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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश
शुद्धधर्मसाधने की विधि
संसार का उच्छेद (नाश) ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप शुद्ध धर्म अचारण से होगा, किन्तु यह धर्म औचित्य सहित, निरन्तरता सहित, सत्कार सहित, विधिसहित सेवन करने से प्राप्त होगा। हमें ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि व्रतधारी श्रावक एवं अव्रती गृहस्थ क्या ऐसी आराधना कर सकते हैं? हाँ, कर सकते हैं। अभिग्रह करने से यानि दृढ़ संकल्प रूपी प्रतिज्ञा करने से श्रावक या गृहस्थ इनका पालन पूर्णरूप से कर सकते हैं। अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की विविध आराधना प्रतिज्ञा पूर्वक करने से ही होती है। शुद्ध धर्म साधने की विधि यहाँ प्रस्तुत की जा रही है1. औचित्य- यहाँ सर्व प्रकार से औचित्य का पालन नहीं होगा तो अकेली शुद्ध धर्म की
साधना भी आत्मा के अनादि काल के कुसस्कारों को मिटा देने में समर्थ नहीं बन सकती है। अनुचित आजीविका, अयोग्य व्यवहार आत्मा को कठोर बनाती है, आत्मा के साथ एकमेक नहीं होती है। जिस प्रकार कठोर मिट्टी से भिन्न-भिन्न आकृति के घड़ा, कुण्डी, शिकोरा आदि नहीं बनाये जा सकते हैं परन्तु वही घड़ा आदि कोमल मिट्टी से बनाये जा सकते हैं। उसी प्रकार अनुचित व्यवहार से कठोर बनी हुई आत्मा के लिए भी समझना होगा। मिट्टी से घड़े की तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र भी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर उतारने का परिणाम है। आत्मा औचित्य पालन से मुलायम बनती है। वह कैसे? औचित्य पालन में जब आत्मा अधिक प्रमाण में लोभ, क्रोध, अहंभाव,
क्षुद्रता आदि को छोड़ता है, तब आत्मा मुलायम बनती है। 2. निरन्तरता (सातत्य)- भूतकाल के अनन्त भवों में जीव ने मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसादि
पाप और इन्द्रियों की निरन्तर धाराबद्ध पाप प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा में मिथ्यात्व भाव, मूढ़ दशा, अज्ञानता और पाप प्रवृत्ति को ही दृढ़ किया है। इसे मिटाने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की निर्मल प्रवृत्ति से जीवन में सतत् आचरण करना चाहिए। शरीर में बहुत लम्बे समय से गाढ़ रूप से व्याप्त हुए रोग को दूर करने के लिए जैसे औषधि का सेवन सतत् करना पड़ता है, वैसे ही मिथ्यात्व आदि गाढ़ रूपी
संसार रोग को दूर करने के लिए सम्यग्दर्शनादि का सतत् आचरण करना चाहिए। 3. सत्कार- हृदय के आदर-बहुमान सहित धर्माचरण करना चाहिए। इस जीव ने संसार
रूपी रोग को बढ़ाने वाले मोह का खूब आदर सहित सेवन किया। इसलिए ही संसार में अनेक कष्ट और पीड़ा का अनुभव करने के पश्चात् भी जैसे प्रिय पुत्र के प्रति मोह नहीं हटता है, वैसे ही संसार से मोह नहीं हटता है। हृदय के बहुमान सहित जो
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