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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश प्रणिधानपूर्वक की गई क्रिया से तीव्र विपाक वाले कर्मों का बंध होता है। साथ ही अनुबध भी होता है। फिर चाहे पुण्यकर्म हो या चाहे पापकर्म। शुभ प्रणिधान से पुण्य कर्म का बंध और अशुभ प्रणिधान से पाप कर्म का बंध होता है। मेघकुमार के जीव ने हाथी के भव में एक खरगोश की रक्षा की, जिससे उस जीव ने तीव्र रस वाले शुभकर्म का बंध किया। उस पुण्य कर्म के उदय से श्रेणिक महाराजा के यहाँ राजपुत्र मेघकुमार के रूप में जन्म मिला। पूर्व भव में एक खरगोश की रक्षा की। अगले भव में दीक्षा लेकर छः काय के जीवों की रक्षा करने वाले बने। यही है प्रणिधान पूर्वक की रक्षा। प्रणिधान के तीन लक्षण 1. विशुद्धभावनापूर्वक क्रिया - इस क्रिया में अल्प मात्र भी स्वार्थ नहीं होना चाहिए। निःस्वार्थ भावना से की गई क्रिया, विशुद्ध क्रिया कहलाती है जैसे, दान देने के पश्चात् अपने नाम की कामना होना, यह विशुद्ध भाव की क्रिया नहीं है। विशुद्ध भाव में संसार के सुख, देवलोक की इच्छा, स्वार्थ आदि भाव नहीं होने चाहिए। धर्म कार्य को करोड़ों, अरबों से भी अधिक मूल्यवान धर्मानुष्ठान को संसार के थोड़े से तुच्छ सुख के पीछे बेचना नहीं चाहिए। जो सांसारिक सुख की इच्छा करता है, उसे धीरे से, मधुर वाणी से समझाकर धर्म मार्ग से जोड़ना चाहिए। धर्म क्रिया को प्रणिधानपूर्वक ही करना चाहिए। शुद्ध प्रणिधान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। परम्परा से मोक्ष प्राप्ति की साधना का भी प्रणिधान कर सकते हैं। जब परमात्मा महावीर चार माह तक ध्यानस्थ अवस्था में लीन होकर खड़े थे, तब जीरण सेठ वहाँ परमात्मा से विनती करते और कहते, 'हे प्रभो! आपश्री मेरे घर पारणे का लाभ देने के लिए पधारिए।' जीरण सेठ जी प्रतिदिन परमात्मा के दर्शन, वन्दन करते और हाथ जोड़कर विनती करते, 'प्रभु! मुझे लाभ दीजिए।' कितने विशुद्ध भाव होंगे। यहाँ सेठ के मन में किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं थी। मात्र विशुद्ध भावों से अन्तिम दिन (चार महीने बाद) भी विनती करके आये थे। आज परमात्मा महावीर के चार महीने के उपवास का पारणा है। आज प्रभु जरूर पधारेंगे। पूरी गली सुगन्धित जल छिड़ककर, खुशबूदार बनाकर फूलों से सजा दी गई। पारणे की तैयारी करवा कर, स्वयं घर के बाहर खड़े होकर इंतजार कर रहे हैं। भगवान् आज तो पारणा करने जरूर पधारेंगे। अभी पधार ही रहे होंगे, अभी पधारने ही वाले हैं। इन्हीं विशुद्ध भावों में आरोहण हो रहे हैं। इतने में पंच दिव्य की वृष्टि होती है, उस समय मन में साढ़े बारह करोड़ सोनैय्या की भावना नहीं थी। 71 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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