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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण भूल का एहसास कर पश्चात्ताप के भावों से भर गया। शीघ्र अपने बेटे को बुलाकर उन्होंने कहा- 'बेटा! आज गजब हो गया। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई है। मैंने घबराहट में राजा को गलत बात कह दी कि मेरी दुकान मे रेशमी कपड़ा नहीं है। पता नहीं मेरे द्वारा ऐसा मिथ्या-वचन क्यों निकला? अतः अब मेरी प्रतिष्ठा का सवाल है। इस कहे गए वचन के अनुसार सारा माल जला दो।' बेटा बोला- 'पिताजी! दुकान में लाख रुपये का माल है, कैसे जलाया जाए? यदि आपने राजा को मिथ्या कह भी दिया तो क्या हो गया? राजा को क्या पता चलेगा कि आपके पास माल है या नहीं? अतः व्यर्थ चिंता न करें।' ___ यह सुनकर सेठ ने कहा- 'पुत्र! मुझे लाख की चिन्ता बिलकुल भी नहीं है, मुझे अपनी साख की चिन्ता है। अपनी साख के कारण मुझे वचन की चिन्ता है, क्योंकि कहते लाख गया साख रह्या, फिर भी लाखज होय। साख गया लाखज रह्या, बात न पूछे कोय॥ अर्थात् लाख चले जाने पर भी यदि साख रह जाएगी तो लाख फिर हो जाएंगे परन्तु साख गई और लाख रहे तो कोई बात भी नहीं पूछेगा। आखिर पिता जी के आदेशानुसार पुत्र ने सारा माल रातों-रात जला दिया। दूसरे दिन अचानक राजा सेठ की दुकान पर जा पहुँचे। घर और गोदाम को बारीकी से जांचा किन्तु कहीं भी रेशमी कपड़े का तार उन्हें नहीं मिला। राजा सेठ की सच्चाई से बड़ा प्रभावित होता हुआ राजमहल पहुँचा। राजमहल में आकर उन्होंने क्रुद्ध होकर आदेश दिया- 'मंत्रीश्वर! उन समस्त चुगलखोरों की जीभ निकाल ली जाए, मेरे सामने भी उन्हें ऐसे सत्यनिष्ठ सेठ की चुगली करते हुए शर्म नहीं आई।' जैसे ही सेठ को इस आदेश का पता लगा, वैसे ही सेठ दौड़कर राजा के पास गया और करबद्ध होकर बोला- 'राजन्! वे लोग झूठे नहीं हैं, सच्चे हैं। वे चुगलखोर नहीं, सज्जन हैं। कल तक मेरी दुकान में रेशम का सामान अवश्य था, किन्तु कल मैने घबराहट के कारण आपको रेशमी कपड़े के लिए मना कर दिया था। इस वचन को निभाने के लिए रात्रि में मैने सारा रेशमी कपड़ा जला दिया। अतः उनको बिलकुल दण्ड न दिया जाए।' सेठ की ऐसी सरल-स्पष्ट सत्यवादिता से राजा प्रसन्न हुआ और उसने पूछा'सेठ जी! आपकी दुकान और गोदाम में रेशम का माल कितना था?'' 86 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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