________________
परमात्मा बनने की कला
आद्य मंगल यद्यपि इन्द्र की पूजा अधूरी है, क्योंकि वह वीतराग परमात्मा की सर्वविरति चारित्र की आज्ञा का पालन नहीं कर सकता है। भगवान की श्रेष्ठ पूजा, भगवान् की आज्ञा सर्वांश पालने में रही हुई है; और वह सर्वविरति के पालन से होता है । प्रश्न हो सकता है कि भगवन्त की आज्ञा का पालन गणधर महाराज श्रेष्ठ रूप से करते हैं, तो पंच सूत्रकार को प्रभु को गणधर पूजित ऐसा कहना चाहिए था, देवेन्द्रपूजित क्यों कहा? इसका जवाब यह है कि दैविक अतिशय सुख-सन्मानादि से युक्त इन्द्रदेव अरिहंत परमात्मा की भक्ति करे, यह एक अनूठी विशेषता है। जिस क्षेत्र में अरिहंत भगवन्त विचरण करते हैं, उसी क्षेत्र में गणधर भी विचरण करते हैं। इसलिए वे वहीं रहते हुए उसी क्षेत्र में परमात्मा की पूजा करते. हैं, पर उससे भी अधिक दूर से, परजाति, परक्षेत्री, देवों के भी स्वामी मनुष्य क्षेत्र की दुर्गन्ध की अवगणना करके भी इन्द्र यहाँ प्रभु की पूजा के लिए आते हैं, यही विशेषता कहलाती है । जगत् के बाल जीव (अज्ञानी जीव) दिव्य ऋद्धिमंत और वैभवशाली ऐसे देवों के द्वारा तीर्थंकर भगवंत की पूजा होते देखकर अधिक आकर्षित होते हैं। देवताओं के द्वारा समवसरणादि की रचना करना बहुत उच्चकोटि की पूजा कहलाती है । असंख्य योजन से नीचे आकर देवता पूजा करते हैं, जिसे देखकर अज्ञानी जीव आकर्षित होते हैं।
अरिहन्त परमात्मा क्या-क्या प्रकाशित करते हैं? इनका चौथा विशेषण 'यथास्थितवादी' है, जिससे वचनातिशय सूचित किया गया है । केवलज्ञान प्राप्त कर सर्वज्ञ बने, कृतकृत्य हुए, स्वयं का प्रयोजन सिद्ध कर मुक्ति निलय में चले गये। ऐसा नहीं होता। जो स्वयं को प्रकट हुआ, स्वयं को प्रत्यक्ष हुआ, उसका ज्ञान जगत् के समक्ष रखा। जगत् को मुक्ति मार्ग का उपदेश दिया और योग्य को तार कर स्वयं अक्षय रत्नत्रयी की साधना कर विश्व में उसकी प्रभावना की । आप वस्तुत्व को यथास्थित ( जैसा है वैसा ) कहने वाले हैं। वस्तुतत्त्व उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य (स्थिर) वाली हैं, तो उस वस्तु को वैसे ही बतलाने वाले हैं। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये ज्ञेय - हेय - उपादेय तत्त्व हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, ये चारों निक्षेप चार भेदों से वस्तुमात्र में बांटी हुई हैं। वस्तु 'प्रमाण' और 'नय' ज्ञान से ज्ञेय है । स्यादस्ति इत्यादि सप्तभंगी के स्याद्वाद से वस्तु का प्रत्येक धर्म प्रतिपाद्य है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। ये सभी यथार्थ अधिक और स्पष्ट कहने वाले हैं। मतिज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यव ज्ञान से भी सर्वज्ञ का ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है। इस ज्ञान से परमात्मा ने देखा है कि जीव जड़ पदार्थ में मूर्च्छित बना है, फंसा है, अटका है, इसलिए संसार में भटक रहा है और दुःख में दुःखित हो रहा है। जड़ पदार्थों का आकर्षण टूटेगा, तभी मुक्ति का साधक बनेगा। इसलिए प्रभु ने जड़ रूपी काया के प्रति दया नहीं दिखाई। काया की नहीं, आत्मा की विशुद्धि दिखाई है। कहते हैं यह मानव भव
Jain Education International
36
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org