________________
परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना जिनाज्ञा का, इत्यादि के सुकृत्यों का आराधक बनूं। जगत् के सभी जीवों के प्रति
औचित्यभरी प्रवृत्ति वाला बनूं। मैं इस प्रकार सुकृत की इच्छा करता हूँ, सुकृत की इच्छा करता हूँ, सुकृत की इच्छा करता हूँ।
तीन बार कहने का तात्पर्य यह है कि1. यह मन-वचन-काय के त्रिकरण योग से सुकृत करने की इच्छा को सूचित करता
2. यह भूत-वर्तमान और भविष्य, ये तीन काल के सुकृत की इच्छा को सूचित करता
___3. यह सुकृत अर्थात् अनुमोदना भी स्वयं करना, करवाना व अनुमोदन करना, ये तीन रूप से इच्छा होना, यह सूचित करता है।
इस सुकृत का आसेवन ही उत्तम क्रिया है। दूसरे जीवों का सुकृत अनुमोदन भी वैसा ही महाफलदायी है, वह विशेष रूप से रथकार गृहस्थ, बलदेव मुनि और तिर्यंच मृग के कथानक से विचार करने योग्य है।
रथकार संयमी की भक्ति करने हेतु दान द्वारा संयम का पालन करवा रहा है, और हिरणी उस संयम तथा दान सुकृत की अनुमोदना करती है। इसमें हिरणी मुनि के संयम सुकृत की और रथकार के दान सुकृत की कैसी अद्भुत अनुमोदना करती है कि यहाँ से उन दोनों के साथ हिरणी पाँचवें ब्रह्मलोक में उत्पन्न होती है। यहाँ मृग को कहाँ से ऐसे उत्तम संयम और दान के फल जैसा फल प्राप्त हुआ? कहते हैं कि यह अनुमोदना सुकृत को करने या करवाने की चुराई हुई अनुमोदना नहीं थी; बल्कि स्वयं के द्वारा प्रणिधान पूर्वक की गई थी। शास्त्र में कथित करण, करावण व अनुमोदन का समान फल इस दृष्टान्त में सटीक सिद्ध हो रहा है।
सूत्र स्वाध्याय की महिमा इस तरह उत्कृष्ट भावों के साथ जो इन सूत्रों का अच्छी तरह से पाठ करता है, सुनता है, चिन्तन करता है, उन आत्माओं पर भूतकाल में लगे अशुभ कर्मों के बन्धन ढीले पड़ते हैं।
उन कर्मों के पुद्गल गिरने लगते हैं, उन कर्मों की दीर्घ स्थिति का भी नाश होने लगता है। अरे! उन कर्मों के अनुबन्धों का भी सर्वथा नाश हो जाता है।
212 For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org