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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश सम्यग्दर्शनादि शुद्ध धर्म आचरण में आएगा, तभी मोक्षाभिलाषी को मोक्ष के प्रति प्रीति बढ़ेगी और संसार के प्रति मोह, माया घटेगी। क्रम से संसार-रोग धीरे-धीरे नष्ट होता जाएगा। 4. विधि- इसके पश्चात् अन्त में धर्म श्रवण आदि साधना विधि का पालन करना जरूरी है। आदर पूर्वक सदैव सेवा करने वाला पुत्र यदि विधि से सेवा नहीं करता हो तो मात्र इस अविवेक दोष के कारण पिता-पुत्र को छोड़ता नहीं है। धर्म छोड़ना नहीं, परन्तु सेवा तो विधि से ही होनी चाहिए। औषध भी सतत् और बहुत श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने के साथ-साथ उस समय खान-पान एवं कुपथ्य का त्याग आदि विधि का सेवन करना चाहिए। अन्यथा औषध रोग को मिटा नहीं सकता है। बड़े राजा-महाराजा भी सत्कार सम्मान के पश्चात् विधि को अवश्य महत्त्व देते हैं। वैसे ही भव रोग को मिटाने के लिए धर्म रूपी औषध का सेवन विधि अनुसार ही होना चाहिए। औचित्य-आजीविका के लिए योग्य व्यवसाय, लोक व्यवहार का उचित पालन, उचित रहन-सहन, उचित भाषा व भोजन, कुटम्ब-परिवार, मित्र-मण्डल के साथ उचित व्यवहार, इस तरह सर्वत्र औचित्य का पालन होना चाहिए। सातत्य-दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्रवृत्ति जीवन में नित्य अथवा समय-समय पर नियमित रूप से सदैव चलनी चाहिए। जिससे सुन्दर व अच्छे संस्कार दृढ़ बन जाएं। आदर, दानादि धर्म और धर्मी पर मूल्यवान रत्न के निधान की तरह अगाढ़ प्रीति रखें। उनके संवाद के प्रति अनुराग रखें, उनके प्रति की गई निन्दा को श्रवण नहीं करें, निन्दक के प्रति दया, संसार की सभी वस्तुओं से भी धर्म को अधिक महत्त्व, धर्म प्राप्त करने की उत्कृष्ट आतुरता, धर्म प्राप्त करने के लिए विशिष्ट उद्यम, धर्म की प्राप्ति होने पर अपूर्व हर्ष और रोमांच का अनुभव, धर्म प्राप्त होने का इतना आनन्द कि अपने जीवन को इसी से महाभाग्यशाली समझें, इसमें किसी प्रकार की रूकावट या बाधा न आ जाए, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखें। विधि-शास्त्र में बताए गए काल, स्थान, आसन्न, मुद्रा, आलम्बन इत्यादि का पालन करें तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप-वीर्य इनके आठ-आठ आचारों का सेवन करें, धर्मरहित आत्माओं के प्रति भाव दया, धर्मी जीवों के प्रति हृदय से सहर्ष प्रेम इत्यादि अनेक वस्तु इस विधि में गिने जा सकते हैं। . पूर्व में कथित वैसी स्थिति प्रकट करने के लिए जीवन में उन्हीं विषयों का अभिग्रह ग्रहण कर पालन करना होगा, इस अभिग्रह से धर्म सतत् रूप से जीवन में 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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