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________________ परमात्मा बनने की कला क्लेश कलह और कषायों से भरे इस संसार के अंधेरे में भटकता मैं सच्चे भावों आपकी शरण में आता हूँ! प्रशांत और गम्भीर आशय क्षमा नम्रता आदि गुणों को धारण करने वाले होने से इनके चित्त के परिणाम प्रशान्त हैं, उछलते नहीं हैं। उनमें भी क्षमा गुण को पहले लिया गया है। इसलिए ये क्षमाश्रमण कहलाते हैं, तुच्छ और क्षुद्र नहीं । तुच्छ स्वभाव, तुच्छ इच्छा व सोच इनकी नहीं है। सच्चे सुख का कितना सुन्दर साधन है । पामर प्राणी आवेश के वश होकर क्रोधी बनकर पहले स्वयं दुःखी होता है, साथ ही दूसरे को भी दुःखी करता है, और परिणाम से अनेक दुःखों को पुनः आमन्त्रण देता है। क्षमाशील मनुष्य आवेश को नष्टकर शान्त चित्त वाला बना, न कभी आन्तरिक रागादि क्लेश का भोग करने वाला बना हुआ, न कभी आन्तरिक रागादि क्लेश का भोग करने वाला बनता है और न ही दूसरों को बनाने वाला बनता है। वह तो स्व पर के कर्म के विचित्र नाटक को निहारता हुआ आपत्ति में भी सच्ची प्रसन्नता का अनुभव करता है। इसी प्रकार अवसर आने पर दूसरों को भी धार्मिक और प्रशांत बनाता है। यशोधर चारित्र में एक प्रसंग आता है चार शरण सुदत्त मुनीश्वर नगर के बाहर ध्यान में खड़े हैं। राजा शिकार के लिए निकला हुआ है, उसी जंगल में मुनि को देखकर अपशकुन मानकर उनके ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़ देता है । परन्तु कुत्ते प्रशांत मुनि के नजदीक पहुँचते ही उनके तप संयम के प्रभाव से आकर्षित होकर, शांत होकर वहीं खड़े रह जाते हैं। राजा खूब क्षोभ को प्राप्त करता है। वहाँ उपस्थित एक श्रावक द्वारा बतलाने पर समझ में आया कि ये तो पहले एक बड़े राजकुमार थे, अब महात्यागी साधु तपस्वी बने हुए हैं। जानकारी प्राप्त होते ही राजा को पश्चात्ताप होता है कि मैं एक कुत्ते से भी गया गुजरा हूँ। राजा, मुनि के पास जाकर क्षमा मांगते हैं । प्रशान्त मुनीश्वर थोड़ा-सा भी क्रोध अथवा अरूचि दिखाए बिना आत्म हितोपदेश, धर्मोपदेश देकर राजा को महान् धर्मात्मा बनाते हैं। मुनि इसी प्रकार गंभीर आशय वाले होते हैं। वे चित्त की गंभीरता को लेकर • अकार्य होने से बचाकर मृदुभाव को टिकाकर रखते हैं। वहाँ अहंभाव और गर्व के आवेग कहाँ से खड़े हो सकते हैं? जगत् की कर्मजनित विचित्र घटनाएं सागर सम गंभीर चित्त को नहीं हिला सकती हैं, विस्मययुक्त नहीं बना सकती हैं। तुच्छ विचारादि में कमजोर नहीं बना सकती हैं । किन्तु, इससे विपरीत ये घटनाएँ तो ऐसे गम्भीर चित्त में शांतरूप में समाकर तात्त्विक विचारों को गति देती हैं और आत्मा को ज्यादा ओजस्वी तेजस्वी बनाती Jain Education International 113 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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