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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश में भय, खेद, द्वेष, चिन्ता आदि संकल्प-विकल्प आते हों, तब बार-बार इन तीनों साधनों का सेवन करें। जब कभी मन अशांत और डांवाडोल स्थिति में न हो तो भी इन तीनों साधनों का तीन बार स्मरण करें। हमारे पूर्व ऋषि मुनियों ने अपूर्व साधना की थी। अपने कर्मों का उच्छेद करने हेतु हमें भी शुद्ध धर्म की आराधना करनी चाहिए। जैसे कि धन्ना अणगार, शालिभद्र, मेघकुमार आदि अनेक महात्माओं ने शुद्ध आराधना द्वारा कर्मों को क्षय करने का पुरुषार्थ किया। धन्ना काकंदी ने दीक्षा अंगीकार करते ही अभिग्रह सहित छठ-तप (दो उपवास) के पारणे, छठ-तप किये थे। पारणा भी आयम्बिल तप से करते। आयम्बिल में भी कैसा आहार लेते थे? जब लोगों के घर सभी सदस्यों का खाना समाप्त हो जाता, तत्पश्चात् वे गोचरी लेने यानि आहार ग्रहण करने निकलते थे। उसमें भी बचा हुआ अच्छा आहार नहीं लेते बल्कि तपेले में नीचे चिपका हुआ अथवा जला हुआ आहार, जिसे लोग फेंकते थे, उस पर मक्खी भी बैठना पसन्द न करे, ऐसे नीरस-विरस आहार आयम्बिल में लेते थे। आहार ग्रहण करते समय मन में एक ही विचार करते, इस शरीर को खब षडरस भोजन कराया, इसलिए अनादि काल से इस संसार में भटकना पड़ा है। अब इस शरीर के प्रति मोह त्याग कर आत्मा को उसकी खुराक देनी है। इस प्रकार छठ का तप जीवन-पर्यन्त स्वीकार करके आत्म कल्याण करने लगे। ,
शालिभद्र के जीव ने पूर्व भव में केवल एक बार ही और एक ही मुनि भगवन्त को थोड़ा खीर दान किया, परन्तु प्रणिधान (एकाग्रता) जबरदस्त होने से वह क्रिया कितना फल देने वाली बनी। मन में मात्र एक ही भाव - कैसे गुरु? कैसा उनका त्याग-तप? अन्त समय में भी एक शरण का ध्यान था। वचन से भी बहुमान, सत्कार पूर्वक, भक्ति-भाव पूर्वक अपने घर बुलाकर उन्हें खीर बोहराया था। ऊँचे भावों से बोहाराने से अगले भव में गुरु के स्थान पर साक्षात् अरिहंतदेव भगवान् मिले। इतनी ऋद्धि-सिद्धि मिलने पर भी अनासक्त भाव मिला। बाह्य वैभव सब कुछ मिलने पर भी आन्तरिक वैभव प्राप्त करने हेतु प्रभु शरण में चारित्र ग्रहण करते हैं। शुद्ध चारित्र धर्म का पालन कर अंत में अनशन करके अनुत्तर देवलोक में गये। वहाँ से च्यवकर पुनः राजा के घर राजकुमार रूप में जन्म लेंगे और चारित्र ग्रहण कर उसी भव में मोक्ष जायेंगे। तथाभव्यत्व परिपाक करने के साधन
तथाभव्यत्व परिपाक करने के तीन साधन हैं।
पहला साधन श्री अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ भाषित धर्म का सच्चा शरण स्वीकार करना है। इस जगत् में दूसरे सभी शरण मात्र औपचारिक रूप से शरण हैं,
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