त करता था। दूसरे राज्य के राजा तो उस अश्व के कारण अपना मस्तक भी नहीं उठा सकते थे। वह अश्व लक्षण युक्त होने मात्र से अश्वशाला मे शोभित होता था । युद्ध आदि में भी इसको जाने का कोई काम नहीं था। एक तिर्यंच प्राणी का भी कितना पुण्य प्रबल, उसी का प्रभाव । हमें यहाँ देखना है कि तीर्थंकर देव का अचिन्त्य प्रभाव कैसा होता है? इनके प्रभाव से क्या नहीं हो सकता है। ऐसे प्रभाविक देवाधिदेव के मिलने के पश्चात् भी यदि 146 For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत उनकी उपास़ना नहीं करते हैं तो हम कैसे माने जाएँगे? कहते हैं, परमात्मा के प्रभाव से जीवन में एक भी प्रतिकूलता नहीं रहती तथा अनुकूलता आए बिना नहीं रहती । इस विश्व की कोई भी सम्पत्ति ऐसी नहीं, जो उनके प्रभाव से नहीं मिल सकती और एक भी आपत्ति ऐसी नहीं जो नहीं टल सकती है। दुनिया के खान-पान, सम्मान-सत्कार, पैसा-कुटुम्ब सब कुछ अनुकूल हो सकते हैं। रोग, दरिद्रता सभी आपत्तियाँ नष्ट हो सकती हैं। वह कैसे ? देवों के देव इन्द्र महाराजा से पूछिए - 'आप इन्द्र कैसे बने ?' वह भी एक ही बात कहेंगे" परमात्मा की आज्ञा का पालन करने से, देव गुरु के सेवा भक्ति से । ' खतरा दूसरी तरफ देखें । अन्य राज्य के राजा अपने राज्य में सूचित करवाते हैं कि इस अश्व को जो मार देगा, उसको मुँहमांगा ईनाम दिया जाएगा। ईनाम सभी चाहते हैं, मोल लेना कोई नहीं चाहता। सूचना को सुनकर एक व्यक्ति ने कुछ विचार किया व इस कार्य को करने का बीड़ा उठाया। अपने राजा का आदेश व आशीर्वाद लेकर वह व्यक्ति दूसरे राजा के राज्य में पहुँचा। यहाँ आकर वह पहले अश्वशाला में जाता है। लक्षणयुक्त अश्व को चारों ओर से निहारने के पश्चात् एक छोटा सा तृण का कांटा सहजता से अश्व शरीर में घोंप देता है। कांटा छोटा व साधारण था, साथ ही दिखाई भी नहीं देता था। फिर भी उस काटे के प्रभाव से अश्व की हालत बिगड़ने लगी । प्रतिदिन उसकी काया सूखने लगी। नगर के राजा, प्रजा सभी चिन्तित हो गये । वैद्यों को बुलाया गया । अश्व को देखकर जाँच किया जाता, पर कुछ भी रोग नजर नहीं आता। बीमारी का पता न चले, तब तक इलाज कैसे करें। एक दिन एक अनुभवी वैद्य का आना हुआ। उसने अश्व की जांच की और उस अश्व के पूरे शरीर पर गीली मिट्टी लगा दी । जहाँ कांटा था, वहाँ पर मिट्टी शीघ्र सूख गई । वैद्य जी को पता चल गया कि यहाँ कुछ लगा हुआ है। तुरन्त उसे निकाल कर इलाज किया गया। अश्व पुनः हृष्ट-पुष्ट हो गया। शल्य निकला तो शरीर स्वस्थ्य हुआ। शल्य रहने से एक लाख भव बढ़े। छोटा शल्य बड़ा कष्टदायक -रुक्मिणी की कथा क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा की पुत्री रुक्मिणी ने यौवन वय मे कदम रखा ही या कि राजा ने उसका विवाह योग्य राजकुमार के साथ कर दिया, परन्तु विवाह होते ही उसका पति यमशरण हो गया। बाल विधवा हो जाने से वह भयभीत हो गई। निराधार होने उसे जितना दुःख नहीं था, उससे भी अनेक गुना दुःख उसे आजीवन ब्रह्मचर्य पालने असमर्थता में लगा। वह अग्नि में कूदने की तैयारी करने लगी। उसके पिता ने उसे 147 For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला .. दुष्कृत गरे समझाया कि अग्नि में जल मरने से आत्महत्या का पाप लगता है। आत्महत्या से महान् दुर्गति भी होती है। हत्या करने वाले जीवन में प्रायश्चित ले सकते हैं, लेकिन आत्महत्या करने से परलोक में न प्रायश्चित ले सकते हैं, न ही पति का मिलन होता है। अतः जलकर मरने का विचार छोड़ दो और अपना जीवन धर्म अनुष्ठान में लगा दो। उसकी पूर्ण व्यवस्था राज्य की ओर से हो जायेगी। धर्म अनुष्ठान में व्यस्त रहने से तू सरलता से ब्रह्मचर्य पाल सकेगी। तेरा चित्त धर्म अनुष्ठानों से ओत-प्रोत हो जायेगा। रुक्मिणी ने पिता श्री के वचनों को मानकर अपने विचारों को बदल दिया। दिन प्रतिदिन वह अधिकाधिक धर्मसाधना करने लगी। उसमें ब्रह्मचर्य के गुणों का भी विकास होने लगा। इस गुण के प्रताप से उसकी यशोगाथा गाँव-गाँव में पहुँच गई। इसी बीच उसके पिता की मृत्यु हो गयी। उस समय कुछ मंत्रियों ने विचार किया कि राजा निष्णुत्र हैं, इसलिए राज्याभिषेक किसका किया जाये? कुछ मंत्रियों की ओर से यह सूचना थी कि रुक्मिणी यदि पुत्री है, तथापि पवित्र आत्मा है। अतः उसे राजगद्दी पर बिठाना उचित है। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। राजगद्दी पर बैठने के बाद भी रुक्मिणी शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करती थी। इससे उसकी कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई। रुक्मिणी के ब्रह्मचर्य गुण की ख्याति से आकर्षित होकर एक ब्रह्मचर्य प्रेमी बुद्धिमान युवक, जिसका नाम शीलसन्नाह था, वह मंत्रीपद के लिए आया। उसका यह विचार था कि भरण-पोषण भी होगा और एक गुणवान आत्मा की सेवा भी होगी। सद्भाग्य से उसे मंत्रीपद भी मिल गया। एक दिन राज्यसभा में शीलसन्नाह मंत्री बैठा था। राज-सिंहासन पर बैठी हुई रुक्मिणी चारों ओर दृष्टि घुमा रही थी। इतने में यौवन और लावण्य जिसके अंग-अंग में विकसित हो गया था, उस शीलसन्नाह मंत्री पर दृष्टि गिरी, गिरते ही दृष्टि वहीं स्थिर हो गई। अहो! इस मानव का इतना रूप! अरे! यौवन छलक रहा है। मन में ऐसे कुविचारों का चक्र प्रारम्भ हो गया और दृष्टि में विकार आ गया। शीलसन्नाह को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी। वह विचार करने लगा- अरे! मैं तो चारों दिशाओं में ख्यातनाम एक ब्रह्मचारिणी की सेवा करने आया था। ओह! पानी में से आग उठी है। कहाँ जाऊँ? धिक्कार हो इस कामवासना को। क्या इस कामाग्नि से मैं भी भस्मीभूत हो जाऊँगा? नहीं, नहीं... मुझे कहीं और चला जाना चाहिए। यहाँ रहना उचित नहीं हैं। क्या पता, कब उसकी कामाग्नि मेरे आत्मदेह को जलाकर भस्म कर दे? For Persona de private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा मेरी आत्मा को अपने पंजे में ले ले, इससे पहले ही मैं किसी दूसरे राज्य में चला जाऊँ। . इस प्रकार विचार कर वह राज्य छोड़कर चला गया। वह शीलसन्नाह मंत्री विचारसार नामक दूसरे राजा के पास गया और वहाँ उसने मंत्रीपद की याचना की। अनेक परीक्षा करने के बाद विचारसार राजा ने कहा कि, 'आपकी बुद्धि की परीक्षा के बाद हमें विश्वास है कि आप मंत्रीपद के स्थान को सुशोभित कर सकेंगे। परन्तु विशेष इतना ही पूछना है कि आपने इससे पहले किसी राजा की सेवा की है तो उसका नाम बताइये।' उसने जवाब दिया, 'माफ कीजिएगा, मैं उसका नाम नहीं बताऊँगा, क्योंकि उसका नाम लेने से हाथ में लिया हुआ ग्रास भी छोड़ना पड़ता हैं।' राजा ने कहा- 'आप यह क्या कह रहे हैं? क्या किसी का नाम लेने मात्र से ग्रास छोड़ना पड़ता है? आप गप तो नहीं हाँक रहे हैं। लो अभी भोजन मँगवाता हूँ।' इस प्रकार कहकर राजा ने भोजन का थाल मँगवाया। हाथ में एक ग्रास लेकर शीलसन्नाह से कहा कि, 'अब राजा का नाम बोलिए।' उसने कहा- 'रुक्मिणी।' इतना उच्चारण करते ही एक संदेशवाहक ने आकर राजा से कहा- 'चलिए! जल्दी चलिए। शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया है। विकट परिस्थिति खड़ी हो गई है। अपनी सेना पीछे हट रही है। हार-जीत का सवाल है। आप शीघ्र पधारिये।' राजा ने तुरन्त हाथ में लिया हुआ कवल थाली में डाल दिया और युद्ध के लिए प्रयाण किया। शीलसन्नाह ने युद्ध भूमि में प्रवेश किया कि तुरन्त ही उसे मारने के लिए शत्रु सैनिक सामने आने लगे। . युद्धभूमि में प्रवेश करते ही शीलसन्नाह के ब्रह्मचर्य के प्रति अनुराग के कारण शासन देवी ने उन सैनिकों को स्तंभित कर दिया और आकाशवाणी की कि 'ब्रह्मचर्य में आसक्त शीलसन्नाह को नमस्कार हो।' - इस प्रकार घोषणा करके देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की। शीलसन्नाह यह सुनकर ऊहापोह करने लगा। इतने में तो विचार करते-करते उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। ब्रह्मचर्य का प्रेम भी आत्मा को इतने उच्च स्थान पर पहुँचा सकता है तो जीवनभर ब्रह्मचर्य के साथ संयम पालूँ तो कैसा अद्भुत उत्थान होगा? ___वैराग्यभाव में आकर उसने वहीं पर दीक्षा ले ली। ... शीलसन्नाह मुनि विहार करते-करते एक बार क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आये। वहाँ 149 149 For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला __ दुष्कृत गरे रुक्मिणी वंदन करने आयी और उद्यान में देशना सुनी। देशना सुनने से उसके रोम-रोम वैराग्य से झनझनाने लगे। हृदय रूपी बावड़ी में वैराग्यभाव का पानी उछलने लगा। उसने समग्र संसार का परित्याग कर चारित्र ग्रहण किया। बहुत वर्षों के बाद शीलसन्नाह आचार्य हुए। एक बार शीलसन्नाह आचार्य के पास रुक्मिणी साध्वी विहार करके आयी और कहने लगी कि 'मुझे अनशन करना है।' तब आचार्य श्री ने कहा कि अनशन करने से पहले आलोचना करके आत्मा को हल्का बनाना चाहिए, जिससे सद्गति और मोक्ष की प्राप्ति हो। - उसने आलोचना करनी शुरू की। अनेक प्रकार की हिंसा, असत्य, चोरी आदि की आलोचना कह दी, परंतु राजदरबार में घटित आँख के पाप की आलोचना नहीं की। आचार्य श्री ने अनेक प्रकार से वह पाप याद कराने और आलोचना करवाने का प्रयल किया, परन्तु उसने दूसरे नए किए हुए हिंसादि पापों का स्मरण कर आलोचना ग्रहण की। अंत में आचार्य भगवंत ने साध्वी जी को कहा कि राजदरबार में किसी व्यक्ति पर विकारमय दृष्टि डालकर पाप किया हो तो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए। रुक्मिणी समझ गयी कि आचार्य श्री तो मेरा पाप जानते हैं। अब यदि उनके समक्ष स्वीकार करूँगी, तो उनकी दृष्टि में हलकी गिनी जाऊँगी। परन्तु अब मेरे महत्त्व और अहंत्व का रक्षण किस तरह करूं? मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं का महत्त्व और अहंत्व को बनाए रखने के लिए उसने बात को मोड़ दिया और कहा कि मैंने मंत्री के सत्त्व की परीक्षा के लिए दृष्टि डाली थी। इस प्रकार पाप को छिपाया और शुद्ध आलोचना नहीं की, जिससे उसके एक लाख भव हुए। अब विचार कीजिये कि अनेक प्रकार के पापों की आलोचना करने पर हम यदि एक भी पाप की आलोचना छिपा देंगे, तो रुक्मिणी की तरह हमारी आलोचना शुद्ध नहीं हो पायेगी। हाँ, पाप याद करने पर भी याद न आए, तो अंत में यह कहना कि 'मैंने इससे भी अधिक पाप किये हैं। ओह गुरुवर्य श्री! कुछ तो याद ही नहीं आते हैं। अतः कोई पाप अनजान में रह गया हो तो उसका भी प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। उनका मिच्छामि दुक्कडम्।' 'हे तारक गुरुदेव! मैं अज्ञान और मूढ़ मन वाला हूँ। मुझे कितना याद रह सकता है? जो याद नहीं हो, उसका मिच्छामि दुक्कडम्।' रूक्मिणी साध्वी जी को आचार्य श्री बारबार समझाने का प्रयास करते हैं कि शल्य को भीतर मत रखो। वैसे ही गुरु भगवन्त हमें भी बार-बार कहते हैं कि जो पाप 150 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा किया है, उनको प्रकट कर हलके बन जाओ। अनेक साधकों को शल्य भीतर चुभते रहते हैं, पर शल्य को निकाल नहीं पाते हैं या निकालने की ताकत नहीं है। दुष्कृत गर्दा में यही शल्य निकालने का कार्य करना है। ज्ञानी गीतार्थ गुरु के समक्ष अपने पापों की गर्दा करनी गुरु के लिए शास्त्रों में कहा गया है कि किसी ने अपने पापों को गुरु समक्ष कहा हो और गुरु उन पापों को किसी के समक्ष प्रकट कर देते हैं तो उन्हें भी नरक में जाना पड़ेगा। शास्त्र के आधार पर गुरु पर विश्वास पूर्वक वे अपने पापों को गुरु को बताते हैं और अपनी आत्मा की शुद्धि करते हैं। यदि गुरु गंभीर नहीं रह पाते हैं, उनके मन में लीकेज हो तो उन गुरु भगवन्तों का भी अनन्त संसार बढ़ जाता है। चार कान की बातें पाँचवें कान में नहीं जानी चाहिए। दो कान शिष्ट के, दो कान गुरु महाराज के; इनके सिवाय किसी को पता नहीं चलना चाहिए। साध्वी रुक्मिणी का चारित्र पवित्र था, परन्तु एक मात्र दृष्टिराग का शल्य नहीं निकाल पाने से एक लाख भव तक भटकना पड़ा। एक दोष अन्य भव में गुणाकार होकर प्रकट होते हैं। पुण्य कम हो जाता है और घोरातिघोर दुर्गतियाँ आगे से आगे खड़ी हो जाती गोशालेद्वारा दुष्कृतगहरे . समताधारी परमात्मा महावीर पर तेजोलेश्या फेंकने वाला व दो मुनि भगवन्तों को जलाकर भस्म कर देने वाला गोशाला उसी भव में समकित प्राप्त कर लेता है। गोशाला अपने पूर्वभवों में गुरु के समक्ष अपलाप करता था। अनेक आचार्य भगवन्तों की अवगणना, निन्दा करता था। वही पूर्वभव का शल्य इस भव में भी उदय में आया। .. जो आचार्य भगवन्त अथवा साधु-साध्वी जी भगवन्तों की निंदा करता है, बिना जाने उनके बारे में अपशब्द तथा बुराई करता है, उसको भी गोशाले के समान बनना पड़ेगा। मुनि भगवन्तों के साथ क्लेश नहीं करना। उनके प्रति दुर्भाव वैर नहीं पैदा होना चाहिए। उनके प्रति मधुर व्यवहार रखना चाहिए। __ गोशाले ने पिछले भव में गुरु के प्रति बुरा वर्तन किया, अतः गुणाकार होकर वही पाप उदय में आया और परमात्मा के साथ भी गलत वर्तन करने लगा। गलत संस्कार ऐसे भीतर डाल रखे थे, जिससे इस भव में परमात्मा को भी नहीं छोड़ा। उन पर भी केजोलेश्या फेंकने वाला बना। इस तेजोलेश्या की अग्नि के ताप से परमात्मा को छः महीने सक दस्त लगी। उपकारी गुरु भगवन्त पर ही गोशाले ने अपकार किया। 151 For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग कहते हैं आज लोगों को तीर्थंकर परमात्मा के प्रति राग होगा, परन्तु यदि गुरु भगवन्तों के प्रति तिरस्कार या द्वेष के भाव रखते हों तो उनका विपाक (फल) भयंकर कोटि का उदित होगा। परमात्मा के समक्ष गोशाला की पुकार गोशाला जब परमात्मा से कहता है कि हे वर्धमान ! मेरी तेजोलेश्या के द्वारा तुम जलकर भस्म नहीं हुए, परन्तु छः महीने के भीतर तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। परमात्मा को केवलज्ञान के पश्चात् उपसर्ग नहीं होते, परन्तु महावीर भगवान् को उपसर्ग आये। यह एक आश्चर्य हैं। परमात्मा महावीर ने कहा- हे गोशाला ! मेरा आयुष्य तो अभी बड़ा है परंतु तेरी तो सात दिन के पश्चात् मृत्यु है। परमात्मा पर फैंकी गई तेजोलेश्या परमात्मा को तीन प्रदक्षिणा देकर गोशाला के शरीर के भीतर प्रवेश कर गयी। वह सात दिन तक तड़पता है, जलन की पीड़ा सहन करता है किन्तु अन्तिम दिन उसे भीतर से अहसास होता है ये मेरे गुरु हैं। मैंने अपने ही गुरु को मारने के लिए तेजोलेश्या फेंकी; दो मुनि भगवन्तों को जला दिया । मैं कितना पापी, अधमी हूँ। मैं मरकर किस गति में जाऊँगा? अंतिम रात्रि में गोशाला को घोर पश्चाताप हुआ। हमने भी गोशाले जैसे पाप किये। अचरमावर्त्त काल में ऐसे पाप अनेक बार किए। इसलिए प्रभु के समक्ष हमेशा कहो- 'मुझ सम खल को नहीं स्वामी ।' खल यानि मूर्ख, लुच्चा । क्योंकि दूसरे लोग जगत् को ठगते हैं। मैने परमात्मा को, साधु भगवन्त को, साधर्मिकों को ठगा है। भगवान आपने मुझे निगोद से बाहर निकाला और मैंने आपका कहना ही नहीं माना। आपने आश्रवों का त्याग करने के लिए कहा और मैंने आश्रवों को बढ़ाया ही है। परमात्मा ने कहा- हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप करने योग्य नहीं हैं। इन पापों को करने से जीव नरक में जाता है। इतना जानने के पश्चात् भी मैंने इन पापों को नहीं छोड़ा। भगवान ने ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए कहा किन्तु, मेरे मन-वचन-काया का कोई ठिकाना नहीं है। मैं घोर वासना की अग्नि में जलता रहा। कहते हैं दुनियाँ के सभी लुटेरों को खड़ा कर दिया जाए तो उनमें सर्वप्रथम नम्बर मेरा ही लगेगा। नहीं करने योग्य चिन्तन मैंने मन से किया। नहीं बोलने जैसे वचन मैने बोले, नहीं करने जैसा कार्य मैंने किया। कितने ही जीवों का विश्वासघात किया। छोटे से छोटा पाप भी भोगना पड़ता है। मैंने तो लाखों, करोड़ों अनगिनत पाप किए हैं। पापों से पिटारा भरा पड़ा है। मुझ पापी का क्या होगा ? मछली बनकर लाखों जीवों को खाया होगा। इससे सातवीं नरक में भयंकर भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि उपसर्गों को 33 152 For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा सागरोपम तक भोगा है। वहाँ से कर्मों का भार जैसे हल्का हुआ और बाहर आया। तिर्यंच गति में जन्म मिला, पाप टूटे पर उन पापों का अनुबन्ध नहीं छूटा। इसलिए हिंसा आदि पाप चलते रहे। अतः अनुबन्ध तोड़ने के लिए दुष्कृत गर्दा को स्वीकार करना होगा। ज्ञानी भगवन्तों ने ऐसा नहीं कहा कि अनुबंध को यानि पाप की परम्परा को तोड़ने के लिए मासक्षमण के पारणे मासक्षमण करो। ऐसा न कहकर बल्कि एकदम सरल उपाय बताये हैं। दुष्कृत्य की गर्दा करो। गुरु के सान्निध्य में जाकर दुष्कृत्य-पापों को प्रकट कर आत्मशुद्धि करो। गोशालाकोसबुद्धि आई ___ सातवें दिन गोशाला की भवितव्यता जागृत हुई। गोशाला यानि जिनशासन का प्रत्यनीक (द्वेषी) होने पर भी अन्त समय अपने पापों के प्रति घृणा के भाव जगे। मैंने ये क्या किया? भगवान महावीर तो मेरे धर्मगुरु कहलाते हैं और दीक्षा लेने के पश्चात् मुझे कितनी बार मृत्यु से बचाया। मैं जानता था कि आप ही सर्वज्ञ हैं फिर भी उन्हीं से सीखी गई तेजोलेश्या का गलत प्रयोग मैंने उन्हीं पर किया। मेरे जैसा अज्ञानी दुनियाँ में और कोई नहीं होगा? उस गोशाला ने जो गर्दा की, वह तो यहाँ बहुत कम शब्दों में प्रस्तुत है। परन्तु उसने जो दिल से गर्दा की, उससे भी ज्यादा गर्दा हमें अपने पापों की करनी होगी। गोशाला से भी ज्यादा पाप कर्म हमने किए हैं। हम जितने ऊँचे स्थान पर पहुँचे हैं, उतनी ही बड़ी-बड़ी हमारी गलतियाँ हैं। उच्च स्थान प्राप्त करने के पश्चात् मर्यादा से युक्त जीवन शोभास्पद होता है; और देव-गुरु-धर्म-जिनशासन को प्राप्त करने वाला उच्च व्यक्ति यदि ऐसा अधम कार्य करता है तो वह निश्चित रूप से निन्दनीय है, निन्दा का पात्र बनता है। श्रेष्ठ मानव जीवन प्राप्त कर यदि एक प्रतिशत धर्म और नव्वाण प्रतिशत विषय कषाय में बिता दें तो इमसे बड़ा गुनहगार और कौन हो सकता है? सर्वप्रथम आत्मसाक्षी से अपने पापों की निन्दा करनी तथा उसमें जो भावों की परिणति होती है, उसके बाद गुरु के पास अपने पापों की गर्दा करनी चाहिए। गुरु जो प्रायश्चित दें, उन्हें सम्यक् रूप से वहन करना। आत्मसाक्षी से निन्दा के बाद गुरु साक्षी से गर्दा होनी चाहिए। गोशाला निन्दासे गहा की ओर गोशाला अपने पापों की जबरदस्त निंदा कर रहा है। अन्तिम समय सभी को एकत्रित करके कहता है- मैंने कल तक जो कुछ कहा था, वह सब गलत था। मैं सर्वज्ञ नहीं 153 For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा हूँ। मैं गोशाला हूँ। भगवान् महावीर का शिष्य हूँ। निमित्त शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर मैंने अपने आप को सर्वज्ञ घोषित किया है। मैं सबसे बड़ा गुनाहगार हूँ। मेरी मृत्यु के बाद शरीर को रस्सी से बांधकर राज मार्ग की ओर लेकर जाना। सारे नगर में उद्घोषणा करवाना कि गोशाला सर्वज्ञ नहीं था। इसने अपने गुरु को ठगा है। मेरे मृत देह पर थूकना, पत्थर मारना और अंत में अग्नि संस्कार करना। . आत्मनिंदा करते-करते गोशाला सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। अंतिम समय में ही आयुष्य कर्म का बन्ध हुआ। इतना पाप किया फिर भी 12 देवलोक में गया। आत्मनिंदा, दुष्कृत की निंदा का यह सुन्दर अनुष्ठान है। गोशाला ने आत्मनिंदा तो की परंतु दुष्कृत गर्दा गुरु समक्ष नहीं कर पाया। यदि गर्दा गुरु के पास कर लेता तो. पाप को मूल से निकाल देता। देव, गुरु की आशातना की जड़ें बहुत गहरी चली जाती हैं। वहीं देव, गुरु के पास गर्दा कर लें तो जड़ें उखड़ जाती हैं। निंदा से घास निकली, पर गर्दा नहीं करने से बीज रह गया। बन्थ टूटा पर अनुबन्ध रह गया 'बन्ध और अनुबन्ध' क्या? कर्म बांधने के पश्चात् अच्छे भाव आते हैं तो बथ टूट जाता है; किन्तु उस कर्म की परम्परा मिटाने के लिए गुरु की शरण में जाकर गर्दा करना अनिवार्य होता है। अपने पापों को प्रकट करना। इससे शल्य निकल जाते हैं। अनुबंध टूट जाते हैं। गोशाला ने भगवान की निंदा क्यों की? कहा जाता है कि उसके जीव ने पूर्व भव । से गुरु निंदा के शल्य को वहन कर रखा था। वही अनुबन्ध रूप कर्म अनेक गुणाकार होकर परमात्मा की निन्दा करने के रूप में उदित हुआ। अतः हर जीव को अति सावधान होना है। साधु-साध्वी भगवन्त भी पूर्ण ज्ञानी नहीं होते हैं। अतः गलती हो जाती है। उनकी गलतियों की निंदा नहीं करनी चाहिए। हो सके तो मधुर वाणी से समझायें, अन्यथा छोड़ दें; पर द्वेष या आशातना करने से गोशाला से भी ज्यादा भयंकर परिस्थिति हमारे साथ घट सकती है। इसलिए हर समय जागृत रहना है। पापों की निन्दा व गर्दा कैसी हो? कहा जाता है, जो पाप जितने भावों से किए, उससे ज्यादा भावों से उसकी निंदा / गर्दा करें। बांधते समय ज्यादा भाव, नोड़ते समय भाव कम हों तो कर्म तोड़ने में महत्व नहीं रखता। शुद्ध श्रद्धा भक्तिमुक्ति यहाँ दुष्कृत गर्दा के द्वारा जीवन को उन्नत बनाने के लिए तीन बातें ध्यान में रखकर आचरण में लाना जरूरी है। ये तीन बातें जिनके जीवन में उतर जाएं, उनकी भव्यता परिपाक हो जाती है। 154 For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा गुरु साक्षी में आत्म शुद्धि- सर्वप्रथम गर्दा करते समय ऐसे भाव होने चाहिए कि मैं मात्र इसी भंव के नहीं बल्कि असंख्य भवों के दुष्कृत्यों के भार को लेकर भटक रहा हूँ। इस प्रकार गुरु के समक्ष अपने उन पापों के भार को स्मरण में रखकर गर्दा करेंगे तो आत्मा निर्मल बनेगी व भार हलका होगा। आज का समय बड़ा विकट है। समाचार पत्रों में हम देखते है प्रथम पृष्ठ पर...। मृत्यु की खबरें अधिक छपी होंगी। मध्यम पृष्ठ के मध्य में मृत्यु की खबरें कुछ कम देखने को मिलेंगी। मृत्यु बहुत सस्ती हो गई है। आयुष्य की मर्यादा घट गई है। आप अपनी गाड़ी एकदम व्यवस्थित चला रहे हैं, परन्तु सामने से आने वाला भूल कर दे और आप की गाड़ी को टक्कर मार दे तो आप क्या कर सकते हैं? क्योंकि आयुष्य का कोई भरोसा नहीं है। इसलिए प्रत्येक जीव को बिना किसी शर्म से आत्म शुद्धि कर लेनी चाहिए। किसी के भी समक्ष नहीं कहने जैसी बात गुरु के समक्ष कह देनी चाहिए। गुरु गंभीर हो। घोर पाप सुनकर चेहरे की एक रेखा भी न बदले। जिनशासन में कितनी सुंदर व्यवस्था है कि अनेक भवों में जो पाप नहीं धो सके, वे पाप यहाँ धो सकते हैं। पूर्व भवों के पापों को हम जानते तक नहीं हैं, फिर भी उनकी व्यवहार से निंदा करते हैं और प्रायश्चित लेते हैं। वर्तमान में पापों की निन्दा करते-करते भूतकाल के पापों का भी प्रायश्चित साथ में हो जाता है। ऐसी व्यवस्था मात्र जिनशासन में है। अन्य धर्मों में ऐसी व्यवस्था शायद ही सुनने को मिलेगी। वहाँ तो अपघात की बातें सुनने को मिलती हैं। अपधान करने से कर्म नहीं मरते हैं, उनके सस्कार और मजबूत बन जाते हैं। दुःखपूर्वक मरने से दूसरे भव में पुनः दुःख आने पर मरने के ही विचार आएँगे; और कितने ही भवों तक यह परम्परा चलती रहेगी। पंचेन्द्रिय की हत्या का पाप नरक में ले जाता है। यह कार्य कायरों का है। सच्चे पराक्रमी व्यक्ति दुःख को समता से सहन कर कर्म का क्षय करते हैं। यहाँ यही समझना है कि यदि समाधिमरण अथवा परलोक में सद्गति चाहते हैं तो आत्मशुद्धि करना होगा। बड़े-बड़े तपस्वी, संयमी आत्मा ने भी छोटा-सा शल्य हृदय में रख लिये तो उनका भी अन्त बिगड़ा। समाधि नष्ट हो गई। जबकि दूसरी तरफ सरलभाव से शुद्धि करने वाले समाधि को प्राप्त कर लेते हैं। यही आत्म शुद्धि की शक्ति है। श्रद्धा- इस भव में प्राप्त हुए सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनी होगी। मैं जो कुछ भी दिखाई दे रहा हूँ, वह सब कुछ परमात्मा की असीम कृपा से प्राप्त है। मेरे अरिहंत देव की तुलना में दूसरे अन्य कोई देव नहीं हो सकते। ये मेरे भगवान के प्रमाण For Person 155rivate Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत ग वचन मुझे मान्य हैं। इसके लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित करता हूँ। जीवन देने के लिए तैयार हूँ। परमात्मा के साथ-साथ उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करने वाले कंचन कामिनी के त्यागी पंचमहाव्रतधारी ही मेरे गुरु हैं। गुरु दुनियाँ में सर्वश्रेष्ठ निधि हैं। उन्हीं पर मुझे दृढ़ श्रद्धा भाव है। उनकी सदैव सेवा, भक्ति, बहुमान करना है । उनके सहयोगी बनना है ताकि भवान्तर में मुझे भी जल्दी से संयम / चारित्र उदय में आएं और मैं भी अपनी आत्मा का कल्याण कर सकूँ। भक्ति- परम तारक तत्त्वों पर अरूचि, असद्भाव कभी नहीं होना चाहिए। परन्तु सामान्य माध्यस्थ भाव भी नहीं होने चाहिए। कलिकाल सर्वज्ञ गुरुदेव ने कहा'माध्यस्थ अपि दोषाय', माध्यस्थता के भाव भी दोष युक्त कहलाते हैं । परमात्मा के दर्शन मन को प्रसन्नता दिलाने वाले हैं। आनन्द विभोर हो जाना चाहिए। कवि धनपाल जी ने तो यहाँ तक लिखा है - जिसे परमात्मा को देखकर अनहद आनन्द की अनुभूति न होती हो तो, या तो वह केवलज्ञानी है या वह असंज्ञी है। असंज्ञी जीव के मन नहीं होता है। जड़ की तरह दर्शन किए और फिर निकल कर आ गए। भीतर प्रेम नहीं उछले तो यह कैसी विडम्बना है। प्रतिमा जी को साक्षात् भगवान् मानना है । उनके दर्शन से मेरा बेड़ा पार हो गया। आज त्रिभुवनपति के दर्शन हुए। दर्शनकरते-करते पागल बन जाना। जब दुनिया पागल कहे, तब होशियार और जब दुनिया होशियार कहे तब हम पागल हैं। परमात्मा हमारे अनन्त उपकारी हैं। अनन्त करुणा का झरना इनके नयनों से सतत् बह रहा है। बस, अपने ही शब्दों से भक्ति करूँ। कविता बनानी नहीं आती हो, परन्तु अपनी टूटी-फूटी भाषा से प्रार्थना करूँगा। कुमारपाल महाराज ने 70 वर्ष की आयु में जैन धर्म प्राप्त किया। फिर संस्कृत सीखी। परमात्मा की स्तुति हेतु वीतराग स्त्रोत्र की रचना की, इस स्त्रोत्र की स्तुति करते-करते स्वयं भाव विभोर हो जाते थे। श्रद्धा-भक्ति बने मजबूत जब कुमारपाल राजा सच्चे श्रावक बन गये, तब कंटकेश्वरी देवी राजा को चलायमान करने आती है। उन पर त्रिशूल फेंकती है, कुष्ठ रोग उत्पन्न करती है और कहती है, 'हे राजन् ! यदि ठीक होना है तो जैन धर्म छोड़ दो।' कुमारपाल राजा भयंकर कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। पूरा शरीर कुष्ठ रोगी, फिर भी भय नहीं। राजा देवी से कहते हैं- 'तुझे जो चाहिए, वह दे सकता हूँ परन्तु अरिहंत 156 For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा भगवान् को नहीं छोड़ सकता हूँ। उनकी आज्ञा मेरे लिए प्राण है। वे सात्विक थे। मैं जलकर मर जाऊँगा पर लोक में जैन धर्म की निन्दा तो नहीं होगी।' राजा कुमारपाल प्रत्येक कार्य गुरु आज्ञा से करते थे। जिनशासन को प्राप्त करने के बाद गुरु का हाथ मस्तक पर नहीं हो तो उनका जीवन शुरू नहीं हुआ। गुरुदेव ने जल मंत्रित करके उन्हें पीने को दिया। राजा द्वारा मंत्रित जल का सेवन करते ही कुष्ठ रोग दूर हो गया। मंत्र की शक्ति द्वारा देवी को पकड़कर क्षमा मंगवाई गई। यहाँ कुमारपाल राजा का सत्व देखने जैसा है। सत्व होना बहुत महत्वपूर्ण बात है। यशोदेवसूरि जी म.सा. ने 36 वर्ष की उम्र में दीक्षा ली। श्रीमंत परिवार से आए थे। दीक्षा के पहले उन्हें गुरु ने एक ही वाक्य कहा- 'कब तक संसार के कीचड़ में पड़े रहोंगे?' यशोदेवसूरि जी म.सा. का सत्व देखिये। बातें तो होती रहती हैं परन्तु उन्होंने नियम लिया कि चातुर्मास के पहले मेरी दीक्षा नहीं हुई तो मेरे प्रतिदिन उपवास का अभिग्रह है। ...और चातुर्मास के पहले उनकी दीक्षा हो गई। 'उपमितिभव प्रपंचकथा' में सत्वगुण की अत्यधिक प्रंशसा की गई है। . सत्वशाली के ग्रह सदा अनुकुल हो जाते हैं, क्योंकि सत्व गुण सबसे श्रेष्ठ गुण है। कुमारपाल राजा सत्वशाली कहे जाते थे। संकल्प किया था प्रतिदिन छः ऋतुओं के पुष्पों द्वारा परमात्मा की पूजा करूँगा अन्यथा आहार पानी ग्रहण नहीं करूँगा। सत्वशाली पुरूषों को देवता भी सहायता करते हैं। दूसरे ही दिन छः ऋतुओं के पुष्प उद्यान में उत्पन्न हो गये। प्रत्येक कार्य में सत्व चाहिए। सत्व के बिना काम नहीं हो सकता है। छोटीभूल,बड़ी सजा . श्रेणिक महाराजा के द्वारा हुई हिंसा की भूल से नरक के आयुष्य का बध हुआ। दो या पाँच मिनट के अशुभ भाव, किन्तु उन पापों को भोगने का समय 84,00,000 वर्ष तक, नरक का भयंकर दुःख, पीड़ा। नरक में कम से कम जघन्य कार्य का फल 10,000 वर्ष का आयुष्य है। किन्तु बांधने का यदि काल अन्तर्मुहूर्त का भी हो तो भोगने का काल असंख्य काल तक भी नहीं छूट पाता है। इसलिए हर समय सावधानी रखनी चाहिए। पाँच मिनट की भी छोटी सी भूल बड़ी तकलीफ, कष्टदायक, पीड़ाकारी बन सकती है। इसलिए परमात्मा महावीर ने अपनी देशना के माध्यम से सूत्र में कहा है- 'समयं गोयम मा पमायये।' हे गौतम! एक क्षण (समय) का भी प्रमाद मत कर। प्रमाद यानि कि राग, द्वेष। 157 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला प्रायश्चित् से आत्म शुद्धि हमें अपने किए हुए पापों के प्रायश्चित् द्वारा आत्मा को शुद्ध कर लेना चाहिए। हृदय के शल्यों का निराकरण कर लेना चाहिए। यदि आत्मा की विशुद्धि जीव कर लेता है तो तूफानी समुद्र में भी जिनशासन की नैया निश्चित रूप से उसे पार उतार देगी। यह पंचम आरा तूफानी समुद्र की तरह है। जिनशासन जहाज समान है। पूर्ण विश्वास जब होगा तब ही भगवान हमें बचा सकते हैं। जिनशासन के अतिरिक्त हमें और कोई नहीं तारेगा। तन-मन-धन समर्पित कर देना होगा। प्रमाद का त्याग करना होगा। इस जीवन रूपी गाड़ी को अरिहंत की आज्ञा रूपी पटरी पर चलाना होगा। अन्दर के शल्यों का निराकरण करके आगे बढ़ना होगा। हमें इस भव व परभव के दुष्कृत्यों की गर्हा करनी है । आज तक हमने क्या किया ? मात्र पाप किये। दुःख भोगे । अर्थ और काम के पीछे दौड़ते ही रहे। जब तक राज्य नहीं मिला, तब तक राज्य की प्राप्ति हेतु कुमारपाल ने जंगल में क्या किया? जंगल में भटकते रहे। जंगल में घूमते हुए जब एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, पास के बिल से एक चूहा बाहर आता और एक स्वर्ण मोहर रखता, फिर उस पर नृत्य करता । इस तरह बार-बार चूहा आता, स्वर्ण रखकर उस पर नाचने लगता। दुष्कृत ग ज्ञानी भगवंत इसे ही अनादिकाल के संस्कार कहते हैं। जीव अर्थ, काम के पीछे सदा से अतृप्त है। वह कभी तृप्त नहीं हो सकता है। तृष्णा का अंत नहीं राज कार्यकर्त्ता के पास करोड़ों रुपये होने पर भी तृप्ति नहीं है। अभी और राज्य सुख चाहिए। उसके पश्चात् प्रधानमंत्री बनना है । शायद कभी प्रधानमंत्री का पद भी मिल जाए तो क्या तृप्ति हो जाएगी? नहीं, चक्रवर्ती का सुख चाहिए। यदि छः खण्ड का साम्राज्य मिल जाये तो क्या शान्ति होगी ? नहीं, देवलोक का सुख चाहिए। देवों को इन्द्र बनना है । इन्द्र बनने के बाद भी भय बना रहता है । वहाँ भी सुख नहीं, क्योंकि आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु होगी। उसका भय। अर्थात् इच्छाओं के रहते व्यक्ति कभी सुखी नहीं बन सकता है। इस मानव जीवन को प्राप्त कर सुन्दर आराधना करनी चाहिए थी, आत्मोन्नति हेतु सुन्दर चारित्र का पालन करना चाहिए था; किन्तु ऐसे सुन्दर संयोग के प्राप्त होने पर भी मानव अर्थ और काम के पीछे अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर डालता है। जिस प्रकार श्रेणिक महाराजा के राज्य में दिन में चित्रशाला का प्रवेशद्वार बनाया जाता और रात्रि होने 158 For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा पर वह टूट कर गिर जाता था, वैसे ही पूरी जिन्दगी धन एकत्रित करते हैं और अन्त में उसे छोड़कर चले जाते हैं। दूसरे भव में वैसे ही खाली हाथ जन्म लेते हैं। पुनः एक से कमाना शुरु करते हैं। आयुष्य कर्म का कोई भरोसा नहीं है। पिता जी जीवित हैं और पुत्र दुनियाँ से अलविदा हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण संसार में देखने को मिलते हैं। जगत् में सभी जीव दूसरों के लिए राम-राम करने जाते हैं, फिर भी स्वयं अभिमान रहता है कि मुझे कुछ नहीं होने वाला है। . अब हमें यह निश्चिय करना है कि जो परलोक में भी हमारे साथ चलेगा, उसी पुण्य का संग्रह हमें करना है। क्योंकि ज्ञानी भगवन्त फरमाते हैं- जो जितना धन संग्रह करेगा, उसके सम्पूर्ण पाप का पार्सल भवान्तर में भी साथ जाएगा। जैसे वट वृक्ष का मूल जीव अपने वनस्पति काय के शरीर में स्थिर था। जब मूल जीव मर जाता है और अन्य गति में पुनः उत्पन्न हो जाता है, तब उसी वृक्ष की लकड़ी को काटकर उससे कुल्हाड़ी व बाण बनाते हैं। उससे फिर लकड़ी काटने का व बाण से शिकार करने का कार्य करते हैं। ...तो यह हिंसा का पाप किसे लगेगा? शिकारी+वृक्ष के जीव, दोनों को पाप लगेगा। यहाँ अधिकरण आदि का पाप लगता है। यहाँ पापों का जितना त्याग करके जाता है, उतना ही कर्मों के भार से जीव हल्का होता है। अर्थ-काम में डूबाजीव . श्रावक सदैव सादगीमय जीवन जीना पसन्द करता है परन्तु मूर्ख जीव अपना बचपन खेलने में व जवानी मौज-शौक में बिता देता है। जबकि श्रावक तो सदैव श्रमण जीवन की उपासना करने वाला होता है। अतः योग्य अवसर पर चारित्र की साधना कर लेनी चाहिए; किन्तु अर्थ और काम में फंसा जीव इनसे सदैव अतृप्त ही रहा और संसार में परिभ्रमण करता रहा। सम्पूर्ण जीवन उसी के पीछे पागल बन समाप्त कर देता है, और अन्त में रोते-रोते परलोक जाना पड़ता है। एक करोड़ रुपये गिनने से रुपये साथ नहीं जायेंगे, किन्तु एक नवकार भी शुद्ध मन से गिन लेता है तो वह परलोक में साथ जाता है। साधुजनों की भक्ति व सेवा सुश्रूषा की होगी तो वे सभी पुण्य अवश्य साथ चलेंगे। इसी से भवान्तर में साधुता का जीवन प्राप्त होता है। जिनशासन कीसेवा भयंकर आरम्भ समारम्भ करने वाले जीवों का उद्धार अनन्त उपकारी परमात्मा से ही हो सकता है। इसलिए जिनशासन की स्थापना की गई है। सात-क्षेत्र दान के लिए बताये गये हैं। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, जिनागम, जिनबिम्ब एवं जिनमंदिर। ये सातों क्षेत्र 159 For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गरे दान-धर्म में श्रेष्ठ माने जाते हैं। द्वारिका नगरी में स्थित दो वैद्यराज अत्यधिक आरम्भ समारम्भ पूर्वक जीवन जीते थे, किन्तु स्वभाव से दोनों एक दूसरे से एकदम विपरीत थे। एक सीधा, सरल, दूसरा अक्खड़ स्वभाव वाला। एकदा गाँव में साधु भगवंत अस्वस्थ हो गये। वैद्यराज को बुलाया गया। अक्खड़ स्वभावी वैद्य जी ने स्वास्थ्य देखकर उन्हें बताया कि आपको शहद के साथ यह दवा लेनी होगी। साधु भगवन्त ने कहा अभक्ष्य शहद का हम भक्षण नहीं करते हैं। अतः दूसरा उपाय बताइए। अक्खड़ वैद्य ने अक्खड़ता से कहा- 'दूसरा उपाय नहीं है। यदि ठीक होना है। तो यह दवा शहद से ही लेनी पड़ेगी अन्यथा मैं चलता हूँ।' यहाँ साधु भगवंत का अपमान कर उनकी अवज्ञा की। सातों क्षेत्र पूज्य कहे गये हैं। उनमें प्रथम साधु भगवन्त को. पूज्य कहा गया है। उनकी मानसिक रूप से की गई अवगणना भी भयंकर विपाक को भोगने वाला बना देती है। साधर्मिक बथु भी महान् होते हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि इन्हीं में से कोई तीर्थंकर का जीव है तो कोई गणधर का जीव हो सकता है। उनकी भी सेवा करनी चाहिए। जिनशासनस्लों कीखान तीर्थ यात्रा का महत्व जानकर दो साधर्मिक बन्धुओं ने तीर्थ-यात्रा के लिए अपने गाँव से प्रस्थान किया। अनेक तीर्थों की यात्रा करते-करते दोनों एक ग्राम में पहुँचे। वहाँ भोजन की व्यवस्था प्रतिदिन चलती रहती थी, किन्तु आज पाकशाला जल्दी बन्द कर दी गयी थी। दोनों को भोजन नहीं मिला। वहाँ के साधर्मिक बन्धु ने केवल आज उनकी उपेक्षा की। आज जाने दीजिये, ये भोजन कहीं और कर लेंगे। वे दोनों बन्धु अन्य स्थान पर पहुंचे और वहीं अपने भोजन की व्यवस्था कर ली। ग्राम में ज्ञानी गुरु भगवन्त का आगमन हुआ। गाँव के जैन बन्धु ने हाथ जोड़कर गुरु महाराज से कहा कि 'मेरे द्वारा कोई भूल-चूक हुई है तो फरमाइये।' गुरु महाराज ने कहा- 'तुम्हारे यहाँ से जो दो साधर्मिक बधु भोजन किए बिना ही चले गये हैं, उनमें से एक तीर्थंकर का जीव था, दूसरा गणधर का जीव था। जिसे दिया जाता है वह सुपात्र जितना श्रेष्ठ होता है, उतना भक्ति का फल भी श्रेष्ठ प्राप्त होता। तुम्हारे यहाँ प्रतिदिन साधर्मिकों को भोजन कराया जाता है, किन्तु कल तुमने उनकी उपेक्षा की। श्रेष्ठ फल प्राप्ति से वंचित रह गये। एक लाख श्रावकों को भोजन कराया जाये अथवा एक श्रेष्ठ आत्मा को भोजन कराया जाये, दोनों का समान फल प्राप्त होता है।' ___चतुर्विध संघ सबसे बड़ा पात्र है, क्योंकि यह रत्नों की खान है। इस संघ में 160 For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा ऐसे-ऐसे अनेक बहुमूल्य रत्न पैदा हुए हैं, जिनके द्वारा सैकड़ो धर्म कार्य सम्पन्न होते हैं। अनेक जिनमन्दिर, दानशाला आदि श्रेष्ठ कार्य इन्हीं के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। - 'भामाशाह', जिन्हें आज भी लोग श्रद्धा से नमन करते हैं, वे भी इसी जिनशासन के रत्न थे। उन्होंने महाराणा प्रताप के समक्ष अपनी तिजोरी का ताला खोलकर रख दिया। उसी सम्पत्ति से मेवाड़ के सम्पूर्ण 360 जिनमंदिरों की रक्षा की गई। वर्तमान 'कुमारपाल वी.शा.' ने भी अनेक जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाकर उनकी सुरक्षा की। इसी चतुर्विद्य संघ में ऐसी सुश्राविकाएँ भी हैं, जो अपने सुपुत्रों को जिनशासन की धुरी को सम्भालने के लिए समर्पित कर देती हैं। उनमें 'माता मदालसा' का नाम स्मरण करते हैं तो उनके चरणों में शीश झुक जाता है। श्रीसंघपरवात्सल्यभाव कहते हैं, जिस श्रीसंघ को हम रत्नों की खान कहते हैं; उस संघ में अनेक गच्छ, पन्थ, समुदाय निकल गये हैं। किन्तु आज भी संघ महान् कहा जाता है। आज जैन संघ के पास शंत्रुजय, गिरनार, राणकपुर, आबू जी आदि अनेक तीर्थों की कीमती सम्पत्ति है और पंचमहाव्रतधारी साधु-साध्वी जी भी संघ के लिए बहुमूल्य सम्पत्ति कहे गए हैं। इनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी श्रीसंघ पर है। यदि तीर्थ हो तो उनके जिर्णोद्धार की व साधु-साध्वी जी हो तो उनके आहार-पानी-औषधि आदि की चिंता श्रीसंघ ही करता है। इसलिए श्रीसंघ को महान् कहा गया है। इसीलिए इस संघ के प्रति वात्सल्यभाव, प्रेमभाव जगाएं। इसी संघ में हमारा जन्म हुआ है, ऐसा योग महान् पुण्योदय से प्राप्त होता है। अतः उनकी किसी भी समय उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। सेवासे आत्म-कमाई . पूर्व में द्वारिका नगरी के दो वैद्यों की बात चल रही थी, जिसमें से एक वैद्य ने . साधु भगवन्त की उपेक्षा की; किन्तु दूसरे वैद्य जी का स्वभाव सरल था। सर्वप्रथम उस वैद्य ने महात्मा का निरीक्षण किया, तत्पश्चात् औषधि दी। उनके आचार-नियम के अनुकूल औषधि बतलाकर उनके स्वास्थ्य को ठीक किया। प्रेम से उनकी भक्ति की। इस पंचम काल के भयंकर संसार में साधु-साध्वी जी की भक्ति ही आत्म-कमाई के लिए एक प्रकाश किरण है। यहाँ वे दोनों वैद्य जी भयंकर आरम्भ-समारम्भ की क्रिया करते थे। प्रथम वैद्य जी ने आरम्भ के साथ ही साधु की आशातना भी की, अतः मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। दूसरा वैद्य आरम्भ सहित जीवन जीता था, पर साधु की भक्ति की शी, अतः मर कर तिर्यंच गति में बन्दर का जीव बना। अत्यधिक आरम्भ के कारण संघ में उनकी निन्दा होती 161 For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गही थी, परंतु साधु के प्रति भक्ति-प्रेम-आदर के भाव से उसकी नरक टली। किस समय कौन से जीव कैसे कर्म बाँध लेते हैं, उन सभी का लेखा-जोखा आत्मा के कंप्यूटर में फीड होता रहता है। हर समय के अलग-अलग अध्यवसाय, भाव-परिणाम का आत्मा बध करती है। ये कर्म किसी जीव को नहीं छोड़ते हैं। काल के परिपक्व होते ही हर जीव को अपने कर्मानुसार वहाँ जाना पड़ता है। कहते हैं, हमारे द्वारा जितने जीवों की हिंसा की जाती है, उनसे हजार गुणा ज्यादा बार हमें पुनः जन्म लेकर मरना पड़ता है। इस जिनशासन को प्राप्त करने के पश्चात् संभल जाना है। अर्थ और काम के पीछे दौड़ लगाना छोड़ देना है। जिनशासन को समर्पित हो जाना है। . ... - जगडूशाह ने अनाज का संग्रह किया, किन्तु बेचकर कमाने के लिए नहीं बल्कि भूखे व्यक्ति को, गरीब को देने के लिए। उन्होंने उस स्थान पर लिखवा दिया- 'यह अनाज गरीबों के लिए है।' जिनशासन रूपी खजाना प्राप्त होने के पश्चात् अपनी तिजोरी को खोल दो। जो मिला है, वह सब परमात्मा का दिया हुआ होने से वह परमात्मा का है। मेरा तो कुछ भी नहीं हैं। मैं तो मात्र मुनीम हूँ। नौकरी करता हूँ। तनख्वाह प्राप्त करता हूँ। अतः मुझे इस सम्पत्ति को मौज-शौक में उड़ाने का कोई अधिकार नहीं है। . अल्पसेवा-भक्ति कागज़ब फल ऊपर के कथानक अनुसार वैद्य मर कर बन्दर बना। वहाँ भी 700 बंदरियों का स्वामी बना। एक दिन उस जंगल में एक सार्थवाह का सार्थ जा रहा था। साथ में साधु भगवन्त भी चल रहे थे। उनमें से एक मुनि भगवंत के पैर में बड़ा सा नुकीला कांटा चुभ गया। चलने में उन्हें भयंकर तकलीफ हो रही थी। उस मुनि ने अन्य भगवन्तों से आगे पधारने के लिए कहते हुए कहा- 'मुझसे अब चला नहीं जा रहा है। अतः मैं यही अनशन कर अपनी अन्तिम साधना कर लूंगा।' दूसरा उपाय नहीं मिलने से मुनिजनों को जाना पड़ा। जंगल में अकेले मुनि को देखकर सभी बंदरियाँ चिल्लाने लगी। तब बन्दर वहाँ आया। साधु भगवन्त को देखकर ऐसा लगा कि इनको पहले कभी देखा है। विचार-विचार में बन्दर को जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान से अपने पूर्व भव को जानने लगा। साथ ही पूर्व भव में वैद्य होने से उसे इस भव में भी जड़ी-बूटियों का ज्ञान हो गया। ज्ञान से जानकर तुरन्त जड़ी-बूटी लाकर मुनि भगवंत की औषधि कर उनको ठीक कर दिया। वहाँ से मर कर बन्दर का जीव देवगति में देव बना। इसके पश्चात् मरकर मनुष्य बनकर पापों का प्रक्षाल कर आत्मसाधना करके मोक्ष को प्राप्त 162 For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा करेगा। आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ दे, वैसा योग है यह दुष्कृत गर्दा। इससे मुख्य रूप से दो प्रकार के फल की प्राप्ति होती है 1. वर्तमान में दुःखों को सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है। 2. अनिकाचित कर्मों का नाश होता है। इस योग का सबसे बड़ा फल है कि धर्मी आत्मा को यहाँ सहिष्णुता प्राप्त होती है। फिर चाहे जितनी भयंकर आपत्ति जीवन में आ जाए, उनको सहन करने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। धर्मी आत्मा समझने लग जाती है कि सांसारिक सुख जिस प्रकार एक भ्रम है, वैसे ही दुःख भी भ्रम है। किन्तु अनादिकाल के अभ्यास के कारण अधिकतर जीव दुःख आने पर राग-द्वेष से ग्रसित बन जाते हैं। राग-द्वेष आत्मा के दो बड़े रोग हैं। कैंसर शरीर का रोग है। शरीर और आत्मा का संयोग ही पहले जीव को दुःखी करते हैं। धर्म में जैसे-जैसे परिणमन करते जाएंगे, वैसे-वैसे उसकी सहिष्णुता बढ़ती जाएगी। - धर्म के द्वारा दो प्रकार के लाभ होते हैं- अनिकाचित कर्म समाप्त हो जाते हैं साथ ही निकाचित कर्म के उदय समय में सहिष्णुता के भाव जागृत होते हैं। . अनादिकाल से जीव ने प्रणिधान पूर्वक पापकर्मों को बाँधा था और अभी भी वैसे ही पापों को बांध रहा है। इस प्रकार प्रणिधान पूर्वक किए गये पापों से कर्मों का अनुबन्ध होता है, यानि इन पापों की परम्परा चलती रहती है। प्रणिधान के कारण हमने पापकर्मों का अनुबध किया है। जिसकी परम्परा चली आ रही है। तीव्र रस वाले कर्मों के अनुबन्ध उदय में आते समय, उतनी ही तीव्रता से कर्मफल भोगने पड़ते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज तक हमने जितने भी प्रणिधान पूर्वक पापों के अनुबध किये हैं, उनसे भी ज्यादा प्रणिधान पूर्वक दुष्कृत की गर्दा में स्वयं को लगाना होगा। इससे अनादि काल के अशुभ कर्मों का बन्ध टूटेगा और रस भी फीका पड़ेगा। इससे कमी अशुभ कर्म भोगना भी नहीं पड़ेगा। दुष्कृत गर्दा से ही जीव संसार की परम्परा के बन्धन को छोड़ सकेगा। इसके बिना यह परम्परा समाप्त नहीं हो पायेगी। . अनुबन्ध को तोड़ते-तोड़ते कभी उच्च कोटि के भाव आ जाने से सम्पूर्ण कर्म टूट श्री जाते हैं। दुष्कृत गर्दा से जीव अपने पापों को धो सकता है। इससे अशुभ फल भी धुल जाते हैं। 163 For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा दुष्कृत गर्दा से तीव्र से तीव्र रस वाले कर्म अल्परस वाले बन जाते हैं, पुराने पाप कर्मों के अनुबन्ध टूट जाते हैं। आज तक हम सभी ने प्रणिधान, एकाग्रता और दुनिया के स्वार्थ के भाव से पाप कर्म किए। ऐसे पाप कर्म के द्वारा आत्मा में तीव-रस और अनुबन्य वाले कर्मों का बन्ध हुआ। अतः इन दोनों प्रकार के कर्म बन्ध को तोड़ने की शक्ति इस दुष्कृत गर्दा में है। जैसे हिंसा का पाप हमने बहुत किया। चूल्हे में लकड़ी जलाते समय आँख में पानी आया? शेयर बाजार में रुपये जब कागज बन गये, तब रागी को रात में नींद हराम हो गई। पुत्र बीमार पड़ा, उसको देखकर आँखों में आँसू आए, किन्तु पाप कर्म करते समय क्या रोना आया? हमने हँसते-हँसते कर्म बाँधे थे। उस समय विचार नहीं आया कि इन कर्मों का उदय आएगा तो कैसे इनको भोगेंगें। __ प्रणिधान पूर्वक किए गये पापों को कैसे भोगेंगे, यह चिन्तनीय प्रश्न है? कैसे करें दुष्कृत-गा? ये पाप करने जैसे नहीं हैं, फिर भी मैंने किये हैं। अरे! इतनी हिंसा की मैंने? परिग्रह का अमाप संग्रह किया? जो नहीं करना था, फिर भी करता ही रहा और जो करना था, उसे नहीं किया। जैसे मुझे आठ वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर आत्म-कल्याण करना था, वह मैंने नहीं किया। परमात्मा ने कहा- यह दुर्लभ मानव जीवन सम्पत्ति एकत्रित करके परिवार चलाने के लिए नहीं है। तो ये मैंने किया। यह जीवन आत्मा साधना-आराधना हेतु . चारित्र ग्रहण करने के लिए है, तो वह मैंने नहीं किया। ___ संसार में रहकर पाप करते हैं, फिर भी उनसे अपना बचाव करते हैं। संसार यानि पापों में रहना। पापकर्म करना। ऐसा बचाव नहीं चाहिए। अकर्त्तव्यत्व (अकत्ता) की बुद्धि को प्रधानता देनी होगी। मैं कुदरत का, कर्मसत्ता का गुनाहगार हूँ। कुदरत ने मुझे पाँच इन्द्रिय, जैनधर्म, देव-गुरु सब कुछ दिया। क्या मैं इनका सही रूप से उपयोग कर पाया? देव, गुरु के वचनों के विपरीत जो कुछ किया, वे सब दुष्कृत ही हैं। अतः इन पापों की मुक्त कण्ठ से निन्दा करनी है। एक-एक दुष्कृत को याद करते हुए आँखों से आँसू निकलने चाहिए। दुर्लभसमाधिहै लब्धिसूरि म. परमात्म स्तवन में लिखते हैं- 'हूँ पापी छु नीच गति गामी' दिन भर में कितनी बार याद आता है? हम थोड़ी आराधना करते हैं, और स्वयं को आराधक आत्मा मानने लग जाते हैं। दो-चार भव पश्चात् हमें मोक्ष हो जाएगा। जब अच्छे काल में भी समाधि दुर्लभ होती है तो दुष्काल में, व्याधि में, मृत्यु के समय समाधि क्या रह 164 For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत पायेगी ? जहाँ समाधि मरण ही दूर है वहाँ मोक्ष तो दुर्लभ ही है। समाधि काँच से ज्यादा नाजुक है। समाधि को टिका पाना ज्यादा मुश्किल है। जैसे जरा सी टक्कर लगी कि काँच टूट जाता है, वैसे ही जरा से दो शब्द किसी ने कहे, मन खण्डित हो जाता है। मन में धर्म से विपरीत चिन्तन चला, यानि असमाधि हो जाती है । चित्त की स्वस्थता ही समाधि है। जबकि मन से कुछ विपरीत हो जाए तो मन के विचार ही विपरीत हो जाते हैं। अन्त समय में सम्बन्धीजनों को परिजनों को छोड़कर प्रयाण करना होता है, इसलिए मानव समाधि टिका नहीं पाता है। यदि कोई नवकार मन्त्र भी सुनाते हैं तो उस समय मन स्थिर नहीं हो पाता है। मन तो शारीरिक वेदना में ही जाता है। लाखों प्रकार के अध्यवसाय चित्त समाधि को तोड़ देते हैं। सद्गति दुर्लभ है, क्योंकि समाधि दुर्लभ है। मृत्यु के दो रूप संवेगरंगशाला एवं उत्तराध्ययन सूत्र में मृत्यु के दो रूप बताए गये हैं1. निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण एवं 2. अनिच्छापूर्वक अथवा भयभीत होकर मृत्यु को वरण करना। समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। मरण के पहले प्रकार को पण्डितमरण या समाधिमरण कहा गया है, और दूसरे प्रकार को बाल (अज्ञानी) मरण या असमाधिमरण कहा गया है। पहला ज्ञानीजन का देहत्याग है, तो दूसरा अज्ञानी एवं विषयासक्त का मरण है, इसलिए ज्ञानी अनासक्त होने से एक बार ही मृत्यु का वरण करता है, बल्कि अज्ञानी विषयासक्त होने से बार-बार मृत्यु को प्राप्त करता है। अज्ञानी मृत्यु के भय से कांपता है तथा उससे बचने का प्रयास करता है; किन्तु ज्ञानी मृत्यु का वरण करता है । मृत्यु से भयभीत नहीं होता। उस अवस्था में भी वह निर्भय होता है। अत: अमरता की दिशा में आगे बढ़ता है। साधकों के प्रति भगवान महावीर का • यही सन्देश था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर देहासक्ति छोड़कर उसका मित्रवत् स्वागत करो। • मरण के पाँच प्रकार संवेगरंगशाला के रचयिता जिनचन्द्रसूरि जी ने मरण विभक्ति के पश्चात् बारहवें द्वार में मरण के स्वरूप की चर्चा की है। इसमें सर्वप्रथम रचनाकार पण्डितमरण का 165 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा स्वरूप फरमाते हैं। यह मरण दुःखों के समूहरूप लताओं का नाश करने के लिए एक तीक्ष्ण धार वाली कुल्हाड़ी के समान है। इसके विपरीत जन्म-मरण और दुःखों की परम्परा को बढ़ाने वाले मरण को वीतराग भगवान् ने बालमरण कहा है। पुनः इन दोनों के पाँच उप-प्रकार बतलाए हैं 1. पण्डित-पण्डित मरण -जिनेश्वरदेवों का 2. पण्डितमरण - सर्वविरतिधर साधुओं का 3. बालपण्डितमरण - देशविरति श्रावक आदि का 4. बालमरण - अविरत सम्यक्दृष्टियों का 5. बाल-बालमरण - मिथ्यादृष्टियों का जो जिनेश्वरदेव कथित वचनों पर श्रद्धा नहीं रखते हैं, वे जीव अनन्त बार जन्म-मरण करने के पश्चात् भी लेशमात्र निर्वेद गुण को प्राप्त नहीं करते हैं। बालमरण का संक्षेप में उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह संसार दुर्गम अटवी के समान है, जिसमें दुःखों से पीड़ित जीव बालमरण से मरते हुए अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहे हैं। जन्म, जरा, मरणरूपी इस चक्र में परिभ्रमण करते हुए अत्यधिक थक जाने से वे संसार से पार नहीं होते हैं। जिस प्रकार रहट में बांधा हुआ बैल दिन-रात घूमता ही रहता है, उसी प्रकार जीव भी संसार में परिभ्रमण करता है। अतः बालमरण के स्वरूप को जानकर धीर पुरूषों को पण्डितमरण स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ दुष्कृत्य किसे कहा गया है, उसे पहले समझना होगा। श्री अरिहंत भगवान तथा मंदिर जी की आशातना, विरोध, अविनय, अवर्णवाद या अनादर आदि करना, उनकी आज्ञा की अवहेलना करना, उनके तत्त्व सिद्धांत या मार्ग का विरोध करना या विराधना करना, अश्रद्धा या अशुद्ध प्ररूपणा करना इत्यादि इनके विषय प्रति विपरीत आचरण दुष्कृत कहे जाते हैं। लक्ष्मणा साध्वी जी को इन्हीं विराधनाओं के पीछे आठ सौ कोड़ा कोड़ी सागरोपम जितने काल तक संसार में भटकना पड़ा। सिद्ध भगवान के प्रति हमारा विपरीत आचरण क्या हुआ? अभव्य की तरह मान्यता हो जाना। जैसे सिद्ध कोई हो ही नहीं सकते हैं, यदि होते हैं तो इनमें चैतन्य जैसा क्या होता है! अनन्त सुख के प्रति कुशंका होना, वहाँ पर खाना-पीना, लाड़ी, वाड़ी, गाड़ी आदि नहीं है, तो सुख कैसा है? ऐसी अनेक मिथ्या मान्यता एवं प्ररूपणा व सिद्ध भगवान की मूर्ति की आशातना आदि करना, ये सभी सिद्ध भगवान के प्रति विपरीत 166 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा आचरण हैं। मुक्ति में सुख कैसा? ऐसी शंका करने वाले को यह ख्याल नहीं है कि वहाँ पर किसी भी प्रकार की तृष्णा नहीं है। खाने-पीने का कष्ट भी नहीं है। इसलिए तो वहाँ सच्चा सुख है। कोई कर्म नहीं है, अपेक्षा नहीं है, इसलिए ही अनन्त स्वाधीन सुख है। ये सुख काल्पनिक सुख नहीं,बल्कि वास्तविक सुख हैं। काल्पनिक तो इन्द्रियों के विषयों का सुख है, क्योंकि जिस वस्तु में जैसा सुख प्राप्त होता है, वैसा ही सुख अन्य मनुष्य को या दूसरे समय उसी वस्तु में स्वयं को भी प्राप्त नहीं होता है। इसलिए संसार में सच्चा सुख कहाँ है? धर्म स्थान के प्रति भी विपरीत आचरण में अनाचरणीय और अनिच्छनीय आचरण को इस प्रकार समझना होगा? इसमें माता-पिता से लेकर कोई भी जीव के प्रति कृतघ्नता, द्रोह, ईर्ष्या, पीड़ा, अपमान, इत्यादि अनाचरणीय कहलाते हैं। मार्ग साधन की आशातना, अवगणना, नाश इत्यादि भी अनाचरणीय कहलाते हैं। संक्षिप्त में- जो कोई मिथ्यामति अज्ञान, अप्रशस्त राग-द्वेष, हास्य-मसखरी, हर्षोन्माद, असद् खेद या क्रोधादि कषाय वश जीव या जड़ के प्रति बोला गया या विचारा गया, ये सभी अनाचरणीय अनिच्छनीय गिने जाते हैं। इनकी गर्दा करनी चाहिए। . अपने द्वारा हो गये दुष्कृत्यों का सच्चा 'मिच्छामि दुक्कडम्' करना हो और दुष्कृत्यों के संस्कार और दुष्कृत्यों से बंधे हुए कर्मों को आत्मा में से फेंक देना हो तो इतना जरूरी है कि 1. अहंभाव के त्याग के साथ ही सच्चे पश्चात्ताप के योग्य कोमल और नम्र हृदय; 2. दोषों पर तिरस्कार भाव; 3. आत्मा के प्रति जुगुप्सा; और 4. दोष सेवन करने वाले को पोषण करने वाले दुष्कृत्य के मूल में रहे हुए कषाय की शान्ति के साथ क्षमादिधर्म का आलम्बन जरूरी है। . भगवान अरिहंत देव से लेकर सर्व जीव और सर्व साधन के प्रति चाहे जिस प्रकार से जन्म जन्मांतर में दुष्कृत्य किये हों, उनके इस पद्धति से निन्दा, गर्हा, दुगंच्छा, पश्चात्ताप हो, तो ऐसे दुष्कृत्य को सहजता से करवाने वाला मूलभूत संसार और अतत्त्व के प्रति रूचिभाव रूपी पाप उसका प्रतिघात क्या नहीं होगा? . कहने का तात्पर्य यही है कि संसार के सभी दुष्कृत्यों की यदि सही रूप से गर्दा होगी तो इन पापों का प्रतिघात होगा ही। 167 For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा आत्म-विकास में उपयोगी पाँचभाव 'मिच्छामि दुक्कडम्' में गर्भित ये पाँच भाव आत्मविकास के लिए बहुत उपयोगी 1. दोषोंकातिरस्कार 2. दोषित आत्माकीदुर्गच्छा 3. नम्र और कोमल हृदय 4. स्वच्छन्द निरंकुशवृत्ति पर रोक; और 5. दोष दुष्कृत्य के मूल में काम करने वाले कषायों का उपशम,अतत्व रुचि का त्यागा पहले एवं दूसरे भावों से यह लाभ है कि दोषों का फिर से सेवन करने का प्रसंग आ भी जाए तो उसमें पहले के जैसे रस नहीं रहेगा। दोषों को कम से कम करने की वृत्ति बन जाएगी। इसलिए जब तक दुष्कृत्य सेवन चल रहा है, तब तक इनकी गर्दा और स्वात्म दुर्गच्छा रहनी ही चाहिए। यहाँ प्रश्न उठता है कि पाप करते रहे और फिर उन पापों की गर्दी करते रहे तो क्या दंभ या छल पंपच नहीं होगा? उत्तर में कहा जाता है कि यदि इस प्रकार दंभ का विचार करके जो बारम्बार किये गये दुष्कृत्य की गर्दा का कार्य न करे तो जीव कभी भी ऊँचा नहीं आ पाएगा। क्योंकि, संसार में पहली बार में दोषों का त्याग हो ही नहीं सकता है। गृहस्थ को घर-संसार के आरम्भ परिग्रह एवं विषयों के पापं रहते ही हैं। साधु को वीतरागता प्राप्त होने से पहले अनेक छोटे-छोटे राग-द्वेष, हास्य, रति-अरति इत्यादि बाधक बनते हैं। यदि इनकी गर्दा, तिरस्कार, स्वात्म दुर्गच्छा नहीं करते हों तो इसका अर्थ यह होगा कि उनका दिल दोषों में दुःखी नहीं होता बल्कि खुश रखने वाला बनता है। बाद में ये कभी छूट नहीं सकेंगे, ये गर्हा-दुर्गच्छा चलती रहेगी तो ही दोषों का सेवन निष्क्रिय बनते जाएँगे। इसलिए पापों की गर्दादि में दंभ या छल प्रपंच नहीं है, जबकि यहाँ किसी को दिखाने के लिए, या दूसरी तीसरी लालसा के लिये नहीं, बल्कि अन्तर से अकर्त्तव्य रूप से पूर्ण लगन से दोषों के प्रति गर्दा तिरस्कार होना चाहिए। भरत चक्रवर्ती को भी ऐसी आन्तरिक गर्दा चलती रहती थी। इसी का प्रताप था कि आरीसा भवन में मौका मिलते ही रागादि दोषों की गर्दा और इनके पोषक पदार्थ के ऊपर घृणा बढ़ी, फिर प्रबल पापप्रतिघात होते ही तुरन्त उनको केवलज्ञान प्रकट हुआ। 168 For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा तीसरे एवं चौथे 'मिच्छामि दुक्कडम्' में दूसरी बात यह आती है कि इससे नम्रता कोमलता आए और निरंकुश वृत्ति पर रोक लगाएँ। कठोर मिट्टी पर आकार नहीं बैठता है, वैसे ही कठोर हृदय में गुणों का आकार नहीं बनता है। कोमलता में ही आकार बैठता है। स्वयं को और दोष दुष्कृत्य को महत्व देना कठिन है। इसलिए यदि कठिनता को निकाल दिया जाय और गुरु के समक्ष दुष्कृत्य की सच्ची गर्दा की जाये तो इसमें अहम्त्व का भाव दबेगा। मैं बड़ा, मैं अच्छा, गुरु के आगे अपनी तुच्छता क्यों दिखाऊँ? ऐसा अहं भाव ऊँचे गुणस्थान में चढ़ने नहीं देता है, इसलिए नम्रता भी आवश्यक है। _ पाँचवें भाव में दोष या पापों को खुशी-खुशी सेवन करने की अनादि काल की गलत आदत है। इन्हें निकालने के लिए खोजना होगा कि अन्तर की कौन सी दुष्ट वृत्ति पर इन दोषों का सेवन किए जा रहे हैं? चक्षुशीलता या स्पर्श कुशीलता में निर्भयता हो और इनमें लोभ रहे, यह हृदय की दुष्ट वृत्ति है। इसी मूल बीज के ऊपर परस्त्री का निरीक्षण या स्पर्श का पाप किया जाता है। इसलिए इन पापों को प्रेरित करने वाले बीजों को ही उखाड़ कर फेंक देना चाहिए। ऐसे प्रत्येक दुष्कृत्य और पापों को निकालने के लिए इनकी मूलभूत दुष्ट वृत्ति को उखाड़कर फेंकना है। इनके निकल जाने से इनके ऊपर दुष्कृत्यों का उत्पन्न होने का बंध हो जाएगा। - दृष्टान्त - क्रोध कषाय का दुष्ट भाव ही अपशब्द, कठोर-भाषा, प्रहार करना आदि पाप करवाता है? यदि मूल में से जो क्रोध कषाय को ही शान्त कर दिया जाय तो अपशब्द, कठोर-भाषा इत्यादि बोलने के लिए तत्पर नहीं बनेगा। यही सहजता है। इस प्रकार दुष्ट वृत्ति और सभी कषायों का उपषम करने से ही पाप की सीमा उलांघी जा सकती है। जैसे रोग की चिकित्सा करके उसके मूलभूत कारण को हटा दिया जाता है, वैसे ही पाप-दुष्कृत्यों के निवारण में भी मूलभूत कारणभूत कुवृत्ति को खोज कर निकाल कर हटाने का प्रयत्न करना चाहिए, तो ही सच्ची उन्नति होती रहेगी। आत्मा में से दुष्ट भावों के हटने से ऊँचे गुणस्थानक चढ़े जाते हैं। यहाँ दोष को तिरस्कार और स्वात्मा की दुर्गच्छा करने के विषय में 'अईमुत्ता मुनि' का सुन्दर प्रसंग घटता है, जिसका पूर्व में विस्तार से वर्णन किया गया है। बालचेष्टावत् तालाब में पात्र को तिराया। मुनियों ने उनको सावधान किया, परन्तु उनको ऐसा दर्द हुआ कि अरे! प्यारे प्रभु ने तो मुझे पाप से बचाने के लिए चारित्र देने का महान् उपकार किया, और मैं दुष्ट फिर से पाप कर रहा हूँ? कैसा अधम हूँ? परन्तु अन्य मुनियों की विचारणा कैसी थी कि इन असंख्य जीवों की विराधना का दुष्ट पाप? इस अईमुत्ता 169 For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला - दुष्कृत गह मुनि को अभी और कितने भव करने होंगे? इस प्रकार विराधना करने वाले मुनियों को प्रभु ने सावधान किया कि अईमुत्ता मुनि तो चरम-शरीरी हैं, यहाँ से मोक्ष जाएँगे। इनकी कीमत कम मत गिनो। तब वहाँ मुनिजन स्वदोष की गर्हा-दुर्गच्छा करते हैं। कैसा धन्य शासन है। ___ स्वछंद वृत्ति का त्याग व नम्रता का स्वीकार 'कुमारपाल' के जीव ने पूर्वभव में ही किया था। राजकुमार होते हुए भी दुष्ट व्यसन के कारण देश से निकाल दिया गया था, जिससे जंगल में लुटेरा बना। अभिमान और स्वच्छंदता के घोर कृत्य करता था। परन्तु मुनि के सम्पर्क से दुष्कृत्य-गर्दा में चढ़ा। नम्र बन गया। स्वच्छंदता भूलकर गुरुभक्त और अर्हद्भक्त बन गया। वही जीव मृत्यु प्राप्त कर कुमारपाल राजा बनाा परमार्हत गुरुभक्त और अर्हदभक्त बना। 'मिच्छामि दुक्क्डम्' के आंतरिक भावों के साथ गर्दा करते हुए ऐसी भावना भावित करें कि इस प्रकार मेरी सम्यक् विधि सहित और भाव से दुष्कृत्य गर्दा हो। मात्र शाब्दिक ही नहीं, हार्दिक गर्दा ऐसी हो कि जिससे उन दुष्कृत्यों की लेशमात्र भी सुन्दरता या कर्त्तव्यता अब मुझे नहीं भाषित हो। साथ ही जैसे एक बार रागद्वेष की गांठ भेदन करने के बाद फिर से कर्म की उत्कृष्ट काल-स्थिति का बन्ध नहीं होता हैं, उसी प्रकार हृदय में फिर से उन दुष्कृत्यों के बन्ध अब नहीं रहें, ऐसा उनके अकरण का नियम हो। 1. पूर्व के दुष्कृत्य की गर्दा और 2. भविष्य के दुष्कृत्य का अकरण नियम, ये दोनों; अथवा ___1. चतुःशरणगमन और 2. दुष्कृतगर्दा, ये दोनों मुझे बहुत ही रूचिकर लगते हैं। इसलिए मैं त्रिलोकनाथ श्री अरिहंत भगवान और कल्याण मित्र गुरुदेवों की मुझ पर कृपा और हितशिक्षा की इच्छा प्रतिदिन करता हूँ। इनकी कृपा और हितशिक्षा, चार शरण स्वीकार तथा दुष्कृत्य गर्दा का, ऊपर कहे अनुसार गुणों का विस्तार करना ही साधना में बीजभूत है। यहाँ गुरु साक्षात् उपकारी होने पर भी पहले देव की, फिर गुरु की हितशिक्षा की कामना क्यों की गई? इसका कारण यही है कि तत्त्व को अंगीकार करने वाली आत्मा ही मूल उपदेशक है, इसलिए अधिक गुणी परमात्मा की ओर पहले प्रवर्तमान होना, यह उचित है। दुष्कृत गर्दा के बाद ही अनुशासित की क्यों कामना की? इसके लिए कहा गया कि तत्त्वानुसारी मनुष्य को अधिक गुणों के लिए, उनकी तरफ झुकने व मोड़ने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ये स्वीकार करने पर ही तत्त्वों को स्वीकार किया, ऐसा सच्चा गिना जाएगा। यह एक कर्त्तव्य निश्चय है कि मैं अरिहंत भगवान् की और गुरु की आज्ञा की 170 For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा इच्छा करता हूँ। ___यहाँ यह ध्यान में रखना है कि इनकी हितशिक्षा और समागम, ये दोनों प्रणिधान केवल 'कोरी-प्रार्थना' करने को ही सूचित नहीं करते हैं, बल्कि 'मैं इन दोनों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होऊँ', ऐसा हृदय का दृढ़ निर्णय करने को भी सूचित करते हैं। इसलिए प्रार्थना के साथ-साथ ऐसा निर्णय भी करना चाहिए। अरिहंत आदि का समागम भी मात्र अपनी शक्ति से ही नहीं मिलने वाला बल्कि देवाधिदेव और गुरु की कृपा से मिलता है। इसलिए उनके समान उनको प्राप्त करने की पीडायुक्त उत्तम प्रार्थना हो। __हे प्रभु! आपका संयोग मुझे हमेशा मिले; अहो! परम पुरूष द्वारा चली आ रही उत्तम वस्तु की प्रार्थना मात्र भी जगत् में कैसी अलभ्य, अनमोल और अनन्त उपकारक वस्तु है। उनके ऊपर मुझे अत्यधिक सद्भाव एवं सम्मान हो, जिससे जीवन में हृदय के अत्यन्त उल्लास के साथ यह प्रार्थना बारम्बार करता रहूँ।' इस प्रकार प्रार्थना बारम्बार करने से मुझे मोक्ष का बीज प्राप्त हो, यह भी प्रार्थना का स्वरूप है। प्रार्थना आत्मा को नम्र बनाती है। जिनके आगे प्रार्थना की जाती है, उनकी ओर विशेष निकटता व नम्रता लाती है। शुभ अध्यवसाय को जागृत करके दीर्घकाल तक जीवन्त बनाकर रखती है तथा जीव को सुसस्कार से समृद्ध करती है। इससे मिथ्यात्व आदि कर्म नष्ट होते हैं, और मोक्ष बीज प्राप्त होते हैं। ___ मोक्षबीज स्वर्ण कलश की तरह अनुबन्ध वाला 'शुभकर्म' है। अनुबन्ध मतलब परम्परा। जैसे सोने का कलश तोड़े जाने के बाद भी सोना रहता है, वैसे ही प्रार्थना से प्राप्त हुआ शुभ पुण्य कर्म विपाक भले ही भोग लिया जाता है, परन्तु ये शुभानुवन्धी कर्म होने से नवीन शुभ कर्म उपस्थित हो जाते हैं। शुभकर्मों की परम्परा आरंभ हो जाती है। देव-गुरु के संयोग से हृदय में ऐसी उत्कण्ठा होती है कि मेरी दुष्कृत की गर्दा जीवन्त रहे। उस पर मुझे बहुमान-आदर प्राप्त हो। मेरी यह प्रार्थना उत्कृष्ट बनी रहे। श्री उत्तराध्ययन सूत्र की टीका का एक सुन्दर प्रसंग प्रस्तुत है एक चित्रकार की पुत्री के बुद्धिबल और विवेकशक्ति को देखकर राजा ने उसे अपनी पटरानी बनाया। दूसरी अन्य रानियों को उस पटरानी से ईर्ष्या के भाव थे। इसी कारण अन्य रानियाँ ईर्ष्यावश उसके विरूद्ध राजा के कान भरने लगीं। एक दिन वे रानियाँ कहने लगीं- 'देखिए! आपकी पटरानी दरवाजा बन्द करके अन्दर जादू टोना करती है।' गुप्त रूप से, दरवाजे के छिद्र से राजा ने देखा कि मेरी प्रिय रानी तो चित्रकार की पुत्री के 171 For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गहाँ समय के पुराने वस्त्रों को पहन कर गद्गद् हृदय से प्रभु से प्रार्थना करती है कि 'हे प्रभु! आप सदैव मेरे हृदय में बसे रहना। हे जीव! तू अपनी पुरानी स्थिति को याद रखकर कभी अभिमान मत करना। तेरी अन्य बहनों के प्रति प्रेम भाव रखना। इनका सम्मान करना।' ___ राजा चकित होकर दूसरी रानियों को उसके ऐसे सुन्दर भाव को बताकर उसके प्रति का ईर्ष्याभाव छुड़वाता है। अपनी पटरानी पर और अधिक आदर भाव वाला बनता है। प्रार्थना कैसे चमत्कार का सर्जन करती है, यह इस प्रसंग से जाना जा सकता है। दुष्कृत्य गर्दा और देव-गुरु संयोग तथा इनकी प्रार्थना, इन तीनों पर बहुमान भी करने योग्य है। ये ऐसे हैं कि इनके सामने जगत् कचरा लगता है। अपनी होशियारी भी व्यर्थ लगती है। गर्दा, संयोग प्रार्थना और बहुमान, इन मोक्ष बीजों से साधक सुदृढ़ शुभानुबन्ध की स्थिति उपस्थित करता है। जैसे, सोने का कलश टूट जाने के बाद भी सोना उपस्थित रहता है, उसी प्रकार यहाँ मृत्यु भी हो गई तो गर्दादि चारों का अन्त होने पर इनका सार तत्त्व अर्क उपस्थित रहेगा और इससे भवान्तर में शुभ-परम्परा चलती रहेगी। गुणसेन राजा के द्वारा अग्निशर्मा तापस के पारणे का लाभ लेने में अनजानेपन से भी भूल हुई, वह अनुचित ही हुआ ऐसा लगता है; परंतु इससे अन्त में अग्नियुक्त रेत के उपसर्ग में भी वह तापस के जीव के प्रति विशेष क्षमाभाव रखता है तथा देव-गुरु सहित जैन धर्म का संयोग मिलना अति दुर्लभ जानकर उस पर समर्पित हो जाता है। इससे गुणसेन का शुभानुबन्ध भाव उपस्थित होता रहता है। आने वाले भवों में वे उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए अन्त में समरादित्य-केवली-भगवान बने। इस प्रकार प्रार्थना बहुमान, गर्दादि द्वारा मोक्षपर्यंत उपयोगी बनती है। इस शुभ संस्कार से ऐसी परम्परा को देने वाले शुभ कर्म मुझे प्राप्त हों। अरिहंत आदि का संयोग सफल कहलाता है। संयोग मिलने के पश्चात् अरिहंत की सेवा करने से संयोग सार्थक गिना जाता है। इनकी सेवा सदैव करनी चाहिए, यही मानव जीवन की प्रभावना है। दूसरों की सेवा से जीव को सुख के बदले दुःख मिलते देखा है, किन्तु अरिहंतादि की सेवा से शाश्वत् सुख प्राप्त होता है। ___मैं चाहता हूँ कि तारक देवाधिदेव और सद्गुरु मुझे प्राप्त हुए हैं तो मैं इनकी सेवा उपासना करने के योग्य बनूं। लायक बनूं। उत्तम पुरूषों की सेवा अच्छी तरह से करने क अवसर योग्य आत्माओं को ही मिलता है। साथ ही योग्य बनकर सेवा करने वाला, सेल की कृपा का पात्र बनता है। इसलिए मैं कल्याणकारी आज्ञा में रमण करने वाला पात्र बनूं। For Personal Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुष्कृत गर्दा परमात्मा बनने की कला "जिन की आज्ञा का पालन तो शिवसुन्दरी का संकेत है।' उनकी प्रतिपति वाला बनें; स्वीकार, भक्ति, बहुमान और समर्पितता वाला बनूँ, जिससे उनकी आज्ञा को अतिचार रहित सम्पूर्ण पालन कर भवपार करने वाला बनूं। निरतिचार आज्ञापालन की पराकाष्ठा में मैं पहुँचूँ। इसलिए ये मेरी बहुमानपूर्वक प्रार्थना है। सेवा भक्ति के बिना आज्ञा की योग्यता नहीं मिलती है। जैसे आज्ञा में रमण करने की सम्यग् आत्म-दशा, आज्ञा के सही स्वीकार बिना समर्पितता होना अशक्य है; उसी प्रकार स्वीकार समर्पितता के बिना समर्पितता होना अशक्य है। स्वीकार समर्पितता के बिना सम्पूर्ण आज्ञा का पालन करके अंशमात्र भी भूल या दोष न लगाकर भव पार उतरने का कार्य अशक्य है। इसलिए ऐसा क्रम रखा गया कि सेवा-भक्ति की मुझे योग्यता प्राप्त हो, आज्ञा में रमण करने की योग्यता प्राप्त हो, मुझे आज्ञा पालन का अवसर प्राप्त हो, और मैं आज्ञापालन को दोष लगाए बिना, अखण्ड रूप से चलाकर पराकाष्ठा की आज्ञा पालन तक सीधे पहुँच सकूँ। - यहाँ यह सूचित करते हैं कि 'देव गुरु संयोग मिलने पर पहले कर्त्तव्य योग्य बनकर उनकी सेवा करना है।' शय्यंभव, भद्रबाहु, हरिभद्र इत्यादि ब्राह्मण चारित्र ग्रहणकर पहले देव-गुरु की सेवा में लग गये। जिन आज्ञा, जिन वचन के योग्य बनकर उसी में रमण कर प्रभावक आचार्य बने। वराहमिहिर, कुलवालक, बालचन्द्र इत्यादि मुनियों ने भूल की तो इनका जीवन धूल बन गया। इसलिए योग्य बनकर सेवा करनी चाहिए। हे प्रातः स्मरणीय परमात्मा! मैं कितनों को याद करूं? सामान्य रूप से कहूँ तो इस विश्व में मोक्ष मार्ग में रहे हुए अथवा मिथ्यात्त्वरूपी उन्मार्ग में रहे. सब जीवों के प्रति अथवा मोक्षमार्ग के साधन रूप पुस्तकादि उपकरणों के प्रति अथवा उन्मार्ग के साधनरूप तलवार आदि अधिकरणों के प्रति अविधि से परिभोग करने में जो कोई विपरीत आचरण किया हो, नहीं करने योग्य तथा नहीं चाहने योग्य ऐसा पापानुबन्धी पाप आचरण किया हो; फिर वह पाप इस जन्म में या जन्मांतर में किया हो, वह पाप सूक्ष्म हो या स्थूल हो; मन से, वचन से, काया से, राग से, द्वेष से, मोह से किया हो, करवाया हो, अनुमोदन किया हो; वह सब अवश्य निन्दा करने योग्य है। दुष्कृत स्वरूप है। छोड़ने जैसा है। ये बातें मैंने एकमात्र मित्र ऐसे मेरे गुरु भगवन्त के वचनों से सुनी हैं और ये बातें 173 For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गरे ही ठीक हैं, ऐसा मेरे हृदय में स्थापित हो गया है, इसलिए हे अरिंहत परमात्मा! हे सिद्ध भगवान्! आपके समक्ष में इन पापों और दुष्कृत्यों की निन्दा करता हूँ। मेरे ये सब पाप मिथ्या हों! मिथ्या हों! मिथ्या हों! हे प्रभु! उन भूलों के प्रति बार-बार मिच्छामि दुक्कडम्! मिच्छामि दुक्कडम्! मिच्छामि दुक्क्डम्! प्रार्थना हे विश्ववत्सल विभू! - आपके प्रभाव से मैंने जो दुष्कृत-गर्दा की हैं, उसमें आपके प्रभाव से मेरे अन्तर में सच्चा भाव प्रकट हो। हे विश्ववालेश्वर नाथ! मैंने जिन पापों की निन्दा गर्दा की है, वे पाप फिर से जीवन में कभी न करूं, ऐसा अकरण नियम मुझे आपके प्रभाव से मिले। ये दुष्कृत गर्दा और पाप अकरण नियम मुझे बहुत अच्छे लगे, इसलिए हे अरिहंत भगवान्! हे कल्याणमित्र गुरुदेवों! आपकी हितशिक्षा मुझे बार-बार प्राप्त हो। आप दोनों का संयोग भी मुझे बार-बार प्राप्त हो। आपका संयोग पाने के लिए मेरी ये प्रार्थना सचमुच सु-प्रार्थना (फलदायी) हो। सु-प्रार्थना के प्रति मुझे अत्यंत बहुमानभाव है। हे प्रभु! ऐसी सु-प्रार्थना द्वारा मुझे पुण्यानुबंधी पुण्य स्वरूप मोक्षबीज की प्राप्ति हो। हे नाथ! जब आपका मिलन हो तब हे तारणहार जहाज अरिहंत परमात्मा! हे पतित-पावन कल्याण मित्र गुरुदेव! ___ सच्चे अंतःकरण से की गई मेरी प्रार्थना के प्रभाव से एक ऐसा धन्य पल जरूर आयेगा, जब दोनों का साक्षात् संयोग मुझे प्राप्त होगा। उसके लिए अभी से संकल्प करता हूँ कि आप जब मुझे मिलें, तब मैं आपकी सेवा के योग्य बनूँ, मैं आपकी आज्ञा पालन करने योग्य बनूँ, मैं आपकी आज्ञा स्वीकार करने योग्य बनूँ, मैं आपकी आज्ञा का निरतिचार रूप से पालन करने योग्य बनूं। मेरी यह अन्तर की इच्छा आपके प्रभाव से परिपूर्ण हो परमात्मा! ForPor 1740 For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पंचसूत्र सुकृत अनुमोदना खण्ड - पञ्चम् संविग्गो जहा-सत्तीए सेवेमि सुकडं, अणु-मोएमि सव्वेसिं अरहताणं अणुट्ठाणं, सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं, सव्वेसिं आयरियाणं आयारं, सव्वेसिं उवज्झायाणं सुत्त-प्पयाणं, सव्वेसिं साहूणं साहु-किरिअं, ... सव्वेसिं सावगाणं मुक्ख-साहण-जोगे, सव्वेसिं देवाणं, सव्वेसिं जीवाणं, होउ-कमाणं, कल्लाणा-सयाणं मग्ग-साहण-जोगे। . ** * होउ मे-एसा अणु-मोअणा, सम्म विहि-पुविआ, सम्म सुद्धा-सया, सम्म पडिवत्ति-रुवा, सम्म निरई-आरा, परम-गुणजुत्तअरहताइ सामत्थओ। 175 For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृतं अनुमोदन सुकृत अनुमोदना. हे सार्वभौम चक्राधीश्वर प्रभु! शरणागति और दुष्कृत-गर्दा की जलधारा से सिंचकर संविग्न बना हुआ अब मैं यथाशक्ति सुकृत की अनुमोदना का कार्य शुरू करता हूँ। हे मेरे मस्तक के ताज, मेरे हृदय के हार, मेरे प्यारे प्रभु!!! 1. इस विश्व में तीनों काल में हुए अनन्तानंत अरिहंत परमात्माओं के धर्मदेशानादि. उपकारों की अनुमोदना करता हूँ। 2. सर्व सिद्ध भगवन्तों के अनन्त, अक्षय, अव्याबाधादि स्वरूप सिद्धभाव की अनुमोदना करता हूँ। 3. समस्त आचार्य भगवन्तों के पंचाचार पालन रूप सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 4. सर्व उपाध्याय भगवन्तों के ज्ञानदान आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 5. समस्त साधु भगवन्तों के स्वाध्याय आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता हूँ। 6. सभी श्रावकों के मोक्षमार्गरूप मुनि की वैयावच्च आदि सुकृत्यों की अनुमोदना करता 7. जो निकट में मोक्ष जाने वाले हैं, जो शुद्ध सरल आशय वाले हैं, ऐसे इन्द्रादिक देव और भव्यात्मा; ऐसे सभी जीव तथा मोक्षमार्ग के साधनरूप जो कोई सदाचार आदि शुभ कार्य हों, उनकी मैं सच्चे हृदय से अनुमोदना करता हूँ। प्रसंग के अनुसार अब पाप-प्रतिघात और गुण बीजाधान का तीसरा उपाय 'सुकृत-अनुमोदना' का वर्णन करते हैं। संविग्न बना हुआ मैं शक्ति अनुसार सुकृत का सेवन करता हूँ। 'संविग्न' यानि संवेग वाला- अर्थात् मोक्ष और मोक्षमार्ग का अभ्यर्थी। 'सेवन करता हूँ' यानि फिर अनुमोदन करता हूँ। किसकी अनुमोदना करना? सर्व अरिहंत भगवन्तों की धर्मदेशना इत्यादि उत्तम अनुष्ठान और सर्व सिद्ध भगवन्तों की सिद्ध दशा। करण-करावण और अनुमोदन, ये तीनों एक समान फल देने वाले कहे जाते हैं। यहाँ सूत्रकार उच्च अनुष्ठान की अनुमोदना को जैसे स्वयं कार्य करने के समान जितना महान लाभ बताते हैं। त्रिकाल के अनन्त जिनेश्वर देवों के अनन्त दुष्कर अनुष्ठान का हमें आचरण करना है, तो क्या है हमारे पास इतना समय और इतनी शक्ति ? पर इन अनुष्ठानों की For Pers175& Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना अनुमोदना करने से इन अनुष्ठानों को करने जितना लाभ मिलता है। _. अरिहंत भगवान के अनुष्ठान कौन-से हैं? श्रेष्ठ अप्रमत्त संयम, उग्रविहार, घोर तप, प्रचण्ड परिसह जय, भयंकर उपसर्गों में लोकोत्तर सहिष्णुता सहित दृढ़-हृदय से ध्यान, क्रूर कम से निर्दयरूप पीड़ित जगत् को तारक-धर्म का उपदेश; भव्य जीवों को चिन्तामणि से भी अधिक श्रुत-सम्यक् देशविरति और सर्वविरति का दान, संयम प्रेरणा... इत्यादि। अरिहंत प्रभु के एक से बढ़कर एक ऐसे कितने ही सर्वसुन्दर अनुष्ठान हैं। धन्य भाग्य! धन्य जीवन! धन्य प्रवृत्ति! ऐसे अनन्त जिनेश्वर देवों के अनन्त अनुष्ठानों की मैं पुलकित हृदय से अनुमोदना करता हूँ। अहो! कैसी इनके लोकोत्तर कार्य! अहो! मेरे जैसे दीन-दुःखी जगत् के भव्य जीवों के अनन्त उपकारी अनन्त अरिहंत प्रभु के अनन्त उत्तमोत्तम सुन्दर अनुष्ठान। अरे! इनमें से मैं एक भी अनुष्ठान का सही आचरण करने में समर्थ नहीं हूँ। फिर भी अहोभाग्य मेरे कि मुझे उत्तमोत्तम अनुष्ठान जानने-समझने को मिले हैं। ऐसी प्रमोद भावना मिली। मुझे इनकी अनुमोदना करने का लाभ मिला है। . यहाँ समझना है कि 'करण-करावाण और अनुमोदन, समान फल निपजायो रे' इस कथन के अनुसार धर्म-साधना के तीन रास्ते हैं। इनमें से यह तीसरा उपाय रूप बताया गया 'अनुमोदना' चार विशेषताओं से युक्त है- 1. भावपूर्ण हृदय 2. आत्मा को प्रमुदित करके 3. अपूर्वहर्ष और बहुमान सहित 4. इन् अनुष्ठानों को जीवन में उतारने का मनोरथा यहाँ अनुमोदना से अनुष्ठान का साक्षात् आचरण के समान लाभ क्यों नहीं मिलता है? अनुमोदन अर्थात् अनुसरण करने वाले का मोदन (आनन्द)। अनुष्ठान को अनुसरण करने का आनन्द। संयम-तप-तितिक्षा-धर्मोपदेश आदि अनुष्ठान के प्रतिपक्षी जो तत्त्व, असंयम, सुखशीलता, कषाय, पापोपदेश इत्यादि, इन पर से ध्यान हटाकर उन अनुष्ठानों के ऊपर आकर्षित और अभिलाषा रूप से मुग्ध होने वाले हृदय का निर्मल और प्रेरक आनन्दा आकर्षण अर्थात् अहो! ये कैसे उत्तम और आदरणीय हैं। ऐसा भव अभिलाषिता यानि ये मुझे कब मिलेगा? ऐसी कामना। - अब दूसरे प्रकार में सर्व सिद्ध भगवान की सिद्धि अर्थात् अव्याबाध (अक्षय निरूपद्रव) स्थिति, अनन्त शाश्वत् सुख, अरूपिता, स्फटिकवत्, निष्कलक शुद्ध स्वरूप अनन्त ज्ञान-दर्शन इत्यादि की अनुमोदना करता हूँ। अहो! हमारी कहाँ अधम गति बारम्बार जन्म-मरण की रोग-शोक की, काम-क्रोध-लोभ की, हिंसादि पापों की, महा अज्ञान महा-मोह की उपद्रवमय अवस्था? और कहाँ सामने सिद्ध आत्मा की कितनी उत्तम अद्भुत अगम अवस्था। 177 For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना तीनों काल के सभी आचार्य भगवन्तों का ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। इन आचारों का पालन, भव्य जीवों को इनका दान और इनमें प्रवर्तन साथ ही शासन प्रभावनादि सभी की भूरि-भूरि अनुमोदना करता हूँ। जगत् के प्राणियों के हिंसक और मोहभरे विवेकशून्य, कष्टप्रद पाप आचार कहाँ, और कहाँ विवेकी और भावदयामयी उन्नतिकारी, कंचन समान ये ज्ञानाचार आदि उत्तम आचार! कहाँ पापाचारों का पालन और प्रचार? कहाँ पवित्र आचारों का पालन और प्रचार? आचार्य केशी गणधर ने नास्तिक प्रदेशी राजा को और थावच्चापुत्र आचार्य ने मिथ्या दृष्टि सुदर्शन श्रेष्ठि को महाआस्तिक समकित श्रावक बनाया। ... इस प्रकार सभी उपाध्याय जी महाराज, जो भावी मंगलमय सूत्रों का सम्यग् विधि से दान करते हैं। सूत्रदान और सूत्र परम्परा-रक्षण की अनुमोदना करता हूँ। कैसी ये महान् पुरूषों की सुन्दर भावानुकम्पा; जिनके योग से अनन्तकाल में ये शिष्य-वर्ग को किसी से उपकार नहीं हुआ हो, वैसा अति महान् उपकार हुआ। उसी प्रकार सूत्रों की भूतकाल से चली आ रही कल्याण परम्परा अखण्ड भविष्य के लिए चलेगी। . .. उसी प्रकार सर्व त्यागी साधु महात्माओं के सम्यक् स्वाध्याय, अंहिसा-संयम और तप, विनय भक्ति और वैयावच्च उपशम-शुभध्यान और मैत्री करूणा आदि शुभभाव तथा महाव्रत और इनकी सुन्दर भावना। घोर उपसर्ग और उसमें अचल स्थिरता, धीरता, साथ में भव्य जीवों को रत्नत्रयी साधना में सहायभूत... इत्यादि। साधु भगवंतों के उत्तम अनुष्ठानों की मैं बहुत अनुमोदना करता हूँ। कितनी अलौकिक जीवनचर्या है। कैसा निर्दोष, स्वपर हितकारी, कल्याणानुबंधी, विश्ववत्सल व्यवहार, कैसी आत्मा की पवित्र प्रवृत्ति, कैसा प्रबल पुरूषार्थ। अहो! जिन भाग्यवान् आत्माओं को इतना सुंदर जीवन प्राप्त होता है। उनके पुण्य की तथा उनके आत्मा की बलिहारी है। उनको करोड़ों बार धन्यवाद है। भवसागर को लगभग तिरने के लिए आए हैं। हृदय से किये अनुष्ठानों पर पूर्ण श्रद्धा, आकर्षण भाव, निधान प्राप्ति रूप हर्ष इत्यादि से अनुमोदना की जाए। जीवन में यही सार है, यही कर्त्तव्य है, यही शोभास्पद है, इसमें स्वयं पुरूषार्थ के योग्य कर्मों का क्षयोपशम होता जाता है। ऋषभदेव प्रभु का जीव पूर्व में वज्रसेन चक्रवर्ती के भव में पिता तीर्थंकर की कृपा प्राप्त कर सुकृत अनुमोदना करता रहा, इससे मोहनीय वीर्यांतराय इत्यादि कर्मों को दबाते, उनका क्षयोपशम करके चक्रवर्ती रूप को छोड़कर मुनि बना, यहाँ तक 14 पूर्वधर महातपस्वी और अनेक लब्धि से सम्पन्न बनकर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कर अनुत्तर विमान में देव बना। पूर्ण श्रद्धा, आकर्षण और 178 For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला हर्ष, ये साधना को तेजस्वी बनाते हैं। सभी श्रावकों के द्वारा की गई देव- गुरु की वैयावच्च, तत्त्वश्रवण, धर्मराग, प्रभुभक्ति, साधुसेवा, दान व्रत- नियम तपस्या सामायिकादि स्वाध्याय इत्यादि साक्षात् या परम्परा से मोक्ष साधनभूत है। ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र के व्यापारों की मैं अनुमोदना करता हूँ। मोह का अधिकार आत्मा पर से उठने के पश्चात् ऐसे अध्यात्म योग के अनुष्ठान जीव को प्राप्त होते हैं। ये आत्मा के अद्भुत विकसित गुणों की अवस्था को सूचित करते हैं। ये अवस्था दोषों से भरे हुए इस विशाल जगत् में अति दुर्लभ और महापवित्र होकर, जहाँ कुछ दिखता हो, वहाँ खूब ही अनुमोदनीय है । इतना ही नहीं, सभी देव, सभी जीव जो मुमुक्षु हैं, मुक्ति के निकट हैं, अर्थात् जो चरम पुद्गल परावर्तन में आए हुए विशुद्ध आशय वाले हैं, निर्मल भाव वाले हैं, इनके मार्गसाधन योग की मैं अनुमोदना करता हूँ। मोक्ष के मार्गभूत सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र उनके साधनभूत योग अर्थात् मार्गानुसारी आदि धार्मिक की, देवदर्शन, व्रत सेवन आदि योगों की पूर्वसेवा तथा न्यायसम्पन्नादि मार्गानुसारी गुण, सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के मार्ग को साधने के लिए अनुकूल बनते हैं। मिथ्यादृष्टि को भी मिथ्यात्व होने पर भी इस गुण की अपेक्षा से प्रारम्भिक यानि पहला गुणस्थान कहा गया है। यह अर्थयुक्त है। इस परम्परा से भी मोक्ष साधक के ये गुण ( कुशल- व्यापार, शुभ प्रवृत्ति) अनुमोदनीय है। 4 यहाँ समझने जैसा है कि मोक्षमार्ग उपयोगिता की और जिनवचन से अविरोध की सुकृत अनुमोदना करनी, किन्तु स्व अथवा पर, किसकी सुकृत अनुमोदना करनी चाहिए? कहते हैं भावपूर्वक स्व एवं पर द्वारा किए गए सुकृतों की अनुमोदना करने से धर्मफल में गुणाकार वृद्धि होती है । जैसे शालिभद्र के जीव संगम ने पूर्व भव में साधु भगवन्त को भाव पूर्वक खीर वोहराई अर्थात् आहार दान किया, उसी के प्रतिफल रूप शालिभद्र को अढलक ऋद्धि की प्राप्ति हुई। शालिभद्र के जीव ने एक बार खीर दान किया, हमने अनेक बार खीर दान किया परन्तु फिर भी समान परिणाम क्यों नहीं प्राप्त हुआ? तो कहते हैं कि इसके पीछे भी दो कारण छुपे हुए हैं सुकृत अनुमोदना 1. पहला कारण यह है कि हम धर्म क्रिया तो करते हैं, परन्तु एकाग्रता पूर्वक, रुचिपूर्वक, आदर बहुमानपूर्वक ऐसी धर्मक्रिया हमारी नहीं होती है। पाप क्रिया तीव्र रसपूर्वक होती है। वहाँ पहले और बाद की पूरी तैयारी होती है; किन्तु जब धर्म क्रिया करते हैं तो बिना तैयारी की होती है। इसलिए धर्म में रूचि जगती नहीं है। धर्मक्रिया करते समय भी रूचिपूर्वक तैयारी होनी चाहिए; तत्पश्चात् अनुमोदना के भाव चाहिए। इसी से 179 For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना धर्मनिश्चित दृढ़ व मजबूत बनता है। खीर बोहराने के पूर्व भी प्रतिदिन मुनि भगवन्त को अन्य मित्रों के द्वारा दान करते हुए देखता और स्वयं भीतर ही भीतर आहार दान करने की भावना करता कि 'वह दिन कब आएगा, जिस दिन मैं दान दूंगा।' 2. धर्म क्रिया करने से पूर्व उस क्रिया की पूर्व में बारम्बार भावना भानी चाहिए क्रिया करने के पश्चात् पुनः उसी क्रिया की अनुमोदना करनी चाहिए। आध्यात्मिक जगन् का यह नियम है कि जब भी व्यक्ति सच्चे भावों से इच्छा करता है तो उसको अवश्य फल प्राप्त होता ही है। फल प्राप्ति हेतु सच्ची इच्छा / सच्चे मनोरथ के साथ ही आत्मबल मजबूत होना चाहिए। भौतिक जगत् में इससे विपरीत होता है। तुम जिसकी इच्छा करोगे, वह तुमसे उतना दूर चला जाता है। कदाचित् प्रबल पुण्योदय से मिल भी जाता है तो भवान्तर में वही दुर्लभ बन जाता है। बिना इच्छा, बिना अपेक्षा के द्वारा की हुई धर्म क्रिया अत्यधिक सुख प्रदान कराती है। पुद्गल के सुख हमें संसार में भटकाते हैं। जिनशासन के प्राप्त हो जाने के पश्चात् ऐसा हो जाना चाहिए कि मोक्ष के अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए। दृष्टि से मात्र यह गुण ही अनुमोदनीय है, परन्तु इससे मिथ्यात्वी अनुमोदनीय नहीं हैं। इनकी प्रशंसा नहीं करनी है। अन्यों में भी दया आदि गुण जो जिनवचन के अनुसार हैं, वे सभी चित्त से अनुमोदनीय हैं, जो समकित का रूप बीज वपन समान निरधार हैं। इसलिए अभिनिवेश होकर यानि दुराग्रह (मनमानी) व अतात्त्विक कल्पनाओं के छोड़कर प्रणिधान की शुद्धि करने में आती है। प्रणिधान अर्थात् कर्तव्यों का निर्णय और अभिलाषा, विशुद्ध भावना शक्ति अनुसार क्रियावाली और उसमें बनी हुई मन के एकाग्रता। उनकी शुद्धि किस प्रकार है? इसलिए तो शास्त्रों में कहा गया है कि 'दानं तपस्तथा शीलं नृणां भावेन वर्जितम्। अर्थहानिः क्षुधा पीड़ा, काय क्लेशश्च केवलम्।।' अर्थात् - दान, शील, तप एवं भाव, ये चारों प्रकार के धर्म आत्मा को तभी लाभदायी बनाते हैं, जब इनमें भाव का प्रादुर्भाव होता है। भाव के बिना दान मात्र अर्थ हानि का कारण बनता है। तप मात्र भूखे रहने से अधिक कुछ नहीं होता है। शील का पालन भावपूर्वक यदि नहीं किया गया तो वह मात्र कायक्लेश ही माना गया है। अतः सभी धर्माराधनाओं, अनुष्ठानों, क्रिया-कांडों में भाव का होना आवश्यक माना गया है। मन के शुभाशुभ परिणाम, शुभाशुभ अध्यवसाय को ज्ञानी भगवंतों ने भाव कह For Perso180 Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना जैसे पर्वतों में शुजय पर्वत, मंत्रों में नवकार मन्त्र, राजाओं में राजा राम, नदियों में गंगा नदी उत्तम मानी गई है, वैसे ही धर्मों में उत्तमोत्तम धर्म भावधर्म माना गया है। सभी धर्मों में ज्येष्ठ भाव धर्म है। मानव देह में सबसे महत्त्वपूर्ण अंग मानव मस्तिष्क है। वैसे वह कुछ भी करते हुए दिखाई नहीं देता, किन्तु सम्पूर्ण देह का संचालन वही मस्तिष्क करता है। यदि मस्तिष्क देह के किसी भी अंग को गलत संदेशा पहुँचाए तो अनर्थ हो जाता है, वैसे ही सारी धार्मिक क्रियाओं का संचालक भाव ही है। प्रभु दर्शन के समय हम स्तुति बोलते हैं भावे भावना भाविए, भावे दीजे दान। भावे जिनवर पूजिए, भावे केवलज्ञान।। भाव भी भावपूर्वक होना चाहिए। कैसी अजीबोगरीब बात है यह। यूँ देखा जाए तो भाव का भाव स्पष्ट है- 'भावना भव नाशिनी।' हमारे महापुरूषों ने भावना को ही श्रेष्ठ बताकर कहा है कि भावना भवों का नाश करती है। यदि भावना नहीं तो फिर दान, शील, तप केवल संसार के सुख तक ही सीमित हो जाते हैं, किन्तु भाव का सम्बन्ध जुड़ा कि मोक्ष का कारण बन जाता है। दान-धर्म - पूर्व में हमने शालिभद्र की बात की थी। इसलिए सर्वप्रथम हम दान की महिमा को ही समझ लें। दान भावपूर्वक होना चाहिए। यदि भाव से रहित दान होगा तो उसमें मात्र कीर्ति की कामना होगी। यश कमाने की इच्छा होगी। पद-प्रतिष्ठा पाने की मनोकल्पना जागृत होगी। शिलालेखों पर अपना नाम अंकित करने की कामना प्रकट होगी। यह सब इसलिए होगा कि दान तो दिया जा रहा है, किन्तु भाव नहीं है। भाव रहित दान को हमारे ज्ञानी भगवन्तों ने मात्र धन का व्यय बताया है, धन की हानि कहा है, क्योंकि भाव रहित दान सच्चे अर्थ में दान भी नहीं रहता है, वहाँ बदले में कुछ प्राप्त करने की भावना जागृत हो उठेगी। मैं इतना दान करूँ तो मुझे क्या मिलेगा? क्या मेरा नाम समाचार पत्रों में चमकेगा। भाव रहित दान, दान न रहकर व्यापार हो जाएगा, सौदेबाजी हो जाएगी, क्योंकि फिर वहाँ मात्र दान रहेगा, शुभ भाव नहीं। भावना को भवनाशिनी कहा गया है। इसका कारण यह है कि भावरहित दान मात्र इस लोक एवं परलोक के फल को प्रदान कर सकता है किन्तु उस दान में जब भाव - 181 For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला जुड़ता है तो भवभ्रमणा तोड़ देता है । याद रखना, हमने आज तक शालिभद्र के यहाँ प्रतिदिन उतरती 99 पेटियों पर ही ध्यान दिया है। दान देते समय वे 99 पेटियां दिखाई देती हैं किन्तु शालिभद्र के दान का भाव कभी हमने जानने का प्रयास ही नहीं किया। हमारा दान द्रव्य दान ही रहा, भावदान नहीं बन सका। रेवति महाश्राविका ने कोलापाक का दान दिया। कितना समय दान में व्यतीत हुआ होगा ? क्षण, दो क्षण, पाँच क्षण । किन्तु रेवति श्राविका का वह दान भावपूर्वक किया. गया दान था। सिंह अणगार वोहर रहे हैं। महाश्राविका रेवति वोहरा रही है। द्रव्य कोलापाक है। भगवान् महावीर को खून की दस्तें लग रही थी, इसलिए यह औषधि के रूप में महाश्राविका रेवति कोलापाक वोहरा रही है। तीर्थंकर भगवान के लिए वोहरा रही है। उस क्षण भावों का समुद्र लहरा रहा था महाश्राविका रेवति के हृदय में; और क्षण दो क्षण की भावधारा ने महाश्राविका को तीर्थंकर पद की भेंट दे दी। सुकृत अनुमोदन दान तो सभी रोज देते होंगे ? किन्तु आये कभी ऐसे भाव ? यदि आया होता तो अभी तक मोक्ष नगरी में चले जाते, किन्तु हमारा मन हमेशा दान के फल स्वरूप भोग ही मांगता रहता है। मांग करना या अपेक्षा रखना द्रव्य दान है, भाव दान नहीं। एक प्रसंग इन्हीं बातों को दर्शाता है बात उन दिनों की है जब श्रमण भगवान महावीर छम्रस्थ अवस्था में पृथ्वीतल पावन कर रहे थे। तप पूर्ण होने पर श्रमण भगवान् किसी नगरी में गोचरी के लिए निकले। किसी भाग्यशाली के यहाँ भगवान का पारणा हुआ तो देवताओं ने प्रसन्न होकर सुवर्ण मोहरों की वर्षा की। यह देख कर एक वेश्या ने सोचा- 'सारी जिन्दगी नाच गाने में बिताने जात साधु को दान देना अच्छा है। एक बार भिक्षा दो और सोने का ढेर हो जाएगा।' के इधर एक भांड साधु वेश पहनकर भिक्षा के लिए निकला। नगर में वेश्या ने उस साधु को (भांड) देखकर आमन्त्रण दिया । 'पधारो महाराज ! पधारो !' भांड ने आमन्त्रण स्वीकार किया। अपने हाथ भिक्षा के लिए फैलाए । वैश्या ने दान देना आरम्भ किया और बार-बार ऊपर देखना शुरू किया। अब वृष्टि हो, अब वृष्टि हो। किन्तु स्वर्ण मोहरें तो बरसी नहीं। जब भांड ने देखा कि वेश्या ऊपर देख रही है तो उसे भी कल की घटना याद आ गई। उसे मनोमन हँसी आ गयी और वह बोला वो साधु, वो श्राविका तू वैश्या, मैं भांड । 182 * For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना थारा म्हारा योग थी, पथरा पड़शे रांड॥ __ यह दान नहीं सौदा है। हमारे ज्ञानी भगवन्तों का कथन है, दान दो तो भावपूर्वक और शील का पालन करो तो भी भावपूर्वक। शीलधर्म यहाँ शील का अर्थ सदाचार के बजाय ब्रह्मचर्य ही इष्ट है। 'शीलं ब्रह्मचर्यम्'। ब्रह्मचर्य का पालन किसी की देखा-देखी या वाह-वाह के लिए नहीं बल्कि भावपूर्वक करना चाहिए। आज समाज में मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, इस हेतु से शीलवत ग्रहण करता हूँ। ऐसा शीलवत मात्र कायक्लेश ही माना गया है। भावपूर्वक शीलपालन से हमारा अर्थ है, विषय वासनाएँ व्यक्ति को पीड़ित न करें तो भावपूर्वक शील पालन बनता है। बाकि द्रव्यशील पालन तो आज भी सैकड़ों लोग कर रहे हैं। नौकरी करने के लिए बाहर गांव में रहने वाले, जिनका परिवार साथ में न हो, ऐसे लोग भी ब्रह्मचर्य का पालन तो करते हैं, विधुर हो या विधवा हो तो वे भी शील तो पालते ही हैं। वे देह से शील का पालन करते हैं। किन्तु उनका मन तो वासनाओं से भरा पड़ा रहता है। इसे द्रव्यशील से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है। ___ जरा गुणसागर श्रेष्ठि का विचार करो। कहाँ बैठे हैं वे अभी? लग्न मंडप में, चंवरी मंडप में, किन्तु कैसे भावों में रंजित हो गए होंगे कि आठ-आठ कन्याओं के साथ विवाह करते-करते भी उन्हें केवलज्ञान हो गया। है ना आश्चर्य! विवाह मंडप में केवलज्ञान? हाँ, सच्ची घटना है यह। गुणसागर सेठ को हस्त-मिलाप करते ही केवलज्ञान • हो गया, क्योंकि उसके पास भावपूर्ण शील था। गुणसागर की कथा थे तो वे सेठ के पुत्र। गुणसागर नाम था उनका। जैसा नाम वैसे गुण थे उनमें। सचमुच गुण के सागर ही थे सेठ गुणसागर। यौवन के झूले-झूलते गुणसागर कुमार नगर . में परिभ्रमण हेतु निकले थे। नगर के सेठ की आठ कन्याओं ने गुणसागर को देखा। देखते ही उन्हें गुणसागर पसन्द आ गया। आठों-आठ कन्याओं ने मनोमन निश्चित किया, शादी करेंगे तो गुणसागर कुमार के साथ। कन्याओं के पिता कुमार गुणसागर के पिता रत्नसंचय सेठ के पास गए। उन्होंने गुणसागर के साथ अपनी आठों कन्याओं की शादी का प्रस्ताव रखा। रत्नसंचय सेठ ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। गुणसागर के साथ आठ-आठ कन्याओं की सगाई कर दी गई। 183 For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला स्कृत अनुमोदना एक दिन की बात है । गुणसागर कुमार हवेली के झरोखे में बैठा राजमार्ग की चहल-पहल देख रहे थे। तभी एक तपस्वी मुनि उसके दृष्टि पथ में आए। मुनिवर को देखते ही उनका मन वर्तमान को पार कर भूतकाल की गलियों में घूमने लगा। जन्म के उस पार की घटनाएँ याद आ गईं। ओह ! पिछले जन्म में मैं भी मुनि था। साधना करता था । कैसा आनन्दमयी वह समय था ! तब सारा दिन स्वाध्याय में बीतता था ! गुणसागर कुमार आनंदित हो उठा। उसके रोम-रोम में आनन्द की अनुभूति होने लगी। मनोमन निश्चय किया, इस जन्म को भी ऐसी ही आराधना - साधना में निर्गमन करना है। दीक्षा लेनी है। गुणसागर कुमार ने माता-पिता के समक्ष दीक्षा का प्रस्ताव रखा। स्नेही माता-पिता चौंक पड़े। अचानक यह परिवर्तन क्यों ? आठ-आठ बहुओं की सास बनने के अरमान संजोये थे गुणसागर की माता ने । माता ने कहा- 'बेटा! थोड़े ही दिन में तुम्हारा विवाह होने वाला है और तू दीक्षा की बात कर रहा है। ऐसी क्या बात है ? ' गुणसागर ने कहा- 'माता जी...। कहाँ संयम जीवन का अपार आनन्द और कहाँ यह लग्न जीवन का बन्धन ? मैं तो गगनविहारी मुक्त पंछी हूँ। मुझे विवाह का बन्धन पसन्द नहीं है। मुझे दीक्षा की अनुमति दीजिए। ' मोह दूर हो गया। संसार का कोई भी आकर्षण गुणसागर को आकर्षित नहीं कर सका। संसार से विरक्त व्यक्ति के लिए 'सब पुद्गल की बाजी' हैं। माता ने गुणसागर कुमार को समझाने में कोई कमी नहीं छोड़ी, किन्तु गुणसागर अपने निर्णय में अटल रहा। यदि वैराग्य कच्चा होता तो गुणसागर विचलित हो जाता, किन्तु यह तो भवोभव का आराधक-साधक व्यक्ति था। अपनी अधूरी साधना पूर्ण करने के लिए जन्मा था। अतः माता-पिता के किसी प्रलोभन में नहीं आया। जब माता-पिता को यह महसूस हो गया कि गुणसागर अब संसार में नहीं रहेगा, तब उन्होंने एक शर्त पर दीक्षा की अनुमति दी, 'एक बार विवाह कर लें, फिर भले दूसरे दिन दीक्षा लेना हो तो ले लेना।' गुणसागर कुमार ने माता-पिता की बात स्वीकार ली। किन्तु जिन कन्याओं के साथ विवाह होना तय है, उन्हें भी तो पूछना चाहिए। अत: रत्नसंचय सेठ ने कन्याओं के पिता को बुलाकर कहा- 'विवाह करने के ठीक दूसरे दिन हमारा पुत्र दीक्षा ले लेगा। अपनी कन्याओं को पूछ लीजिए। ' सज्झायकार महापुरूष ने संवाद खूब ही सुन्दर रचा है'अम सुतं परणवा मात्र थी थशे संयमधारी । ' 184 For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पिता ने कन्याओं से पूछा तो कन्याओं ने जो प्रत्युतर दिया वह सज्झायकार महापुरुष की भाषा में ही बताते हैं आपको 'कन्या कहे निज तात ने आ भव अवर न वरशु रे। जे करशे ए गुणनिधि एह अमें आदरशुं रे ।' कन्याओं ने पिता जी से कहा- 'कन्याएँ एक बार ही किसी को दी जाती हैं। हम तो वाग्दाता हैं। अब हमारे लिए अन्य वर की विचारणा के द्वार बन्द हैं। एक भव में दो वर हम नहीं कर सकती हैं। अतः हे तात ...! आप हमारी चिन्ता न करें। हम विवाह तो गुणसागर कुमार के साथ ही करेंगे। कुमार का जो मार्ग, वही हमारा भी मार्ग होगा। यदि गुणसागर संयम ग्रहण करेंगे तो हम भी साध्वी बनकर आत्म-कल्याण का मार्ग अंगीकार कर लेंगे। ' कन्याओं का प्रत्युत्तर कितना अद्भुत था ? आज की कन्याओं से यदि यह पूछा तो ? आज की बात तो कुछ कह नहीं सकते...! हां सच है, जमाना भ्रष्ट होता जा रहा है । आज की कन्याओं की तो बात ही अलग है । जरा-सी न बनी कि तलाक ले लिया और दूसरी शादी कर ली। यह सब पश्चिमी हवा है। इस विषाक्त हवा ने हमारी संस्कृति को कैंसर का रोग लगा दिया है। यत्र-तत्र सर्वत्र आज पुनर्लग्न का प्रचलन हो गया है। गुणसागर की आठों वागदत्ताओं ने पिता से कह दिया- 'शादी एक से ही की जाती है। दिल एक को ही दिया जाता है। हृदय सिंहासन पर एक को ही बिठाया जाता है, अब हमारे जीवन में अन्य वर का कोई स्थान नहीं है।' कन्याओं के प्रत्युत्तर प्राप्त होते ही विवाह की तैयारियाँ होने लगीं, किन्तु गुणसागर तो मुनि जीवन के विचारों में लीन थे । आहा....हा.... .हा.. ...। कैसा अद्भुत आनन्द प्राप्त होगा ? विवाह का दिन आया । वरघोड़ा लेकर गुणसागर चले आठ-आठ कन्याओं के साथ शादी करने । किन्तु काम-कषाय उनके मन को अब छू भी नहीं सका। उन्हें संयम जीवन की अनुभूति हो रही थी । मंडप में विवाह की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई, किन्तु गुणसागर कुमार का मन तो धर्म-भावशील में मस्त बन गया है। भावना में, सच्ची - भावना में, हृदय की भावना में मग्न गुणसागर कुमार हस्त-मिलाप की क्रिया कर रहे हैं! नहीं, गुणसागर की देह ही यह विवाह क्रिया कर रही है। मन तो भावना में मग्न है। भाव धारा में ऐसे लीन बन गए कि आसपास का वातावरण भी इनको आकर्षित नहीं कर सका। 185 For Personer & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना ___भावना में आगे बढ़ते-बढ़ते सोच रहे हैं गुणसागर कुमार, बस कल तो मैं साधु बन जाऊँगा। श्रुत-ज्ञान का अभ्यास करूँगा। समता रस का पान करूँगा। काम-कषाय को पराजित करूँगा। ये विवाह हुआ कि मैं मुक्त! फिर श्रमण जीवन में कोई बन्धन नहीं। आराधना साधना में मस्त रहकर आत्ममस्ती का आनन्द प्राप्त करूँगा। भावधारा में आगे कूच करते-करते गुणसागर कुमार श्रपक श्रेणी में आरूढ़ हो गए। घनघाती कर्मों का नाश हो गया और हस्त-मिलाप करते-करते गुणसागर कुमार को केवलज्ञान हो गया। - कैसा चमत्कार कर दिया भावधर्म ने? कभी न बना इतिहास बनाकर रख दिया भावना धर्म ने। ...और उन कन्याओं ने क्या कहा था? ___ 'जे करशे ए गुणनिधि ते अमे आदरशुं रे।' कन्याओं ने भी गुणसागर के मार्ग पर आगे कूच किया। वे भी महापंथ की पथिका बन गई। उन्हें भी भावना धर्म ने केवलज्ञान की प्राप्ति करवा दी। वर को भी केवलज्ञान और कन्याओं को भी केवलज्ञान। भोग के स्थान परयोग गुणसागर को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तुरन्त देवतागण आते हैं और चंवरी मंडप के स्थान पर स्वर्ण का सिंहासन रचते हैं। केवलज्ञानी गुणसागर वहाँ सिंहासन पर विराजमान होकर देशना फरमाते हैं। शादी का समूचा वातावरण केवली भगवंत की देशना श्रवण में बदल गया। लोग विचार करने लगे कि गुणसागर ने भोग को कैसे योग में कैसे परिवर्तित कर दिया। कैसी गजब की साधना की होगी? सभी के माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री की केवली स्थिति को देखकर स्वयं के जीवन को धिक्कारते हैं। अपने सफेद बालों में धूल पड़े। धिक्कार है हमारी आत्मा को। इतनी बड़ी उम्र हो गई, बालों के रंग काले से सफेद हो गये, फिर भी हृदय सफेद क्यों नहीं हुआ? अन्तरात्मा तो भीतर से काली ही है। हमें संसार से वैराग्य क्यों नहीं जगा? भीतर ही भीतर अपने-अपने दुष्कृत्यों की गर्दा करते-करते उन्होंने भी केवल ज्ञान को प्राप्त कर लिया। ___गुणसागर केवली की देशना के पश्चात् सुधन श्रेष्ठि, जो व्यापार हेतु आया था, वह अपनी आँखों से कौतुक सदृश केवलज्ञान की प्राप्ति को देखकर आश्चर्य करते हुए केवली भगवान् से पूछता है- 'हे भगवन्! ऐसा कौतुक / आश्चर्य मैने अपनी आँखों से प्रथम बार देखा है। ऐसा न कभी सुना, न देखा। यह दृश्य आँखों से ओझल नहीं हो सकता है। कैसा है हमारा जिनशासन। परिणय को केवलज्ञान में बदल देना। ऐसा अद्भुत For Persona186rivate Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना शासन प्राप्त होने के पश्चात् आत्मा में गुण की दरिद्रता कैसे रह सकती है? मोह राजा! तेरा नियंत्रण दुनियाँ पर चलता होगा परन्तु जिसने जिनशासन प्राप्त कर लिया, उस पर नहीं चल सकता है।' केवली भगवन्त फरमाते हैं- 'हे सुधन श्रेष्ठि! इससे भी अद्भुत आश्चर्य तुझे तेरी ही अयोध्या नगरी में अपनी आँखों के समक्ष देखने को मिलेगा।' वैराग्य की भावना पर पाठकों के लिए यहाँ पृथ्वीचन्द्र राजा का कथानक विस्तार से प्रस्तुत किया जा रहा है जैन शासन के इतिहास में ऐसे-ऐसे महापुरूषों के कथानक हैं कि वे चाहे जैसी भी स्थिति में रहे हों, उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके जगत् में एक आश्चर्य का सृजन किया है। वैसे तो जैन शासन में केवलज्ञान मुश्किल नहीं है, आसान है; यदि उत्तम भावना जाग जाये तो। ऐसे ही इतिहास-प्रसिद्ध एक पात्र हैं राजा पृथ्वीचन्द्र। राजा पृथ्वीचन्द्र की कथा पृथ्वीचन्द्र अयोध्या नगरी में हरिसिंह राजा और पद्मावती रानी के लाडले पुत्र थे। कल्पवृक्ष के अंकुर की तरह वृद्धि पाते हुए, माता-पिता के लिए आनंद का वे एकमात्र आधार थे। . एक बार मुनि भगवंत के दर्शन करते हुए उन्हें जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके प्रभाव से उन्हें पूर्व के उन्नीस भवों के आध्यात्मिक साधना का परिणाम बीसवें भव में देखने को मिला। .. पूर्वभव की साधना का जाति स्मरण ज्ञान होते ही पृथ्वीचन्द्र राजकुमार समग्र संसार वास से विरक्त हो गये। गृहवास अब कारावास समान लगने लगा। संसार की प्रत्येक प्रवृत्ति में वे उदासीन बन गये। युवावस्था के बावजूद संसार के किसी कार्य में मन नहीं लगता। मोहाधीन माता-पिता को दुःख हुआ और वे सोचने लगे कि इसे संसार में विलासी कैसे बनाया जाये? उन्होंने सोचा कि शायद स्वर्ग की अप्सरा समान, उत्तम कुल में उत्पन्न हुई राजकन्याओं के साथ इसका विवाह कर देने से यह सांसारिक सुखों में डूब जाएगा। इसका यह धर्ममय आचरण तब तक ही है, जब तक वह कामिनी के नेत्र-बाणों का शिकार नहीं बन जाता। अतः शीघ्र ही इसका विवाह कर देना चाहिए। माता-पिता पृथ्वीचन्द्रकुमार के समक्ष विवाह की बात करते हैं तब राजकुमार अपने अन्तर्मन की उच्च भावनाओं को माता-पिता के समक्ष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि 187 For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना 'हे पूज्य! जीव ने अनादिकालीन संसार चक्र में जो सुख भोगे हैं, जिन भौतिक पदार्थों को भोगा है, उन्हें अगर इकट्ठा कर दें तो उनके सामने मेरु पर्वत एक छोटी गेंद जैसा लगेगा। इतने सुखों का उपभोग करने के बावजूद भी जीव को कभी तृप्ति का अनुभव ही नहीं हुआ। हे माता जी-पिता जी! जिन सुखों से किसी को कभी भी तृप्ति नहीं मिली, ऐसे सुख भोगने के लिए आप मुझसे क्यों आग्रह कर रहे हैं? मेरा मन इन विषय भोगों से सर्वथा विमुख हो चुका है। कुमार की इस निरासक्ति को देखकर माता-पिता अतिशय खिन्न हो गये। ___माता-पिता का प्रबल आग्रह देखकर, उनके अतिशय दबाव के कारण और भोगावली कर्म बाकी हों तो उनकी जंजीर तोड़ने के लिये उदासीन भावपूर्वक पृथ्वीचन्द्र कुमार विवाह के लिये तैयार हुए। ___धूमधाम से आठ कन्याओं के साथ पृथ्वीचन्द्रकुमार का विवाह महोत्सव संपन्न हुआ। माता-पिता कुमार को मग्न बनाना चाह रहे थे, पर कुमार तो भग्न हृदयपूर्वक लग्न जीवन में बंध रहे थे। . तुम जिसे 'प्रभुता में पदार्पण' कहते हो, कुमार को तो वह 'पशुता में पदार्पण'. लगता था। तुम्हारी और कुमार की दृष्टि में कैसा जमीन-आसमान का अंतर है! उमंग से भरी आठों पत्नियाँ पृथ्वीचन्द्र को रिझाने के लिये उन्हें घेर कर बैठ गईं, पर पृथ्वीचन्द्र ने अपनी वैराग्य भावना, विषय सुखों की भयंकरता, आतंरिक अनासक्ति और भय से छूटने के लिये विरति की झंखना को ऐसी दर्दभरी भाषा में व्यक्त किया कि आठों नवपरिणिता पृथ्वीचन्द्रकुमार से भी अधिक विरक्त हो संसार त्याग को उतावली हो उठीं। कैसी योग्य पत्नियाँ मिली होंगी पृथ्वीचन्द्र कुमार को। कैसी उनकी भी लघुकर्मिता होगी। सुख हो, समृद्धि हो, युवावस्था हो और भोग के सभी साधन मौजूद हों, पर उन्हें भोगने की बात तो दूर, उन सभी का इतनी निस्पृहता पूर्वक त्यागा . माता-पिता तो चिंता में पड़ गये कि इसे सांसारिक बनाने के लिये इसका विवाह करवाया, पर इसने तो अपनी आठों पत्नियों को भी वैरागी बना दिया। अब क्या करें? उन्हें कुमार को राजगद्दी पर बैठाने का ख्याल आया और उन्होंने कुमार को राजगद्दी स्वीकार करने के लिये आग्रह किया। पर कुमार की जरा भी इच्छा नहीं थी। अतः उन्होंने माता-पिता को खूब समझाया भी, पर उनके अतिआग्रह के कारण अन्ततः उनका राज्याभिषेक भी हुआ। तब भी उन्हें उन प्रवृत्तियों में जरा-सा भी आंनद, आसक्ति अथवा आतुरता नहीं थी। बिल्कुल निर्लिप्त रहते हुए जीव-दया का विशेष पालन करते-कराते हुए For Person188rivate Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना और प्रजा का निःस्वार्थ भावपूर्वक पालन करते हुए वे राजा के रूप में अपने दायित्वों का संपूर्णतः पालन कर रहे थे। राजसिंहासन उन्हें जरा-सा भी लुभा नहीं सका। वे तो यही सोचते रहते कि तत्त्वदृष्टि से देखता हूँ तो लोग जिसे गीत-संगीत कहते हैं, वे सारे मुझे विलाप लगते हैं। लोग जिसे नृत्य गान कहते हैं, वे मुझे सिर्फ विडंबना रूप लगते हैं। लोग जिसे आभूषण मानते हैं, मुझे तो उनका निरर्थक बोझ लगता है। इतना ही नहीं, इन सारे सांसारिक सुखों का परिणाम तो भयंकर दुःख ही है। इन्हीं भावों में रमण करते हुए पृथ्वीचन्द्र राजा भावना भाते हैं - कब मैं निर्ग्रन्थ साधु बनूंगा? - कब मैं द्रव्य एवं भाव से मूंड बनूंगा? - कब मैं सर्वसंग से विराम पाकर आत्मभाव में लीन बनूंगा? - कब मैं परिषह उपसर्गों को शांति से सहन करते हुए अपने कर्मों को समाप्त कर पाऊँगा? इन्हीं भावों में लीन बने पृथ्वीचन्द्र राजा की राजसभा में एक बार गजपुर नगर से सुधन नामक एक उत्तम व्यापारी आया। राजा ने उससे पूछा कि पृथ्वीतल पर भ्रमण करते : हुए तुमने क्या कोई आश्चर्य देखा है? तब उस व्यापारी सुधन ने बताया कि गजपुर नगर में श्री गुणसागर नामक श्रेष्ठिकुमार संपूर्ण निरासक्त भावपूर्वक गृहवास व्यतीत करते थे। माता-पिता के अतिशय .. आग्रह के अधीन हो अन्ततः उन्हें आठ कन्याओं से विवाह रचाना पड़ा, पर आठों कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करते-करते गुणसागर तो जाने कैसे अनुपम भावों में आरूढ़ हो गए, - संसार से विरक्त हो गये और वहीं के वहीं उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। उन्हें तो हुआ ही, पर उनकी आठों पत्नियों को भी केवलज्ञान। राजन्! मैं अभिभूत, दिग्मूढ़ बना वहाँ खड़ा था, और केवली गुणसागर ने मुझसे कहा कि इससे भी अधिक विस्मित कर देने वाली बात तुम्हें अयोध्या में पृथ्वीचन्द्र राजा की राजसभा में देखने को मिलेगी और इसी उद्देश्य से मैं यहाँ आया हूँ। .. इतना सुनते-सुनते पृथ्वीचन्द्र राजा भी गुणानुराग की भावनाओं की श्रेणी पर ऐसे .. आरूढ़ हो, संसार बंधनों को तोड़ डालने के लिए ऐसे कटिबद्ध बने कि राजसिंहासन पर बैठे-बैठे पृथ्वीचन्द्र राजा को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। उनकी पत्नियों को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। स्वयं सौधर्म इन्द्र ने आकर उनका केवलज्ञान महोत्सव किया। . . 189 For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला इस पूरे दृष्टांत में महत्त्व की बात यह है कि ये उत्तम आत्माएँ 1. संसार को कारावास मानती थीं। 2. उन्हें संसार की किसी भी प्रवृति में रस नहीं था । 3. वे संसार के कार्य भी माता-पिता आदि स्वजनों के दबाव से ही करते थे, और उमंग से नहीं, सुकृत अनुमोदना 4. इन प्रवृतियों में प्रवृत्त होते हुए भी भावना तो साधु जीवन की साधना की तथा मोक्ष प्राप्ति की ही भावना भाया करते थे। मनोरथ की शक्ति यह है जिनशासन । जहाँ उच्च मनोरथ वाले को केवलज्ञान प्राप्त होता है। जैसे नागकेतु ने परमात्मा की पूजा करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। ईलाची कुमार को रस्सी पर नाचते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भरत चक्रवर्ती को अरीसा में देखते हुए केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। अतः दुनियाँ को हृदय में न बैठाकर जिनशासन को हृदय सिंहासन पर स्थापित करो। कह दो - हे मोहराजा ! हे रागगजेन्द्र और द्वेषकेशरी ! यह हृदय का सिहांसन आप लोगों के लिए नहीं है। मेरे देवाधिदेव और गुरु भगवन्तों के लिए है। मोहराजा तुम निकल जाओ । मेरा सिंहासन देव- गुरु के लिए है। यहाँ तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है। सही तरीके से निकल कर, पुनः प्रवेशकर अपनी होशियारी नहीं दिखानी है। इसे कहते हैं भावपूर्वक शील का पालन । इच्छा से शील का पालन करना । सुकृत अनुमोदना में हमें ध्यान रखना है कि दूसरों की प्रशंसा जाहिर में करना चाहिए | स्वयं की बारम्बार सुकृत की अनुमोदना करने से सोया हुआ मान कषाय जाग जायेगा। इसलिए स्वयं की सुकृत अनुमोदना बारम्बार व जाहिर में न करें। गुणीजनों पर प्रमोद भाव महापुरूषों के सुकृतों की अनुमोदना हमें बारम्बार करनी चाहिए। सबके समक्ष जाहिर में करनी चाहिए। बहुमानपूर्वक करनी चाहिए । विनयविजय जी महाराज 'शांतसुधारस' में प्रमोद भावना में बताते हैं कि महापुरूषों के गुणों को देखकर हमें आनंदित होना चाहिए। गणधर पुण्डरिक स्वामी ने पाँच करोड़ मुनि भगवंतों के साथ अनशन द्वारा मोक्ष प्राप्त किया। कार्तिक सुदी पूर्णिमा के दिन द्राविड़ वारिखिल्ल दस करोड़ मुनि भगवंतों के साथ मोक्ष पधारे। इन सभी मुनि भगवंतों का विचार आते ही मन आनन्दित, प्रफुल्लित हो जाना चाहिए। जिससे कठोर परिणाम निर्मल बनते हैं; परमात्म 190 For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना चैत्यवन्दन, स्तवन, गुणानुवाद इन सभी का गुणगान सुकृत अनुमोदना ही कहलाती है। दुनियाँ के व्यवहारिक कार्यों की अनुमोदना की जाती है। व्यापार मण्डल के प्रमुख बनने पर समाचार पत्रों में हार्दिक बधाईयाँ दी जाती हैं। कुछ अच्छा कार्य करने पर धन्यवाद दिया जाता है। कोई पद या सत्ता की प्राप्ति पर अनुमोदना के लिए पोस्टर लगाये जाते हैं। संसार के इन सभी प्रसंगों पर अनुमोदना करते हैं। ये स्वार्थ भावना हेतु होते हैं। धर्म में सुकृत के लिए जो अनुमोदना की जाती है, वह धर्मभावना हेतु होती है। कहते हैं, इसमें सबसे बड़ा लाभ यह मिलता है कि हम जिन जिन सुकृतों की अनुमोदना करेंगे, वे गुण हमारे भीतर आयेंगे ही। यही आध्यात्मिक नियम है। परन्तु एक शर्त यह है कि इसमें भौतिक स्वार्थ नहीं होना चाहिए। जो गुण आपको चाहिए, उस गुण की आप मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करें। उनकी सेवा-भक्ति करें। जिससे वे गुण आपके भीतर सरलता से आ जायें। भावपूर्वक तप भावपूर्वक तप करने से हमारा तात्पर्य यह है कि खाने-पीने की इच्छाओं को रोकना, किन्तु आज अपनी तपस्या मात्र देखादेखी से ही होती नजर आ रही है। किसी ने तेला या अठाई की तो मुझे भी करना है। यह द्रव्य तप हुआ। भावतप में मात्र उपवास या आयम्बिल तप करना ही नहीं है। किन्तु रसनेन्द्रियों पर काबू कितना पाया, उससे तप का पता चलता है। तप का सच्चा लक्ष्य स्वाद की आसक्ति तोड़ना है, सुख सुविधाएँ या देह की आसक्ति कितनी कम हुई, इस पर ही तप का द्रव्य या भाव निर्भर करता है। .. नवकारसी का पच्चक्खाण करने वाला व्यक्ति भी भावतप करनेवाला हो सकता है, क्योंकि उसका लक्ष्य सही है। मासक्षमण का तप करने वाले तपस्वी का तप व्यतप भी हो सकता है, क्योंकि उसमें तप के भाव के बजाय तप का अंहकार ज्यादा होता है। इस सम्बन्ध में शास्त्रों में कुरगडू मुनि की कथा उल्लेखनीय हैसुरगडू मुनिकी कथा __कुरूमणि नगरी में कुम्भ नामक राजा राज्य करते थे। उनके ललितांग नामक एक पोजकुमार था। ललितांग कुमार गुणों का सागर था। एक दिन गुरुदेव की धर्मदेशना श्रवण की। मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और माता-पिता की अनुमति लेकर संयम ग्रहण किया। साधु तो बन गये, परन्तु तप का उदय नहीं था। सवेरा होते ही उन्हें वेदनीय कर्म का उदय होने से भूख लगती थी। एक घड़ा भरकर कूर (भात) खाने की रोज की आदत थी For Perso191 Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदन उन्हें, और इसलिए सहाध्यायी मुनियों ने उनका नाम कुरगडू मुनि रख दिया था। कूर यानि भात गड्डू अर्थात् घड़ा। मुनि कुरगडू रोज नवकारशी तप से अधिक नहीं कर पाते थे, किन्तु उनकी नवकारसी भावपूर्वक होती थी। तप धर्म में वे ढीले थे, किन्तु उपशमरस के सागर थे। देश-विदेश में विहार कर परिषह को सहन करने में वे शूरवीर थे, किन्तु भोजन के विषय शिथिल थे। पर्युषण पर्व का पदार्पण हुआ । गच्छ में तो पहले से ही तप की साधना प्रारम्भ हो चुकी थी। पूरा गच्छ तपस्वी, किन्तु कुरगडू मुनि को रोज खाना चाहिए, जानता था। संवत्सरी के दिन भी गुरुदेव के आदेश से एक घड़ा भात (चावल) ले आए। उनके गच्छ में चार मुनि चौमासी तप कर रहे थे। कुरगडू मुनि को मन में अफसोस था, मैं कैसा खाउदरा ? रोज खाने को चाहिए और तपस्वी जी चार महीने के उपवास कर रहे हैं, धन्य है इन्हें । कुरगडू मुनि आहार ले आए। तपस्वी मुनियों को दिखाया तो उन मुनियों को गुस्सा आ गया। यह कैसा खाउदरा ? आज तो बच्चे भी उपवास करते हैं और ये आहार ले आया । मुनियों के मौन था, अतः उन्होंने कुरगडू मुनि के आहार में थूक दिया। मुनि कुरगडू की जगह यदि हम अपने आप को खड़ा करें और कोई अपनी थाली में थूक दे तो क्या होगा ? अपना गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा । है ना? बस यही फर्क था अपने में और उनमें। हम सब रोज खाते हैं और वे मुनि भी रोज वापरते हैं किन्तु उन्होंने खाते-खाते केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। परन्तु हम सब भटक रहे हैं। यह जैन शासन है। यहाँ तो भोगी भी योगी कहलाता है। खाने वाला भी तपस्वी कहलाता है। क्योंकि भावना उनके साथ है, भावधारा का सातत्य है । कुरगडू मुनि के आहार में जब मुनियों द्वारा थूक दिया गया, तब उन्होंने सोचा- 'ओह! कैसा भाग्य ? तपस्वी मुनियों ने मेरे भात लूखे देखे तो घी डाल दिया। तपोमय देह से निकला यह थूक मेरे जीवन में तपधर्म का पदार्पण कराएगा। मैं भी इनकी तरह ही तप करूँगा।' कुरगडू मुनि आहार ग्रहण कर रहे हैं किन्तु उनका मन भावधारा में बह रहा है। मैं भी तप करूँगा। एक-एक कौर मुँह में रखते जा रहे हैं, और भावधारा में बहते जा रहे हैं। कर्मों का सफाया होता जा रहा है। मुनि भावधारा के सातत्य के कारण घनघाती कर्मों को जलाकर भस्म कर देते हैं। मुनि को स्व-निंदा और पर - प्रशंसा ने क्षपक श्रेणी पर चढ़ा दिया । भावधारा में बहते - बहते खाते-खाते भी केवलज्ञानी बन गए। 192 For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना ___सच्चा तप वही है, जिसके द्वारा जो कमियाँ मुझमें हैं, उन्हें दूर करूँ। मात्र तपस्वी की वाह-वाह करना ही अनुमोदना नहीं है। बल्कि जो आप नहीं कर पा रहे हैं, उसका दर्द होना आवश्यक है, दुःख होना चाहिए; किन्तु आज हमारे पास दिखावा रह गया है और वास्तविक भाव नष्ट हो गये हैं। हमें चाहिए कि तप का भाव जीवन में लाएँ। हमें द्रव्य नहीं, भावपूर्वक तप करना है और भावपूर्वक किया गया तप ही मुक्ति का कारण बताया गया है, हमारे ज्ञानी भगवन्तों ने कहा है- दान भी भावपूर्वक देना, शील भी भावपूर्वक पालना, तप भी भावपूर्वक होना चाहिए, तभी वह मोक्ष का कारण बन सकता है। 'भावे भावना भाविए भावे केवलज्ञान।' भाव से भावना भाने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। शुद्ध निस्वार्थ मनोरथ होना चाहिए। भावपूर्वक भावना कीजिए यानि हृदय का भाव जुड़ जाना चाहिए। सभी क्रिया भावना से कीजिए। जिनवर की पूजा में भी भाव चाहिए, सामायिक, प्रतिक्रमण में भी भाव होना आवश्यक है, तभी वे क्रियाएँ आत्मकल्याण का कारण बनेंगी। हमें भी सभी क्रियाएँ एवं अनुष्ठान आदि भावपूर्वक करने का भाव रखना चाहिए। भावधर्म आत्मा के उपयोग पूर्वक धर्म की प्रवृत्ति, यही भाव धर्म है। द्रव्य धर्म व्यवहार की बात है, जबकि भावधर्म निश्चय की। कभी क्रिया रूप धर्म अल्प भी होता हो, तब भी भावरूप धर्म तो श्रावक के अन्तर में गूंजता ही रहता है। श्रावक तब स्वयं को संसार में रहकर ठगा हुआ ही मानता है। श्रावक हमेशा संयम स्वीकारने को तत्पर रहता है। वह अब समझ चुका होता है कि 'यह जन्म मुझे भोग के लिए नहीं, योग अर्थात् आत्मा के कल्याण के लिए मिला है। राग करने के लिए नहीं, त्याग करने के लिए मिला है। अब मुझे पुद्गल के प्रति रमण नहीं करना। मुझे तो अब आत्मरमणता ही करनी है।' ऐसे विचारों के कारण, श्रावक वास्तव में शक्कर पर बैठी हुई मक्खी जैसा होता है। आसक्ति श्लेश्म है, जबकि अनासक्ति शक्कर। श्लेश्म में गिरी हुई मक्खी कितनी भी छटपटाए, पर उड़ नहीं पाती, जबकि शक्कर पर बैठी हुई मक्खी को उड़ने में देर नहीं लगती। - इसी प्रकार संसार के लुभावने सुखों को भोगते हुए भी श्रावक को उसे छोड़ने में देर नहीं लगती, क्योंकि श्रावक तो संसार की प्रवृत्ति करते हुए भी मोह के परिणामों को . तोड़ता रहता है। अतः उसे सांसारिक प्रवृत्तियों के कारण पाप का बंध होते हुए भी पाप का अनुबन्ध तो नहीं होता है। सच्चे श्रावक को कभी पापानुबन्धी कर्म नहीं बंधते, क्योंकि बन्थ प्रवृत्तियों द्वारा होते हैं, जबकि अनुबन्ध विचारों द्वारा। श्रावक के विचारों में तब पाप नहीं 193 For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पलते। विचारों से पापों का उच्छेद ही है भाव धर्म। व्यवहार तभी व्यवहार धर्म बनता है, जब वह निश्चय का कारण बनता है। द्रव्यधर्म भी तभी सार्थक बनता है जब वह भावधर्म का कारण बने। पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने कहा है- 'निश्चय दृष्टि धरीजी, पाले जो व्यवहार।' ... जब तक निश्चय दृष्टि हृदय में स्थिर नहीं होती, तब तक कोई भी व्यवहार सद्व्यवहार नहीं बन सकता। कम से कम निश्चय को पाने का लक्ष्य यदि हो, तो भी जीवन सफल हो जाए। निश्चय दृष्टि इतनी मजबूत होनी चाहिए कि व्यवहार अर्थात् प्रवृत्ति कैसी भी हो, पर वह मन को जरा भी विचलित न कर पाए। शुद्ध आत्म-द्रव्य को केन्द्र में रखकर जो कुछ भी किया जाए, उसे निश्चय दृष्टि कहते हैं। आत्मा को इस प्रकार निश्चय दृष्टि में स्थिर कर देना है कि किसी भी प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्ति, आत्मा के लक्ष्य से रहित न हो। शुद्ध आत्म-द्रव्य की जब जरा-सी भी झांकी हो तब आत्मा को वर्तमान अशुद्धि की प्रतीति हुए बिना न रहे। उन अशुद्धियों को दूर करने के लिए आत्मा जो प्रयत्न करे, जो प्रवृत्ति करे उसे ज्ञानी भगवन्त व्यवहार कहते हैं। अधिकांश आत्माएँ व्यवहार को स्वीकार कर निश्चय को पाती हैं। कुछ आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो सीधे ही निश्चय तक पहुँच जाती हैं। परमात्मा के शासन की आराधना द्रव्य और भाव अर्थात् व्यवहार व निश्चय के समन्वय से ही करनी है। द्रव्य धर्म की आराधना करने वाली आत्मा में यदि भाव न हों तो ऐसा धर्म जैन शासन को मंजूर नहीं। चार प्रकार के धर्मों में भी भाव धर्म का ही प्राधान्य है। बिना भाव के दान को निरर्थक बताते हैं। भाव रहित शील निष्फल होता है और भाव रहित तप तो संसार वृद्धि का कारण बनता है। भावधर्म ही प्रत्येक आराधना को धर्म बनाता है। भावधर्म तक पहुँचने के लिए सबसे पहले इस संसार को पहचानना होगा। इसकी वास्तविकता, विचित्रता और विषमताओं को जानना होगा। संसार के प्रति अभाव और मोक्ष के प्रति अहोभाव! यही है भाव धर्म। जिसे संसार के प्रति अभाव नहीं; ऐसी आत्मा धर्म की आराधना करती हो, यह कैसे हो सकता है? जिसे संसार के प्रति अभाव नहीं, उसे संसार में विघ्नरूप धर्म की आराधना करने की आवश्यकता क्या है? यह सूचित करता है कि उसके धर्म में कहीं न कहीं मन की मलीनता पड़ी हुई है। संसार के प्रति अभाव तो आत्मा का आवश्यक गुण है। अत्यन्त प्राथमिक अवस्था का है यह गुण। अपुनबंधक अवस्था में रही हुई आत्मा के लिए भी लिखा गया है कि 'जेहने नहीं भव राग रे...।' संसार के प्रति अभाव का भाव धर्म की प्राप्ति हेतु प्रथम 194 For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आवश्यकता है। बुदियामाँकीसुकृत इच्छा __राजस्थान में आज भी अनेक ऐसे अनूठे और भव्य जिनालय उपस्थित हैं, उनके इतिहास हमारे समक्ष हैं। एक छोटे ग्राम में एक बुढ़ियाँ माँ रहती थी। शादी के कुछ ही वर्ष बाद छोटी उम्र में पति की मृत्यु हो गई। अकेली विधवा अपने जीवन का निर्वाह करने हेतु लोगों के घर काम कर अपना पेट भरती थी। जितना मिलता, उससे स्वयं का गुजारा कर लेती, क्योंकि पीछे संतान की चिंता थी नहीं। जब प्रतिदिन कार्य हेतु गाँव के बाहर जाती थी, तब वहाँ का सुन्दर रमणीय स्थान निहार कर प्रसन्न होती। समय व्यतीत होता रहा। बुढ़िया पढ़ी-लिखी नहीं थी, परन्तु उसे पार्श्वनाथ परमात्मा के प्रति वर्षों से अगाढ़ श्रद्धा थी। जब भी वह उस रमणीय स्थान को देखती, उसका विचार चलता। काश! यहाँ पार्श्वनाथ परमात्मा का जिनालय होता तो कितना मनोहर लगता? .. उसको स्वयं के कपड़ों का ठिकाना नहीं था। खाने-पीने के लिए लोगों के यहाँ कार्य करके गुजारा निकालना पड़ता था। छोटी-सी टूटी-फूटी झोपड़ी थी। फिर भी किस आधार पर वह भावना भा रही थी। ज्ञानी कहते हैं, श्रद्धा बड़ी महान् वस्तु है। कुण्ठित बुद्धि वालों को श्रद्धाबल की जानकारी नहीं है। परन्तु समस्त वस्तुएँ बुद्धि के पैमाने से नहीं नापी जाती हैं। सम्मेत शिखरकीयात्रा बुढ़िया माँ को पता चला कि उसके गाँव से कोई संघपति सम्मेत शिखर जी का संघ ले जा रहा है। उसमें साधर्मिकों को भी पास दिया जा रहा है। बुढ़िया माँ भी पार्श्वदादा के दर्शन करने की इच्छुक थी। अतः उसे भी पास प्राप्त हो गया। सभी यात्रीगण मम्मेत शिखर जी पहुँचे। दूसरे दिन सभी को पार्श्वदादा के दर्शन के लिए पर्वत पर चढ़ना था। बुढ़िया माँ के भी मनोरथ थे कि वह भी ऊपर जाकर दर्शन करे। हमें भी ऐसा मनोरथ करना है कि गिरिराज की यात्रा करते समय कदम-कदम पर अनन्त कर्मों का क्षय करें। दूसरे दिन बुढ़िया माँ परमात्मा की सच्चे हृदय से पूजा, भक्ति, सेवा आदि करके तीन-चार बजे नीचे पहुँची। भोजनशाला में भोजन कर कमरे के बाहर बैठ गई। इतने में धर्मशाला के पास से जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई दी। .. बुढ़िया माँ विचार करने लगी। पार्श्वनाथ के दरबार में किसके रोने की आवाज आ रही है। जहाँ से आवाज आ रही थी, वहाँ पहुँची और देखा कि पैंतीस वर्ष की श्रेष्ठि 195 For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना वधू के पेट में भयंकर दर्द हो रहा था। डॉक्टर आकर गये। देखा, दवा भी ली पर दर्द में कोई आराम नहीं हुआ। सभी चिंतित थे। दूसरा कोई उपाय भी नजर नहीं आ रहा था। बहू ने रोते-रोते कहा- 'मुझे बचाओ-बचाओ! मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। अन्दर ही अन्दर नसें फट रही है। माँ ने कहा- 'पार्श्वनाथ दादा को याद कसे सब अच्छा हो जाएगा। श्रद्धा से लिया गया नाम दर्द को मिटा देगा। मुझे तो पार्श्वदादा पर ही श्रद्धा है। बेटी! एक गिलास पानी लाना।' ...और माँ पार्श्वनाथ परमात्मा का नाम स्मरण कर उस जल को अभिमंत्रित करती है तथा पार्श्वनाथ दादा की धुन चालू करा देती है। सभी दादा का नाम स्मरण करते हैं। प्रार्थना करते हैं। वह जल पिलाती है और थोड़ी ही देर में दर्द भाग जाता है। बहूरानी के रोने की आवाज बन्द देखकर सभी ने पूछा- 'क्या दर्द ठीक हो गया?' बहू ने कहा- 'माँ ने जल पिलाया और कुछ ही पलों में दर्द दूर हो गया। वह माँजी कहाँ हैं?' . बुढ़िया माँ जी तो अपने कमरे में पहुँच चुकी थी। किसी को पता नहीं था कि माँ जी कहाँ से आई और कहाँ गई? बुदियामाँजीकी निस्पृहता शाम होने पर बहूरानी ने विचार किया। माँ जी ने मुझे बचाया है। जो उपकारी होते हैं, उनका उपकार नहीं भूलना चाहिए। मुनीम जी को भेजकर खोज करवाया कि माँ जी कहाँ हैं? मुनीम जी खोज कर श्रेष्ठिवर्य के पास आता है। श्रेष्ठिवर्य स्वर्ण मुद्रा लेकर माँ जी के पास आता है। चरण स्पर्श कर थाल पास में रखता है और हाथ जोड़कर विनती करता है- 'आपने बहू पर ही नहीं अपितु पूरे परिवार पर उपकार किया है। आप इसे प्रेम से स्वीकार कर लीजिए।' ___ माँ जी- 'मैंने कुछ नहीं किया, यह मात्र पार्श्वनाथ दादा की कृपा है। कुछ करना है तो उनकी भक्ति करो।' ___ बुढ़िया ने भेंट लेने से साफ इन्कार कर दिया। स्वयं के पास पहनने को अच्छी साड़ी नहीं, इसके उपरान्त आई हुई स्वर्ण मुद्राओं को ठुकरा दिया। पर श्रेष्ठिवर्य भी खाली लौटने वाला नहीं था। यहाँ माँ जी भी दृढ़ थी। जो हुआ दादा के प्रभाव से हुआ, स्वयं के भाव एकदम निस्पृह। मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। बुदियामाँजी कीउदात्तभावना श्रेष्ठिवर्य ने कहा- 'माँ जी आप स्वीकार नहीं कर रही हो तो आप की कोई भावना हो तो कहो, जिस धर्म क्षेत्र में लगाना हो, वहाँ लगाकर आपकी भावना पूर्ण कर देंगे।' 196 For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना बुढ़िया बोली- 'श्रेष्ठिवर्य ! मुझे पार्श्वनाथ का नाम स्मरण करने को मिला, इतना ही मेरे लिए बहुत है। यदि आप ज्यादा आग्रह करते हो तो हमारे गाँव के बाहर एक सुन्दर रमणीय स्थान है, जहाँ एक सुन्दर भव्य जिनालय पार्श्वनाथ परमात्मा का बन जाए, ऐसी मेरी भावना वर्षों से है । ' श्रेष्ठवर्य भावना को स्वीकार कर वहाँ से रवाना हो गये । अन्तरमन की भावना साकार यात्रा पूर्ण कर बुढ़िया अपने गाँव पहुँची। कुछ दिन पश्चात् कुछ लोग उन्हें ढूंढते हुए आए और स्थान आदि देखकर उस जगह को खरीदा तथा पैसों की चिन्ता नहीं करते हुए एक कारीगर को भव्य जिनालय के निर्माण हेतु आदेश दिया। कुछ ही वर्षों में वहाँ सुन्दर जिनालय के रूप में माँ जी की भावना सफल हुई। माँ जी का सपना साकार हुआ। तात्पर्य यह है कि जिस बुढ़िया के पास एक रुपया भी खजाने के रूप में नहीं था वहाँ उसकी भावना जिनालय निर्माण की थी; और वही भावना आध्यात्मिक जगत की होने से, निस्वार्थ भाव पूर्वक होने से अवश्य सफल हुई। जहाँ निस्वार्थ भाव होते हैं वहाँ फल अवश्य मिलता है। सुकृत अनुमोदना से दो प्रकार के फल प्राप्त होते हैं 1. जो व्यक्ति सुकृत की अनुमोदना करता है, वही सुकृत उसमें आता है। 2. सुकृत करने वालों ने जिस पुण्य का उपार्जन किया, वैसा ही पुण्य वह भी उपार्जित करता है। अनुमोदना हृदय से करनी चाहिए। तभी कहा है- 'करण, करावण ने अनुमोदन, सरिखा फल निपजावत । ' भावों की तारतम्यता एक बात बराबर समझनी है... शुभ भाव से पुण्य और अशुभ भाव से पाप का • होता है। यहाँ दुनियाँ जो बोले, उससे पुण्य-पाप नहीं बंधता है, बल्कि भाव प्रमाण ह बंध होगा। आप २४ घण्टे किन भावों में रहते हैं ? २४ घण्टों में कितने घण्टे शुभ भाव में और कितने घण्टे अशुभ भाव में रहते हैं? उसी पर पाप-पुण्य निर्भर करता है। इसमें किसी की होशियारी नहीं चलती है। जो भावों की विचारणा न करे तो मूर्ख कहलाएगा। 'जीव जब संसार के कोई भी पदार्थ की इच्छा के बिना, स्वार्थ भाव के बिना, 197 For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना परोपकार की भावना से जो कुछ करे, उसमें पुण्य का ही बंध होगा। परन्तु पौद्गलिक स्वार्थ होगा, यश-कीर्ति नाम की चाहना हो, सत्ता भोगने का रस हो और इन्हें ही केन्द्र में रखकर कोई भी प्रवृत्ति करने में आएँ तो 100 प्रतिशत पाप का ही बध होगा।' ऐसा नहीं मानेंगे तो पुजारी, शिल्पी इत्यादि सभी को पुण्य ही बंधेगा। परन्तु पैसों के लिए पूजा करना, मूर्ति का घड़ना इत्यादि कार्य होने से पुण्य का बंध नहीं होता। प्रणिधानशुद्धि ' हे सर्वश्रेष्ठ गुणों से युक्त अरिहंत परमात्मा! • आपके अचिन्त्य सामर्थ्य बल से मेरी ये सुकृत अनुमोदना सूत्रानुसार विधि पूर्वक ० ० यह अनुमोदना शुद्ध आशय वाली और कर्मों का नाश करने वाली हो। यह अनुमोदना सम्यग् क्रिया स्वरूप बनकर आपकी आज्ञा को स्वीकार करने वाली ० यह सुकृत अनुमोदना किसी भी प्रकार के दोष बिना निरतिचार बनी रहे। प्रणिधान _ 'प्र+नि' उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से प्रणिधान शब्द बना है। इसका संक्षिप्त अर्थ है कर्त्तव्यता का संकल्प। वस्तुतः कर्त्तव्यता का संकल्प करना ही प्रणिधान कहा जाता है। दृष्टांत रूप में आपने 500 रुपये का दान दिया। यह प्रवृत्ति है दान की। दान अर्थात् धन का त्याग। आपको आपकी संपत्ति का हक, मालिकी का स्वेच्छा से त्याग करना, इसका नाम दान। दूसरे की भक्ति-परोपकार करना या उनके संकट का निवारण करना या किसी भी कारण से धन देना अर्थात् धनदान दिया कहलाएगा। दान के भी बहुत प्रकार होते हैं। अब आपका धन त्याग करने लायक है, संग्रह करने लायक नहीं है, ऐसा संकल्प हो तो धन दान में प्रणिधान है, ऐसा कहा जाएगा। यही शत्-प्रतिशत् सही अर्थ है। उपवास करते हैं, जिसमें आप चौबीस घण्टे आहार नहीं लेते। चौविहार उपवास हो तो पानी भी नहीं लेते हैं। आहार पानी के त्याग को कर्त्तव्य मानते हैं, और खाने को अकर्त्तव्य मानें तो प्रणिधान कहा जाता है। __प्रणिधान का अर्थ आप क्या समझते हैं? आपको करने लायक, आचरण करने लायक, प्राप्त करने लायक जो लगता है, और उसका ही कर्तव्य रूप में मानसिक संकल्प हो, तो वह वस्तु प्रणिधान कहलाएगी। वर्तमान में आपके जीवन में बहुतं प्रणिधान है, जैसे 198 For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पैसा कमाना योग्य है, यह संकल्प है ना ? आप इतनी मेहनत संकल्प के बिना कर सकते हैं ? कर्त्तव्यता का निर्णय ही संकल्प है। इसलिए ही जिस-जिस जगह कर्त्तव्यता का संकल्प है, वहाँ वहाँ प्रणिधान है। जहाँ कर्त्तव्यता का संकल्प नहीं, वहाँ प्रणिधान नहीं। प्रणिधान युक्त धर्म ही शुद्ध धर्म अनन्त जो आत्मा धर्मतीर्थ को प्राप्त करती है, उसने भूतकाल में पुण्य का संचय किया है तभी उसको व्यवहार से धर्मतीर्थ की प्राप्ति हुई है । भूतकाल में भी इस धर्म की प्राप्ति कई बार हुई। यह कोई पहली बार प्राप्त नहीं हुआ है । अनन्त बार मनुष्य भव प्राप्त किया, बार शासन प्राप्त किया, जैन कुल-धर्म का भी आचरण किया है; धर्म के साथ कुछ लेन-देन ही नहीं है, ऐसा नहीं; बल्कि धर्म का विशेष परिचय भी प्राप्त किया । अरे! तीर्थंकर की वाणी भी सुनी, श्रद्धा भी की, आचरण भी किया, श्रावकत्व और साधुत्व का भी विशुद्ध रूप से पालन किया। अपनी आत्मा ने भूतकाल में कुछ किया नहीं और अब यह शासन मिल गया है, इसलिए हम एक कदम आगे आ गये हैं, ऐसा नहीं है । इस जीव ने अनन्त बार अच्छे कार्य किये हैं । मन-वचन काया से आराधना की, फिर भी मोक्ष नहीं मिला, संसार से जीव छूटा नहीं, आत्मा का उत्थान हुआ नहीं । कारण क्या है ? कौन-सी कड़ी उसमें कम पड़ रही थी कि जिससे आराधना आध्यात्मिक दृष्टि से निष्फल गई? इसके लिए उपाध्याय यशोविजय जी महाराज फरमाते हैं कि, 'वे सच्ची आराधना भावशून्य की थी, अर्थात् उसमें प्रणिधान रूप विशुद्ध भाव धर्म नहीं था । ' मन कहीं भटकता रहे और काया से क्रिया की, यह भाव का अर्थ नहीं है। वस्तुत: एकाग्रचित्त क्रिया की हो, पर उसमें प्रणिधान भाव नहीं रहा हो तो वह क्रिया भाव शून्य कही जाती है । कोई भी ऊँचा धर्म या सामान्य धर्म, जो भाव धर्म-युक्त न हो तो वह द्रव्य क्रिया ही कहलाएगी। ऐसे धर्म का फल पुण्यबन्ध होगा, या धर्म की सामग्री प्राप्त हो सकेगी। यह उसका अधिकतम फल होगा, परन्तु प्रणिधान नाम के भाव धर्म से ही सच्चा फल प्राप्त होता है। इस भाव के साथ धर्म को शुद्ध धर्म कहते हैं, शेष अशुद्ध धर्म कहा जाता है। शुद्ध धर्म ही योगरूप में मोक्ष का अनुसंधान कर सकता है। अशुद्ध धर्म का फल ही नहीं है, ऐसा हम नहीं कहते; परन्तु अशुद्ध धर्म का फल मुक्ति नहीं है । प्रणिधान वाला धर्म ही मुक्ति का कारण बनता है । मोक्ष का प्रणिधान कब आता है ? शब्द बोलना सरल है, परन्तु उसके भावों को पकड़ना कठिन है । सर्वदोषों से • रहित और सर्वगुण सम्पन्न, आत्मा की ऐसी अवस्था ही उसका मोक्ष है। अब हमारे या 199 For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आपके जीवन में जब तक कोई भी दोष शेष होंगे, तब तक मोक्ष नहीं होगा। इसलिए सभी दोषों को तिलांजलि देंगे, तभी मोक्ष होगा; साथ-साथ आत्मिक सर्वगुणों की पराकाष्ठा प्राप्त करेंगे, तब मोक्ष हुआ कहलायेगा। - अब ये गुण प्राप्त करने लायक न लगें, अच्छे न लगें, इसकी इच्छा या अभिलाषा भी नहीं, तो मोक्ष प्राप्त करने का प्रणिधान है क्या? आप कहेंगे, कैसी बात है? जैसे एक मानव कहता है, मुझे अरबपति बनना है, पर अरबपति कब बन सकता है। अब जिसे सौ, हजार, लाख, करोड़, पाँच करोड़ रुपये नहीं चाहिए, मात्र अरब ही चाहिए। ऐसा व्यक्ति मिलेगा ही नहीं, पर यदि मिल जाए तो आश्चर्य ही लगेगा? . . अरबपति बनने से पहले लाख तो प्राप्त करो। वैसे ही आपको सीधे मोक्ष का टॉप लेवल चाहिए। हां, मैं धर्म करता हूं, इससे मोक्ष होगा, दूसरा मुझे संसार का कुछ नहीं चाहिए। जो ऐसा संकल्प हो तो सही, पर गुण प्राप्त करने लायक लगते हैं ! गुणों को प्राप्त करने की अभिलाषा है भीतर! यदि एक गुण की भी अभिलाषा कम हो तो भी मुक्ति का प्रणिधान नहीं आता है। ___कहते हैं, प्रणिधान का प्रारम्भ पहले योगदृष्टि में होता है। पूर्ण प्रणिधान पांचवीं योगदृष्टि में आता है। सम्यग्दृष्टि का प्रणिधान शत्-प्रतिशत असली सोने जैसा होता है। सम्यग्दृष्टियों में परस्पर शुद्धि की तरतमता होगी, पर हेय-उपादेय का विवेक शत्प्रतिशत समान होगा। कदाचित् छोड़ने और आचरण में तीव्रता, मंदता या बोध की सूक्ष्मता कम ज्यादा हो सकती है, परन्तु शत्-प्रतिशत दोष छोड़ने जैसे हैं (हेय), गुण सभी ग्रहण करने जैसे हैं (उपादेय); उसका विवेक पक्का होगा, इससे ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रणिधान में फर्क पड़ने वाला है। अपुनर्बन्धक दशा से इसकी नींव शुरू होती है। यदि जीव में एक भी दोष का आग्रह होगा या एकाध गुण भी यदि नहीं पसन्द हों तो वह पुनर्बन्धक भी नहीं है। उसके बिना कोई भूमिका भी नहीं। श्रेष्ठ लोकोत्तर गुणों से युक्त श्री अरिहंतदेव, सिद्ध भगवान आदि के सामर्थ्य से उनके शक्ति-प्रभाव से ऊपर कही गई मेरी अनुमोदना1. आगम के अनुसार सम्यक् विधि वाली हो, ऐसी मैं इच्छा करता हूँ। 2. वह अनुमोदना तीव्र मिथ्वात्त्व कर्म के विनाश से सम्यक् यानि शुद्ध भाव वाली हो अर्थात् पौद्गलिक इच्छा से रहित, दंभहीन विशुद्ध भावना वाली हो। 3. वह अनुमोदना सम्यक् स्वीकार करने वाली हो, इसलिए उस क्रिया को अच्छी प्रकार से पालन करने वाली हो। 200 For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना 4. यह सुकृत अनुमोदना किसी भी प्रकार के दोष बिना निरतिचार वाली हो। पाप प्रतिघात और गुण बीजाधान का साधक बनाने के लिए अनुमोदना का यह सुन्दर और सटीक प्रवृत्तिक्रम बताया गया है। उन्नतिकारक साधना के अंग अनुमोदना, कोई भी सामायिकादि धर्मानुष्ठान, क्षमादि गुण या दानादि सुकृत क्या हैं? इनकी साधना करने के लिए की गई प्रवृत्ति के ये व्यवस्थित अंग बताए गए हैं1. शास्त्रोक्त विधि का पालन अर्थात् शास्त्र-ज्ञानीजनों के वचनों के प्रति ज्वलंत सापेक्ष भाव कि मुझे इस विधि अनुसार ही साधना करनी है, शास्त्रवचन की थोड़ी भी उपेक्षा कर के नहीं। 2. विशुद्ध अध्यवसाय, अर्थात् हृदय में निर्मल पवित्र भाव-भावना विचार करनी; तथा 3. शक्ति अनुसार सम्यक् क्रिया; अर्थात् जिसकी साधना करनी है, उसमें सही प्रवृत्ति। . समभाव की साधना के लिए विधि अनुसार सामायिक के अनुष्ठान में जुड़ना, इसकी प्रवृत्ति करना। उसी प्रकार4. इस प्रवृत्ति का निरतिचार पालन, इसमें जरा भी दोष नहीं लगने देना। इन चारों में से एक भी कम नहीं चलेगा। क्योंकि पहले में विधि का आग्रह जिनवचन के प्रति सापेक्ष भाव को सूचित करता है; और सर्व-प्रवृत्ति में ही नहीं बल्कि पूरे जीवन भर के लिए जिनाज्ञा हर कदम-कदम पर आगे रखना चाहिए। अर्थात् 'मेरे लिए पहले जिनाज्ञा', फिर दूसरा ऐसा बन्धन होना चाहिए, 'जिनाज्ञा ही तारने वाली है।' हृदय से ऐसी पुकार जरूरी है। नहीं तो स्वच्छन्द प्रवृत्ति होने से अज्ञान चेष्टाएँ होंगी। इससे भव पार नहीं होगा। _ जिनाज्ञा का भार हृदय में रखने के पश्चात् पुनः उसमें विषयों पर आसक्ति, ईर्ष्या, मद, कठोरता, माया, स्वार्थांधता इत्यादि कलुषित भाव नहीं रख सकते। नहीं तो यह जिनाज्ञा का बल कम कर देगा। सत्ता-समृद्धि की आकांक्षा भी नहीं रख सकते हैं। देव-गुरु और क्रिया के प्रति हृदय से भावभरी भक्ति और बहुमान चाहिए। तब इन दोनों के होते हुए प्रमाद तो चलेगा ही कैसे? धर्म प्रवृत्ति का पक्का पुरूषार्थ चाहिए। नहीं तो पाप का पुरूषार्थ चलता रहने वाला है। वहाँ हृदय के भाव शुष्क बन जाने वाले हैं। तब अनादिकाल की आहारादि संज्ञाएँ और कषाय संज्ञाओं की आहारादि की प्रवृत्ति से जमे हुए कुसस्कार, इससे विरूद्ध तप, दान इत्यादि धर्म प्रवृत्ति के पुरूषार्थ से ही दबते जाते हैं। खाऊ-खाऊं 201 For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला आदि की प्रवृत्ति से तो इनका पोषण होता ही रहेगा। इस प्रकार ये तीनों होने पर भी धर्मप्रवृत्ति यदि अविधि से युक्त होगी, तो आत्मा के सत्व का हनन होगा। सत्व अखण्ड होगा तो क्यों दोष लगाएगा ? जब प्रवृत्ति दोष रहित व अतिचार-मुक्त बनेगी, तभी इससे ऊपर की कक्षा की प्रवृत्ति होगी। ऊपर के गुणस्थानक चढ़कर अंतिम पराकाष्ठा वीतरागता तक पहुँच सकेगी। सत्व के बिना यह सब कुछ नहीं हो सकेगा। उन्नति के विशिष्ट साधन और उनके कारण जिनाज्ञा के प्रति अटूट रूचि, निर्मल हृदय, प्रबल पुरूषार्थ और सत्व, इन चारों उन्नति के साधनों के लिए - 1. सम्यक् विधि का पालन 2. विशुद्ध अध्यवसाय 3. यथाशक्ति सम्यक् क्रिया और 4. उसका निर्दोष निरतिचार निर्वाह, ये प्रवृत्ति के अंग हैं। 1. जिनाज्ञा के प्रति रूचि से जीव जिनेश्वर देव की सच्ची शरण स्वीकार करता है। उनके शरण में जाना मतलब उनको सच्चा, तारक, रक्षक, शासक मानना; उनके द्वारा कहे ये तत्त्व ही सच्चे, उनके द्वारा कहा गया आराधना मार्ग ही सच्चा, ऐसे हार्दिक भाव उपस्थित होना। जिससे जिनोक्त तत्त्व, मार्ग और विधि के प्रति बहुत आदर भाव रहते ही हैं। अनादि के मूलभूत दोष अहंत्व को मिटाने के लिए ये भाव अद्भुत काम करते हैं। यह सच है कि मैं जिनाज्ञा को प्राथमिकता देता हूँ। ऐसा मात्र कहना ही नहीं, बल्कि जीवन में जी कर बताना; यह है जिनाज्ञा रूचि, इसलिए सक्रिय जिनाज्ञा रूचि चाहिए । सुकृत अनुमोदना 2. सुन्दर अध्यवसाय से भरा हृदय, पवित्र भाव में सतत लगा रहे तो मलिन भाव और हल्के विचार बहुत कम हो जाएँगे । कुसंस्कार ह्रास होते जाएँगे, सुसंस्कार का बल बढ़ता जाएगा। जिससे शुभ संस्कारों का समूह एकत्रित होते ही आगे उच्चकोटि के अध्यवसाय को अवसर मिलता रहेगा। 3. पुरूषार्थ और सत्व के मूल्य तो तीर्थंकर भगवान के द्वारा कहे गये धर्म शासन की स्थापना के द्वारा समझ सकते हैं। यदि काल, स्वभाव, पूर्वकर्म अथवा भवितव्यता से ही आत्मा का उद्धार हो जाता हो तो शासन की स्थापना करने की क्या जरूरत? परन्तु मोक्ष मार्ग की आराधना में पुरूषार्थ बदलने के लिए ही आराधना का शासन स्थापित किया । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, इन पंचाचार में वीर्याचार नाम का अलग से आचार बताया गया है। यह आचार चारों आचारों के पुरूषार्थ में विशेष सत्व बदलने के लिए है; जिससे जीव की निर्दोष और शक्तियुक्त 202 For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आराधना हो यहाँ हमें विशेष ध्यान में रखना है कि यह प्रार्थना 'विषय सहित है', 'सविषय युक्त है।' सविषय यानि आलम्बनभूत प्रार्थ्य व्यक्ति वाली है। इसमें आलम्बन सत् अर्थात् प्रार्थना कोई काल्पनिक व्यक्ति के आगे नहीं की जा रही है, बल्कि वास्तविक और प्रभावशाली विशिष्ट व्यक्ति के आगे की जा रही है। इससे प्रार्थना निष्फल जाने वाली नहीं हैं। क्योंकि प्रार्थ्य पुरूष की लोकोत्तर उत्तमता ही उनके आगे प्रार्थना करने वाले हृदय को ऐसा कोमल, नम्र और उदार बना देती है कि जिससे उस हृदय में प्रार्थ्य के अनेक गुणों का आकर्षण हो जाता है। परम पुरूष के आलम्बन से ही ऐसा होता है। यह उनका विशिष्ट प्रभाव है। जिससे उनके आगे शुद्ध भाव से कराई गई प्रार्थना का भी मूल्य कम नहीं। प्रार्थना तो पारस है। यह जीव को गुण स्वर्ण के ज्वलन्त तेज अर्पित करता है। लोहे जैसी गुणहीन आत्मा को सोना जैसा गुण सम्पन्न बनाता है। अनुमोदना के लिए की गई प्रार्थना भी ऐसी सुन्दर भेंट करती है, जिनके योग से क्रमशः निरतिचार शुद्ध चारित्र तक पहुँच कर, जीव अजर-अमर बन जाता है। वाह! यहाँ मानव भव में कितनी महामूल्यवान प्रार्थना की सुलभता है। वस्तु की प्रार्थना, वस्तु के प्रति उत्कृष्ट आकर्षण और अभिलाषा को सूचित करता है तथा आकर्षण के साथ सच्ची अभिलाषा बीज है। इससे फल आएंगे ही, इसलिए प्रार्थना के द्वारा बीज का वपन करो। नागकेतु का जीव पूर्व भव में तेले का तप नहीं कर सका। परन्तु इधर अट्ठम की प्रार्थना, उत्कृष्ट आकर्षण-अभिलाषा से चल रही थी। उधर सोतेली माँ ने इसे नींद में ही झोपड़ी सहित जलाकर राख कर दिया। शुभ भावों के कारण नागकेतु रूप ने मनुष्य भव प्राप्त किया। इतना ही नहीं, जन्म लेते ही पूर्व भव का स्मरण होते ही तेले का तप उदय में आया। तप का आचरण रूपी फल प्राप्त हुआक्रमशः इसी भव में मोक्ष प्राप्त किया। अतः प्रार्थना पारसमणि है। अनुबन्ध के विचार 'अनुबन्ध आत्मा का प्रकाश'। .. जैसे चौमासे में आकाश घने बादलों से घिरा हो तो दिन में भी अंधेरा होता है। और वह घने बादल जब पतले होते हैं, उस समय सूर्य की किरणों का प्रकाश सीधे नहीं आकर मात्र उजाला होता है, और किसी समय बादल में किसी जगह से एक छेद हो, यानि थोड़ा बादल हट जाए, तब सूर्य की किरण सीधे आती है, तब भी उजाला होता है। दोनों समय उजाला ही है, फिर भी दोनों में फर्क है। क्या फर्क है? यही समझना है। For Pers203 Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना सूर्य - आत्मा बादल - कर्मपटल-सहज मल सूर्यप्रकाश - ज्ञानादिगुण सूर्य बादल से ढका हुआ है। आत्मा कर्मों से ढकी हुई है। घने बादल पतले हों, तब सूर्यप्रकाश सीधा बाहर नहीं आता है और बादल में छिद्र हो जाए तो सीधे सूर्यप्रकाश बाहर आता है। उसी प्रकार आत्मा के ऊपर से कर्म पतले होंगे, तब ज्ञानादि-क्षमादि गुण बाहर आते हैं। उसे शास्त्रीय भाषा में औदयिक भाव का प्रकाश कहा जाता है। क्योंकि यह प्रकाश कर्मपटल में से होकर आया है, और यही क्षमादिगुण कर्मपटल में छिद्र करके प्रकाश करे तो उसे क्षयोपशम भाव कहा जाता है। औदयिक भाव से हो रही प्रक्रिया में कोई चमड़ी उतारने के लिए आए तो भी क्षमा तो रहेंगी, ऐसा विशिष्ट प्रकाश दिखाता हो फिर भी उसका फल, मात्र देवलोक, मोक्षमार्ग में एक कदम भी नहीं। सहज मल में छिद्र नहीं हुआ। इस सहज मल में छोटा भी छिद्र होना ही मोक्षमार्ग है। इस दृष्टान्त में इतना भेद है कि बादल में छिद्र होकर पुन: बन्द हो जाता है। जबकि सहज मल में एक बार छोटा-सा भी छिद्र होने के बाद कभी भी बन्द नहीं होता। बस यही सहज मल में जो छोटा-सा छिद्र होना ही मोक्षमार्ग है, और तब से ही पुण्य के अनुबथ की शुरूआत होती है। - सहज मल-संसार के पदार्थों में ही सुख है, ऐसी गहरी मान्यता। - सहज मल में छिद्र- संसार के पदार्थों में जो सुख की गहरी मान्यता है, वह मंद हो जाना। पुण्यकाअनुबन्धकब? सुख संसार के पदार्थों में है, ऐसी बुद्धिवालों को पुण्य का अनुबन्ध नहीं होता। संसार खराब लगे, बाद में जो कुछ करने में आए, उसमें पुण्य का अनुबन्ध होता है। सहज मल का थोड़ा भी हास हुए बिना, जितना भी गुणों का प्रकटीकरण हो या फिर अरबों रुपये का दान हो या विशिष्ट शील का पालन हो, मासक्षमण के पारणे मासक्षमण हो या विशिष्ट कोटि का क्षमादि गुण हो, फिर भी पुण्य का अनुबन्ध नहीं होगा। केन्द्र स्थान में आत्मा कहते हैं, कोई चमड़ी उतारे तो भी गुस्सा नहीं करना। यह किसी हद तक क्षमा कही जा सकती है। परन्तु ऐसी क्षमा भी निष्फल कहलाएगी, कारण आत्मा केन्द्र स्थान में न 204 For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना थी। संसार मजे से भोग सकू, इसलिए शान्ति प्राप्त की है ना? इस प्रकार की मन की शान्ति को धर्म नहीं कहा जा सकता है। अनुबन्धका प्रभाव अपनी मूल बात अनुबन्ध यानि क्या? बन्ध की परम्परा। जीव जब-जब कर्म बथ करता है तब इस अनुबन्ध के कारण ही जीव परम्परा चलाने वाले कर्मों को बांधता है। यानि ये कर्म जब उदय में आएंगे तब अपना चित्त, अपने भाव, अपने परिणाम, अपनी मनोदशा कैसी स्थिति में होंगे, यह निश्चित करने वाला यह अनुबन्ध है। इससे जब ये उदय में आएं, तब यदि पाप का अनुबन्ध होगा तो अपनी बारह बज जाएगी और पुण्य का अनुबन्ध होगा तो कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि पुण्य के अनुबन्ध की उपस्थिति में जीव को सबुद्धि ही प्रकट होती है और पाप के अनुबन्ध की हाजरी में जीव को दुर्बुद्धि प्रकट होती है। बंधे हुए कर्मों के उदय काल में विचारधारा कैसी होनी चाहिए? मनःस्थिति कैसी हो? यह अनुबन्ध के आधार पर निश्चित होगा। यह अनुबन्ध अच्छा या खराब कैसे बंधता है, इस पर हम विचार करते हैं। शुभानुबन्धकाउपाय जिस जीव को विवेक बुद्धि प्रकट नहीं हुई, मात्र शुभ प्रवृत्ति करता रहता है; उसे भी पाप का ही अनुबथ होता है। यह अनुबन्ध एक भव तक नहीं चलता, भव की परम्परा तक चलता रहता है। इसलिए अनुबन्ध खराब होगा तो पतन निश्चित है और अनुबथ अच्छा होगा तो उत्थान निश्चित है। फिर किसी को एक भव, किसी को दो-पाँच भव भी अनुबन्ध के अनुसार पतन और उत्थान अवश्य होने वाला है। जब तक विवेक बुद्धि पैदा न होंगी, तब तक पाप का अनुबन्ध होगा ही। _ 'विवेक अर्थात् जो जैसा है उसे वैसा देखना, लाभदायक को लाभदायक तरीके से, नुकसान करने वाले को नुकसान करने वाले तरीके से, हितकारी को हितकारी तरीके से, अहितकारी को अहितकारी तरीके से, देखना उसका नाम विवेका' ऐसा विवेक प्रकट हो तब पुण्य का अनुबन्ध होता है। विवेक आने से उसे सम्पूर्ण संसार असार लगेगा और आत्मा व आत्मिकगुण ही सार लगेंगे। सार-असार का भान स्पष्ट होने से हेयोपादेय की बुद्धि स्थिर होने से संसार की प्रवृत्ति करते-करते जो अनुबन्ध होगा, वह पुण्य का अनुबथ होगा। जबकि जिसमें विवेक प्रकट हुआ नहीं, उसकी प्रवृत्ति शुभ होने पर भी अनुबन्ध पुण्य का नहीं, पाप का ही होगा। क्योंकि संसार असार नहीं लगा। इसलिए बध और अनुबन्ध की संक्षिप्त व्याख्या यह है कि 'बन्ध भावों पर निर्भर करता है और अनुबन्ध मान्यता पर For Personal Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना निर्भर करता है।' जब तक सहज मल राग-द्वेष की परिणति, संसार के अनुकूल पदार्थों के प्रति राग और प्रतिकूल पदार्थों के प्रति द्वेष है, तब तक अनुबन्ध खराब ही बंधते हैं। यह सहजमल अनादिकाल से है। इसे तोड़ने का उपाय क्या है? इसका विचार करना है। संसार के पदार्थों में सुख की बुद्धि सहजमल है। इसलिए संसार कैसा लगता है? यह विचार करना है। संसार खराब लगा कि नहीं..? इस दुनियाँ में राग-द्वेष ही मुझे नुकसान पहुँचाते हैं, यह दिमाग में बैठा या नहीं..? यदि बैठ गया तो सहज मल कम हुआ है और निश्चित पुण्य के अनुबन्ध की शुरूआत हो गई और एक बार भी पुण्य का अनुबन्ध जिसको शुरू हो गया, उसका मोक्ष सुनिश्चित है। पुण्यानुबन्धी पुण्यकामहत्त्व ___ सुरिपुरन्दर श्री हरिभद्रसूरीश्वर जी महाराज फरमाते हैं कि पुण्यानुबन्धी पुण्य मोक्ष का बीज है। जैसे बीज के बिना फल संभव नहीं, वैसे ही पुण्यानुबधी पुण्य के बिना मोक्ष संभव नहीं। इसलिए मोक्ष जाने से पहले पुण्यानुबन्धी पुण्य अनिवार्य है, और इसके आने पर यह समझ में आता है कि यह संसार मेरी इन्द्रियों को आनन्द देने वाला है, मेरे शरीर को सुख प्राप्त कराने वाला है, परिवार का पोषण करने वाला है, परन्तु मेरी आत्मा को आनन्द देने वाला नहीं। ये सभी तो अंत में छोड़कर जाने वाले हैं। इस दुनियाँ की एक भी चीज मेरे साथ चलने वाली नहीं है। इसलिए जीवन में प्रधानता आत्मा व धर्म की रहने वाली है, इसलिए उसे अनुबन्ध पुण्य का होने वाला है और ये ही मोक्ष के बीज हैं। यह अबंध्य की कीमत है, और इसकी विचारणा करनी चाहिए। जो लोग खाली शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के विषय में पड़े हैं, उनका कुछ नहीं होता। मात्र पुण्य बांधने से काम नहीं होगा। पुण्यानुबन्धी पुण्य बांधना पड़ेगा। वह कब होगा? सहज मल का हास होगा तब...। सहज मल का हास किस प्रकार होगा? लौकिक पदार्थों में से सुख की बुद्धि नष्ट होगी तब..। संसार के पदार्थों में सुख नहीं, ऐसा हृदय में स्वीकार करें तो ही कुछ काम होगा। सुकृत की सच्ची अनुमोदना भी मिथ्यात्व की मंदता के बिना नहीं हो सकती है। मिथ्यात्व मंद करने के लिए आत्मा में शुभ अध्यवसाय अवश्य जागृत करने चाहिए। अरिहंत देवाधिदेव के प्रति विशिष्ट सद्भाव जागृत होगा तब ही शुभ अध्यवसाय प्रकट होंगे। इस प्रकार अरिहंत, सिद्ध इत्यादि तत्त्व प्रभावशाली तत्त्व हैं। इनको ऐसे हृदय में धारण किया जाए। ये सद्भाव शुभ अध्यवसाय को जागृत करके मिथ्यात्व को मंद बना देते हैं और हृदय में सुकृत की सच्ची अनुमोदना उल्लसित करते हैं। यह तो भगवन्त के प्रभाव 206 For Personal & Private Use Only . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना से बना है, कृपा से बना है, ऐसा कहा जाता है। दृष्टान्त- धुवतारा के आलम्बन से समुद्र में नाविक सच्ची दिशा में नाव चलाकर ईष्ट स्थान पर पहुँचता है, तो वहाँ नाविक मानता है कि भले ही नाव चलाने में बुद्धि और मेहनत मेरी है तथा ईष्ट स्थान पहुँचाने में भले ही साधन नौका है, परन्तु अंधेरी रात के समय विराट समुद्र में सही प्रवास ध्रुवतारा के प्रभाव से हुआ है। यह तारादेव की हम पर अनहद कृपा है। इस प्रकार यहाँ भीषण भवसागर के विषय में इन्द्रिय-विषयदर्शन और मिथ्यात्वमत-दर्शन के अंधकार में सच्चा मोक्ष राह प्रवास होकर ईष्ट मोक्ष स्थान पर पहँचा दे, वह अरिहंत देव के आलम्बन से, उनके प्रभाव से उनकी कृपा से ही संभव है। ये यदि नहीं होते तो जीव की बुद्धि, मेहनत, सब कुछ संसार की राह पर ही चला जाता। अनादि भूतकाल में ये आलम्बन नहीं पाया, इसलिए जीव भव में भ्रमण करता रहा है। निश्चय से वे अरिहंत-सिद्ध भगवान अचिन्त्य प्रभावशाली हैं, वीतराग सर्वज्ञ हैं, परम कल्याण स्वरूप हैं, जीवों के परम कल्याण का कारण हैं। कैसे? 1. अरिहंत भगवन्त निश्चय से अचिन्त्य शक्ति प्रभाव वाले हैं, वीतराग सर्वज्ञ हैं। ___ अचिन्त्य का मतलब अगम, अमेय और अनुपम हैं; अर्थात् अर्हत् शक्ति न तो बराबर .. समझ सकते हैं, न माप सकते हैं, न किसी के साथ तुलना कर सकते हैं। 2. उसी प्रकार प्रभु परम कल्याण स्वरूप हैं। उनके दर्शन, श्रेष्ठ कल्याण के दर्शन किये। क्योंकि प्रकट परमज्ञान और परम सुखमय उनकी आत्मा का स्वरूप है, यही श्रेष्ठ कल्याण है। यह स्वरूप आत्मा से अभिन्न है। इसलिए अब जो परमात्मा स्वयं ही अनन्त कल्याण स्वरूप हैं, उन परमात्मा के सच्चे दर्शन में परम कल्याण के ही दर्शन किये, ऐसा अनुभव होता है। आत्मा जैसे संसार के त्रिविध ताप से छूटकर अनन्त कल्याण के आंगन में पहुँची हो। आचार्यादि परमेष्ठि पुरूष जिनको केवलज्ञान हो जाता है, वे मुख्य रूप से वीतराग सर्वज्ञ होते हैं। दूसरे महाविरागी और बहुश्रुत आचार्यादि महापुरूष अबुध जीवों के लिए वीतराग सर्वज्ञ के समान परम आलम्बन हैं तथा परम कल्याण स्वरूप हैं। जीवों को उस उपयोग से परम् कल्याण देने में आचार्यादि कारणभूत हैं। पंच परमेष्ठि भगवन्तों की साधना और उपासना कौन-सा कल्याण नहीं करवाती? उनका तारक उपदेश कल्याण के अनेक मार्गों को प्रकाशित करता है। उनके दर्शन कल्याण के उपयोग को जागृत करते हैं। उनका ही स्मरण, उनका ही वन्दन, उनकी ही भक्ति, उनके ही गुणों का उत्कीर्तन, उनके ही आलम्बन, उनकी ही शरण इत्यादि जीवों के लिए अचिन्त्य महाकल्याण के व्यवस्थित साधन 207 For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदन बनते हैं। इसलिए ये अचिन्त्य प्रभावन्ता हैं। इससे ही 'ये अभय-चक्षु मार्ग-शरणबोधि-धर्म के दाता हैं, ये ही जिन-तीर्थ-बुद्ध-मुक्त-बनाने वाले' इत्यादि हैं। ऐसी स्तुति गणधर महाराज श्रेष्ठ विद्वान भी करते हैं। सुलसा ने क्या किया था, यही कि उसने प्रभु श्री महावीर परमात्मा की शरण को जबरदस्त प्रशस्त रूप से पकड़ा था। 'मेरे तो परमात्मा महावीर ही आधार हैं, ये ही देखने-विचारने-स्वीकारने लायक हैं, ब्रह्मादि देव, नहीं'। इससे उसने तीर्थंकर नामकर्म के उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन किया। प्रार्थना ___ प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी सुकृत की अनुमोदना शुद्ध हो, सम्यग् हो; पर वह कैसे होगी? जब तक अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु भगवन्तों की कृपा प्राप्त न हो। आध्यात्मिक जगत् में जो कुछ कमाई होती है, वह देव गुरु की कृपा से होती है। अपनी इच्छा के बल पर व्यक्ति की गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। अपने भीतर सम्पूर्ण शक्ति परमात्मा की कृपा से प्राप्त होती है। जिसके भीतर देव-गुरु के प्रति श्रद्धा भक्ति नहीं, वह श्रेष्ठ चारित्र का पालन नहीं कर सकता। उत्तम जीवन व दृढ़ संकल्प परमात्मा के प्रभाव से ही प्राप्त होता है, क्योंकि परमात्मा अचिन्त्य शक्तिशाली हैं। हम सोच भी नहीं सकते हैं कि परमात्मा का सामर्थ्य कैसा है! समर्पण ही मोक्षकामार्ग गुरु के प्रति समर्पित भाव से भक्ति करनी चाहिए। अपनी इच्छाओं का त्याग करना, यही सच्ची दीक्षा है। गुरु की इच्छा में मिल जाना। अपनी इच्छा हो एवं गुरु की भी इच्छा, दीक्षा देने की हो तो अलग बात है किन्तु स्वयं की इच्छा नहीं किन्तु गुरु की इच्छा ज्ञानबल से तुम्हें दीक्षा देने की है तो गुरु की इच्छा को प्रधानता देकर दीक्षा लेना गुरु समर्पण कहा जाता है। यही सच्चा धर्म है। गुरु के प्रति प्रेमपूर्वक दीक्षा ले सकते हैं, यदि योग्यता दिखाई दे तो। जैसे- गौतम स्वामी अंहकार पूर्वक आए और गुरु को समर्पित कर दिया अपना सारा जीवन। गौतम स्वामी जी का नाम हम क्यों लेते हैं ? उनके नाम मात्र में इतना प्रभाव है 'अंगूठे अमृत बसे लब्धि तणा भण्डार।' कुछ विचार नहीं करते। गुरु ने कहा- तुम्हें देवशर्मा को प्रतिबोध देने जाना है। तुरन्त 'तहत्ति', 'आज्ञा का पालन'। परमात्मा ने जो आदेश दिया, वह करना है। आग्रह छोड़ ही देना चाहिए। इच्छानिरोध ही तप है। For Perso208 Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला गुरु समपर्ण ही साधना की नींव उन्हें ही दीक्षा व केवलज्ञान की सफल प्राप्ति होती है जो गुरु को समर्पित होते हैं। प.पू. आ. श्री कलापूर्णसूरि जी म. सा. कहते थे- 'प्यास आज लगी है, पानी कल मिले तो कैसे चल सकता है ? हमें तो आज ही परमात्मा को प्राप्त करना है। अभी प्यास लगी है। आने वाले भव में पानी मिले तो नहीं चले। जहाँ बैठे हो, भगवान का ध्यान चलता रहे, स्वाध्याय के समय भी विचारों में भगवान के वचन होने चाहिए। शास्त्र के प्रत्येक वचन में परमात्मा के दर्शन करने हैं। गुरु की भक्ति ही हमें सच्ची शक्ति देती है । सुकृत अनुमोदना 209 For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पंचसूत्र परिशिष्ट अचिंत-सत्ति-जुत्ता-हि-ते भगवंतो, वीअरागा, सव्वन्नू, परम-कल्लाणा, परम-कल्लाण-हेऊ सत्ताणं!!! मूढे अम्हि पावे-अणाइ-मोह-वासिए, अणभिन्ने, भावओ हिआ-हिआणं। *** अभिन्ने सिआ, अहिअ-निवित्ते सिआ, हिअ-पवित्ते सिआ, आराहगे सिआ, उचिअ-पडिवत्तीए, सव्व-सत्ताणं सहिअंति। इच्छामि सुकड़ इच्छामि सुकडं इच्छामि सुकडं *** एवमेअं, सम्म पढ-माणस्स, सुण-माणस्स, अणुप्पेह-माणस्स, सिढिलीभवंति, परिहायंति, खिज्जंति, असुह-कम्माणु-बंधा, निरणु-बंधे वा असुह-कम्मे, भग्ग-सामत्थे सुह-परिणामेणं, कडग-बद्ध विअ विसे-अप्प-फले सिआ, सुहा-वणिज्जे सिआ, अपुण-भावे सिआ। * * * तहा-आस-गलि-जंति परि-पोसि-ज्जंति, निम्म-विज्जति, सुह-कम्माणु-बंधा, साणुबंधं च सुहकम्म, पगिट्ट पगिट्ठ-भाव-ज्जिअं, नियम-फलयं,सुपउत्ते विव महागए, सुह-फले सिआ, सुहप-वत्तगे सिआ, परम-सुह-साहगे सिआ। अओ-अपडिबंध-मेअं, असुह-भाव-निरोहेणं, सुह-भाव-बीअंति, सुप्पणिहाणं-सम्मं पढिअव्वं, म्मं सोअव्वं सम्मं अणुप्पेहि-अव्वंति। *** नमो नमिअ-नमिआणं परम-गुरू-वीअरागाणं नमो सेस-नमुक्कारा-रिहाणं जयउ सव्वण्णु-सासणं परम संबोहीए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा। 210 For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना मध्यम मंगल हे अचिन्त्य शक्ति को धारण करने वाले अरिहंत भगवन्त! आप वीतराग हैं। आप सर्वज्ञ हैं। आप स्वयं परम कल्याण स्वरूप हैं। सर्व जीवों के परम कल्याण का कारण भी आप ही हैं। हे मेरे नाथ! आप इतने सामर्थ्य वाले मुझे मिलने के बाद भी मेरी कथनी के बारे में आपसे आप को क्या कहूँ? मैं सचमुच कितना मूर्ख हूँ! कितना पापी हूँ! अनादिकाल से मोह के संस्कारों से कितना ग्रसित हूँ, कि मेरे हित और अहित को भी नहीं जान सका! . हे परम पिता परमात्मा! . मैं नमभाव से चाहता हूँ कि आपके अंचिन्त्य प्रभाव से मैं मेरे हित और अहित का जानकार बनूं। अहित से विराम पाऊं, हित प्रवृत्ति करूं। सब जीवों के साथ उचित व्यवहार करूं और सच्चा आराधक बनूं। कारण कि ऐसा करने में ही मेरा हित है। हे विश्ववालेश्वर! - इस प्रकार सुकृतं की अनुमोदना करने से अब मैं भी सुकृत की इच्छा करता हूँ! सुकृत की इच्छा करता हूँ! सुकृत की इच्छा करता हूँ! मैं ऐसे विशिष्ट गुण और विशिष्ट उपकार करने वाले अरिहंत आदि भगवन्तों को उनके सम्यक् स्वरूप में नहीं स्वीकार करता हूँ। सुकृत से हृदय विदारण की अभिलाषा नहीं करता हूँ, मैं मूढ़ हूँ, अबूझ-अज्ञानी हूँ, क्योंकि मैं पापी जीव हूँ। अज्ञान और मोह के अनेक प्रकार के पापों ने मुझे बहुत घेर रखा है। मेरा संसार अनादिकाल से चलता आ रहा होने से अनादिकाल से अभ्यस्त ऐसे मोह को लेकर मेरी आत्मा के प्रदेश-प्रदेश पर जैसे लहसुन की गंध से वस्त्र का तन्तु-तन्तु वासित हो जाता है, वैसे मेरी आत्मायी राग-द्वेष और अज्ञानता से वासित हो गई हैं। मै राग-द्वेष एवं मोह के नशे से उन्मन्त बना हुआ हूँ, हे प्रभो! तत्त्व से अनभिज्ञ हूँ, मेरी आत्मा के ही वास्तविक हित और अहित से निर्बोध हूँ। इससे ज्यादा मेरी क्या ताकत कि सुकृत की वास्तविक अनुमोदना मैं कर सकूँ? परन्तु मैं अभिलाषा करता हूँ कि अरिहंत देवाधिदेव की सच्ची शरण-स्वीकार करके उनके प्रभाव से मैं हिताहित का जानकार बनूं, अहितकारी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभ योग की प्रवृत्ति से निवृत बनूं तथा हितकारी सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र मार्ग में प्रवर्तमान होऊँ प्रवृत्ति से मैं मोक्षमार्ग का, मोक्षमार्ग के दाता देवाधिदेव का, सद्गुरुजनों का, - - 211 For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना जिनाज्ञा का, इत्यादि के सुकृत्यों का आराधक बनूं। जगत् के सभी जीवों के प्रति औचित्यभरी प्रवृत्ति वाला बनूं। मैं इस प्रकार सुकृत की इच्छा करता हूँ, सुकृत की इच्छा करता हूँ, सुकृत की इच्छा करता हूँ। तीन बार कहने का तात्पर्य यह है कि1. यह मन-वचन-काय के त्रिकरण योग से सुकृत करने की इच्छा को सूचित करता 2. यह भूत-वर्तमान और भविष्य, ये तीन काल के सुकृत की इच्छा को सूचित करता ___3. यह सुकृत अर्थात् अनुमोदना भी स्वयं करना, करवाना व अनुमोदन करना, ये तीन रूप से इच्छा होना, यह सूचित करता है। इस सुकृत का आसेवन ही उत्तम क्रिया है। दूसरे जीवों का सुकृत अनुमोदन भी वैसा ही महाफलदायी है, वह विशेष रूप से रथकार गृहस्थ, बलदेव मुनि और तिर्यंच मृग के कथानक से विचार करने योग्य है। रथकार संयमी की भक्ति करने हेतु दान द्वारा संयम का पालन करवा रहा है, और हिरणी उस संयम तथा दान सुकृत की अनुमोदना करती है। इसमें हिरणी मुनि के संयम सुकृत की और रथकार के दान सुकृत की कैसी अद्भुत अनुमोदना करती है कि यहाँ से उन दोनों के साथ हिरणी पाँचवें ब्रह्मलोक में उत्पन्न होती है। यहाँ मृग को कहाँ से ऐसे उत्तम संयम और दान के फल जैसा फल प्राप्त हुआ? कहते हैं कि यह अनुमोदना सुकृत को करने या करवाने की चुराई हुई अनुमोदना नहीं थी; बल्कि स्वयं के द्वारा प्रणिधान पूर्वक की गई थी। शास्त्र में कथित करण, करावण व अनुमोदन का समान फल इस दृष्टान्त में सटीक सिद्ध हो रहा है। सूत्र स्वाध्याय की महिमा इस तरह उत्कृष्ट भावों के साथ जो इन सूत्रों का अच्छी तरह से पाठ करता है, सुनता है, चिन्तन करता है, उन आत्माओं पर भूतकाल में लगे अशुभ कर्मों के बन्धन ढीले पड़ते हैं। उन कर्मों के पुद्गल गिरने लगते हैं, उन कर्मों की दीर्घ स्थिति का भी नाश होने लगता है। अरे! उन कर्मों के अनुबन्धों का भी सर्वथा नाश हो जाता है। 212 For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पैर में सर्प काटने के बाद अंगूठे को डोरी से कस कर बांध देने से जैसे ज़हर आगे नहीं बढ़ता है, वैसे ही इस सूत्र का पाठ करने से कर्म का ज़हर भी आगे फैलने से रूक जाता है। दुःख देने वाले कर्म निरनानुबंध हो जाते हैं। इस सूत्र के प्रभाव से कर्मों का सामर्थ्य खत्म हो जाता है, कर्मों का फल अल्प हो जाता है, उन कर्मों को सरलता से संपूर्णतया आत्मा से दूर किया जा सकता है। फिर कर्मों का बंध नहीं होता है। भूतकाल में भोगे, वैसे दुःखों को भविष्य में भोगना नहीं पड़ता है। - इस प्रकार इसे सम्यक् प्रकार से पढ़ने वाले, सुनने वाले और इनकी अनुप्रेक्षा करने वालों के अशुभ कर्म के अनुबय शिथिल बनते हैं, हास को प्राप्त हो जाते हैं, और क्षीण हो जाते हैं। यहाँ सूत्र को सम्यक् रीति से पढ़ने से कैसे अपूर्व फल की प्राप्ति होती है, उसे बताते हैं। 'सम्यक् रीति से' यानि कि हृदय में संवेग का प्रकाश बिछाकर पूर्व में कहे गये 1. चार शरण में संवेग अर्थात् श्री अरिहंतदेवादि के उन विशेषणों की वैसी की वैसी हृदयस्पर्शी श्रद्धा और आदर, . 2. दुष्कृत गर्दा में संवेग अर्थात् हृदय में से दुष्कृत के शल्य निकालकर, स्वयं के दुष्कृतकारी आत्मा के प्रति सच्ची दुर्गच्छा के भाव 'अरे रे रे! मैं कैसा अधमकारी? मैंने कैसा गलत कार्य किया वैसे ही; 3. सुकृत आसेवन में संवेग अर्थात् क्रिया पर्यन्त आत्मा को ले जाय, वैसी गुण प्रमोदवाली प्रार्थना। 4. साथ ही, उसे पालन करने में देवाधिदेव और सद्गुरु के परम सामर्थ्य के भाव पर अटल श्रद्धा, यह संवेग है। 5. साथ ही संवेग अर्थात् शरण इत्यादि तीन उपाय अनन्तकाल इस भव में प्राप्त कस्ने के बदले स्वयं को महाधन्य मानने के भाव इत्यादि सुनने वाले मुख्य रूप से यह सूत्र स्वयं पढ़ने वाले तथा दूसरों के पास सुनने वाले, वैसे ही सूत्र के अर्थ का पीछे से स्मरण पारा चिन्तन करने वाले को, कर्मों के पूर्व में बांधे गये अशुभ बंध और अनुबन्ध मंद होते हैं। उन कर्मों की स्थिति कम होती है तथा विशिष्ट कोटि के शुभ अध्यवसाय के सुन्दर अभ्यास द्वारा उन अशुभ कर्मों के अनुबन्ध निर्मूल नष्ट हो जाते हैं। अशुभ कर्म का अनुबन्ध अर्थात् आत्मा में रहे हुए प्रकट या छुपे तीव्र भावों के संस्कार; अथवा उन संक्लेशों को जगाने वाले विशेष चिकने कर्म। ऐसे अशुभानुबन्धी भाव संसार में अविच्छिन्न बह रहे हैं, परन्तु महामन्त्र सम महौषधि और श्रेष्ठ रसायन सम, परम अमृत स्वरूप पूर्वोक्त सूत्र का पठन, 213 For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदन श्रवण, मनन और एकाग्रध्यान आत्मा में उतारने से जो शुभ भाव जागृत होते हैं, उससे उन अशुभ अनुबंधों का चूरा उड़ जाता है। बाद में आत्मा पर चले आ रहे संसार प्रवाह को सुखाकर ही छुटकारा लेता है ! सूत्र स्वाध्याय के परिणाम इस सूत्र का स्वाध्याय करने वाले पाठकों के जीवन में शुभ कर्मों का अनुबन्ध भरपूर प्रमाण में इकट्ठा होता है। शुभ भावनाओं की वृद्धि होने से पुण्य कर्म परिपुष्ट बनते हैं। अत्यन्त बलवान बने शुभ कर्म जीवात्मा को मोक्ष तक पहुँचाते हैं। शुभ अध्यवसाय के साथ इस सूत्र का स्वाध्याय करने से पुण्य कर्म उत्पन्न होता है। पुण्य कर्मों के पीछे यह अनुबन्ध इतना ज्यादा प्रकृष्ट होता है कि ये पुण्यकर्म निश्चित ही उत्तम फल देते हैं। महाव्याधि में दी गई कोई कल्याणकारी औषधि जैसे अचूक परिणाम दिखाती है, वैसे ही ये शुभकर्मों के अनुबन्ध भी अचूक फल देते हैं। नये तेजस्वी शुभ कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले बनते हैं, तथा परम सुख का कारण बनते हैं । इसलिये इन कारणों को जानकर, संसारी फल की इच्छा रहित होकर, चित्त के अशुभ भावों को दूर करके जो इस सूत्र का स्वाध्याय किया जाये तो ये सूत्र शुभ भावों के बीज बनते हैं। एकाग्रता धारण करके इस सूत्र का अच्छी तरह पाठ करना, अच्छी तरह श्रवण करना तथा अच्छी तरह से. परिभावन करना चाहिए। इस प्रकार इस पंचसूत्र के द्वारा हृदय में उल्लसित हुए शुभ अध्यवसाय से अशुभानुबन्ध रूपी ज़हर दूर होता है। उससे अशुद्ध कर्म के विपाक की परम्परा चलाने का सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। जैसे मंत्र के सामर्थ्य से कंटकबद्ध विष बहुत थोड़े फल देने वाले हो जाते हैं, वैसे ही चार शरण आदि के शुभ भाव रूपी मंत्र से यहाँ बाकी के अशुभ कर्म रूपी विष भी अल्प फलविपाक वाले बन जाते हैं। उसे सहजता से और सम्पूर्ण रूप से दूर कर सकें, ऐसे हो जाते हैं; दूसरा भी वैसा ही उत्कृष्ट स्थितिवाला, फिर से जन्म न ले वैसा हो जाता है। ऐसे होने से पूर्वकाल में जैसा भोगा, वैसा अब भविष्यकाल में अशुभ कर्म के महाकटुविपाक भोगने नहीं रहते । चार शरणादि तीन उपाय और पूर्वोक्त प्रार्थना से उपस्थित हुए शुभ भाव का यह जबरदस्त लाभ समझ आए तो प्रतिदिन इसका त्रिकाल अध्ययन करें। यहाँ इस प्रकार नुकसान के निवारण हेतु यह फल रूप में कहा गया है। अब For Personal Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सम्यग् उपायों की सिद्धि स्वरूप फल को कहते हैं इस सूत्र और उसके अर्थ पठन से कर्म के अनुबन्ध आत्मा में भरपूर एकत्रित होते हैं, साथ ही शुभ भाव की बुद्धि से वे अनुबन्ध पुष्ट होते हैं और पराकाष्ठा तक पहुँचते हैं। अहो ! कैसा महिमावंत यह पंचसूत्र ! निश्चय से, अनुबन्ध वाला शुभकर्म इसमें रहे हुए अत्यन्त अनुबन्ध की अपेक्षा से उत्कृष्ट कोटि का होता है। उसी प्रकार कर्म तीव्र 'शुभ' अध्यवसाय में उपार्जित हुआ होगा तो नियम से उत्तम फल को प्रदान करेगा। जैसे एकान्त रूप से किसी कल्याणकारी उत्तम औषधि का सही रीति से विधिपूर्वक प्रयोग किया गया हो तो वह सुन्दर फलस्वरूप आरोग्य-तुष्टिपुष्टि को प्रदान करती है। वैसे ही, शुभ कर्म मनुबन्ध वाला होता है। यह विपाक से नये तेजस्वी शुभ में प्रवृत्ति कराता है और इस प्रकार परम्परा से शुभ उत्कृष्ट कोटि का होकर निर्वाण के परम सुख का साधक बनता है । जैसे अनन्त संसार अशुभानुबन्ध पर होता है, वैसे ही अनन्त मोक्ष शुभानुबन्धी प्रबलता पर उत्पन्न होता है। इसलिए निदान रहित अर्थात् किसी भी प्रकार के अनात्मिक यानि जड़ सम्बन्धी राग, लोभ या ममत्व रखे बिना, अर्थात् इस लोक या परलोक सम्बन्धी पौद्गलिक प्राशंसा, मनोकांक्षा इत्यादि दूर करके, वैसे ही अशुभ अनुबन्धों को रोककर, शुभ भाव पावनाओं को पैदा करने में ये सूत्र बीज समान काम करते हैं, इसीलिए ये असाधारण निमित्त कारण बनते हैं। 1. सुन्दर प्रणिधान से (विशुद्ध भावना, एकाग्रता, तन्मयता और कर्तव्य निश्चय के साथ सुकृत अनुमोदना 2. सम्यक् प्रकार अर्थात् चित्त को प्रशान्त करके इस सूत्र को पढ़ना चिन्तन-मनन करना चाहिए। जिस प्रकार इसका वाचन तथा व्याख्यान का बराबर अनुसरण करते हुए अखण्ड श्रवण करना चाहिए, उसी प्रकार सूत्र के पदार्थों का चिन्तन-मनन करना चाहिए । अंतिम मंगल देवेन्द्रों, नरेन्द्रों और गणधरों द्वारा भी जिन्हें नमस्कार करने में आया है ऐसे हे रम गुरु! हे वीतराग भगवन्त ! आपको मेरा कोटि-कोटि प्रणाम । नमस्कार करने योग्य ऐसे हे आचार्यों एवं मुनिवरों ! 215 For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोद - आपको मेरी बार-बार वन्दना। - वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जिनशासन की जय हो। - सर्वोत्तम ऐसे सम्यक्त्व की प्राप्ति करके जगत के सभी जीव सुखी हों। सुख हों। सुखी हों। अब सूत्र की समाप्ति करते समय अन्तिम मंगल करते हैं। देवताओं से पूजित ऐ इन्द्रदेवता और गणधर महर्षि भी जिन्हें वन्दन करते हैं, ऐसे परम गुरु वीतराग परमात्मा के नमस्कार हो। बाकी नमस्कार के योग्य ऐसे गुणाधिक आचार्यादि महाराजाओं को नमस्का हो। सर्वज्ञ प्रभु का शासन मिथ्या दर्शनों को हटाकर विजय प्राप्त करे, जयवन्त हो प्राणिजगत् वरबोधि-लाभ से, अर्थात् मिथ्यात्व दोष टालकर सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध घर के स्पर्श से सुखी बने, सुखी बने, सुखी बने। इस प्रकार ‘पाप प्रतिघात से' अर्थात् अशुभ करवाने वाले आश्रवभूत भावों वे विच्छेदपूर्वक 'गुणबीज का आधान' अर्थात् भाव से प्राणाति-पातादि-विरमण रूपी गुण वे बीज का आत्मा में स्थापन हो, अर्थात् उस प्रकार के शुभानुबन्धक विचित्र विपाक वाले कर का आधान सूचित किया गया है। इसे सूचित करने वाला 'पाप-प्रतिघात-गुणबीजाधान सूत्र समाप्त हुआ। for par 216.vate Use Only For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पण पूज्या सुलोचनाश्रीजी म.सा. Jain Education in पूज्या सुलक्षणाश्रीजी म.सा. BSNLOnld www.ainelibrary on Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय कृति स्वयं कृतिकार का परिचय देती है। सुगन्ध से ही सुमन की पहचान बनती है। प्रियरंजनाश्रीजी मासा. माता 000000 जन्म स्थान जन्म 31.08.1967 भादवा सुदी 11 / नाम राजकुमारी श्रीमती सोनीदेवी पिता श्री बंशीलालजी कटारिया बिलाड़ा (राज.) दीक्षा 31.05.1985 दीक्षा स्थान : बाड़मेर दीक्षा दाता प.पू.आ. श्री जिनकान्तिसागरजी म.सा. गुरुवर्या : प.पू. सुलोचनाश्रीजी म.सा. प.पू. सूलोचनाश्रीजी म.सा. की विदुषी शिष्या साध्वी प्रियरंजनाश्रीजी अपने कुछ विशिष्ट गुणों के कारण एक अलग आभा मण्डल रखती हैं। वे श्रुत संयम की साधना में अप्रमत भाव से संलग्न है। गुरूवर्याश्री के सानिध्य में विनय, विवेक, विद्या की त्रिविधि आराधना में सल्लीन है। सहज-स्नेहिल, सेवाशील, मधुरभाषिणी, व्युत्पन्न प्रतिभा की धनी है। परमात्मा बनने यह अध्ययन कृति उनके ज्ञान की गंभीरता, विषय को आत्मसात की कला करने की दक्षता एवं भावों की अभिव्यक्ति देने वाला नपा तुला प्रांजल शब्द कौशल प्रशंसनीय ही नहीं मनोमुग्धकारी भी है। रुचि लेखन से भी अध्ययन, चिंतन, मनन एवं ध्यान में अभिरूचि। साहित्य लेखन : सफलता के मोती, दिव्य सुलोचना दर्शन, पार्श्वमणि देववंदन विधि, आओ!प्रभु प्रार्थना करो। गहूल्यांजलि, तपांजलि, जीवन रूपान्तरण की बून्दें, भगवान् तेरी आराधना, परमात्मा बनने की कला विचरण क्षेत्र : राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंधप्रदेश, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ आदि! only DrintArationHIRO0704OEX700