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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना पलते। विचारों से पापों का उच्छेद ही है भाव धर्म।
व्यवहार तभी व्यवहार धर्म बनता है, जब वह निश्चय का कारण बनता है। द्रव्यधर्म भी तभी सार्थक बनता है जब वह भावधर्म का कारण बने। पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने कहा है- 'निश्चय दृष्टि धरीजी, पाले जो व्यवहार।' ... जब तक निश्चय दृष्टि हृदय में स्थिर नहीं होती, तब तक कोई भी व्यवहार सद्व्यवहार नहीं बन सकता। कम से कम निश्चय को पाने का लक्ष्य यदि हो, तो भी जीवन सफल हो जाए। निश्चय दृष्टि इतनी मजबूत होनी चाहिए कि व्यवहार अर्थात् प्रवृत्ति कैसी भी हो, पर वह मन को जरा भी विचलित न कर पाए।
शुद्ध आत्म-द्रव्य को केन्द्र में रखकर जो कुछ भी किया जाए, उसे निश्चय दृष्टि कहते हैं। आत्मा को इस प्रकार निश्चय दृष्टि में स्थिर कर देना है कि किसी भी प्रकार की वृत्ति-प्रवृत्ति, आत्मा के लक्ष्य से रहित न हो। शुद्ध आत्म-द्रव्य की जब जरा-सी भी झांकी हो तब आत्मा को वर्तमान अशुद्धि की प्रतीति हुए बिना न रहे। उन अशुद्धियों को दूर करने के लिए आत्मा जो प्रयत्न करे, जो प्रवृत्ति करे उसे ज्ञानी भगवन्त व्यवहार कहते हैं। अधिकांश आत्माएँ व्यवहार को स्वीकार कर निश्चय को पाती हैं। कुछ आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो सीधे ही निश्चय तक पहुँच जाती हैं। परमात्मा के शासन की आराधना द्रव्य
और भाव अर्थात् व्यवहार व निश्चय के समन्वय से ही करनी है। द्रव्य धर्म की आराधना करने वाली आत्मा में यदि भाव न हों तो ऐसा धर्म जैन शासन को मंजूर नहीं। चार प्रकार के धर्मों में भी भाव धर्म का ही प्राधान्य है। बिना भाव के दान को निरर्थक बताते हैं। भाव रहित शील निष्फल होता है और भाव रहित तप तो संसार वृद्धि का कारण बनता है। भावधर्म ही प्रत्येक आराधना को धर्म बनाता है।
भावधर्म तक पहुँचने के लिए सबसे पहले इस संसार को पहचानना होगा। इसकी वास्तविकता, विचित्रता और विषमताओं को जानना होगा।
संसार के प्रति अभाव और मोक्ष के प्रति अहोभाव! यही है भाव धर्म। जिसे संसार के प्रति अभाव नहीं; ऐसी आत्मा धर्म की आराधना करती हो, यह कैसे हो सकता है? जिसे संसार के प्रति अभाव नहीं, उसे संसार में विघ्नरूप धर्म की आराधना करने की आवश्यकता क्या है? यह सूचित करता है कि उसके धर्म में कहीं न कहीं मन की मलीनता पड़ी हुई है। संसार के प्रति अभाव तो आत्मा का आवश्यक गुण है। अत्यन्त प्राथमिक अवस्था का है यह गुण। अपुनबंधक अवस्था में रही हुई आत्मा के लिए भी लिखा गया है कि 'जेहने नहीं भव राग रे...।' संसार के प्रति अभाव का भाव धर्म की प्राप्ति हेतु प्रथम
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