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________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल रखते, किन्तु मोह तो कुत्ते को बकरा दिखाता है। बकरा ही काट रहा है, ऐसा जबरदस्ती मनवाता है। इस प्रकार मोह प्रतिकूलता को अनुकूलता दिखाता है। अहित को हित, हित को अहित दिखाता है। मोह आत्मा का अति नुकसान तो करता ही है, साथ ही नुकसान को लाभ रूप में बतलाता है। मोह को काबू में करोगे तो ही राग वश में होगा। मोह है, तभी तक जीव आनन्द से राग करता है। राग को हितकारी मानता है। आत्मा से मोह यानि मिथ्या मति (असत्य धारण) दूर हो जाने के बाद ही राग उसे दुश्मन दिखाई देगा। मोह बड़ा गुण्डा है, लुटेरा है, ऐसा मानने के बदले उसे परम मित्र मान बैठे हैं, यही हमारी सब से बड़ी भूल मोह नहीं होगा, तभी राग-द्वेष के दूषणों की पहचान होगी, उसे दूषण (दोष) के रूप में मानेगा। पर मोह दूषण को दूषण के रूप में मानने ही नहीं देता, गुण की मुहर छाप लगा देता है। दोष पर गुण का लेबल लगाना यह महा भयंकर है। एक मानव अभिमानी है परन्तु स्वयं दोषित होते हुए भी स्वयं को गुणवान मानता है। मैं समझदार हूँ। मैं कोई मूर्ख नहीं, ठोठ नहीं, इस प्रकार अभिमानी व्यक्ति दोषों के ऊपर गुण का लेबल लगाता है। होगा प्रमादी धर्म के प्रति, आत्महित के प्रति बेपरवाही, और ऊपर से लेबल लगाता है सावधानी का, आत्मजागृति का। गुरू बहुत समझाते हैं, परन्तु अभिमान उसे सत्य वस्तु समझने ही नहीं देता। होगा तो अल्प ज्ञानी पर, अपने ज्ञान को महासागर मानेगा। अहं भाव और कुमति जाएगी तो आत्मा का स्वरूप समझ में आएगा। गुण दोष का विवेक होगा। दोष के ऊपर गुण का लेबल नहीं लगाएगा। पुण्य जागृत होगा तो दोष भी गुण में प्रकट होगा। पर दोष तो दोष ही है। गुण के रूप में दोष का सेवन महा-भयंकर रूप है। समझो! वीतराग के शासन को छोड़कर मन:स्थिति गलत सुख के पीछे, कदाग्रह के पीछे, मोह के द्वारा करा रही जगत् की शाबासी के पीछे, जीव स्वयं अपने हाथों से अपनी आत्मा को गुणों से दूर कर रहा है। आत्मा को दोषों में डुबो रहा है। इसलिए मोह का त्याग करें, परमात्मा की उपासना करें। ___वीतराग के पश्चात् सर्वज्ञ विशेषण ज्ञानातिशय को सूचित करता है। यानि अनन्त ज्ञान, सर्वज्ञ, विश्व के समस्त जीव, पुद्गल इत्यादि अनंतानंत द्रव्यों के अनन्त भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञान वाले; प्रत्येक द्रव्य के बने हुए, बनने वाले व बन रहे सर्व अनन्तानंत भाव पर्यायों (अवस्थाओं) को हाथ में रहे हुए आंवले की तरह प्रत्यक्ष देखने और जानने वाले; वह त्रिकाल के सर्व परमाणु, सर्वपरमाणु के सर्व पर्याय और सर्व जीवों के अनंतानंत भाव, उन सभी को प्रत्यक्ष देखते हैं। इस केवल ज्ञान का प्रकाश जबरदस्त है। अनन्तानंत काल की कोई भी वस्तु अथवा घटना इसमें छुपी नहीं रहती है। प्रत्यक्ष शुद्ध ज्ञान 34 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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