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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण कोई प्रयोजन शेष नहीं है। इसलिए कोई भी प्रवृत्ति साधने की जरूरत नहीं है। ऐसे सिद्ध भगवन्त श्रेष्ठ मोक्षतत्त्व रूप हैं। __ जगत् में तत्त्व दो हैं- जड़ और जीवा जड़ से भी जीव तत्त्व उत्तम है। क्योंकि इस विश्व में कोई भी जड़ कभी भी शाश्वत् शुद्ध बन नहीं सकता है, जबकि जीव एकदम शुद्ध बन सकता है, जिससे पुनः अशुद्ध कभी भी नहीं होगा। दूसरी बात, जीव तत्त्व में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त जीव दूसरे जीवों से ज्यादा श्रेष्ठ हैं, क्योंकि ये सर्वथा कर्म-कलंक से रहित हैं। तीसरी बात तत्त्व में अंतिम साध्य मोक्ष तत्त्व है। इन्हें साधने के पश्चात् कुछ भी साधने की जरूरत नहीं है। यही मोक्ष सिद्ध स्वरूप है। इसलिए ही सिद्ध भगवन्त परम तत्त्व रूप हैं। इनसे ऊँचा या इनके समान दूसरा कोई तत्त्व नहीं है। ये ऐसे सम्पूर्ण कृतार्थ होते हैं कि इनको मोक्ष मिलने के पश्चात् दूसरा कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता है। अब इनको शरीर नहीं, भूख नहीं, प्यास नहीं, खुजाल नहीं, वेदना नहीं, इच्छा नहीं, अज्ञान नहीं; अब क्या करना बाकी रहा? इसलिए मुझे तो सिद्ध भगवान की ही शरण है, इन्हीं की सेवा करने योग्य है, इनका ही ध्यान करने योग्य है, प्राप्त करने योग्य है, स्तुति करने योग्य है। जिन्होंने अपने प्रबल पुरूषार्थ के द्वारा अपने सभी कर्मों को क्षय कर दिया एवं पुनः इस धरती पर जिनका आवागमन नहीं, जन्म-जरा-मरण रूपी तीन भयंकर रोग जिनके नष्ट हो गए, ऐसे सिद्ध भगवन्तों को हमारा कोटि-कोटि वन्दन। - कर्म आत्मा पर लगा हुआ कलंक है, इसलिए सासांरिक आत्मा कर्मों से कलंकित है। सिद्ध भगवन्तों के कर्म नहीं हैं, इसलिए सिद्ध भगवन्त अकलंकित होते हैं। अरिहंत भगवन्त के घाती कर्म चले गए और अघाती कर्म भी जाने वाले हैं, इसलिए अरिहंत परमात्मा भी अकंलकित ही कहलाते हैं। जन्म लेते ही यह सिद्ध हो जाता है कि हमारे कर्म बाकी हैं, कर्म हैं तभी जन्म होता है, दुःखों को भोगना पड़ता है। इस दुनियाँ में प्राणी अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी है। चाहे वह रोग हो या बुढ़ापा हो या कुटुम्ब परिवार की चिन्ता हो, इनसे सम्पूर्ण दुनियाँ के जीव दुःखी बने हुए हैं। मनुष्य जन्म प्राप्त करने के पश्चात् उसका एक ही लक्ष्य निश्चित हो जाना चाहिए की मुझे इन कर्मों को क्षय करना है। आराधना, साधना के द्वारा अशुभ कर्म दूर करना है। नये शुभ कर्मों के बन्ध पश्चात् शुद्धता को बढ़ाते हुए मोक्ष को प्राप्त करना है। जहाँ कर्म ही नहीं, वहाँ पीड़ा किस प्रकार की अर्थात् जिनकी सर्व-पीड़ा समाप्त हो चुकी है, वैसे सिद्धों का स्वरूप कैसा होगा? वे केवल ज्ञान व केवल दर्शन से युक्त हैं। मात्र 111 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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