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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश
साध्य रोग की तरह ही तथाभव्यत्व का परिपाक करते हैं, और परिपाक होते ही पापकर्मों का नाश होता है, शुद्ध धर्म के भाव से प्राप्त हुआ संसार का उच्छेद होता है। इन तीन साधनों से अवश्य ही दुःखमय, दुःखफलक और दुःखानुबंधी संसार के नाशवानं तत्त्व की सिद्धि होती है। इसलिए मोक्षार्थी भव्य जीवों को इन सच्चे साधनों का हमेशा सेवन करना चाहिए। वह भी प्रशस्त प्रणिधान, एकाग्रता, भावविशुद्धि और कर्त्तव्य के निश्चय से करना चाहिए । यहाँ काल का विचार नहीं है, किन्तु जब भी किया जाय तब सुन्दर प्रणिधान सहित किया जाय। क्योंकि कार्यसिद्धि में प्रणिधान साधना का प्रधान अंग है। कहा गया है कि प्रणिधान पूर्वक किया गया कर्म प्रबल विपाकवाला माना जाता है। इसमें अवश्य अनुबन्ध होता है और इससे आगे की प्रवृत्ति इत्यादि योग सिद्धि तक पहुँचाते हैं।
प्रणिधानपूर्वक किया गया कार्य ज्यादा फल प्रदान करता है । जैसे, अर्जुन जब लक्ष्य को साध रहा था, तब उसे पुतली की एकमात्र आँख दिखाई दी। बाकी कुछ भी उसे दिखाई नहीं दे रहा था । ऐसी तन्मयता आए, अन्य वस्तु अथवा आवाज पर ध्यान नहीं जाए तभी प्रणिधानपूर्वक कार्य कहलाता है। प्रणिधानपूर्वक किये गये कार्य का फल तीव्र विपाकवाला होता है।
पेथड़शाह मंत्री जब परमात्मा की अंग रचना कर रहे थे, तब कैसी अद्भुत एकाग्रता थी। राज्य कार्य हेतु बुलवाने पर भी परमात्म-पूजा को छोड़कर नहीं गये, इन्कार कर दिया। राजा स्वयं पेथड़शाह मंत्री की एकाग्रता देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उनकी परीक्षा हेतु स्वयं माली के स्थान पर खड़े रहकर पुष्प देने लगे तब नियमानुसार पुष्प न आते देखकर मंत्री ने पलटकर देखा। आज पुष्प देने में गलती क्यों हो रही है, तब ज्ञात हुआ कि पुष्प तो राजा स्वयं दे रहे हैं।
पूजा द्रव्य
हमारी क्रिया प्रणिधानपूर्वक ( एकाग्रतापूर्वक) होनी चाहिए। धर्मक्रिया थोड़ी सी भी करो, किन्तु अच्छे तरीके से करो । अधिक मात्रा की जरूरत नहीं है। मंदिर में मात्र पूजा की, फिर बाहर निकल आए तो वह पूजा अल्प फल प्रदान करने वाली कहलाएगी। वही साथ-साथ भावों को जोड़कर चैत्यवंदन - स्तवन आदि प्रणिधान पूर्वक की है तो करोड़ों गुणा अधिक मूल्य वाली बन जाती है । अनन्त गुणा पुण्य का उपार्जन होता है । अनन्तगुणा अशुभ कर्म खत्म होते हैं, एक कच्चे हीरे की कीमत 5000 रुपये है, यदि उसी हीरे के पीछे हम 5-10 दिन मेहनत कर अच्छी घिसाई करके अंगूठी में लगा दें तो वही हीरा पाँच करोड़ रुपये का हो जाता है। ऐसी ही गतानुगतिक धर्मक्रिया करते रहने के बदले प्रणिधानपूर्वक करने का अभ्यास करना चाहिए।
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