SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल हाथ में है। अभी तक जीव ने पूर्व भवों में जो अनन्त कर्मों के जाल बांधे हैं, उन्हें तोड़ देने का अपूर्व अवसर है। इसलिए उस जाल को तोड़ ही देना है, बढ़ा नहीं देना है । सर्वज्ञ प्रभु के वचन हृदय को छूने चाहिए। सर्वज्ञ के वचन की श्रद्धा आत्मा के हर प्रदेश पर व्याप्त हो जानी चाहिए। इससे आत्मा भावित हो जानी चाहिए। इसके लिए गलत का बचाव नहीं करना चाहिए । जीव को बचाव करने की आदत अनादि काल से है । यह बचाव दम्भ है, यह बचाव मोह की शिक्षा है। अब तो ज्ञानी की शिक्षा चाहिए। ज्ञानी के वचन हृदय के आरपार उतर जाने चाहिए। उनके वैराग्य के उपदेश रूपी बाणों से राग रूपी हृदय गद्गद् हो जाए। इतना ही नहीं बल्कि सर्वज्ञ के वचन पर अविचल श्रद्धा से ये उपदेश अब आत्मघर में ऐसा रमण करने लग जायें कि घर-बाजार में या मित्रों में, सुख में या दुःख में आत्मा को ही जागृत रखे। बचाव किसी का चला नहीं। जरा भी अरुचि या अच्छा नहीं लगना, यह भी द्वेष है। दुनियाँ में अपने को अनिष्ट लगने वाले विषय, अनिष्ट जीव और अनिष्ट संयोग के प्रति द्वेष जितने समय रहे, उतने समय यह आत्मा को मूढ़ बनाता है । अहो ! क्या शुद्ध आत्मा पर विषयों में रह सकता है ? पर की जंजाल में गिर सकता है ? स्वयं को संभालने का, स्वयं की खराबी मिटाने में क्या कमी रही है? तो समझना चाहिए कि प्रभुवचन की श्रद्धा में कमी रही है, नहीं तो एक समय पर भी चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। दूसरे तो अपने भाग्य के अनुसार ही वर्तन करते हैं। चार विशेषणों से युक्त परमात्मा, तीन भुवन के गुरु, तीन लोक के जीवों के : हितकारी, आप ही एकमात्र शरण हैं, आप ही पिता, माता, भ्राता और त्राता हैं। स्मरण रहे अरिहन्त को अरुहंत, अरहंत भी कहते है । जिनसे कोई रहस्य अज्ञात यानि छिपा नहीं है। जो वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं, वे यथार्थ वस्तु कहने वाले तो हैं ही, फिर दूसरे और विशेषण कहने की जरूरत नहीं थी, फिर भी कहा गया। इसका कारण यही है कि जो : असेत् वस्तु स्वीकार करते हैं, उनके निषेध के लिए ये विशेषण कहे हैं। उनकी मान्यता यह है कि 'वस्तु वाणी का विषय ही नहीं है । शब्द और अर्थ का सम्बन्ध लग ही नहीं सकता है। इसलिए वस्तु को यथार्थ कहने वाले कोई हो ही नहीं सकते हैं।' यदि वस्तु और शब्द का सम्बन्ध ही नहीं हो तो किसी संकेत- शब्द से वही वस्तु कैसे जानी जाती है ? पूर्वघर महर्षि भी यथास्थित वस्तुवादी हैं, पर उनको यहाँ नहीं लेना है; इसलिए वीतराग आदि विशेषण लिया गया है । कह सकते हैं कि साथ-साथ इन सभी की भी स्तुति हो जाए, पूज्यों की स्तुति करना अच्छा ही है ? परन्तु विवेक की बात यह है कि सर्वत्र गुणों Jain Education International 37 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy