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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना चैत्यवन्दन, स्तवन, गुणानुवाद इन सभी का गुणगान सुकृत अनुमोदना ही कहलाती है।
दुनियाँ के व्यवहारिक कार्यों की अनुमोदना की जाती है। व्यापार मण्डल के प्रमुख बनने पर समाचार पत्रों में हार्दिक बधाईयाँ दी जाती हैं। कुछ अच्छा कार्य करने पर धन्यवाद दिया जाता है। कोई पद या सत्ता की प्राप्ति पर अनुमोदना के लिए पोस्टर लगाये जाते हैं। संसार के इन सभी प्रसंगों पर अनुमोदना करते हैं। ये स्वार्थ भावना हेतु होते हैं। धर्म में सुकृत के लिए जो अनुमोदना की जाती है, वह धर्मभावना हेतु होती है। कहते हैं, इसमें सबसे बड़ा लाभ यह मिलता है कि हम जिन जिन सुकृतों की अनुमोदना करेंगे, वे गुण हमारे भीतर आयेंगे ही। यही आध्यात्मिक नियम है। परन्तु एक शर्त यह है कि इसमें भौतिक स्वार्थ नहीं होना चाहिए। जो गुण आपको चाहिए, उस गुण की आप मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करें। उनकी सेवा-भक्ति करें। जिससे वे गुण आपके भीतर सरलता से आ जायें। भावपूर्वक तप
भावपूर्वक तप करने से हमारा तात्पर्य यह है कि खाने-पीने की इच्छाओं को रोकना, किन्तु आज अपनी तपस्या मात्र देखादेखी से ही होती नजर आ रही है। किसी ने तेला या अठाई की तो मुझे भी करना है। यह द्रव्य तप हुआ।
भावतप में मात्र उपवास या आयम्बिल तप करना ही नहीं है। किन्तु रसनेन्द्रियों पर काबू कितना पाया, उससे तप का पता चलता है। तप का सच्चा लक्ष्य स्वाद की आसक्ति तोड़ना है, सुख सुविधाएँ या देह की आसक्ति कितनी कम हुई, इस पर ही तप का द्रव्य या भाव निर्भर करता है। .. नवकारसी का पच्चक्खाण करने वाला व्यक्ति भी भावतप करनेवाला हो सकता है, क्योंकि उसका लक्ष्य सही है। मासक्षमण का तप करने वाले तपस्वी का तप व्यतप भी हो सकता है, क्योंकि उसमें तप के भाव के बजाय तप का अंहकार ज्यादा होता है। इस सम्बन्ध में शास्त्रों में कुरगडू मुनि की कथा उल्लेखनीय हैसुरगडू मुनिकी कथा __कुरूमणि नगरी में कुम्भ नामक राजा राज्य करते थे। उनके ललितांग नामक एक पोजकुमार था। ललितांग कुमार गुणों का सागर था। एक दिन गुरुदेव की धर्मदेशना श्रवण की। मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और माता-पिता की अनुमति लेकर संयम ग्रहण किया।
साधु तो बन गये, परन्तु तप का उदय नहीं था। सवेरा होते ही उन्हें वेदनीय कर्म का उदय होने से भूख लगती थी। एक घड़ा भरकर कूर (भात) खाने की रोज की आदत थी
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