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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना
मध्यम मंगल हे अचिन्त्य शक्ति को धारण करने वाले अरिहंत भगवन्त!
आप वीतराग हैं। आप सर्वज्ञ हैं। आप स्वयं परम कल्याण स्वरूप हैं। सर्व जीवों के परम कल्याण का कारण भी आप ही हैं।
हे मेरे नाथ! आप इतने सामर्थ्य वाले मुझे मिलने के बाद भी मेरी कथनी के बारे में आपसे आप को क्या कहूँ? मैं सचमुच कितना मूर्ख हूँ! कितना पापी हूँ! अनादिकाल से मोह के संस्कारों से कितना ग्रसित हूँ, कि मेरे हित और अहित को भी नहीं जान सका! . हे परम पिता परमात्मा!
. मैं नमभाव से चाहता हूँ कि आपके अंचिन्त्य प्रभाव से मैं मेरे हित और अहित का जानकार बनूं। अहित से विराम पाऊं, हित प्रवृत्ति करूं। सब जीवों के साथ उचित व्यवहार करूं और सच्चा आराधक बनूं। कारण कि ऐसा करने में ही मेरा हित है।
हे विश्ववालेश्वर! - इस प्रकार सुकृतं की अनुमोदना करने से अब मैं भी सुकृत की इच्छा करता हूँ! सुकृत की इच्छा करता हूँ! सुकृत की इच्छा करता हूँ!
मैं ऐसे विशिष्ट गुण और विशिष्ट उपकार करने वाले अरिहंत आदि भगवन्तों को उनके सम्यक् स्वरूप में नहीं स्वीकार करता हूँ। सुकृत से हृदय विदारण की अभिलाषा नहीं करता हूँ, मैं मूढ़ हूँ, अबूझ-अज्ञानी हूँ, क्योंकि मैं पापी जीव हूँ। अज्ञान और मोह के अनेक प्रकार के पापों ने मुझे बहुत घेर रखा है। मेरा संसार अनादिकाल से चलता आ रहा होने से अनादिकाल से अभ्यस्त ऐसे मोह को लेकर मेरी आत्मा के प्रदेश-प्रदेश पर जैसे लहसुन की गंध से वस्त्र का तन्तु-तन्तु वासित हो जाता है, वैसे मेरी आत्मायी राग-द्वेष और अज्ञानता से वासित हो गई हैं। मै राग-द्वेष एवं मोह के नशे से उन्मन्त बना हुआ हूँ, हे प्रभो! तत्त्व से अनभिज्ञ हूँ, मेरी आत्मा के ही वास्तविक हित और अहित से निर्बोध हूँ। इससे ज्यादा मेरी क्या ताकत कि सुकृत की वास्तविक अनुमोदना मैं कर सकूँ? परन्तु मैं अभिलाषा करता हूँ कि अरिहंत देवाधिदेव की सच्ची शरण-स्वीकार करके उनके प्रभाव से मैं हिताहित का जानकार बनूं, अहितकारी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और अशुभ योग की प्रवृत्ति से निवृत बनूं तथा हितकारी सम्यग्दर्शन ज्ञान एवं चारित्र मार्ग में प्रवर्तमान होऊँ प्रवृत्ति से मैं मोक्षमार्ग का, मोक्षमार्ग के दाता देवाधिदेव का, सद्गुरुजनों का,
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