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________________ परमात्मा बनने की कला . चार शरण इनमें से किसी का आलम्बन लिया हो तो भी ये कल्याण व सुख के साधन रूप कभी भी नहीं माने जाएँगे। कल्याण और सुख का कारण धर्म ही है। इसी श्रद्धा से धर्म का शरण सफल होता है। जैसे सच्चे वैद्य को 'मैं तुम्हारी शरण आया हूँ', ऐसा कहने वाला पीड़ित मानता है कि दूसरे गलत-वैद्य तथा दोषपोषक वस्तु आरोग्य के हितकारक नहीं हैं, बल्कि हित के घातक हैं, अवरोधक हैं; वैसे ही जैसे कोई बड़े व्यक्ति के शरण में गया हुआ दुःखी दरिद्र यह समझता है कि इनकी शरण से ही मेरी दरिद्रता और दुःख दूर होगा। साथ ही लुटेरों के कष्टों से बचा सकता है। ऐसे रक्षकों के शरण में जाने वाले 'यह धर्म सर्व कल्याण का कारण है, इसलिए धर्म के शरण जाता हूँ।' उसके मन में धर्म का मूल्य अगणित होगा। वह समझता है कि 'खाना-पीना' धर्म नहीं है, बल्कि त्याग, तप धर्म है। इसलिए कल्याण भी त्याग-तप में है, खाने-पीने में नहीं। पुण्य की किताब में त्याग-तप जमा होते हैं, खाने-पीने का हिसाब नहीं होता। अनादि काल से खाने-पीने की आदत, रस के त्याग और तप से ही मिटती है, खाने-पीने से नहीं। अनेक प्रकार के रागद्वेष के संक्लेश, कुविचार, अतृप्ति, अधीरता आदि ये सभी खाने-पीने के पीछे हैं। त्याग-तप में तो इन सभी की शांति हैं। मानव जीवन की महत्ता त्याग-तप में रही हुई है, खाने-पीने में नहीं। परलोक उज्ज्वल त्याग तप से बनता है, अनेक पाप त्याग-तप से ही रुकते हैं, सद्विचारणा त्याग-तप से ही विकसित होती है, निर्विकारता त्याग तप से आती है, लड़ाई-झगड़े त्याग तप से समाप्त होंगे; ये सभी भविष्य में मिलने वाले अनेक सुख त्याग तप रूपी धर्म से ही प्राप्त होंगे। परन्तु राग-रंग भोग सुख से नहीं, धर्म की शरण लेते समय जरूर पूर्णरूपेण हृदय में प्रकाशित होना चाहिए कि इनके सिवाय दूसरी कोई भी वस्तु से मेरा कोई कल्याण अथवा किसी प्रकार का भला नहीं होने वाला है। जैनधर्म की महत्ता वीतराग सर्वज्ञ श्री तीर्थंकर भगवान ने जो धर्मशासन की स्थापना की है, वह सर्व कल्याण अर्थात् वीतरागता सर्वज्ञता तक समस्त शुभ भावों को प्रकट करने वाला है। ऐसे धर्मशासन के प्रति श्रद्धा कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरिश्वर जी महाराज ने राजा कुमारपाल के हृदय में मजबूत की थी। ___ कुमारपाल पहले जैन नहीं थे। कुमारपाल हेमचन्द्राचार्य महाराज से पूछते हैं'प्रभो! कौन सा धर्म सच्चा है? और मुझे कौन-सा धर्म करना चाहिए?' हेमचन्द्राचार्य महाराज ने उस समय ऐसा नहीं कहा कि जैन धर्म सच्चा है, तू इसी धर्म को स्वीकार कर। सर्वधर्म की परीक्षा करने के पश्चात् सच्ची पहचान करनी चाहिए, इसलिए जवाब देते हैं'हे राजन्! तुम्हारे लिए सभी धर्म की आराधना आवश्यक है। तुम्हारे लिए सभी देव उपास्य 128 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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