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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
आत्मा को सूर्य समान प्रकाश प्रदान कर उस मोह को दूर करते हैं। इससे अब जगत् की वस्तुओं का सच्चा स्वरूप आत्मा में भाषित होता है। यह सम्पूर्ण प्रताप धर्म का है। ऐसे धर्म की शरण इस इच्छा से स्वीकार करता हूँ कि 'अंश मात्र भी ऐसा धर्म प्राप्त हो जाए तो आत्मा की मूढ़ दशा शिथिल पड़ेगी।' परममंत्र समान . राग-द्वेष रूपी विष को दूर करने के लिए धर्म श्रेष्ठ मन्त्र समान है। जैसे विष से प्राणी की मृत्यु होती है वैसे राग-द्वेष से आत्मा की भाव-मृत्यु होती है। जो ज्ञानादि भाव प्राण हैं, वे सभी रुक जाते हैं, साथ ही ये रागद्वेष से बंधे हुए तीव्र कर्मों को लेकर जीव को भावी अज्ञान-संसार में भव-भव तक मृत्यु प्राप्त कराते हैं। इसलिए यह राग-द्वेष एक विचित्र भयंकर विष है। धर्म ही के द्वारा इनका घात किया जा सकता है। इसलिए जिनधर्म इस विष के सामने मंत्र-तुल्य है। जिनधर्म की शरण ऐसी श्रद्धा की मांग करती है कि यदि आत्मा में जिनधर्म की सच्ची स्पर्शना करनी हो तो रागद्वेष का पहले की तरह पालन-पोषण नहीं करना होगा, बल्कि रागद्वेष को पहले कम करना होगा। अहो! कैसा सुन्दर यह धर्म? इसको प्राप्त करने से रागद्वेष रूपी ज़हर और इससे चढ़ी हुई मूर्छा उतर जाएगी; साथ ही यह भी सत्य है कि धर्म का ऐसा स्वरूप होने से ही धर्म की शरण जाने वाला1. धर्म का सेवन करते हुए किसी प्रकार की विषयों की आकांक्षा नहीं रखेगा, ये इच्छाएँ : तो रागद्वेष रूपी विष का पोषण करने वाली हैं। 2. अन्य धर्मावलम्बियों की वृत्ति के भीतर जाने पर वहाँ धर्मवृत्ति के बदले, राग का
तांडव देखता है तो उसमें मन नहीं लगाता है। 3. सांसारिक प्रवृत्ति में रागद्वेष के तूफान में स्वयं जुड़ा होगा, वहाँ भी ऐसा विचार होगा
कि अरे! ऐसा सुंदर महामन्त्र समान शुद्ध धर्म मेरे पास होने पर भी मैं रागद्वेष का
ज़हर आत्मा में घोल रहा हूँ। यह कैसा दुर्भाग्य है? कब इन शरणों को स्वीकार - करूंगा? कब मुझे शुद्ध धर्म स्पर्श देकर रागद्वेष से बचाएगा? सर्वकल्याण कारक .. यह धर्म सर्वज्ञ भगवान के द्वारा कहा हुआ (हेउ सयल कल्लाणाण) देव, मनुष्य
गति, यश, शाता इत्यादि मोक्ष तक सभी कल्याणों का पूर्ण साधन है। यह विशेषण यह 'सूचित करता है कि अधर्म अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह तथा क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्व, कुशास्त्र इत्यादि ये सभी कल्याण के साधन नहीं है। कदाचित् अज्ञानतावशात्
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