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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदन बनते हैं। इसलिए ये अचिन्त्य प्रभावन्ता हैं। इससे ही 'ये अभय-चक्षु मार्ग-शरणबोधि-धर्म के दाता हैं, ये ही जिन-तीर्थ-बुद्ध-मुक्त-बनाने वाले' इत्यादि हैं। ऐसी स्तुति गणधर महाराज श्रेष्ठ विद्वान भी करते हैं। सुलसा ने क्या किया था, यही कि उसने प्रभु श्री महावीर परमात्मा की शरण को जबरदस्त प्रशस्त रूप से पकड़ा था। 'मेरे तो परमात्मा महावीर ही आधार हैं, ये ही देखने-विचारने-स्वीकारने लायक हैं, ब्रह्मादि देव, नहीं'। इससे उसने तीर्थंकर नामकर्म के उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन किया। प्रार्थना ___ प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हमारी सुकृत की अनुमोदना शुद्ध हो, सम्यग् हो; पर वह कैसे होगी? जब तक अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु भगवन्तों की कृपा प्राप्त न हो। आध्यात्मिक जगत् में जो कुछ कमाई होती है, वह देव गुरु की कृपा से होती है। अपनी इच्छा के बल पर व्यक्ति की गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। अपने भीतर सम्पूर्ण शक्ति परमात्मा की कृपा से प्राप्त होती है। जिसके भीतर देव-गुरु के प्रति श्रद्धा भक्ति नहीं, वह श्रेष्ठ चारित्र का पालन नहीं कर सकता। उत्तम जीवन व दृढ़ संकल्प परमात्मा के प्रभाव से ही प्राप्त होता है, क्योंकि परमात्मा अचिन्त्य शक्तिशाली हैं। हम सोच भी नहीं सकते हैं कि परमात्मा का सामर्थ्य कैसा है! समर्पण ही मोक्षकामार्ग गुरु के प्रति समर्पित भाव से भक्ति करनी चाहिए। अपनी इच्छाओं का त्याग करना, यही सच्ची दीक्षा है। गुरु की इच्छा में मिल जाना। अपनी इच्छा हो एवं गुरु की भी इच्छा, दीक्षा देने की हो तो अलग बात है किन्तु स्वयं की इच्छा नहीं किन्तु गुरु की इच्छा ज्ञानबल से तुम्हें दीक्षा देने की है तो गुरु की इच्छा को प्रधानता देकर दीक्षा लेना गुरु समर्पण कहा जाता है। यही सच्चा धर्म है। गुरु के प्रति प्रेमपूर्वक दीक्षा ले सकते हैं, यदि योग्यता दिखाई दे तो। जैसे- गौतम स्वामी अंहकार पूर्वक आए और गुरु को समर्पित कर दिया अपना सारा जीवन। गौतम स्वामी जी का नाम हम क्यों लेते हैं ? उनके नाम मात्र में इतना प्रभाव है 'अंगूठे अमृत बसे लब्धि तणा भण्डार।' कुछ विचार नहीं करते। गुरु ने कहा- तुम्हें देवशर्मा को प्रतिबोध देने जाना है। तुरन्त 'तहत्ति', 'आज्ञा का पालन'। परमात्मा ने जो आदेश दिया, वह करना है। आग्रह छोड़ ही देना चाहिए। इच्छानिरोध ही तप है। Jain Education International For Perso208 Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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