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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदन
उन्हें, और इसलिए सहाध्यायी मुनियों ने उनका नाम कुरगडू मुनि रख दिया था। कूर यानि भात गड्डू अर्थात् घड़ा।
मुनि कुरगडू रोज नवकारशी तप से अधिक नहीं कर पाते थे, किन्तु उनकी नवकारसी भावपूर्वक होती थी। तप धर्म में वे ढीले थे, किन्तु उपशमरस के सागर थे। देश-विदेश में विहार कर परिषह को सहन करने में वे शूरवीर थे, किन्तु भोजन के विषय शिथिल थे।
पर्युषण पर्व का पदार्पण हुआ । गच्छ में तो पहले से ही तप की साधना प्रारम्भ हो चुकी थी। पूरा गच्छ तपस्वी, किन्तु कुरगडू मुनि को रोज खाना चाहिए, जानता था। संवत्सरी के दिन भी गुरुदेव के आदेश से एक घड़ा भात (चावल) ले आए।
उनके गच्छ में चार मुनि चौमासी तप कर रहे थे। कुरगडू मुनि को मन में अफसोस था, मैं कैसा खाउदरा ? रोज खाने को चाहिए और तपस्वी जी चार महीने के उपवास कर रहे हैं, धन्य है इन्हें ।
कुरगडू मुनि आहार ले आए। तपस्वी मुनियों को दिखाया तो उन मुनियों को गुस्सा आ गया। यह कैसा खाउदरा ? आज तो बच्चे भी उपवास करते हैं और ये आहार ले आया । मुनियों के मौन था, अतः उन्होंने कुरगडू मुनि के आहार में थूक दिया। मुनि कुरगडू की जगह यदि हम अपने आप को खड़ा करें और कोई अपनी थाली में थूक दे तो क्या होगा ? अपना गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा । है ना?
बस यही फर्क था अपने में और उनमें। हम सब रोज खाते हैं और वे मुनि भी रोज वापरते हैं किन्तु उन्होंने खाते-खाते केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। परन्तु हम सब भटक रहे हैं। यह जैन शासन है। यहाँ तो भोगी भी योगी कहलाता है। खाने वाला भी तपस्वी कहलाता है। क्योंकि भावना उनके साथ है, भावधारा का सातत्य है । कुरगडू मुनि के आहार में जब मुनियों द्वारा थूक दिया गया, तब उन्होंने सोचा- 'ओह! कैसा भाग्य ? तपस्वी मुनियों ने मेरे भात लूखे देखे तो घी डाल दिया। तपोमय देह से निकला यह थूक मेरे जीवन में तपधर्म का पदार्पण कराएगा। मैं भी इनकी तरह ही तप करूँगा।'
कुरगडू मुनि आहार ग्रहण कर रहे हैं किन्तु उनका मन भावधारा में बह रहा है। मैं भी तप करूँगा। एक-एक कौर मुँह में रखते जा रहे हैं, और भावधारा में बहते जा रहे हैं। कर्मों का सफाया होता जा रहा है। मुनि भावधारा के सातत्य के कारण घनघाती कर्मों को जलाकर भस्म कर देते हैं। मुनि को स्व-निंदा और पर - प्रशंसा ने क्षपक श्रेणी पर चढ़ा दिया । भावधारा में बहते - बहते खाते-खाते भी केवलज्ञानी बन गए।
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