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________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल का स्वभाव ही ज्ञेय वस्तु को जानने का है। कितना जानते हैं, यह मर्यादा नहीं बांधी जा सकती है। क्योंकि मर्यादा बांधने में नियम यह है कि इतनी ही वस्तु को जानते हैं? केवलज्ञान प्रकाश का स्वभाव यह है कि जिसका नाम ज्ञेय है उसे जानेगा, बाद में भले ही वह अनन्त काल पूर्व का हो या बाद का हो। केवलज्ञानी वर्तमान, भूत, भविष्य सर्व-काल को, समस्त ज्ञेय को प्रत्यक्ष देखते हैं। उनसे कोई प्रसंग अथवा कोई स्थिति छिपी नहीं रहती 'देवेन्द्रों से पूजित' अरिहंत परमात्मा का तीसरा विशेषण है। इससे तीसरा पूजातिशय सूचित होता है। असंख्य देवताओं के स्वामी इन्द्र भी जिनकी पूजा भक्ति करते हैं, वे अरिहन्त भगवान् कैसे होंगे? उन परमात्मा की वे पूजा किस भाव से करते होंगे? यह समझना आवश्यक है। परमात्मा की पूजा दो प्रकार से की जाती है1. लालच या स्वार्थ से, पराधीनता या डर से की गई पूजा अधम पूजा कहलाती है। 2. उपकारी मानकर या गुणों के बहुमान से अथवा गुण प्राप्त करने के लिए जो पूजा करते __हैं, वह उत्तम पूजा कहलाती है। निर्मल अवधिज्ञान के मालिक और पूर्व भव की सुन्दर आराधना वाले इन्द्रदेव पराधीनता से या लालच से कभी प्रभु को नमन नहीं करते हैं। जिनको असंख्य काल तक पौद्गलिक सुखों का पार नहीं, ऐसे इन्द्र 'अरिहन्त परमात्मा' की पूजा दो कारणों से करते हैं- प्रथम अरिहन्त परमात्मा के अनन्तानंत उपकार व गुण के प्रति बहुमान भाव से। दूसरा उनके जैसे (परमात्मा के जैसे) गुणों का स्वामी बनने के लिए। जब इन्द्र इस भावना से पूजा करते हैं तब हमें किस प्रकार व किस आशा से पूजा करनी चाहिए? शास्त्रों में कहा गया है कि इन्द्रदेव परमात्मा की पूजा भौतिक अपेक्षा और ऋद्धि की आशा के बिना विशुद्ध भावों से करते हैं, मानव भव प्राप्त कर प्रभु के जैसे शुद्ध भाव और विशुद्ध चारित्र प्राप्त करने के लिए पूजां करते हैं। वह इन्द्रासन को चिरस्थायी करने के लिए नहीं, फिर से इन्द्र की ऋद्धि मिले, इसलिए भी नहीं, बल्कि जो मानव भव इन्द्रों को वर्तमान में नहीं मिला है उसके लिए इन्द्र तरसते हैं। .....और हमें जो श्रेष्ठ मनुष्य भव मिला है, उससे कैसी उत्तमोत्तम साधना हो सके, उसकी हमें कोई परवाह ही नहीं, भान नहीं! - हम मनुष्य भव पाकर केवल-तुच्छ विषयों को पाने में, कषायों का पारा चढ़ाने में, रस, ऋद्धि और शाता गारव के जाल में बंध जाने में अपना जीवन समाप्त कर रहे हैं। फिर भी देखो, इन्द्र मनुष्य भव के लिए कामना करता है, परमात्मा का पूजक बनता है। 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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