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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश उपयोगी सिद्ध होते हैं व स्थाई स्थिर हो पाते हैं। शुद्ध धर्म को सम्यग्दर्शनादि रूप में पूर्व में कहे गये अनुसार समझना होगा। ऐसे शुद्ध धर्म की भाव से आत्मा में स्पर्शना होनी चाहिए। यह स्पर्शना मिथ्यात्त्व-मोहनीय, ज्ञानवरण, दर्शनावरण, अनन्तानुबंधी कषाय आदि पापकर्म के पूर्णतः नाश से होती है। इन पापों के क्षय के लिए तथाभव्यत्त्व (स्वभाव), काल, नियति (भवितव्यता), कर्म (पुण्य-पाप) तथा पुरूषार्थ, इन पाँच कारणों का समवाय (अनकुल संयोग) होना जरूरी है। सर्वप्रथम तथाभव्यत्त्व का परिपाक होते ही अन्य काल, नियति आदि कारण स्वयं ही अनुकूल बन जाते हैं। तधाभव्यत्व कास्वरूप
शुद्ध धर्म की प्राप्ति पाप कर्म की मंदता से होती है। पाप कर्म की मंदता तथाभव्यत्व के परिपाक से होती है। भव्यत्व अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता, तथाभव्यत्व यानि विशिष्ट भव्यत्व, उन भव्य जीवों के मोक्ष प्राप्त करने की वैयक्तिक योग्यता / तथाभव्यत्व। कहने का तात्पर्य यह है कि सामान्य से सभी भव्य जीवों में भव्यत्व-स्वभाव समान होने पर भी मुक्ति एक समान रीति से प्राप्त नहीं होती है. बल्कि अलग-अलग काल में, अलग-अलग सामग्री प्राप्त कर भिन्न-भिन्न प्रकार से धर्मबीज की प्राप्ति कर के, बीज के ऊपर अंकुर आदि फल पर्यन्त तक विकास की तरह मोक्ष पर्यन्त तक विकास से प्राप्त होता है। ये सभी विचित्रता वस्तु के स्वभाव की विचित्रता के बिना नहीं बन सकती हैं। अलग-अलग व्यक्तियों का अलग-अलग भव्यत्व, यही उन व्यक्तियों का तथाभव्यत्व है।
यह तथाभव्यत्व साध्य व्याधि के समान है। कहते हैं कि रोग असाध्य हो तो उसका इलाज नहीं है, पर साध्य हो तो साधनों के द्वारा रोग को समझ कर उसका इलाज करने से रोग का अन्त हो जाता है। उसमें तथाभव्यत्व भी उपायों के द्वारा पक सकता है और अंत में भव आरोग्य यानि मोक्ष को प्राप्त होते हैं, तथाभव्यत्व का अन्त हो जाता है। • साध्य-व्याधि के समान तथाभव्यत्व का परिपाक करने के लिए यहाँ तीन साधन बताये गये
1. चार शरण का स्वीकार 2. दुष्कृत की गर्दा
3. सुकृत की अनुमोदना। संसार से मुक्ति और मोक्ष पाने की इच्छा रखने वाले जीवात्मा को इन उपायों का सेवन नियमित, उपयोग पूर्वक करते रहना चाहिए। हाँ, जब भी चित्त अप्रसन्न हो, मन
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