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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना से बना है, कृपा से बना है, ऐसा कहा जाता है। दृष्टान्त- धुवतारा के आलम्बन से समुद्र में नाविक सच्ची दिशा में नाव चलाकर ईष्ट स्थान पर पहुँचता है, तो वहाँ नाविक मानता है कि भले ही नाव चलाने में बुद्धि और मेहनत मेरी है तथा ईष्ट स्थान पहुँचाने में भले ही साधन नौका है, परन्तु अंधेरी रात के समय विराट समुद्र में सही प्रवास ध्रुवतारा के प्रभाव से हुआ है। यह तारादेव की हम पर अनहद कृपा है। इस प्रकार यहाँ भीषण भवसागर के विषय में इन्द्रिय-विषयदर्शन और मिथ्यात्वमत-दर्शन के अंधकार में सच्चा मोक्ष राह प्रवास होकर ईष्ट मोक्ष स्थान पर पहँचा दे, वह अरिहंत देव के आलम्बन से, उनके प्रभाव से उनकी कृपा से ही संभव है। ये यदि नहीं होते तो जीव की बुद्धि, मेहनत, सब कुछ संसार की राह पर ही चला जाता। अनादि भूतकाल में ये आलम्बन नहीं पाया, इसलिए जीव भव में भ्रमण करता रहा है। निश्चय से वे अरिहंत-सिद्ध भगवान अचिन्त्य प्रभावशाली हैं, वीतराग सर्वज्ञ हैं, परम कल्याण स्वरूप हैं, जीवों के परम कल्याण का कारण हैं। कैसे? 1. अरिहंत भगवन्त निश्चय से अचिन्त्य शक्ति प्रभाव वाले हैं, वीतराग सर्वज्ञ हैं। ___ अचिन्त्य का मतलब अगम, अमेय और अनुपम हैं; अर्थात् अर्हत् शक्ति न तो बराबर .. समझ सकते हैं, न माप सकते हैं, न किसी के साथ तुलना कर सकते हैं। 2. उसी प्रकार प्रभु परम कल्याण स्वरूप हैं। उनके दर्शन, श्रेष्ठ कल्याण के दर्शन किये। क्योंकि प्रकट परमज्ञान और परम सुखमय उनकी आत्मा का स्वरूप है, यही श्रेष्ठ कल्याण है। यह स्वरूप आत्मा से अभिन्न है। इसलिए अब जो परमात्मा स्वयं ही अनन्त कल्याण स्वरूप हैं, उन परमात्मा के सच्चे दर्शन में परम कल्याण के ही दर्शन किये, ऐसा अनुभव होता है। आत्मा जैसे संसार के त्रिविध ताप से छूटकर अनन्त कल्याण के आंगन में पहुँची हो। आचार्यादि परमेष्ठि पुरूष जिनको केवलज्ञान हो जाता है, वे मुख्य रूप से वीतराग सर्वज्ञ होते हैं। दूसरे महाविरागी और बहुश्रुत आचार्यादि महापुरूष अबुध जीवों के लिए वीतराग सर्वज्ञ के समान परम आलम्बन हैं तथा परम कल्याण स्वरूप हैं। जीवों को उस उपयोग से परम् कल्याण देने में आचार्यादि कारणभूत हैं। पंच परमेष्ठि भगवन्तों की साधना और उपासना कौन-सा कल्याण नहीं करवाती? उनका तारक उपदेश कल्याण के अनेक मार्गों को प्रकाशित करता है। उनके दर्शन कल्याण के उपयोग को जागृत करते हैं। उनका ही स्मरण, उनका ही वन्दन, उनकी ही भक्ति, उनके ही गुणों का उत्कीर्तन, उनके ही आलम्बन, उनकी ही शरण इत्यादि जीवों के लिए अचिन्त्य महाकल्याण के व्यवस्थित साधन Jain Education International 207 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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