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________________ परमात्मा बनने की कला जाता। ' प्रदेशी राजा उस दिन से आस्तिक बन गया। उसने धर्म को स्वीकार कर लिया। अब वह परम उपासक बन साधनामग्न रहने लगा। पर्व के दिनों में पौषध भी करने लगा । यही उपकारी गुरु का उपकार है। परोपकार में मग्न साधु भगवन्त 'पउमाई निदंसणा' कमल उपमा वाले हैं। जैसे कीचड़ में उत्पन्न और जल में निवास होने पर भी कमल, इन दोनों को स्पर्श किए बिना ऊँचा रहता है, वैसेही साधु भगवन्त काम-भोग से उत्पन्न हुए और भोग से पले हुए होने पर भी, काम-भोग दोनों का स्पर्श किए बिना निर्वासनामय योगी जीवन जीते हैं। ऐसे ही स्वरूप से निर्मल, उपशम, स्वच्छ, करुणा से मधुर और तृप्ति गांभीर्य से भरे हुए हृदय वाले साधु भगवन्त भी पवित्र, दयालु, गंभीर और शान्त होते हैं। इनका सत्संग शीतल और अनन्त गुण वाला होता है। ऐसे महर्षियों की शरण स्वीकार कर 'कब मैं भी कमल - दृष्टान्त जैसा जीवन जीऊँगा?' अर्थात् संसार के कार्यों से अलिप्त कब होऊँगा, ऐसी भावना भावित करें। . ऐसे मुनिराज काम भोग की गंदी वृत्ति प्रवृत्ति मात्र से अलग रहकर झाणज्झयणसंगया अर्थात् ध्यान और अध्ययन में लीन रहते हैं। ध्यान व स्वाध्याय में तत्पर ‘ध्यानसंग' अर्थात् (1) धर्मध्यान - 1. जिनाज्ञा की अतिनिपुणतादि । 2. रागद्वेषादि आश्रवों का अपाय अनर्थ। 3. ज्ञानावरणीयादि कर्मों का विपाक । 4. लोक संस्थान स्थिति। इन विषयों पर ध्यान अथवा शुक्ल ध्यान यानि द्रव्य-पर्याय के साथ एक विषय पर ध्यान वाले होते हैं। चार शरण (2) महाव्रत की पच्चीस भावना, मैत्री आदि चार भावना, अनित्यादि बारह शुभ भावना के साथ, किसी भी भावना के एक विषय पर एक प्रशस्त एकाग्र विचारधारा जहाँ दूसरे-तीसरे विचारों का व्याक्षेप नहीं, ऐसे ध्यान वाले हैं। (3) समस्त क्रिया मार्ग में एकाग्र शुभ चित्त रूप ध्यान वाले हैं। 'अध्ययनसंग' अर्थात् ज्ञानयोग, सम्यक् शास्त्रों की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा; इन पाँचों का आत्मलक्षी सतत् अभ्यास कर इन्हीं में लीन रहते हैं। जीवन में अध्ययन और ध्यान की ही मुख्य प्रवृत्ति मुक्ति का आस्वाद कराते हैं। Jain Education International 118 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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