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________________ परमात्मा बनने की कला तक ही बाधा और विषमता है । निर्बाध स्थिति के लिए निष्कर्म स्थिति चाहिए। सभी लोगों अच्छा तो कर्म से ही आकुल व्याकुल होकर कर्मों का अन्त से आकुल-व्याकुल होने से करने का प्रयत्न करूँ। केवलज्ञान दर्शन से युक्त उत्तम केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान) और केवलदर्शन को धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। क्योंकि ज्ञान-दर्शन तो आत्मा का स्वभाव ही है । इसलिए तो वे चेतन हैं अन्यथा इनका चैतन्य क्या है? यह ज्ञान अर्थात् ज्ञेय मात्र को जानते हैं। तीन काल के समस्त भाव ज्ञेय हैं तो फिर तद्न आवरण रहित बने हुए ज्ञान जगत् के सभी भावों को कैसे नहीं जानेगा? जगत् के सभी भावों को तटस्थ रूप से ( राग-द्वेष के बिना) देखना व जानने की कैसी सुन्दर रमणता। मुझे भी कब शुद्ध ज्ञानदशा की प्राप्ति होगी । . सिद्धपुर के वासी चार शरण मिथ्या मतों की मान्यता की तरह यह जगत्-व्यापी नहीं हैं, परन्तु लोक के अन्त में सिद्धशिला के ऊपर निवृत्ति नगरी के निवासी बने हुए हैं। अनुपम सुख सम्पन्न सिद्ध भगवंत अनुपम स्वाधीन सुख से परिपूर्ण हैं। कोई विषय, कोई काल, कोई संयोग या कोई भी परिस्थिति की इस अनन्तसुख को अपेक्षा नहीं हैं, ऐसे असांयोगिक, नित्य, सहज, आनन्द के भोक्ता श्री सिद्ध प्रभु है । अहो ! हमारे सापेक्ष सुख की तुच्छता, क्षणिकता, दुःखपरिणामितादि कहाँ है ?, और कहाँ ये निरपेक्ष अनन्त आनन्द की बात ? अनन्त आनन्द पाने के लिए हमें अनन्त आनन्दमय श्री सिद्ध प्रभु की शरण है। करकंडु राजा ने पहले पुष्ट शरीर वाले बैल को, बाद में जीर्ण शरीर वाले बैल को देखकर विचार किया कि, 'अरे! बाद में हमारी भी यही स्थिति बनने वाली है। संसार का सुख कहाँ नित्य रहने वाला है? जवानी, सम्पत्ति और आरोग्य के सापेक्ष ये सुख क्या पड़े रहने हैं? क्योंकि जवानी इत्यादि नश्वर होंगे तत्सापेक्ष सुख भी नश्वर है। सच्चा सुख तो सिद्धावस्था में है। इसके लिए उद्यम नहीं करूँ ?' ऐसा विचार करके उन्होंने सिद्ध शरण रूप चारित्र अंगिकार किया। प्रवृत्ति मात्र का आयोजन इष्ट की सिद्धि है, और जीव का इष्ट एकांत सुख है। सर्वथा कृतकृत्य हैं सिद्ध भगवंत् सर्व प्रकार से कृतकृत्य हैं। सिद्ध प्रयोजन वाले बने हैं। अब इनको Jain Education International For Persor 110 Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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