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परमात्मा बनने की कला
आद्य मंगल
चाहिए। इसलिए ऋिद्धि, 32 पत्नियाँ एवं प्यारी माता को छोडकर वीतराग प्रभु महावीर भगवान् के चरण पकड़े और चारित्र ले लिये और संसार सागर से तिर गये। यही प्रशस्त राग तारता है, अप्रशस्त राग मारता है।
राग से भी ज्यादा द्वेष खराब दिखता है, परंतु राग द्वेष से भी ज्यादा भयंकर होता है। राग आत्मा में वस्तु के प्रति आकर्षण भाव पैदा करता है, आत्मा को अपनी ओर खींचता है, जबकि द्वेष आत्मा को वस्तु से दूर रखता है।
इस प्रकार अनेक दृष्टि से 'राग' द्वेष से भी ज्यादा बलशाली और महाअनर्थकारी है। इसी के साथ दूसरे दोष जबरन पोषित हो जाते हैं। इसलिए राग निकालेंगे तो दूसरे दोष अपने आप निकल जाऐंगे। रंगे वह राग है। आत्मा जिससे रंगी जाए, वह राग है। आत्मा को वस्तुओं के आकर्षण के रंग से रंगते हैं, इसलिए वह राग है। 'द्विष्' धातु अर्थात् अपसन्द होना, खराब लगना, इससे द्वेष शब्द बना है। जिन्हें इष्ट पर आकर्षण नहीं होता है, उन्हें अनिष्ट पर अप्रीति-अनादर का भाव भी नहीं होता है, जिनके इष्ट व अनिष्ट के प्रति आदर व खराब भाव चले गये, वे ही वीतराग होते हैं।
वीतराग वीतमोह भी होते हैं। अर्थात्, जिनका मोह भी नष्ट हो गया है। मोह यानि अज्ञान, मिथ्याज्ञान, विपर्यास, मूढ़ता, मिथ्यात्व, दुराग्रह इत्यादि। राग-द्वेष दो बड़े डाकू आत्मा को अपने वश में करके, आत्मा के असली स्थान (मोक्ष) से इसे पराङ्मुख रखते हैं। इन दो डाकुओं के साथ मोह और भयंकर खतरनाक लुटेरा है। 'राग' बिना भौंके फूंककर, चाटकर काटता है, जबकि 'द्वेष' भौंककर काटता है। 'मोह' अंधेरे में रखकर फिर काट लेता है। राग और द्वेष में, काटने वाला कुत्ता है, यह ज्ञात होता है। जबकि मोह में जिसने काटा वह कुत्ता है, यह पता ही नहीं चलता है। मोह कुत्ते को बकरा दिखाता है, सांप को डोरी दिखाता है। जगत् में जो कुछ मूल्यवान है, जैसे जड़ पदार्थ - घर, दुकान, धन, कुटुम्ब, काया, ये ही महत्त्व के हैं, श्रेष्ठ हैं, सर्वस्व हैं, हितकारी हैं, ऐसा मोह बताता है। उसका मन मात्र जड़ पदार्थ को ही मूल्य देता है। उसके आगे आत्मा जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। 'जड़ से जीना और जड़ से ही मरना', यह सभी चाल मोह की है। आत्मा के लिए देह है, यह बात उसे भुला देता है। देह ही वस्तु है, इसलिए इसका ध्यान रखना है, ऐसा ही वर्तन है। आत्मा के लिए देह है, ऐसा नहीं बल्कि देह के लिए ही आत्मा है, ऐसा दिखाता
___ जितना मोह को जीतना कठिन है, उतना मोह से हारना सरल है। मोह नहीं होता, केवल राग-द्वेष ही होते तो काटने वाले कुत्ते को पहचान जाते। कुत्ते पर विश्वास नहीं
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