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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण हैं। जिससे आत्मा में कषाय की इच्छा परिणति या विषय की तुच्छ विचारणा उत्पन्न नहीं होती है। सर्व पापवृत्तियों से दूर 'साधु भगवन्त सावद्य योग से विराम प्राप्त हुए हैं, निवृत्त हो गये हैं। सावद्य अर्थात् पाप, पाप वाली मन-वचन काया की प्रवृत्ति। यह सावद्य व्यापार करने रूप, करवाने रूप और कोई कार्य करते हों तो उसमें अनुमति अनुमोदना रूप; ऐसे तीन प्रकार के होते हैं। सावद्य व्यापार सांसारिक कथा करने वाला है; घर, कुटुम्ब और आरम्भ परिग्रह, एक रामायण रूप है। इससे साधु भगवन्त सर्वथा निवृत्त हैं, अर्थात् पट्काय जीव के संहारमय अथवा परिग्रहादि का मोह मूढ़तामय हिंसादि पाप व्यापार अब न ही तो वे स्वयं करते हैं, न ही दूसरों के से करवाते हैं। इतना ही नहीं, दूसरे करते हों तो उसमें खुश होना या सम्मति देना भी पसन्द नहीं करते हैं। उनके पास से अपने सावद्य कार्य में सम्मति की आशा भी नहीं रख सकते हैं तो हमें उनके द्वारा करवाने की बात ही कहाँ आती है। यहाँ एक दृष्टांत का उल्लेख किया जा रहा है ये आचार्य भगवंत नगर के बाहर पधार चुके थे। कुमारपाल राजा के मंत्री हवेली में पधारने के लिए आचार्य श्री से विनती करते हैं। आचार्य महाराज के आगमन के पश्चात् मंत्रीश्वर कहते हैं, 'महाराज साहेब जी ! यह हवेली अभी नई तैयार की गई है।' आचार्य श्री मौन रहे । पुनः मंत्री जी ने पूछा- 'क्यों, आपने कुछ कहा नहीं ?' साथ में स्थित अन्य मुनिजन मंत्री को जागृत करते हुए कहते हैं- 'मंत्री जी ! तुमको पाप के सावद्य कार्य में साधु भगवन्तों की सम्मति चाहिए, पर नहीं मिलेगी। सम्मति तो धर्मकार्य में ही मिलेगी । ' मंत्री जी तुरन्त समझ गये और कहते हैं- 'लीजिए आज से यह हवेली पौषधशाला के लिए सौंपता हूँ। ' अब आचार्य श्री कहते हैं- 'इसमें धर्म-आराधना - साधना सुन्दर रूप से प्रवर्तमान होगी।' आचार्यदेव ने सम्मति प्रदान की, पर कहाँ ? धर्म कार्य में सम्मति दी। इस प्रकार मन-वचन-काया के द्वारा होने वाले पापों से सर्वथा निवृत होकर साधु शुभ प्रवृत्ति का पालन करने वाले होते हैं। इसलिए कहा गया है- 'पंचविहायार जाणगा ! ' Jain Education International 114 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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