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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना ___सच्चा तप वही है, जिसके द्वारा जो कमियाँ मुझमें हैं, उन्हें दूर करूँ। मात्र तपस्वी की वाह-वाह करना ही अनुमोदना नहीं है। बल्कि जो आप नहीं कर पा रहे हैं, उसका दर्द होना आवश्यक है, दुःख होना चाहिए; किन्तु आज हमारे पास दिखावा रह गया है और वास्तविक भाव नष्ट हो गये हैं। हमें चाहिए कि तप का भाव जीवन में लाएँ। हमें द्रव्य नहीं, भावपूर्वक तप करना है और भावपूर्वक किया गया तप ही मुक्ति का कारण बताया गया है, हमारे ज्ञानी भगवन्तों ने कहा है- दान भी भावपूर्वक देना, शील भी भावपूर्वक पालना, तप भी भावपूर्वक होना चाहिए, तभी वह मोक्ष का कारण बन सकता है। 'भावे भावना भाविए भावे केवलज्ञान।' भाव से भावना भाने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। शुद्ध निस्वार्थ मनोरथ होना चाहिए। भावपूर्वक भावना कीजिए यानि हृदय का भाव जुड़ जाना चाहिए। सभी क्रिया भावना से कीजिए। जिनवर की पूजा में भी भाव चाहिए, सामायिक, प्रतिक्रमण में भी भाव होना आवश्यक है, तभी वे क्रियाएँ आत्मकल्याण का कारण बनेंगी। हमें भी सभी क्रियाएँ एवं अनुष्ठान आदि भावपूर्वक करने का भाव रखना चाहिए। भावधर्म आत्मा के उपयोग पूर्वक धर्म की प्रवृत्ति, यही भाव धर्म है। द्रव्य धर्म व्यवहार की बात है, जबकि भावधर्म निश्चय की। कभी क्रिया रूप धर्म अल्प भी होता हो, तब भी भावरूप धर्म तो श्रावक के अन्तर में गूंजता ही रहता है। श्रावक तब स्वयं को संसार में रहकर ठगा हुआ ही मानता है। श्रावक हमेशा संयम स्वीकारने को तत्पर रहता है। वह अब समझ चुका होता है कि 'यह जन्म मुझे भोग के लिए नहीं, योग अर्थात् आत्मा के कल्याण के लिए मिला है। राग करने के लिए नहीं, त्याग करने के लिए मिला है। अब मुझे पुद्गल के प्रति रमण नहीं करना। मुझे तो अब आत्मरमणता ही करनी है।' ऐसे विचारों के कारण, श्रावक वास्तव में शक्कर पर बैठी हुई मक्खी जैसा होता है। आसक्ति श्लेश्म है, जबकि अनासक्ति शक्कर। श्लेश्म में गिरी हुई मक्खी कितनी भी छटपटाए, पर उड़ नहीं पाती, जबकि शक्कर पर बैठी हुई मक्खी को उड़ने में देर नहीं लगती। - इसी प्रकार संसार के लुभावने सुखों को भोगते हुए भी श्रावक को उसे छोड़ने में देर नहीं लगती, क्योंकि श्रावक तो संसार की प्रवृत्ति करते हुए भी मोह के परिणामों को . तोड़ता रहता है। अतः उसे सांसारिक प्रवृत्तियों के कारण पाप का बंध होते हुए भी पाप का अनुबन्ध तो नहीं होता है। सच्चे श्रावक को कभी पापानुबन्धी कर्म नहीं बंधते, क्योंकि बन्थ प्रवृत्तियों द्वारा होते हैं, जबकि अनुबन्ध विचारों द्वारा। श्रावक के विचारों में तब पाप नहीं Jain Education International 193 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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