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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश यानि कहने मात्र के लिए शरण हैं। क्योंकि उनकी शरण स्वीकार करने के बाद कर्म रोग के सामने सच्चा रक्षण नहीं मिलता है, हमेशा के लिए आपत्तियां नहीं टलती हैं, इसलिए फिर बार-बार शरण की अपेक्षा रहती है। इसमें थकावट भी निश्चित है और परिणाम से तो अवश्यमेव निराधार व दुःख की स्थिति ही मिलती है। जबकि देव, गुरु, धर्म की शरण में सच्चा व पूर्ण रक्षण है। सभी प्रकार की आपत्तियों से बचने का श्रेष्ठ उपाय यही है। इनको प्राप्त कर लेने के पश्चात् जिंदगी में कभी धोखा नहीं खा सकते हैं और भविष्य में बारम्बार अन्य शरण भी स्वीकार नहीं करने पड़ते हैं, क्योंकि क्रम से आत्मा इनकी शरण से संसार रोग से मुक्त हो जाती है। . दूसरा साधन दुष्कृत्य गर्दा है। इसमें जो दुष्कृत्य जरा भी करने योग्य नहीं थे, ऐसे नहीं करने योग्य कार्य मैने किये, यह गलत किया है। इस प्रकार की बुद्धि सहित वे पाप मेरे मिथ्या हों, ऐसी हार्दिक भावना जागृत रहती है। गुरु की साक्षी में इन दुष्कृत्यों को यथारूप यथास्थित निवेदन करना, 'अहो! यह मैंने गलत किया है।' ऐसा स्वहृदय से पश्चात्तापपूर्वक स्वीकार करना ही गर्दा है। ये दोनों शरण पूर्व में बांधे गये कर्म के अनुबन्ध को तोड़ने में अप्रतिहत (सचोट) शक्ति प्रदान करते हैं। कर्म का अनुबध यानि कर्म में रही हुई स्वयं के उदय समय नये कर्म बंध की परम्परा चलाने की शक्ति, उसका नाश दुष्कृत्य गर्दा करती है। तीसरा साधन सुकृत की अनुमोदना है। अर्थात् अरिहंतादि आत्माओं की उत्तम प्रवृत्तियाँ और उत्तम गुणों की अनुमोदना का सेवन करना। यहाँ सुकृत शब्द के साथ अनुमोदना इसलिए लिया है कि अनुमोदन यदि विवेक वाला यानि बिना दंभ का और वस्तु का मूल्यांकन करने वाला हो, साथ ही नियमित होता हो तो ही आत्मा में अखण्ड शुभ अध्यवसाय को अवश्य साध सकता है। अच्छी प्रवृत्ति स्वयं करने में अथवा दूसरे से करवाने में निश्चित रूप से वैसे भाव की सिद्धि होगी ही, ऐसा सदैव नहीं बन सकता है। अनुमोदना में तो मन-वचन-काया, तीनों योग की प्रसन्नता चाहिए। ये प्रसन्नता आत्मा में महान् शुभ परिणति को जगाये बिना नहीं रहती। पुण्य हो या पाप, दोनों तीन प्रकार से होते हैं1. स्वयं करने से, 2. दूसरे के द्वारा करवाने से, एवं 3. स्वयं के अनुमोदन से। इसमें उत्तम (शुभ) अनुष्ठानों की अनुमोदना भी एक प्रकार का आसेवन है। यह पवित्र कार्य है। इससे विशुद्ध भाव हृदय में जागृत होते हैं। ये तीनों उपाय औचित्य, निरन्तरता, सत्कार और विधि के सेवन से, औषधि से 69 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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