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________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल की पराकाष्ठा जिसमें हो, वही मुख्यरूप से स्तवन करने योग्य हैं। यहाँ उत्कृष्ट गुणों की स्तुति होती है। इन गुणों के अन्तर्गत समान अवान्तर गुणों की स्तुति तो आ ही जाती है। मात्र न्याय बताने के लिए ही दूसरे महर्षियों को नहीं लिया गया है, साथ ही उन्हें बाद में रखने के लिए भी नहीं लिया गया है, यहाँ यह भी समझना है। ' त्रैलोक्य गुरु' का विशेषण सर्व विशेषणों के अर्थ का उपसंहार करता है । 1. तीन लोक में रहने वाले जीवों को तत्त्व-भूत पदार्थ कहने वाले हैं। 2. तीन लोक के जीवों से भी अधिक गुण, प्रभाव और उपकार वाले हैं; एवं 3. तीनों लोक में पूज्य हैं, इसलिए प्रभु तीन लोक के गुरु कहलाते हैं। उनको नमस्कार हो। (भगवंत शब्द में 'भग' शब्द से समग्र ऐश्वर्य वैभव आदि संपत्ति लेना है ।) इस प्रकार परमात्मा को पाँच विशेषणों से नमस्कार किया गया। वीतराग, सर्वज्ञ, देवेन्द्रों से पूजित, यथास्थित वस्तुवादी और तीन लोक के गुरु। कर्मों का क्षय भी इसी क्रम से किया जाता है। परमात्मा ने सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का नाश किया और वीतरागी कहलाए। फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म अर्थात् इन तीन घाती कर्मों का नाश किया, तब सर्वज्ञ कहलाए । चार घाती कर्म नष्ट होते ही केवलज्ञान प्रकट होता है। तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय प्रारम्भ हो जाता है । देवतागण अपने-अपने कर्तव्य पूरे करने के लिए मनुष्य लोक में आते हैं । परमात्मा की सेवा - भक्ति करके आनन्दित होते हैं। इससे परमात्मा देवेन्द्रों से पूजित कहलाते हैं। फिर देवताओं द्वारा समवसरण की रचना होती है। प्रभु उसी स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान होकर देशना फरमाते हैं। जो वस्तु (पदार्थ) जिस प्रकार की है, उसे उसी प्रकार से फरमाते हैं, इसलिए यथास्थित वस्तुवादी प्रभु कहलाते हैं। तीन लोक के जीवों को धर्म का उपदेश देने से आप त्रैलोक्य गुरु कहलाए। महान् चार अतिशयों से युक्त परमात्मा हमारे लिए वन्दनीय, पूजनीय हैं, इसलिए हम उन्हें कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं। Jain Education International 38 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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