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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश
मन में एक ही विचार था कि परमात्मा को पारणा करवा कर मेरी भी मुक्ति निकट आ जाये। मैं भी मोक्ष सदन का स्वामी बनूं। हमें भी प्रत्येक धर्म क्रिया करते वक्त ऐसे ही शुभ भाव लाने चाहिए। मेरे द्वारा किया गया स्वाध्याय, प्रभु भक्ति, नाम की कामना के लिए नहीं, मेरी आत्मा की मुक्ति के लिए है।
संसार की इच्छा और आशय हमारे भावों को अशुद्ध बनाते हैं।
2. एकाग्रता पूर्वक क्रिया
प्रत्येक क्रिया में मन को उसी में समर्पित कर देना चाहिए। भगवान् को जब जीरण सेठ जी पारणे के लिए विनती कर रहे थे, तब मात्र वाणी से ही नहीं बल्कि हृदय के भावों से विनती कर रहे थे । मन समर्पित हो गया था। एक क्रिया में दूसरी क्रिया का भाव नहीं आना ही सच्ची एकाग्रता कहलाती है।
3. यथाशक्ति क्रियालिंग
प्रतिक्रमण आदि धर्म क्रिया विधिपूर्वक करना । जैसी विधि शास्त्रों में बताई गई है, वैसी ही विधि करना। शक्ति अनुसार प्रत्येक धर्म क्रिया करनी चाहिए। शास्त्रानुसार जीव ने अनन्त रजोहरण (ओघे) ग्रहण किये हैं। इस कथन अनुसार अब हमें रजोहरण नहीं लेना, मात्र ध्यान, साधना ही करें, ऐसा सोचना गलत है, ऐसा विचार करना भी अपलाप करना कहलाता है। शक्ति अनुसार क्रिया करना अनिवार्य है। जीरण सेठ ने घर पर बैठे-बैठे ही प्रभु को पारणा करवाने की भावना नहीं प्रकट की । प्रतिदिन तिनती करने जाते । परमात्मा कभी कुछ नहीं कहते, फिर भी रोज जाते और कहकर आते, 'भगवन् ! पारणे का लाभ दो!' उनके भाव बिल्कुल विशुद्ध थे। मन भी परमात्मा को समर्पित था। मन में एक ही भाव था- 'भगवान्! मुझ पामर के घर-आंगन कब पधारेंगे? मुझ पतित को पावन कब करेंगे?' इन्हीं भावों से विनती करते रहते और मार्गशीर्ष कृष्ण एकम् का दिन आ गया। मध्यान्ह के समय अचानक देवदुंदुभी बजने लगी। प्रभु का पारणा पूरण सेठ के यहाँ हो गया। प्रभु का पारणा हो गया, जानकर जीरण सेठ जी को ऐसा विचार नहीं आया कि मैने इतनी विनती की, चार महीने प्रतिदिन गया, फिर भी प्रभु मेरे घर नहीं आये | बल्कि ऐसे विचार आते हैं कि मेरे कर्म अभी भी इतने कम नहीं हुए हैं, इसलिए प्रभु का पारणा मेरे यहाँ नहीं हुआ। ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि पारणा का लाभ पूरण सेठ को मिला फिर भी उससे भी ज्यादा अनन्त गुणा लाभ जीरण सेठ ने प्राप्त किया। बारहवें देवलोक का आयुष्य कर्म बांध लिया। जीरण सेठ के भावों में कुछ क्षण स्थिरता रह जाती तो केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते।
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